योग का संक्षिप्त इतिहास

‘योग दर्शन' भारत की एक प्राचीन दार्शनिक पद्धति है । इसका प्रादुर्भाव कब हुआ इसका निश्चित काल किसी भी प्राचीन ग्रंथ में उपलब्ध नहीं है। अलग–अलग विद्वानों के अनुसार अलग-अलग दर्शन काल. बताया जाता है । प्राचीन ऐतिहासिक पुरातत्व के अवशेष एवं साहित्य इसकी प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं।

यदि हम सिन्धु घाटी की सभ्यता से प्राप्त अवशेषों पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि उस समय भी भारत वर्ष में 'योग' प्रचलित था। इसी प्रकार प्राचीन साहित्य ग्रंथों में योग का उल्लेख मिलता है जिससे इसकी प्राचीनता की पुष्टि होती है।

सिन्धु घाटी से मिले हुए अवशेषों में कुछ पत्थर की खण्डित मूर्तियाँ भी हैं, जिनका गर्दन और धड़ बिलकुल सीधा है, और नेत्र नासिका के अग्रभाग पर स्थिर है। उल्लेखनीय है कि शास्त्रों में भी योगाभ्यास करने वालों के इसी प्रकार बैठने का वर्णन मिलता है। इन अवशेषों से ज्ञात होता है कि भारतवर्ष में ईसवी सन् से 3000 वर्ष पहले से या इससे भी पूर्व किसी न किसी रूप में योग प्रचलित था।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार मोहन जोदड़ों एवं हड़प्पा की खुदाई के दौरान भगवान शिव और माता पार्वती की कुछ मूर्तियाँ ध्यानात्मक अवस्था में प्राप्त हुई थी, इससे स्पष्ट होता है कि भगवान शिव ने माता पार्वती को योग की शिक्षा दी थी। इस प्रकार का वर्णन हमारे ग्रंथों में भी स्पष्ट रूप से मिलता है । अतः कहा जा सकता है कि योग के सबसे पुरातन योगी भगवान शिव ही है।

योग की प्राचीनता के संबंध में अन्यत्र उल्लेख डॉ शिवस्वरूप सहाय की कृति ‘प्राचीन भारतीय धर्म’ के पृष्ठ 3 में मिलता है जिसके अनुसार मोहन जोदड़ों से प्राप्त अवशेषों में से एक ठिकड़े पर योग मुद्रा में ध्यान की अवस्था में बैठे शिव की आकृति का अंकन है। इसके सामने दो तथा दोनों बगल में एक-एक सर्प की आकृति बनी है । अतः योग मुद्रा की इन शिव मूर्तियों से भी स्पष्ट होता है कि योगक्रिया का विकास शिव के साथ जुड़ा है और उनकी योग साधना अनादिकाल से चली आ रही है। संभवतः यही से आगे चलकर पशुपति योग का विकास हुआ। यही योग का पहला चरण है। अतः योग का आरंभ भी शैव धर्म की देन है।

योग-विद्या सृष्टि के आरंभ से ही विद्यमान थी । इसका उल्लेख अनेक ग्रंथों में मिलता है। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में कहा गया है कि- 'हिरण्यगर्भ' से ही सबसे पहले योग का प्रादुर्भाव हुआ, उसी ने पृथ्वी, स्वर्ग आदि सभी को धारण किया । हिरण्यगर्भ को सभी विधाओं एवं कलाओं का आदिप्रवर्तक माना जाता है -

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे लोकस्य जातः पतिरेकः असीत् ।
सदाधार पृथ्वीं द्यामुतैमां कस्मै देवाय हविषा विधम ।। (ऋग्वेद : 10:121:1 ) 5

कुछ ग्रंथों में हिरण्यगर्भ को योग का उत्पत्ति कर्ता कहा गया है—
हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यःपुरातनः।। (बृहद्योगियाज्ञवल्क्य– 12:5) ° 6

महर्षि पतंजलि रचित योग शास्त्र के अनुसार पृथ्वी को जिन्होंने अपने मस्तक पर आधार दिया है, उस शेषनाग को योग के प्रारंभकर्ता के रूप में माना जाता है। पतंजलि उसी शेषनाग के अवतार है ऐसी मान्यता है। पतंजलि के मुख्य भाष्यकर व्यास ने भाष्य के आरम्भ में शेषनाग को नमन करते हुए उन्हें योग को देने वाले तथा योग के मूलमंत्र आविष्कारक कहकर पुकारा है। इस नमन के श्लोक के अनुसार योग की परम्परा पृथ्वी से भी पुरानी हो जाती है। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि कपिल मुनि और हिरण्यगर्भ के रूप में उन्होंने सांख्य और योग के व्याख्यान किये

