पर्व का अर्थ, परिभाषा, स्वरूप, वर्गीकरण

व्रत, पर्व का प्रवर्तन हमारे प्राचीन समय से प्रारंभ हुआ था। 'पर्व' का शाब्दिक अर्थ है 'गाँठ' अर्थात् सन्धिकाल । हिन्दूपर्व सदैव सन्धिकाल में ही पड़ते है। पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी तथा सक्रान्ति आदि को शास्त्रों में पर्व कहा गया है। 

संपूर्ण भारतीय सांस्कृतिक को पारंपरिक पर्व के रूप में भारत को जाना जाता है क्योंकि ये बहुधर्मी और बहुसंस्कृति का देश है। क्योंकि यहाँ अलग–अलग धर्म, जाति, रीति-रिवाज के लोग रहते हैं और सभी वर्ग के लोग अलग-अलग अंदाज में हर पर्व को मनाते हैं और हर वर्ष के पीछे महत्वपूर्ण इतिहास, पौराणिक कथाएं और उनको मनाने का महत्व छिपा हुआ होता है ।

आज प्रायः देश में वर्ष भर पर्व मनाए जाते हैं। शायद ही विश्व के किसी आधे हिस्से में मनाए जाते होंगे। इसलिए कहा जाता है कि भारत देश पर्वों का देश है और इसमें कोई अतिष्योक्ति नहीं | हिन्दी तिथियों पर यदि हम दृष्टि डालें तो हर तिथि से कोई न कोई पर्व अवश्य जुड़ा हुआ होता है। पर्व हमारी संस्कृति की महत्वपूर्ण विशेषता रखते हैं । पर्वों से जुड़ी संस्कृति बची रहे, जिससे समाज में जुड़ाव रहे, पर्व ऋतु परिवर्तन से भी जुड़े होते हैं, कुछ पर्यावरण संरक्षण से तो कुछ मानवीय मूल्यों के संरक्षण का संदेश भी हमें देते हैं। पर्वों के माध्यम से आपसी सौहार्द, सामाजिक समरसता, एकात्मकता, आत्मीयता और अपनेपन का भाव भी जागृत होता है क्योंकि पर्वों का अप्रत्यक्ष संदेश होता है। आनंद से भरपूर पर्व मनोरंजन से जुड़े हुए प्रसंग इसी की ही देन है।

पर्व में भक्ति-भावना की आस्था को भी कम नहीं आँका जा सकता क्योंकि ऐसे अवसरों पर व्यक्ति भगवान की भक्ति में अधिक चिंतनशील होकर प्रवृत होता है। पर्वों का आयोजन भी अनुष्ठान का ही एक रूप है। पर्व ही हमारे सांस्कृतिक धरोहर है, जो हमारे आत्मिक, आध्यात्मिक, वैयक्तिक और सामाजिक गुणों को विकसित करने के साधन भी है । पर्वों की यह विशेषता होती है कि मानव के मन से लेकर घर तक के कचरे को साफ किया जाता है। हमारे पर्वों को मनाने का एकमात्र उद्देश्य अच्छाई को प्रश्रय देने के लिए पर्वों की ज्योति आज हम सब मिलकर जलाते हैं। 

भारतीय संस्कृति का यह लक्ष्य है कि जीवन का प्रत्येक क्षण पर्वोत्सव के आनंद एवं उल्लास से परिपूर्ण हो । इन पर्वों में हमारी संस्कृति की विचारधारा के बीज छिपे हुए है। आज भी अनेक विकट - बाधाओं के बीच हमारी संस्कृति सुरक्षित है और विश्व की संपूर्ण संस्कृतियों का नेतृत्व भी करती है। समय-समय पर संपूर्ण समाजकों को नयी चेतना प्रदान करते हैं पर्व। साथ ही दैनिक जीवन की नीरसता को दूर करके जन-जीवन में उल्लास भरने का कार्य, दायित्वों का निर्वाह करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं । इन सबको जीवित रखने का कार्य हमारे बाल साहित्यकार करते हैं। जिसके अन्तर्गत वह अपने विचारों के चक्षुओं के माध्यम से भारतीय परंपराओं का विश्लेषण कर बाल जगत को उज्जवलवान बनाने का कार्य करते हैं।

