कार्यालयी हिंदी किसे कहते हैं कार्यालयी हिंदी के प्रमुख प्रकार ?

देश के राजकीय कार्यों में प्रयुक्त होने वाली भाषा को राजभाषा कहते हैं । प्रत्येक देश की राष्ट्रभाषा ही उस देश की राजभाषा होती है। इसे अंग्रेजी में Official Language कहते हैं। इसी के माध्यम से वहाँ का राजकार्य चलता है । इसी भाषा को कार्यालयी हिंदी भी कहा जाता है।

कार्यालयी हिंदी वह हिंदी है, जिसका दैनिक व्यवहार, वाणिज्यिक, पत्राचार, प्रशासन, व्यापार, चिकित्सा, संगीत, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों में प्रयोग होता है । कार्यालयी भाषा में भाव, कल्पना आदि को अभिव्यक्त करने वाले शब्द नहीं होते । कार्यालयी भाषा में शिल्प पक्ष की सशक्तता नहीं होती । कार्यालय की अपनी एक शब्दावली होती है, अपने पारिभाषिक शब्द होते हैं, उनका सीमित अर्थ होता है, जिनका प्रयोग कार्यालय के कर्मचारी एवं अधिकारी, प्रशासन नित्य प्रति करते रहते हैं । 

कार्यालयी हिंदी के प्रमुख प्रकार 

कार्यालयी हिंदी के प्रमुख चार प्रकार हैं - 

  1. प्रशासनिक हिंदी, 
  2. व्यावसायिक हिंदी,
  3. साहित्यिक हिंदी, 
  4. तकनीकी हिंदी ।

कार्यालयी हिंदी के प्रमुख कार्य

कार्यालयी हिंदी का अर्थ है - वह हिंदी, जिसका प्रयोग कार्यालयों में दैनिक कामकाज में होता है । शासकीय कार्यालयों, न्याय, विधि आदि में उसी भाषा का प्रयोग होता है। सरकार के अनुसार हिंदी भारत की राजभाषा अथवा कार्यालयी भाषा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 (i) में यह बात स्पष्ट रूप से कहीं गई है । इस प्रकार 26 जनवरी, 1950 को हिंदी को भारत संघ की राजभाषा घोषित किया गया। राजभाषा का प्रयोग मुख्यतया शासन, विधान, न्यायपालिका एवम् विधानपालिका में किया जाता है। 

कार्यालयी या राजभाषा हिंदी के प्रमुख चार कार्य हैं - प्रारूपण, टिप्पण, पल्लवन एवं संक्षेपण ।

1. प्रारूपण 

प्रारुपण का समानार्थी अंग्रेजी शब्द 'ड्राफ्टिंग' (Drafting) है। हिंदी में प्रारूपण के अन्य पर्यायवाची शब्दों में आलेखन, प्रारूप या मसौदा शब्द भी प्रचलित हैं । प्रारूपण या आलेखन का तात्पर्य है समस्त ज्ञात सूचनाओं के आधार पर किसी पत्र की प्रारंभिक रुपरेखा, जिसे सक्षम अधिकारी के अनुमोदन के बाद अंतिम रुप दिया जाता है । इस ढ़ाँचे को तैयार करने की प्रक्रिया को 'प्रारुपण' कहा जाता है । संक्षेप में “प्रारुपण किसी भी सरकारी या व्यापारिक प्रतिष्ठान में संबंधित विषयों के लिए कार्यरत कर्मचारी या अधिकारी द्वारा तैयार वह कच्चा प्रालेख है, जो किसी निश्चित नियम एवं कार्यविधि के दायरे में रहकर तैयार किए गए हो ।' -

डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार “प्रारुपण किसी भी सरकारी या व्यावसायिक संस्थान के अंतर्गत - किसी एतद्विषयक नियुक्त व्यक्ति द्वारा तैयार किया गया वह प्रथम आलेख या कच्चा रुप है, जो एक निश्चित प्रणाली, निश्चित वाक्यावली, निश्चित नियम एवं औपचारिकताओं तथा परंपरित स्वरूप में ही सकता है।" प्रस्तुत किया जा प्रारुपण का क्षेत्र काफी विस्तृत है। एक मंत्रालय से दूसरे मंत्रालय, मंत्रालय से निदेशालय, निदेशालय से लेकर छोटे से छोटे कार्यालय इकाई तक तथा स्वयंसेवी एवं व्यावसायिक संस्थानों तक प्रारूपण का क्षेत्र व्यापक है; क्योंकि किसी भी व्यावसायिक अथवा स्वयंसेवी संस्था की प्रतिष्ठा के लिए प्रारूपण का महत्त्व विशेष होता है ।

प्रारूपण की विशेषताएँ -

प्रारुपण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -

1. शुद्धता (Accuracy) - सरकारी या राजकीय पत्रों में शुद्धता एक महत्त्वपूर्ण गुण है। व्यावसायिक संस्थानों के पत्राचार की शुद्धता पर उन संस्थानों की साख निर्भर होती है। सरकारी पत्रों में संदर्भ या निर्देश, पत्र क्रमांक, तारीख तथा साक्ष्य आदि महत्त्वपूर्ण बातें होती हैं।

2. यथातथ्यता (Factuality) - सरकारी पत्रों, परिपत्रों, सूचनाओं इत्यादि में भाषा यथातथ्यपूर्ण होती है। पत्रों में जिस किसी बात का उल्लेख हो वह तथ्य पर अवलम्बित हो, बिना तथ्यों के आरोप-प्रत्यारोप या किसी कार्य के लिए किसी को जिम्मेदार ठहराना, ऐसा नहीं होना चाहिए ।

3. संक्षिप्तता (Bravity) - प्रारुप लेखन में कम शब्दों में जरुरी सभी बातों का उल्लेख कर देना जरुरी होता है। इधर-उधर की तथा संदर्भ रहित बातें लिखने की छूट नहीं मिलती । इसके लिए विषय का सम्यक् ज्ञान और भाषा की सामर्थ्य - दोनों ही अपेक्षित है ।

4. संपूर्णता (Completeness) - प्रारुपण तैयार करते समय संबद्ध विषय को उद्धृत करना प्रारुपकार की पहली जिम्मेदारी है। पत्रों की प्रस्तुति इस ढ़ंग से हो कि, सभी आवश्यक सूचनाएँ, आदेश, विषय- वस्तु, बिल्कुल पूर्ण प्रतीत हो, अनिश्चितता का कोई स्थान नहीं हो ।

5. औपचारिकता (Formality) -सरकारी पत्रों में व्यक्तिसूचक शब्दों अथवा अधिक निकटता प्रकट करने वाले शब्दों जैसे - क्षमाप्रार्थी, कष्ट के लिए धन्यवाद आदि का प्रयोग नहीं होता है । वाक्य सदैव अन्य पुरुष में ही होते हैं ।

6 शिष्टता (Politeness) - प्रारूपण की शैली औपचारिक और तथ्यात्मक होते हुए भी उसके प्रस्तुतीकरण की भाषा विनम्र और शिष्टतापूर्ण होती है। जनता को लिखित पत्र में शिष्टता का अधिक महत्त्व होता है। जब जनता की कोई माँग अस्वीकार कर दी जाती है या किसी कर्मचारी के विरुद्ध निलंबन आदेश संबद्ध विभाग ही जारी करता है, तब ऐसे संवेदनशील मामले में भाषा की शिष्टता अति महत्त्वपूर्ण हो जाती है।

7. पारंपारिक शैली का अनुसरण (Traditional Style) - प्रारुपण निश्चित शब्दावली, वाक्य रचना, या निश्चित प्रविधि के दायरे में लिखा जाता है, जिसके पीछे संबंधित कार्यालय या विभाग की एक लम्बी परंपरा कार्यरत रहती है। प्रारुपणकार इन शैलियों का अनुसरण करता है।