”सांख्यस्य वक्ता कपिलः परमर्षि स उच्येत ।
हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः।।” (महाभारत- 12,/349 / 65) 7

सांख्य के वक्ता कपिलाचार्य परमर्षि कहलाते हैं, और योग के वक्ता हिरण्यगर्भ हैं, इनसे पुराना इस शास्त्र का और कोई वक्ता नहीं है।

इसी प्रकार का उल्लेख 'हठयोग' के संबंध में 'हठयोग प्रदीपिका के प्रारंभिक श्लोक में भी मिलता है । वहाँ पर स्वात्मारामजी ने भगवान शिव को 'आदिनाथ' शब्द से संबोधित किया है। हमारी भारतीय परम्परा में 'शिव को ईश्वर माना गया है।

अतः हम कह सकते हैं कि योग-विद्या सृष्टि के आरंभ से पूर्व भी विद्यमान थी। योगी स्वात्मारामजी ने अपने ग्रंथ हठयोग प्रदीपिका के प्रारंभ इसी आशय को निम्न प्रकार व्यक्त किया है. -

“श्री आदिनाथाय नमोस्तुत तस्मै, येनोपदिष्टा हठयोग विद्या ।
विभ्राजते प्रोन्नत राजयोग, मारोढुमिच्छोरधिरोहिणी व।।” (हठ योग प्रदीपिका - 1:1)8

उपर्युक्त समस्त उल्लेखों से योग के दैवीय या दिव्य रूप उत्पत्ति की कल्पना सामने आती है। पर मनुष्यों ने इसका उपयोग कब से प्रारंभ किया, इन प्रश्नों का उत्तर इन उल्लेखों में कहीं नहीं मिलता। हिरण्यगर्भ, भगवान शिव, शेषनाग या श्रीकृष्ण इनमें से कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं है । किन्तु इन उल्लेखों से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि इतिहासों के लिखे जाने के पूर्व काल में भी योग विद्यमान था।

योग-विद्या भारतीय सभ्यता की एक अमूल्य धरोहर है जो अनादिकाल से चली आ रही है। यह एक व्यवहारिक एवं ध्यानात्मक सिद्धांत है और योग का ज्ञान मनुष्य की अन्तरात्मा से संबंधित होता है, जिसे किसी काल की सीमा में बांधना उचित नहीं लगता। अतः यह कहना उचित प्रतीत होता है कि योग - विद्या सृष्टि के प्रारंभ से ही अस्तित्व में थी।

प्राचीन भारतीय धर्म, पुराण, इतिहास आदि के अवलोकन से ज्ञात होता है कि योग प्रणाली की परम्परा अविच्छिन्न रूप में चलती आयी है। वैदिक तथा अवैदिक वाड्मय में आध्यात्मिक वर्णन बहुलता से पाया जात है। इनका अंतिम साध्य उच्च अवस्था की प्राप्ति है, और योग उसका एक साधन है।'

इस योग विद्या का आरंभ, मानव जीवन के आरंभ के साथ ही स्वयंभू भगवान शिव द्वारा हुआ। अभ्यास की व्यवहारिक विद्या होने के कारण इसमें देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन एवं संशोधन होता रहा है। 

योग का सर्वप्रथम उल्लेख 'वेद' में ही हुआ है । वेद के बाद जैसे-जैसे साहित्य का विकास होता गया है वैसे-वैसे योग-साधना का वर्णन उपनिषद्, दर्शन, पुराण, स्मृति आदि ग्रंथों में परोक्ष / प्रत्यक्ष रूप में मिलता है।