पर्वों का स्वरूप

पर्व मनुष्य जाति के उत्साह और उल्लास के प्रकटीकरण का माध्यम होते हैं। भारतीय जनमानस में पर्वों, त्यौहार की व्याप्ति समाज के कण-कण में समायी हुई है। इन पर्वों के माध्यम से ही भारतीय समाज अपनी धार्मिक आस्थाओं, सामाजिक तानोबानों और अपने देश के राष्ट्रीय चरित्र को प्रकट करते हैं।

" कहा जाता है कि भारत में सात दिन के सात वार और चौदह पर्व होते हैं।” अर्थात् भारतीय समाज पर्व उत्सवों को पसंद करता समाज है। सदैव

उल्लासित रहने वाला यह देश पर्व, त्यौहारों के माध्यम से यहाँ के समस्त नागरिकों को एकसूत्र में पिरोकर रखने का कार्य भी सहज कर लेता है ।

भारतीय समाज की यह विषेषता है कि यहाँ पर अनेक धर्मों को मानने वाले नागरिक निवास करते हैं। भारत की समन्वयवादी मानसिकता सहज रूप से बाहर से आए हुए पंथी को भी अपने मध्य स्थान दे देती है और उनकी संस्कृति को आत्मसात कर लेती है । यही कारण है कि यहाँ आए हुए अनेक पंथ, मजहबों को मानने वाले भिन्न-भिन्न धर्मावलंबी सहज रूप से एक-दूसरे के पर्व, त्यौहारों को मनाते रहते हैं।

सामान्यतः हमारे सभी पर्व, त्यौहार अपने परिवार के साथ और उसी का विस्तार लेते हुए संपूर्ण समाज के साथ मनाने की परंपरा रही है । हम सब अपनी प्रसन्नताओं को अकेले नहीं मनाते हुए सबके साथ मिलकर मनाते हैं। यही कारण है कि हमारे सभी पर्व, त्यौहार का स्वरूप सामूहिकता का बोध लिए हुए होता है। भारतीय समाज में मुख्य रूप से तीन प्रकारों के पर्वों की आर्थिकता पायी जाती है। इनमें मुख्य रूप से धार्मिक पर्व, सामाजिक पर्व, राष्ट्रीय पर्व।

धार्मिक पर्व में एक ओर जहाँ सभी पंथों को मानने वाले लोगों द्वारा मनाए जाने वाले पर्व आते हैं, वहीं सामाजिक पर्वों के अन्तर्गत हमारे समाज और परिवार के ताने-बाने को पुष्ट करने वाले अनेक पर्व मुख्य रूप से मनाए जाते हैं। इनमें रक्षाबंधन और होली जैसे पर्व महत्वपूर्ण होते हैं। हमारे अनेक पर्व तो ऐसे हैं, जो धार्मिक और सामाजिक दोनों प्रकार के अंतर्गत गणना किए जा सकते हैं। 

राष्ट्रीय चेतना भारतीय समाज की वह महत्वपूर्ण विशेषता है। जिसके कारण सम्पूर्ण विश्व में उसकी पृथक पहचान बनी है। इसी राष्ट्रीय चेतना के प्रकटीकरण के लिए भारतीय समाज अनेक अवसरों पर राष्ट्रीय प्रतिकोण के सम्मान को बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय पर्व मनाता है। विशेषकर देश के स्वतंत्र होने के दिवस को तथा देश में संविधान के निर्माण और उसको लागू करने की स्मृतियों को तरोताजा बनाए रखने के लिए दो महत्वपूर्ण पर्व स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के रूप में तो मनाए ही जाते है। साथ ही इस देश के लाडले सपूतों की जन्मतिथि और पुण्य तीथियों को भी पेरा देश राष्ट्रीय पर्व की तरह ही मनाते है। इनमें पूज्य बापू का जन्मदिन 2 अक्टूबर तथा उनकी पुण्यतिथि बलिदान दिवस के रूप में मनाया जाना महत्वपूर्ण है। इसी श्रृंखला में नेहरूजी का, राजीव गांधी का जन्मदिवस और भारत की युवाषक्ति के सर्वोच्च प्रेरणा स्त्रोत स्वामी विवेकानंद का जन्मदिवस युवा दिवस के रूप में मनाए जाना भी इसी श्रेणी का पर्व माना जाता है।

