विज्ञापन का इतिहास

आदिकाल से ही भारत में विभिन्न अवसरों पर विज्ञापन अपने किसी न किसी स्वरूप में उपस्थित रहा है। आध्यात्मिक से लेकर पौराणिक कहानियों में अनेक घटनाओं का उल्लेख मिलता है जिससे बड़े आधार पर ‘विज्ञापन’ के लिए तत्कालीन प्रचार-माध्यमों का प्रयोग किया गया था। ढोल-नगाड़ों के साथ मुनादी करवाना या डुगडुगी बजाकर राजाओं के निर्देशों के प्रचार का उल्लेख अनेक जगहों पर मिलता है। महाभारत व रामायण काल में स्वयंवर व यज्ञों आदि के लिए पूर्व-प्रचार के विभिन्न उल्लेख मिलते हैं। मल्ल युद्ध, खेलकूद, तमाशा नौटंकी आदि लोककार्यक्रमों में आमंत्रण के लिए भी प्रचार साधनों का उपयोग किया जाता रहा है।


प्रचार माध्यम के रूप में प्राचीन मंदिर, स्मारक, महल, पिरामिड आदि सभी आज भी उनके निर्माताओं के जीवित विज्ञापन हैं जो उनकी उदारता, दयालुता, कलाप्रियता तथा महानता की कहानी आज भी कहते हैं। उच्चरित शब्दों के रूप में सर्वप्रथम विज्ञापन यूनान के आरम्भिक प्रजातंत्र के चुनावों में प्रयुक्त हुए है उस समय के उम्मीदवार अपने विज्ञापन-कर्ताओं को भीड़ में घुसाकर परस्पर बातचीत करके लोगों को अपने पक्ष में प्रभावित करने का प्रयत्न करते थे। लिखित विज्ञापन के रूप में लंदन के ब्रिटिश संग्रहालय में मिश्र का विज्ञापन द्रष्टव्य है, जिसमें एक भागे हुए गुलाम को लाने की बात कही ग है। विज्ञापन का एक अन्य रूप ‘नगर उद्घोषक’ के रूप में मिलता है, जिसमें ये लोग व्यापारी की ओर से घोषणा करते थे कि क्या चीज कहां सुलभ है।

भारत की पूर्व महान सभ्यताओं हडप्पा और मोहनजोदड़ो के उत्खनन में मिले अवशेषों में भी जो मोहरें व मुद्राएं मिली हैं वे आधुनिक ‘लोगो’ व ‘ट्रेडमार्क’ का ही प्रारम्भिक रूप है विज्ञापनों में वर्तमान में जिस कला व प्रस्तुति के दर्शन होते हैं वही कला व प्रस्तुति तत्कालीन अवशेषों में भी दिखा पड़ती है। समय के आधारभूत तथ्यों के साथ कलाएं व जनसंचार माध्यम धीरे-धीरे परिश्कृत होकर समाज में अपना स्थान बनाते रहे। आधुनिक विज्ञापन कला का सूत्रपात भारत में प्रेस के आगमन के साथ-साथ हुआ। यह प्रेस पुर्तगालियों द्वारा सन् 1556 में गोवा में लगा ग थी। 1877 में ‘हिकी’ ने कलकता में अपने प्रेस की बुनियाद रखी। 29 जनवरी, 1780 को उसने साप्ताहिक समाचार पत्र प्रारम्भ किया। इसमें ‘विज्ञापन’ भी प्रकाशित किए गए। 1784 से लेकर 19 वीं सदी के प्रारम्भ के वर्षो तक इनमें सामाजिक सरोकारों के विज्ञापन प्रकाशित होते थे। ये विज्ञापन न केवल उपभोक्ता वस्तुओं को प्रभावित करते थे बल्कि देश की तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक स्थिति को भी परिलक्षित करते थे। उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में छपने वाले विज्ञापनों में स्वदेशी, भारत की भूमि के प्रति प्रेम व संस्कृति सम्बन्धी अवयव होते थे। ‘भारत का उत्तर’ ‘स्वदेशी वस्तुएं खरीदें’ जैसी उक्तियां इन विज्ञापनों की बेस लाइन थीं।