वेदों में योग

भारतीय संस्कृति की यह विशेषता रही है कि यहां के प्रत्येक प्रतिष्ठित शास्त्र या दर्शन की उत्पत्ति 'वेद' से ही मानी गई है। भारतीय प्राचीन ग्रंथों में वेद को ईश्वरीय ज्ञान कहा जाता है जिसका प्रादुर्भाव ऋषियों के अनुसार सृष्टि के आरंभ में समाधी द्वारा होता है। वेद में मंत्रों की चार संहिताएँ हैं ये 'ऋग्वेद', 'यजुर्वेद', ‘सामवेद' और ‘अथर्ववेद' कहलाती है । मूल वेदों में बतलाये गये धर्म अर्थात् यज्ञादि कर्म तथा विधि निषेध की विस्तृत व्याख्या ब्राह्मण ग्रंथो में हुई है जिनमें से चार प्रसिद्ध ग्रंथ हैं ‘ऐतरेय ब्राह्मण' (ऋग्वेद), 'शतपथ ब्राह्मण' (यजुर्वेद), 'ताण्डय ब्राह्मण' (सामवेद) और ‘गोपथ ब्राह्मण' (अथर्ववेद) । इन ग्रंथों में ब्राह्मण नामकरण का प्रमुख कारण है कि इनका प्रधान विषय ब्रह्मन (ब्रह वर्धने) अर्थात् बढाने वाला है योग भारतीय सनातन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति का अभिन्न अंग है । इसका मूलरूप वैदिक संहिताओं में सूत्र रूप में उपनिबद्ध है |

प्राचीन साहित्य में योग सर्वप्रथम ऋग्वेद में उपलब्ध होता है । यहाॅ इसका अर्थ जोड़ना मात्र है । ईसा पूर्व 700-800 वर्ष तक रचित साहित्य में ‘योग' शब्द का प्रयोग "इंद्रियों को प्रवृत्त करना" इस अर्थ में हुआ तथा ईसा पूर्व 500-600 तक के साहित्य में इसका रूप थोड़ा परिवर्तित होकर 'इंद्रियों पर नियंत्रण रखना - इस अर्थ में योग शब्द का प्रयोग हुआ ।

ब्राह्मण धर्म के मूल में 'ब्रह्मन' शब्द है और यज्ञ को केन्द्र में रखकर ही ब्राह्मण धर्म की परम्परा का विकास हुआ है । फिर भी यज्ञ से संबधित वैदिक मंत्रों और ब्राह्मण ग्रंथों में तप की शक्ति एवं महिमा के सूचक 'तपस' शब्द का निर्देश प्राप्त होता है । अतः यह भी संभव है कि 'तप' शब्द योग का ही पर्यायवाची रहा हो |

योग का उल्लेख चारों वेदों में अनेक स्थानों पर किसी न किसी रूप में अवश्य मिलता है । वेदों में मंत्रों के द्वारा देवताओं की स्तुतीकर तथा विभिन्न प्राकृतिक वस्तुओं, प्रतीकों के माध्यम से स्तुतिकर योग के तथ्यों का उल्लेख किया गया है । विद्वानों का कोई भी यज्ञ-कर्म योग के बिना सफल नहीं होता ।

ऋग्वेद में लिखा है कि सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ही उत्पन्न हुए जो सम्पूर्ण विश्व के एकमात्र प्रजापति है जिन्होंने अंतरिक्ष, स्वर्ग और पृथ्वी सबको धारण किया । उन प्रजापति देव का हम दृव्य द्वारा पूजन करते हैं । इस कथन से ज्ञात होता है कि सृष्टिक्रम में सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ उत्पन्न हुए और यह प्राचीनतम पुरुष योगशास्त्र के प्रथम वक्ता हैं, अतः यह योग को भी प्राचीनतम मानना तर्क संगत है । इस तरह वेदों में योग का निरूपण भले ही पारिभाषिक शब्दों में कम से न हुआ हो, परन्तु उसमें मंत्रवाक्यों, प्राकृतिक वस्तुओं तथा अन्य प्रतीकों के आधार पर योग का जो वर्णन हुआ है वह स्पष्ट ही योगाभ्यास का दर्शक है ।

‘योग के एक भाग 'प्राण' (प्राणायाम) की चर्चा तो वेदों में बहुत की गई है । ऋग्वेद के दसवे मण्डल में कहा गया है कि - आदि पुरुष के प्राण से वायु प्रकट हुई। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में 'अपान वायु की ओर भी निर्देश है । 'तैत्तिरीय संहिता' में प्राण के पाँचों प्रकारों का वर्णन उपलब्ध है । इस पर टिप्पणी करते हुए सायणाचार्य ने इन प्राणों का स्थान इस प्रकार निर्धारित किया है हृदय में प्राण, गुदा में अपान, नाभि में समान, कण्ठ में उदान और व्यान सारे शरीर में व्याप्त है । शतपथ ब्राह्मण में योग शब्द मन एवं वाणी को संयुक्त करने के अर्थ में आया है । मन एवं वाणी के योग से किया गया यज्ञ ही अभीष्ट फल देने वाला होता है । अथर्ववेद में 'प्राणा' एव 'अपाना' का बहुवचन प्रयोग हुआ है । एक अन्य जगह अथर्ववेद में ही 'अष्टांग योग' और ‘षडयोग' शब्दों का प्रयोग हुआ है ।