8. नियमों का पालन - कुछ सरकारी पत्रों के प्रारुपण तैयार करने के कुछ विशिष्ट नियम होते हैं, जिनका अनुपालन जरुरी होता है। जैसे ‘ज्ञापन' के प्रारूपण में अभिवादन नहीं होता। अन्य पुरुष में लिखे इन पत्रों की विषय-वस्तु एक ही अनुच्छेद में समाप्त हो जाती है।

9. तटस्थता - प्रारुपकार बिना किसी पक्ष की ओर दबाव या झुकाव के, पूर्वाग्रह से हीन, यथार्थ को ध्यान में रखते हुए एक अच्छे प्रारुप को तैयार करता है। किसी पक्ष विशेष के प्रति अपने व्यक्तिगत झुकाव या हार्दिकता को जाहिर न करते हुए सभी को समान रुप में समझना ही प्रारुपकार का कर्तव्य है।

10. सत्यनिष्ठता - निष्कर्ष या परिणाम तक पहुँचने में तथ्य सबसे बड़े सहायक सिद्ध होते हैं। अगर प्रारुपण सत्य है, तो उसके अनुमोदन से लेकर जारी होने तक की प्रक्रिया के बाद भी कोई संशय, दुविधा या अविश्वास की स्थिति के लिए कोई स्थान नहीं होता है।

प्रारुपण तैयार करते समय जिनका ध्यान रखना आवश्यक है, वे मुख्य अंग हैं - शीर्षक, संख्या एवं दिनांक, प्रेषक-प्रेषिति, विषय एवं संदर्भ, संबोधन, मूल कथ्य निर्देश, स्वनिर्देश एवं हस्ताक्षर, संलग्नता, पृष्ठांकन, संकेताक्षर और संबंधित लिपिक के लघु हस्ताक्षर आदि। प्रारुपण अंग्रेजी एवं अमेरिकन इन दो शैली में लिखा जाता है।

2. टिप्पण

'टिप्पण' या 'टिप्पणी' मूलत: अंग्रेजी शब्द नोटिंग (Noting) के हिंदी पर्याय हैं। यह प्रारुप लेखन का मुख्य अंग है। किसी भी विचाराधीन पत्र या आवेदन पर उसके निष्पादन को सरल बनाने के लिए जो टिप्पणियाँ सरकारी कार्यालयों में लिपिकों, सहायकों तथा कार्यालय अधीक्षकों द्वारा लिखी जाती हैं, उन्हें टिप्पण लेखन कहते हैं। इनमें तीन बातें रहती हैं। (1) पूर्व पत्र का सारांश, (2) जिस प्रश्न पर निर्णय किया जाता है उसका विवरण- विवेचन, (3) उस संबंध में क्या कार्यवाही की जाए, इस विषय में सुझाव ।

टिप्पण लेखन में विचाराधीन प्रश्न के बारे में सब बातें लिखी जाती हैं। इससे उस प्रश्न के संबंध में निर्णय करने और आदेश देने में सुविधा होती है । विचाराधीन प्रश्न का पूर्व इतिहास, सरकारी नीति, नियम आदि बातों का उल्लेख कर अंत में निर्णय की उचितता के संबंध में सुझाव दिया जाता है । यह पत्र निर्णय करने वाले उच्च अधिकारी के पास रखा जाता है और टिप्पण को पढ़कर अधिकारी द्वारा निर्णय लिया जाता है । 

टिप्पण की विशेषताएँ - टिप्पण की प्रमुख विशेषताएँ हैं

1. समस्या का समाधान - टिप्पण कर्ता को टिप्पण लिखते समय विचाराधीन समस्या का हल या सुझाव बताना चाहिए ।

