कालिदास का जीवन परिचय, कालिदास की प्रमुख रचनाएँ

कविकुलगुरू कालिदास, संस्कृत साहित्य के सर्वोत्कृष्ट कवि हैं। अपनी अद्वितीय प्रतिभा के द्वारा उन्होने शाश्वत सुरभारती का बड़ा ही सुन्दर शृङ्गार किया है। उन्होंने अपने युग में जिन शाश्वत विचारों व भावों की अभिव्यञ्जना की है वे संस्कृत साहित्य में अविस्मरणीय हैं । उनकी इस अलौकिक प्रतिभा के कारण ही उन्हे कविकुल शिरोमणि की उपाधि से विभूषित किया गया है। 

कालिदास का जीवन

कालिदास के जन्म काल तथा जन्म स्थान के तुल्य उनका जीवन भी अनुमानाश्रित ही है। किंबदन्तियों के अनुसार कालिदास आरम्भ में अत्यन्त रूप सम्पन्न किन्तु अशिक्षित एवं मूर्ख थे। उनका आविर्भाव एक ब्राह्मण कुल में हुआ था जो पशुपालन का काम करता था। एक राजकुमारी की विद्वत्ता के प्रति विद्वेष के कारण पण्डितों ने छल पुर्वक उसका विवाह कालिदास के साथ करवा दिया था। उनके वास्तविक ज्ञान एवं संसकारो का परिचय प्राप्त हो जाने पर उस राजकुमारी ने उनकी घोर भर्त्सना की । फलस्वरूप कालिदास विद्योपार्जन हेतु काली की उपासना करने लगे। उनकी कृपा से कालिदास, कालान्तर मे पूर्ण प्रतिभासम्पन्न कवि बनकर घर लौटे। पत्नी के द्वारा "अस्ति काश्चिद वाक विशेषः " कहे साक्य को सुनकर कहा जाता है, उन्होने अस्ति से प्रारम्भ कर "कुमार सम्भव" "कश्चिद्" से प्रारम्भ कर कर "मेघदूत" तथा वाक् से प्रारम्भ कर "रघुवंश" जैसे लोक विश्रुत काव्यो की रचना कर डाली ।
एक दूसरी किंबदन्ती कालिदास की सिंहलद्वीप यात्राका आख्यान प्रस्तुत करती है इसके अनुसार तत्कालिन सिंहल नरेश कुमार दास ने कालिदास को श्रीलंका बुलवा लिया। तभी से कालिदास उस राजा के परममित्र बनकर उसके राज्य में रहने लगे। वहाँ पर एक वेश्या, जो कुमार दास की चहेती थी। से उनका सम्बन्ध बन गया। एक दिन उन्होने किसी समस्या पर राजा के द्वारा पुरस्कार घोषण की बात सुनी। उक्त समस्या "कमले कमलोव्यत्तिः श्रूयते न तु दृश्यते" की पूर्ती कालिदास ने "बाले वब मुखाम्भोजे कथमिन्दीवरद्वयम्" कहकर कर दी । वेश्या ने पुरस्कार के लोभवशत् कालिदास का वध कर दिया। इस दुःखद घटना को सुनकर राजा विचलित हो उठा तथा कालिदास की चिता पर कुदकर आत्मोत्सर्ग कर दिया।

प्रसिद्ध जैन विद्वान मेरूवुड्गाचार्य ने कालिदास को अवती के राजा विक्रमादित्य का जमात कहा है । तदनुसार विक्रमादित्य की पुत्री प्रियङ्गुमन्जरी के वैदुष्य से गुरू वररुचि ने उसका विवाह महामूर्ख पशुपालक से करा दिया। कलहण ने अपनी राजतरंगिणी में मातृगुप्त को कवीन्द्र कहा है। विद्वानो का अनुमान का अनुमान है कि मातृगुप्त ही कालिदास है। मैसूर की एक किंबदन्ती का उल्लेख करते हुए डा० रमाशंकर तिवारी ने यह लिखा है कि कालिदास जब पत्नी की प्रेरणा से पूर्ण कवि होकर घर लौटे तब पत्नी को उन्होने माता मान लिया। तब पत्नी ने कुद्ध होकर उन्हे वेश्यागामी होने का शाप दे दिया और वेश्या संसर्ग से ही उनकी जीवन लीला समाप्त हो गयी।

वल्लाल कवि के भोज प्रबन्ध में यह वर्णन आता है कि कालिदास को पण्डितो की दुरार्भसन्धि के फलस्वरूप राजा भोज ने अपने राज्य से निष्कासित कर दिया था, जिस पर वाण ने अपना दुख प्रकट किया है।

कतिपय विद्वानो का मत है कि कालिदास चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के राजदूत थे और उन्होने कुन्तलेश्वर दौत्य की रचना सुतरां कालिदास के जीवन का उत्तर काल साहित्य सर्जना में बीता । काव्य जगत में उन्होने एक महत्तर एवं प्रातिम कति के रूप मे अपना स्थान बना लिया था जो स्वाभाविक सहधर्मा सहित्यकारों की स्पर्धा का विषय रहा हो ।