उपनिषदों में योग

उपनिषद का मुख्य अर्थ 'ब्रह्मविद्या' है । उपनिषद के अंतर्गत वेदों में बतलाए गये आध्यात्मिक विचारों का वर्णन मिलता है, इन्हीं को 'वेदान्त' कहतें है इनमें ग्यारह वेदान्त मुख्य है—— ईश, केन, कठ, प्रश्न मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, श्वेताम्बर, छान्दोग्य और बृहदारण्यक ।

औपनिषदिक काल योग साधना की अच्छी भूमि रही है, क्योकि वेंदो में अंकुरित योग के बीज का विकास एवं पल्ल्वन इस काल में पर्याप्त हुआ है। वेदकाल में अध्यात्मवाद उन्मुख हुआ, उसका सर्वांगीण संवर्धन उपनिषद - काल में ही हुआ है।

उपनिषदों के माध्यम से अनुभवी एवं आत्मज्ञानी गुरूओं की वाणी द्वारा अभिव्यक्त विश्वसनीय तथ्यों को प्रस्तुत किया गया है । इनका संबंध मुख्यतः एक समग्रात्मक जीवन-पद्धति, संतुलित और सामन्जस्यपूर्ण मनोदशा एवं आध्यात्मिक–अवधारणाओं से है | 

उपनिषद के अनुसार योगाभ्यास यथार्थसत्ता के सत्याज्ञान की चेतनापूर्ण आन्तरिक खोज है । यहां ध्यान तथा एकाग्रता पर बल दिया गया हैं, क्योंकि आत्मा का विषयारूप में प्रत्यक्ष ज्ञान अन्यथा संभव नहीं है । उपनिषदों ने तप और ब्रह्मचर्य को महान शक्ति के उत्पादक गुण रूप बताया है ।

उपनिषदों में योग का वर्णन पूर्ण विस्तार के साथ पाया जाता है ।

योग एक पारिभाषिक शब्द के रूप में कठोपनिषद, तैत्तरीय ओर मैत्रायणी उपनिषदों में आता है । कठोपनिषद में योग की उच्चतम अवस्था का वर्णन करते हुए कहा गया है– “उसमें इंद्रियों को मन तथा बुद्धि के साथ सर्वथा शांत भाव में लाया जाता है ।" मैत्रायणी उपनिषद में छः प्रकार के योग का उल्लेख आता है साथ ही इसमें पतंजलि योग– दर्शन के पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग भी पाया जाता है । साथ ही श्वेताश्वेतर उपनिषद में योग साधना हेतु उचित स्थान की चर्चा की गई है, जैसे योगी को समतल, शुद्ध, कंकण, अग्नि, बालू से रहित जल और आश्रय की दृ ष्टि से सर्वथा अनुकूल, नेत्रों को पीडा न देने वाला, गुहा, आदि वायु-शून्य स्थान में मन को ध्यान में लगाने का अभ्यास करना चाहिए। कठोपनिषद में योग का लक्षण करते हुए कहा है कि 'जब मन सहित पांचों इन्दियाँ स्थिर हो जाती है तो वह योग की अवस्था हो जाती है।

उपनिषदों में 'योग' शब्द आध्यात्मिक अर्थ में मिलता है । इसका उपयोग ‘ध्यान' तथा 'समाधि' के अर्थ में भी है । उपनिषदों में योग एवं योग साधना का विस्तृत वर्णन है, जिसमें जगत, जीव और परमात्मा सबंधी बिखरे हुए विचारों में योग–विषयक चर्चाएँ अनस्यूत है । मैत्रयी एवं श्येताश्वेतर आदि उपनिषदों में तो स्पष्ट और विकसित रूप में योग की भूमिका प्रस्तुत हुई है । यहाँ तक की योग, योग-चित्त स्थान, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, कुण्डलिनी के विविध मंत्र, जप आदि का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है । इस प्रकार ऋग्वेद में जोड़ने के अर्थ में प्रयुक्त शब्द 'योग' उपनिषद काल तक आते-आते शरीर, इन्द्रिय एवं मन को स्थिर करने की साधना के अर्थ में भी प्रयोग किया जाने लगा । 24