2. पूर्वापर क्रमयुक्तता - टिप्पण कर्ता के विचार प्रकट करने में पूर्ववर्ती क्रम से कार्यवाही का क्रमिक उल्लेख किया जाना उचित रहता है ।

3. विषय का उपविभाजन - टिप्पण कर्ता विचाराधीन पत्र पर विचार करते हुए पत्र के विषय का उपविभाजन करता है और पहले अनुच्छेद के बाद के सभी अनुच्छेदों पर क्रमश: दो से आरंभ करके आगे का क्रम देता

4. पुनरुक्ति दोष से मुक्त - अच्छे टिप्पण कर्ता की टिप्पणी में कोई पुनरावृत्ति नहीं होती । टिप्पण कर्ता को विषय की समझ विवेक सम्मत भाषा और तर्क संगतता से संभव होती है।

5. व्यक्तिगत आक्षेपों से मुक्त - टिप्पणियाँ लिखते समय कार्यालय के वरिष्ठ-कनिष्ठ अधिकारी या कर्मचारी के बारे में व्यक्तिगत आक्षेप न लेने की सावधानी रखनी चाहिए ।

संक्षिप्तता एवं स्पष्टता टिप्पण का आकार संक्षिप्त होता है । विचाराधीन विषय को सुस्पष्ट रुप में रखना पड़ता है । 

6. संयत भाषा का प्रयोग - अच्छे टिप्पण में संयत भाषा का प्रयोग होता है । इससे कार्यालय के कर्मचारियों में कटुता बढ़ने की संभावना नहीं रहती । इसमें द्वयार्थक शब्दों का प्रयोग नहीं होता । 

7.अन्य पुरुष का प्रयोग - टिप्पण में प्रथम पुरुष (मैं, हम ) का प्रयोग नहीं होता । इसमें तृतीय पुरुष या अन्य पुरुष का प्रयोग किया जाता है ।

8. आद्य हस्ताक्षर - टिप्पण समाप्त होते ही टिप्पणीकर्ता टिप्पणी की बाई ओर अपने संक्षिप्त अथवा आद्य हस्ताक्षर करता है। इससे कर्मचारी की जानकारी मिलती है।

टिप्पण के प्रकार -

विभिन्न विद्वानों ने टिप्पण के मुख्य प्रकार निम्नलिखित बताए हैं -

  1. सूक्ष्म टिप्पण - Short Noting
  2. सामान्य टिप्पण - Simple Noting
  3. सम्पूर्ण टिप्पण - Full Noting
  4. अनुभागीय टिप्पण - Sectional Noting
  5. नित्यक्रमिक टिप्पण - Routine Noting 
  6. आनुषंगिक टिप्पण - Contigent Noting
  7. अनौपचारिक टिप्पण - Unofficial Noting

3. पल्लवन

हिंदी में ‘पल्लवन' शब्द अंग्रेजी के 'Expanson' शब्द के प्रतिशब्द के रुप में लिया है। 'पल्लवन' का अर्थ है - विस्तार अथवा फैलाव । यह संक्षेपण का विरोधी शब्द है । जब किसी शब्द, सूक्ति, उद्धरण, लोकोक्ति आदि का अर्थ स्पष्ट करते हुए दृष्टान्तों, उदाहरणों अथवा काल्पनिक उड़ानों द्वारा 200-300 शब्दों में उसका विस्तार करते हैं, तो उसे ‘पल्लवन' कहते हैं ।

पल्लवन की रचना प्रक्रिया - अपनी रुचि और सामर्थ्य के अनुसार किसी विषय को संजोने के लिए निम्न - बातें जरुरी हैं.