इन उत्सवों को मनाने का तरीका प्रत्येक पर्व की पृष्ठभूमि के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है, किन्तु प्रसन्नता और उल्लास का प्रकटीकरण इनमें से प्रत्येक पर्व की मूलभूत विशेषता है। मुस्लिम और इसाई पंथ द्वारा ईसामसीह को सलीब पर चढ़ाए जाने वाले दिवस इस दृष्टि से अपवाद हो सकते हैं क्योंकि इनके पीछे दुःखद घटना क्रमों की पृष्ठभूमि जुडी है । यही कारण है कि भारतीय समाज अपने सभी पर्वों को मनाते समय अत्यंत उत्साह के साथ पूरे परिवार के परिजन ना केवल एकत्र होकर इन आनंद सहभागी बनते हैं । ऐसे अवसरों पर ढोल-नगाड़े बजाना, मिष्ठान का वितरण करना, सहभोग का आयोजन करना इन सभी पर्वों की सामान्य विशेषताएँ होती है।

पर्वों का वर्गीकरण 

भारतीय पर्व त्यौहारों को वैसे तो अनेक श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। किंतु मोटे तौर पर इनमें प्रमुख पर्व-त्यौहार इस प्रकार वर्गीकृत किए जा सकते हैं

  1. धार्मिक मान्यता वाले पर्व
  2. सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले पर्व राष्ट्रीय पृष्ठभूमि के पर्व
  3. सामाजिक सरोकारों से जुड़े पर्व

1) धार्मिक मान्यता वाले पर्व - धार्मिक पर्व ऐसे पर्व त्यौहार होते हैं, जिनकी पृष्ठभूमि मानव समाज की धार्मिक एवं आध्यात्मिक मान्यताओं पर आधारित होती है। यह मान्यताएँ धर्म ग्रन्थों में आई घटनाओं अथवा स्थापित मान्यताओं से उपजे होते हैं। कई पर्व त्यौहार ऐसे भी होते हैं। जो धर्म के साथ-साथ संस्कृति से जुड़े दर्शन को भी पुष्ट करते हैं। इस प्रकार के त्यौहारों की मान्यताओं में दोहरी मान्यताएं जुड़ी दिखाई देती है।

विशुद्ध धर्म आधारित पर्वों में मकर सक्रान्ति, रामनवमी, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, गुरू पूर्णिमा, होलिका जैसे पर्व प्रमुख रूप से उल्लेखित है। इन पर्वों में गुरूपूर्णिमा जैसे पर्व धार्मिक पृष्ठभूमि के साथ - साथ जहाँ सामाजिक सारोकार को भी जोड लेता है। 

2) सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले पर्व त्यौहार - ऐसे पर्व त्यौहारों में भारतीय संस्कृति को आधार भूमि मानकर समाज इन पर्वों को मनाता है। भारतीय संस्कृति की उदात्त परम्पराओं में पर्यावरण चिंतन सर्वत्र दिखाई देता है। यही कारण है कि भारतीय समाज पर्वतों, नदियों, वृक्षों और प्राणियों तक को भगवान मानकर उनको समर्पित पर्व / त्यौहार मनाता रहता है। ऑवला नवमी, वट सावित्री, नागपंचमी, गंगादशहरा जैसे पर्व इसी के प्रतीक है। भारतीय समाज में तुलसी विवाह को लेकर उत्साह जनक वातावरण देखते ही बनता है। वास्तविक विवाह कार्यक्रमों की तरह तुलसी विवाह को भी जिस भव्य ढंग से संपन्न किया जाता है, संभवतः ऐसे दृश्य विश्व की किसी अन्य संस्कृति में देखना भी दुर्लभ होगा।

3) सामाजिक सरोकारों से जुड़े पर्व - सामाजिक सरोकारों से जुड़े पर्वों की यूँ तो प्रत्येक पर्व त्यौहार की समाज आधारित और समाज से जुडा हुआ ही होता है। किन्तु कुछ पर्व इसी कल्पना से प्रारंभ किए जाते हैं कि वे सामाजिक रिश्तों को एक-दूसरे से प्यार के बंधन में बाँधने में सफल हो सके। पाश्चात्य जगत भी इन दिनों फादर्स डे, मदर्स डे, टीचर्स डे, कजिन्स डे जैसे दिवस मनाकर उसी दिशा  में अग्रसर हो रहा है। 

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