उपनिषद में क्रियात्मक योग की चर्चा करते हुए एक जगह पर षडांगयोग की परिकल्पना की गई है । सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये तो हठयोग सबंधी (आसन प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि) अंगों का वर्णन दर्शाया गया है । शरीर हल्का, आरोग्य, आलोलुप्ता, नेत्रों की प्रसन्नता वर्धक, शरीर कान्ति, मधुर, स्वर, शुभ, गंध इत्यादि योग प्रवृत्ति के लक्षणों का वर्णन किया गया है 

उपनिषदों में वर्णित योग का स्वरूप निसंदेह पूर्णतः शुद्ध व कल्याणमय है । उससे आत्मा का उत्थान होता है और साधक आध्यात्मिक जगत को प्राप्त होता है ।

महाभारत में योग

योग सम्बंधी विषयों का वर्णन महाभारत में भी मिलता है ।

‘महाभारत भारतीय संस्कृति का एक अनुपम ग्रंथ है जो अट्ठारह भागों में विभक्त है । इसके अनुशासन पर्व, शान्ति पर्व, तथा भीष्म पर्व में महर्षि वेदव्यास ने यौगिक प्रक्रियाओं का विस्तार से वर्णन किया है । जीवन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को मोड़कर अन्तर्मुखी कर देना ही यौगिक प्रक्रिया है । सर्वप्रथम महिर्ष वेदव्यास ने साधक के मन को सुदृढ़ करने, इंद्रियों की ओर से मन को समेटने तथा मनःपूर्वक योगाभ्यास करने का निर्देश दिया है, क्योंकि मन अति चंचल होता है, इसीलिये अति चंचल इन्द्रियों को वश में करना आवश्यक है। 

साधक को चाहिए कि वह विषय भोगों से इंद्रियों, मन और बुद्धि को मोड़कर सर्वव्यापी परमात्मा के साथ एकता स्थापित करने का प्रयास करे । इस ध्यान के द्वारा साधक सभी दोषों को नष्ट कर परमात्मा के स्वरूप में स्थित होने के योग्य बनाता है, जहाँ से वह वापस नहीं लौटता । परमात्मा प्राप्ति की बात को वेदव्यास ने निम्न रूप में प्रस्तुत किया है जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, वही योगी - निश्चल मन, बुद्धि और इंद्रियों द्वारा जिसकी उपलब्धि होती है उस अजन्मा पुरातन अजर अमर सनातन नित्य युक्त अणु से भी अणु और महान से महान परमात्मा का आरंभ से अनुभव करता है। इस तरह महाभारत में यौगिक प्रक्रियाओं का विभिन्न रूपों में वर्णन मिलता है ।

गीता में योग

श्रीमद्भागवत गीता को भारतीय धार्मिक ग्रंथों में सर्वश्रेष्ठ बताया है, योग का उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है । भगवतगीता को यदि योग का प्रमुख ग्रंथ कहा जाए तो उसमें कोई भी अतिशयोक्ति नहीं है। गीता में 'योग', ‘योगी और योग ’ युक्त शब्द जितना अधिक आया है, उतना किसी बड़े ग्रंथ में भी कदाचित् ही मिल सके।

गीता में योग का व्यवस्थित एवं सांगोपांग वर्णन मिलता है। गीता का हर एक अध्याय का 'ओम तत्सदिति श्रीमद्भागवतगीतासूर्पानवस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ........योगों नाम...... अध्यायः ' इन शब्दों द्वारा अंत होता है, जो योग की अनिवार्यता का प्रतिक है | 

गीता में योग शब्द का प्रयोग कई अर्थों में हुआ है। जब यह कर्म के साथ जुड़ता है तो कर्मयोग कहलाता है। इस प्रकार जब वह ज्ञानयोग के साथ जुड़ा तो ज्ञानयोग और भक्ति के साथ जुड़कर भक्तियोग कहलाया।

गीता के चतुर्थ अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को योग की परंपरा का विस्तृत इतिहास बताया जिसका सार यह था कि शिष्य परंपरा के अनुगामी आचार्य के द्वारा योग मानव समाज में आता रहा। कालांतर में उस शिष्य परंपरा के विश्नखलित हो जाने पर यह योग लुप्त प्राय हो गया । आगे भगवान अर्जुन से कहते हैं कि वह उस परम रहस्य को उसे इसलिए सुना रहे हैं क्योंकि वह उनका प्रिय भक्त और सखा है । निष्कर्ष यही है कि गीता रूपी ज्ञान और दर्शन भगवान के प्रिय भक्त याने जन-जन के लिए ही बना है । सर्वत्र परमात्मा दृष्टि की केवल भावना ही योगी नहीं है, बल्कि इसको आचरण में परिणत करना ही वस्तुतः योग है । जो दूसरों के सुख-दुख को अपना समझता है, वहीं परम योगी है।

