संगीत में लय कितने प्रकार की होती हैं ?

संगीत में लय के प्रकार

संगीत में स्वर का लय में निबद्ध होना अनिवार्य है। लय भी सप्तकों के समान तीन स्तरों से गुजरती है, सामान्य लय को मध्य लय कहा जाता है। सामान्य से तेज लय को द्रुत लय एवं सामान्य से कम लय को विलिम्बत लय कहा जाता है।

संगीत में लय के प्रकार

संगीत में लय चार प्रकार की मानी जाती है - (1) विलम्बित लय (2) मध्य लय (3) द्रुत लय (4) अतिद्रुत लय ।

1. विलम्बित लय की परिभाषा - विलम्बित शब्द विलम्ब का विश्लेषण है, जिसका अर्थ है - देर से। संगीत में गायन, वादन तथा नृत्य की क्रिया को अपेक्षाकृत धीमी या मन्द गति से करने को विलम्बित लय कहा जाता है। 

2. मध्य लय की परिभाषा - संगीतशास्त्र के अनुसार गायन, वादन तथा नृत्य की क्रिया में विलम्बित लय तथा द्रुत लय के बीच की लय को अर्थात् विलम्बित लय को कायम रखकर बीच की लय में गाकर बतलाने की क्रिया को कलाकार मध्य लय के नाम से पुकारते है। इस मध्य लय में गायन, वादन और नृत्य के कलाकार प्रेमपूर्वक तथा भयरहित होकर गाते बजाते और नृत्य करते हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि संसार का प्रत्येक कार्य मध्य लय से हीं संचालित होता तथा चलता है।

3. द्रुत लय की परिभाषा - मध्य लय से दुगुनी अर्थात् चार अक्षरों के उच्चाख काल को एक मात्रा मानकर जो लय व्यवहार में लायी जाती है उसे द्रुत लय कहते है। गायन में छोटे ख्याल से गराने तक इसका व्यवहार वादन तथा नृत्थ में कलाकार अपनी तैयारी के लिए विलम्बित लय को कायम रखकर विलम्बित लय तथा मध्य लय को ध्यान में रखते हुए तीसरी तर्ज में लय में बजाकर बतलाने की क्रिया को द्रुत लय कहते है।

4. अतिद्रुत लय की परिभाषा - द्रुत लय से दुगुनी गति अर्थात् दो अक्षरों के उच्चारण काल को एक मात्रा मानकर जो लय व्यवहार में ली जाए उसे अतिद्रुत लय कहते है। 

संगीत शास्त्रकारों के अनुसार गायन, वादन एवं नृत्य में कलाकार अपने विलरूण व्यक्तित्व से समाज को प्रभावित करने के लिए अति मानवीय लय शक्ति का प्रयोग करते है। इसे हीं अति द्रुत लय कहते है। 

(i) मात्रा:- मात्रा को परिभाषित बाधांे में लगने वाले समय से करते हैं। व्यंजनों के साथ स्वरा ें को मिलाते समय वर्ण के जो चिह्न लगाते है उन्हें मात्रा या वर्ण के चिह्न कहते है। मात्रा शब्द के अनेक अर्थ है। 

(ii) आवर्तन:- आवर्तन शब्द से आशय पुनः पुनः याद करना, दुहराना, परिक्रमा करना इत्यादि। आवर्तन को सनातन धर्म में परिक्रमा कहते है अर्थात् जिस स्थान से चले उसी स्थान पर वापस आना आवर्तन या परिक्रमा है। वैसे हीं संगीतशास्त्र के अनुसार गायन, वादन तथा नृत्य में सम से सम तक किसी भी विषय को लेकर उसी की पुनरावृति करना और एक विषय को अनेक प्रकार से प्रकट करते हुए कई बार घुमकर फिर समं आया।

(iii) सम:- ‘स’ वर्ण हिन्दी वर्णमाला का बतीसवाॅ व्यंजन है। इसका उच्चारण स्थान दन्त है इसलिए यह दन्ती “स” कहा जाता है। इसी ‘स’ व्यंजन वर्ण से समं की उत्पत्ति हुई है। ‘स’ एक अग्यय वर्ण है। जिसका अर्थ व्यवहार में समानता संगति को उत्कृष्टता, श्रेष्ठता, उत्तमता निरन्तरता आदि सूचित करने के लिए शब्द के आरम्भ में उपयोग होता है। 

उदाहरण के लिए संयोग, संताप, सन्तुष्ठ, संयम, सरस्वती स्वर आदि। कभी-कभी इसे जोड़ने पर भी मूल शब्द का अर्थ ज्यों का त्यों बना रहता है। स्व का मतलब होता है दूसरों पर निर्भर नहीं अर्थात् अन्य प्रमाण की आवश्यकता नही  पड़ती है। संगीतशास्त्र में सम से आराम एक हीं संगीत लय को बनाए रखना। 
  1. अचल स्वर - जो स्वर अपने स्थान से स्थूल रूप से ऊँचे या नीचे नहीं होते।
  2. अनाहृत नाद - उपासना द्वारा अनुभव में आनेवाला अतिसूक्ष्म स्वय भ ू नाद। 
  3. अनुवादीरूर - वादी और संवादी के व्यक्तित्व। 
  4. अलंकार - सौन्दर्य उत्पन्न करने वाला विशिष्ट स्वर या वर्ण समुदाय। 
  5. अवनह - चमड़े से मढा हुआ। 
  6. आरोह - स्वरों का मन्द सप्तक नीचे की और उतार अवरोही अवरोहन। 
  7. आड़ या आड़ी लय - मध्य लय से डेढ गुनी। 
  8. आयोग - ध्रुवयद, धमार, गान का अंतिम भाग। 
  9. अलाप - राग स्वरों का विस्तार।

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