मुता विवाह किसे कहते हैं ?

मुसलमानों में भी अस्थाई प्रकार के विवाह का प्रचलन है जिसे मुता विवाह कहते हैं। यह विवाह स्त्री व पुरुष के आपसी समझौते से होता है और इसमें कोई भी रिश्तेदार हस्तक्षेप नहीं करता। पुरुष को एक मुस्लिम या यहूदी या ईसाई स्त्री से मुता विवाह के संविदा का अधिकार है, किन्तु एक स्त्री एक गैर-मुस्लिम से मुता संविदा नहीं कर सकती है। मुता विवाह से प्राप्त पत्नी को सिघा (Sigha) नाम से जाना जाता है। 

आजकल भारत और पाकिस्तान में इस विवाह का प्रचलन नहीं है। यह केवल अरब देशों में ही प्रचलित है। इसके अतिरिक्त यह विवाह शिया लोगों में ही वैध् माना जाता है और सुन्नियों में नहीं। 

इस प्रकार के विवाह की वैधता के लिए दो बातें आवश्यक हैं (i) सहवास की अवधि पहले ही निश्चित होनी चाहिए (ii) मेहर की राशि भी पहले ही निश्चित होनी चाहिए। यदि अवधि निश्चित नहीं है और मेहर निश्चित है तो विवाह स्थाई माना जाता है, किन्तु यदि अवधि निश्चित है और मेहर निश्चित नहीं है तो विवाह अवैध् माना जाता है। यदि अवधि निश्चित है और सहवास अवधि समाप्ति के बाद भी चलता रहता है तो यह मान लिया जाता है कि अवधि बढ़ा दी गई है, और इस बीच उत्पन्न हुई सन्तान भी वैध् मानी जाती है, और स्त्री के सगे रिश्तेदारों को उन्हें स्वीकार करना पड़ता है। परन्तु मुता विवाह स्त्री-पुरुष के बीच विरासत के अधिकार प्रदान नहीं करता है। 

सिघा पत्नी भरण-पोषण की राशि का दावा नहीं कर सकती है और न ही उसे अपने पति की सम्पत्ति से विरासत में ही कुछ हिस्सा मिलेगा। लेकिन सन्तान वैध होने के कारण, पिता की सम्पत्ति में से अपना हिस्सा पाने की अधिकारी है। मुता विवाह में तलाक भी मान्य नहीं है, किन्तु पति अपनी पत्नि को बचे हुए समय की भेट देकर समझौते को समाप्त कर सकता है। यदि विवाह उपभक्त नहीं हुआ है तो पूर्व निर्धरित मेहर का आधा भाग ही देय होता है किन्तु विवाह के उपभक्ति पर मेहर की पूर्ण राशि देय होती है। 

मुस्लिम कानून में मुता विवाह को हेय (condemned) माना जाता है। यह न केवल इसलिए कि विवाह अस्थाई होता है और वली (Wali) या दो साक्षियों की सहमति के बिना व्यक्तिगत रूप से किया गया समझौता होता है, बल्कि इसलिए भी कि स्त्री ने अपना घर नहीं छोड़ा तथा उसके रिश्तेदारों ने उस पर अपना अधिकार नहीं छोड़ा और सन्तान पिता की न हो सकी, और उसके वंश से सम्बन्ध्ति न हो सकी। अतः इस विवाह के प्रति विरोधी रुख इसलिए अपनाया गया क्योंकि इस विवाह में पायी जाने वाली मातृ स्थानीयता व मातृवंशीयता इस्लाम द्वारा स्वीकृत पितृस्थानीयता व पितृवंशीयता से संघर्ष में आती थी। 

इस्लाम भी विवाह के स्थायित्व को मानता है और कोई भी बात जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अस्थायित्व को बढ़ावा देती हो उसको मान्यता प्रदान नहीं की गई।

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