योग वशिष्ठ में योग

हिन्दू धर्म के आध्यात्मिक ग्रंथों में "योग वशिष्ठ महारामायण" का स्थान बहुत उच्च है । इसमें भगवान श्रीरामचन्द्र और महर्षि वशिष्ठ के संवाद के रूप में दर्शन, ज्ञान, योग और कर्म सिद्धांतों का बड़ीं स्पष्टता से वर्णन किया गया है । और कहा गया है –

द्वौ क्रमो चित्तनाशस्य योगी ज्ञानं च राघव ।
योगस्तवृद्धि - रोधो हि ज्ञानं सम्यगवेक्षणम ।।
असाध्यः कस्यचिद्योगी कस्यचिद ज्ञाननिश्चयः ।
प्रकारो द्वौ ततो जगाद परमेश्वरः ।।

अर्थात्- चित्त की चंचल वृत्तियों को नष्ट करने के दो उपाय योग और 'ज्ञान' हैं । योग का आशय है - चित्त वृत्तियों का निरोध करना और ज्ञान का तात्पर्य है, आत्मा ओर परमात्मा के सच्चे स्वरूप का अनुभव करना । किसी के लिये योग कठिन होता है और किसी के लिए ज्ञान इसलिये परमेश्वर ने मनुष्यों के हितार्थ दोनों मार्ग प्रकट किये हैं ।

योग-वशिष्ठ में संसार सागर से पार होने की युक्ति को योग कहा है । अर्थात् संसार से पार होने का उपाय योग-रूप को बताया है । इनके अनुसार योग के तीन प्रभेद हैं -

  1. एकतत्व की दृढ़ भावना ।
  2. मन की शांति और
  3. प्राणों के स्पन्दन का निरोध ।

एकतत्व की दृढ़ भावना द्वारा मन शांत होता है और आत्मा में विलीन हो जाता है । इसका अभ्यास तीन प्रकार से किये जाने का विधान है

  1. अ. ब्रह्म भावना पदार्थों को अत्यंत असत् समझ कर उनके परमार्थिक अभाव को दृढ़ करना।
  2. ब. अभाव भावना - पदार्थों को अत्यंत असत् समझकर उनके पारमार्थिक अभाव की दृढ़ भावना करना ।
  3. स. केवली भावना– वह अवस्था जिसमें योगी स्वयं दृष्टा होने को भी असत् समझकर अपने उस आत्मस्वरूप में स्थित हो जाता है, जिसमें द्वेत का कोई भान ही नहीं होता।

योग वशिष्ठ में चित्त और मन को एक ही माना है तथा कहा है सब प्रकार के उपद्रवों को पैदा करने वाले संसार रूपी दुख से छूटने का एक ही उपाय है जिसका सार है कि अपने मन का विग्रह संकल्प ही मन का बंधन है और उसका अभाव ही मुक्तता है । यहां दुख वासनाओं को ही चित्त का स्वरूप बताया है तथा कहा है कि चित्त और वासना पर्यायवाची शब्द है तथा इच्छा रहित चित्त को ही शुद्ध चित्त कहा है ।

बौद्ध परंपरा में योग

‘बौद्ध परंपरा' निवृत्ति प्रधान है इसलिए इस परंपरा में भी आचार, नीति, खान-पान, शील, प्रज्ञा, ध्यान आदि के रूप में 'योग-साधना - का गहरा विवेचन हुआ बुद्ध ने संयमपूर्ण आचार विचार की अनिवार्यता प्रतिपादित करते हुए शील समाधि एवं प्रज्ञा का विधान किया है जो योग के ही स्त्रोत है । बुद्ध ने बोधी प्राप्ति के लिए जो जो उपाय बताए हैं वह निश्चय ही अत्याधत्मिक अथवा योग मार्ग के सोपान है ।

बौद्ध परंपराओं के मतानुसार योग साधना आत्मा की शुद्धि करने वाली क्रियाएं हैं जिनके द्वारा आत्मा का उतरोत्तर विकास होता है और वह मोक्ष की ओर अग्रसर होती है ।

बौद्ध परम्परा के अंतर्गत योग का अर्थ समाधि अथवा ध्यान को माना गया है। बुद्ध ने बौद्धिसत्व प्राप्त करने के बाद हठयोग को छोड़कर मध्यमा प्रतिपद के आष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया जो इस प्रकार है 1. सम्यक दृष्टि 2. सम्यक संकल्प 3. सम्यक वाक 4. सम्यक कर्म 5. सम्यक जीविका 6. सम्यक प्रयास 7. सम्यक स्मृति 8. सम्यक समाधि