1. विषयपरक चिन्तन - किसी विषय का पल्लवन करते समय उसके विषय में चिन्तन जरुरी है । जैसे विषय का अर्थ स्पष्ट करना, विषय के पक्ष-विपक्ष में विचार, अर्थ के सूत्र पकड़कर विभिन्न अंगों की व्याख्या के लिए दृष्टान्त देना, निष्कर्ष निकालना ।

2. विचार बिन्दुओं को कागज पर उतारना - विषय के बारे में जो जो विचार आपके मस्तिष्क में आते जाएँ, उन्हें कागज पर उतारते जाएँ । अनावश्यक विचारों को छोड़कर शेष विचारों को क्रम से लगाया जा सकता है।

3. विचार बिन्दुओं को एकरुपता देना विभिन्न विचार बिंदुओं को लिखने के बाद इनमें परस्पर संगति - बिठलाना जरुरी है। जो विचार बिन्दु विषय से सर्वथा असम्बद्ध दिखाई देते हों, उन्हें अलग कर लेना चाहिए। उपयोगी विचार बिन्दुओं को एकरुपता देनी चाहिए, जिससे पल्लवन में सुविधा हो जाएँ।

4. सामग्री के आकार का निर्णय - विषय का पल्लवन करते हुए उसके आकार और शब्द सीमा का ध्यान रखना चाहिए। एक ही पैरे में विषय का विस्तार करना चाहिए । शब्दों की संख्या 200 से 300 तक होनी चाहिए ।

5. विषयपरक चिन्तन को लिखित रुप देना - विषय पर चिन्तन मनन कर लेने के बाद इन्हें कागज पर लिख देना जरुरी है। उसका प्रारंभ आकर्षक एवं अन्त हृदय पर अमीट छाप छोड़ने वाला हो। लिखते समय अधिक काट-छांट नहीं होनी चाहिए ।

6. पल्लवित सामग्री का पुनरीक्षण करना - पुनरीक्षण करके यह देख लेना चाहिए कि विषय से सम्बद्ध विचार उसमें आ गए हैं या नहीं । पल्लवित सामग्री सूत्र लोकोक्ति के अनुरुप है या नहीं ।

पल्लवन की विशेषताएँ -

1. कथ्य का स्पष्ट प्रतिपादन - पल्लवन में मुख्य ध्यान कथ्य पर रहता है । अतः कथ्य का स्पष्ट प्रतिपादन होना आवश्यक है।

2. विषय-विरोधी विचार-बिन्दुओं का परित्याग - पल्लवन करते समय विषय विरोधी विचारों, उदाहरणों,

उद्धरणों, तर्कों आदि को कोई स्थान नहीं दिया जाता ।

3. सरल भाषा का प्रयोग - इसमें आलंकारिक भाषा का प्रयोग नहीं होता । यहाँ व्यर्थ का विस्तार छोड़ना चाहिए । इसमें विचारों की कसावट पर जोर होता है । अत: सटीक शब्दों तथा छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग किया जाता है ।

4. संक्षेपण

अपेक्षा बहुत कम हिंदी में संक्षेपण शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के 'Precis' के पर्याय रुप से किया जाता है । संक्षेपण से अभिप्राय ऐसी रचना से है, जिससे किसी विस्तृत लेख, निबन्ध, अनुच्छेद आदि में व्यक्त भावों को मूल शब्दों में व्यक्त किया जाता है । इसमें मूल विचारों का, आवश्यक तत्त्वों का समावेश रहता है। अनावश्यक बातें, संदर्भ, तर्क-वितर्क आदि को हटाकर मूल संवेदना का स्पष्टीकरण होता है। इसके लिए सामासिक शैली का प्रयोग करना पड़ता है । संक्षेपण की कला में कुशलता प्राप्त करने के लिए पर्याप्त अभ्यास अपेक्षित है।

1. संक्षेपण वह रचना रुप है, जिसमें समास शैली के माध्यम से किसी रचना का सार तत्त्व उपस्थित हो जाता है ।

2. संक्षेपीकरण को हम किसी बड़े ग्रंथ का संक्षिप्त संस्करण, बड़ी मूर्ति का लघु अंकन और बड़े चित्र का छोटा चित्रण कह सकते हैं।

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