1906 में धारीवाल मिल ने ऊनी वस्त्रों के एक विज्ञापन में इंगित किया था कि ‘भारत के लिए भारत में बना’। इसी प्रकार अनेक विज्ञापनों में ‘स्वदेशी’ का उपयोग किया गया। बन्देमातरम् और बंकिमचन्द्र चटर्जी के चित्र भी क विज्ञापनों के अंग बने। तब तक के विज्ञापनों में जो चित्र प्रकाशित होते थे वे अंग्रेजी महिला- पुरुषों के होते थे। 1900 में पहली बार जब भारतीय मॉडलों का प्रवेश हुआ तब सर्वप्रथम पुरुषों का ही आगमन हुआ। महाराजाओं की तस्वीरें भी प्राय: छपती थीं। मॉडल के रूप में भारतीय महिलाओं व लड़कियों के चित्र स्वतंत्रता के पश्चात के विज्ञापनों में ही देखने को मिलते है 1896 में मूक फिल्मों के युग की शुरूआत के बाद विज्ञापनों में रोमांस, सैक्स आदि का समावेश होने लगा। 1931 में भारतीय फिल्म ‘आलमआरा’ में विज्ञापन प्रकाशित हुए। 1920 में कुछ विदेशी कम्पनियों ने अपने विज्ञापन कार्यालय भारत में खोले। तभी से भारतीय विज्ञापन कला को व्यावसायिक रूप मिला। 1930 में पहली भारतीय एजेन्सी स्थापित हुयी जिसका नाम था ‘नेशनल एडवरटाइजिंग सर्विस’। इसके पश्चात मद्रास में मॉर्डन पब्लिसिटी कम्पनी, कलकत्ता में कलकत्ता पब्लिसिटी कम्पनी और त्रिचुरापल्ली में ओरिएंटल एडवरटाइजिंग एजेन्सी की स्थापना हु। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सरकारी प्रचार कार्य का बड़े स्तर पर विज्ञापन हुआ। इससे समाचार-पत्रों की आय में भी खासी वृद्धि हु।

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात तेजी से बदलते सामाजिक, आर्थिक परिवेश के फलस्वरूप विज्ञापनों के स्तर में भी महत्वपूर्ण बदलाव आया। विज्ञापनों के स्वरूप में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन आए। वाचिक विज्ञापनों, हाथ से लिखे विज्ञापनों तथा प्रतीक विज्ञापनों का यह क्रम पन्द्रहवीं सदी के मध्य तक चलता रहा। पेटेण्ट दवाओं के विज्ञापनों की बाढ़ से विज्ञापन-कार्य सबसे अधिक बढ़ा। आज तो विज्ञापन पूरा व्यवसाय तथा एक विशिष्ट कला ही बन गया है। निरन्तर बदलाव, उन्नति और अभिनव प्रयोगों के बल पर आज विज्ञापन कला अपने विकसित और उन्नत स्वरूप में है।

आज समूची आर्थिक प्रक्रिया में विज्ञापन ने एक विशिष्ट स्थान बना लिया है। दैनिक पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविजन, दीवारों, होर्डिंगों, निओन साइनों, आकाशीय अक्षर लेखन, मोबाइल, इंटरनेट, प्रचार उद्घोषणाओं, डाक से आये पत्रों, घर-घर पहुंचने वाले सैल्समैनों और न जाने ऐसे ही कितने साधनों के जरिए विज्ञापन व्यक्ति के मानस पर छाया रहता है जो विज्ञापन हम देखते है वह निर्माण प्रक्रिया के समग्र प्रयास का अत्यन्त लघु रूप होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे पानी में तैरते हुए बर्फ के टुकड़े का जो भाग दिखता है, वह एक बड़े आइसवर्ग का एक छोटा सा अंश होता है। समग्र रूप में विज्ञापन को अर्थशास्त्रीय, समाजशास्त्रीय, मनौवैज्ञानिक तथा प्रबन्ध-प्रणाली के रूप में समझा जाता है। भले ही धार्मिक नेता, दार्षनिक, समाजशास्त्रीय और राजनीतिज्ञ विज्ञापन की आलोचना करें, किन्तु विज्ञापन की प्रशंसा या निन्दा समूचे औद्योगिक तंत्र तथा अर्थ-व्यवस्था की प्रशंसा या निन्दा किये बिना नहीं की जा सकती।

आज का युग विज्ञापन का युग है। किसी भी वस्तु, व्यक्ति या जगह से हम विज्ञापन के माध्यम से ही परिचित हो जाते है विज्ञापन ने अपना आधुनिक रूप ले लिया है और यह समाज का आर्थिक तंत्र का अभिन्न अंग बन गया है और मीडिया की तो इसे रीढ़ ही समझा जाने लगा है।

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