जैन परम्परा में योग

‘जैन धर्म' साधना पद्धति का नाम मुक्ति मार्ग था जो मूलतः 'रत्नत्रय' पर आधारित है । रत्नत्रय के अन्तर्गत 'सम्यक – ज्ञान, ‘सम्यक दर्शन, 'सम्यक चरित्र' इन तीनों का समावेश है ।

8वी शताब्दी में ‘हरिभद्र सूरी ने योग शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आध्यात्मिक अर्थ में किया तथा योग साधना से संबंधित चार रचनाएँ की 1. योगशतक, 2. योग विंशिका 3. योग दृष्टि समुच्च्य, 4. योग बिन्दू । तत्पश्चात् आचार्य शुभचंद्र ने 'ज्ञानार्णव' तथा ‘हेमचंद्रने ‘योगशास्त्र' नामक ग्रंथ की रचना की । बीसवीं शताब्दी में यशोविजयजी तथा आचार्य तुलसी ने जैन योग को एक नई शैली में प्रतिपादन किया ।

जैनाचार्यों के अनुसार जिन-जिन साधनों से आत्मा की शुद्धि और मोक्ष होता

है, उन सब साधनों को 'योग' कह सकते हैं । इनके अनुसार मन, वचन, शरीरादि को संयत करनेवाला धर्मव्यापार ही योग है, क्योंकि यही आत्मा को उसके साध्य मोक्ष के साथ जोडता है ।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन साहित्य में योग विषयक विपुल साहित्य की रचना हुई थी।

जैन दर्शन में योग की अन्य उल्लेखनीय रचनाओं में मुख्यतः समाधितंत्र, इष्टोपदेश, समाधिशतक, परमप्रकाश, योगसार, योग प्रदीप, योगाददीपन, ध्यानदीपिका, ध्यानविचार, वैराग्यशतक, साम्यशतक, आध्यात्म कमलमार्त्तण्ड, आध्यात्मतत्ववालोक, आध्यात्मकल्पद्रुम आदि के नाम हैं ।

जैन दर्शनों के अनुसार योग के पाँच प्रकार बताएँ गए है ‘भावनायोग’, ‘ध्यानयोग', 'समतायोग' एवं 'वृत्तिसंक्षेप योग' । 'अध्यात्मयोग',

पुराणों में योग

पुराणों में अनेक स्थानो पर योग विषयक चर्चा विस्तार पूर्वक की गई ।

विभिन्न पुराणों जैसे शिव पुराण, वायु पुराण, ब्रह्ममाण्ड पुराण, स्कन्द पुराण आदि में योग-साधना का वर्णन मिलता है, जिन्हें कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। इनमें ‘भागवत पुराण' का स्थान सर्वोच्च है जिसमें योग का वर्णन अनेक स्थानो पर मिलता है । भागवत के तीन भागों (स्कन्धों) में यौगिक क्रियाओं की चर्चा मिलती है। इसके द्वितीय भाग के प्रथम एव द्वितीय अध्याय में, तृतीय भाग के पच्चीसवें तथा अठ्ठाइसवें अध्याय में तथा ग्यारहवें भाग के तेरहवें एवं चौदहवें अध्याय में ध्यान–योग की विस्तृत विवेचना हुई है ।

रामचरित्र मानस में योग

‘रामचरित्र मानस' में गोस्वामी तुलसीदासजी ने 'अरण्य काण्ड' में ज्ञान योग और भक्ति-योग का विशेषरूप से वर्णन किया है तथा इसे मोक्ष प्राप्ति का साधन बताते हुए कहा है –

धर्म से विरत योग से ज्ञाना ।
ज्ञान मोक्ष प्रद वेद बखाना ।।

'ज्ञान योग' का सार यह है कि - जीव अविद्यारूपी माया के वश में पडा तरह-तरह के पाप कर्मों को करता हुआ दुःख भोग रहा है । इससे छुटकारा पाने का साधन ‘ज्ञान योग' बताते हैं, जिससे अहंकार तथा सांसारिक वैभव को त्यागकर जीवमात्र को वैभव ब्रहम् समझ लिया जाये । इसमें आगे कहा गया है कि ज्ञान - मार्ग कठिन है। अतः भक्ति मार्ग (भक्ति-योग) सर्वोत्तम है जिसमें मनुष्य संत पुरुषों और भगवान की कृपा पर भरोसा करता हुआ इस पथ पर आगे बढ़ता चला जाता है और माया के फंदे से छुटकारा पाकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इसके अन्तर्गत तुलसीदासजी ने 'ईश्वर भक्ति को ही मुख्य मार्ग माना है। यहां उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि 'भक्ति योग' 'पातंजल योग दर्शन क्रिया योग में वर्णित 'ईश्वर प्रणिधान' के समकक्ष ही है।

नाथ संप्रदाय में योग

नाथ संप्रदाय के आचार्य महान 'हठयोगी गोरखनाथ' थे। ऐसी धारणा है कि शिव ने नाथ को और मत्सयैन्द्रनाथ ने गोरखनाथ को योग की शिक्षा दी । इन्होंने ‘शिव´ और शक्ति´ के मिलन को योग कहा है । हठयोग एवं तंत्र योग की तरह ‘कुण्डलिनी योग´ को मान्यता प्राप्त है । नाथ योग के अनुसार मोक्ष वह है जिसमें मन के द्वारा मन का अवलोकन किया जाता है । अर्थात् आत्मशक्ति को यर्थाथरूप से जानना ही जीवन मुक्ति है । इस मुक्ति के लिये मन और शरीर दोनों की मुक्ति अनिवार्य है, जो योग साधना द्वारा प्राप्त होती है।

पातंजल योग

पातंजल योगदर्शन के रचयिता महर्षि पतंजलि थे, जिन्होने योग-दर्शन के बिखरे सूत्रों को एकत्रित कर और उसे अपने मौलिक विचारों से सजाकर एक व्यवस्थित दर्शन के रूप मे प्रस्तुत किया । उन्होंने विभिन्न प्राचीन ग्रंथों के योग विषयक विचारों का संग्रह करके ‘योग - सूत्र' का सृजन किया, योगसूत्र ही इस दर्शन का मूलग्रंथ है ।

पतंजलि योगदर्शन का प्रधान उपदेश यही है कि मनुष्य स्थूल भाव से प्रगति करके सूक्ष्मता की ओर अग्रसर होता जाए अथवा भौतिकता को कम करके आत्म-तत्व को ग्रहण करता जाए । मनुष्य की चित्त वृत्तियाँ ही भौतिक अथवा स्थूल जगत की वस्तुओं को ग्रहण करने वाली व उनमें लिप्त होने वाली होती है । जैसे-जैसे उनका निरोध किया जाएगा अर्थात् उनकी बहिर्मुखी अवस्था से अन्तर्मुखी बनाया जायगा, वैसे-वैसे मनुष्य आत्म जगत मे प्रविष्ट होता जाएगा।

'महर्षि पतंजलि के अनुसार 'योगश्चित्तवृत्ति निरोधः' अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करना योग बतलाया है । इस योग की प्राप्ति के लिये अर्थात् चित्तवृत्तियों के निरोध हेतु आठ अंगों का वर्णन किया है ‘नियम', 'आसन्न' प्राणायाम, प्रत्याहार, - धारणा, ध्यान एवं समाधि ।

“योग दर्शन के मतानुसार आत्मा अविद्या के कारण प्रकृति के साथ संयुक्त हो गईं है; प्रकृति से छुटकारा पाना ही आत्मा का उद्देश्य है । आत्मा का वास्तविक दर्शन विवेक ख्याति द्वारा चित्त को अपने से भिन्न देखना और 'असंप्रज्ञात—समाधि’ द्वारा स्वरूपावस्थिति को प्राप्त करना है । चित्त और पुरुष दोनों की भिन्नता का ज्ञान अथवा यह ज्ञान होना कि शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और चित्त आत्मा से भिन्न है । यह ज्ञान दीर्घकाल निरन्तर, सत्कारपूर्वक, प्रतिपक्ष भावना के बल से, अविद्या के विरोधी तत्वज्ञान, अस्मिता के विरोधी भेदज्ञान, राग- ग-द्वेष के विरोधी संबधज्ञान के अनुष्ठान से परिपक्व हो जाता है । इसके निरन्तर अभ्यास से विवेक ज्ञान का प्रवाह निर्मल और शुद्ध हो जाता है, तथा क्लेशों का सर्वथा नाश हो जाता है । योग के आठ अंगों के अनुष्ठान से 'क्लेश रूपी अशुद्धि का वियोग होकर 'सम्यक ज्ञान' का प्रकाश बढता है |”

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