कालिदास का स्थान

वाणी के वरदपुत्र महाकवि कालिदास के काल के तुल्य उनका जन्म स्थान भी अनिश्चित बना हुआ है। इस विषय पर भी संक्षेपण ही विचार करना समीचीन होगा। सर्वप्रथम अत्यन्त सहृदय बेग बन्धुओं के मत समीक्षा करना उचित होगा कहना है कि कालिदास कालिभक्त होने के कारण बंगाल की उर्वरा भूमि में अंकुरित, पल्वित एवं पुष्पित हुये थें। इनका दूसरा तर्क है कि सौर मास की गणना के प्रचलन के कारण चन्द्र मास के तुल्य कृष्ण एवं शुक्ल पक्ष - इन दोनो की तिथिया एक होती है जिनका उल्लेख "आषाठस्य प्रथम दिवसें" कहकर कवि ने किया है। इनका मत सही नही लगता । क्योकि यदि वे काली भक्त होते तो अपने काव्यो मे काली की स्तुति अवश्य किये होते जिसका उनके ग्रन्थो मे अभाव जाता हें उनकी मात्र एक कृति कुमार सम्भव' में ही काली का वर्णन आय है। अपरच जो तिथि की एक रूपता के आधार पर कवि का बंगाली होना बताया गया है वह भी तर्क संगत नही है।

प्रो० लक्ष्मीधर कल्ला ने कालिदास को काश्मीर का होना बताया है-ऐसा प्रो० मिराशी' ने अपने ग्रन्थ में लिखा है। उनके अनुसार प्रों० कल्ला का मत है कि कवि ने अपने काव्य कुकार सम्भव का प्रारम्भ ही हिमालय वर्णन से किया है। मेघदूत के पक्ष की जन्स्थली अलका हिमालय पर ही अवस्थित है। विक्रमोर्वशीय में उर्वशी एवं पुरूरवा तथा कुमार सम्भव में शिव पार्वती इन दोनो येग्यों की प्रणयलीला गंधमादन पर ही हुई थी। वशिष्ठ, कष्व मरीचादि ऋषियों के आश्रम हिमालय पर ही है। मेघदूत में जो विविध वनस्पति सत्पदा एवं नुत्यगीत का वर्णन हुआ है वह काश्मीर पर ही घटित होता है क्योकि कल्हण की राज तरंगिणी एवं विल्हण के विक्रमांक देवचरित आदि में कश्मीर का ऐसा ही वर्णन है। इस प्रकार अपने जीवन के उत्कर्ष का वर्णन ही कवि ने मयग्राम के वर्णन में किया है। यह मयग्राम काश्मीर में है। अतः कवि का कश्मीरी होना सम्भव हो सकता है ।

कालिदास के काव्यों का अध्ययन यह बताता है कि उनका जन्म विदर्भ में हुआ था। उनके मालविग्निमिग नाटक मे विदर्भ राज कन्या की प्रेमकथा का सम्बिधानक । मेघदूत का रामगिरी पर्वत नागपुर के पास है। रघुवंश में कवि की उक्तियां विदर्भ की तत्कालीन सुख सम्पदा एवं सुराज्य पर प्रकाश डालती है। मेघदूत से स्पष्ट हो जाता है कि मालवा ऊपर अत्यधिक अनुरक्त है । कवि ने इस नगरी वैभव, सम्वरद्ध लोक कथाओं, सुप्रसिद्ध महाकाल के मन्दिर में सान्ध्य आरती के समय के वेश्यावृत्य आदि का अत्यन्त हृदयग्राही चित्रण प्रस्तुत किया हैं इस नगरी के सौन्दर्य एवं सौभाग्य पर कवि इतना मुग्ध है कि उसने इसे स्वर्ग का एक कांतिमान् खण्ड' कह डाला है। इस प्रकार कवि उज्जयिनी के वर्णन में रम गया दिखता है ।

अतः स्पष्ट है कि अलका को छोड़कर किसी दूसरी नगरी का ऐसा सुरूचिपूर्ण वर्णन कवि ने नही किया है। प्रों० मिराशी' के शब्दो मे कवि ने कुल 11 श्लोकों मे उज्जयिनी का नखार्शख वर्णन प्रस्तुत किया है। विद्वत परम्परा कवि को चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की राजसभा का रत्नशिरोमणी मानती आयी है। इस राजा ने अपनी दूसरी राजधानी उज्जायिनी में बनायी थी, यह पहले भी कहा जा चुका है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कवि के यौवन के दिन इस दिव्य कान्तिमत्, भुखण्ड मे ही बीते होगे। मेघदूत का ललित एवं हृदयस्पर्शी ऐतिह्य स्वानुभूतियों का स्पटोद्गार स्वीकार गया है। कदाचित पक्ष की प्रेयसी कवि स्वयं की प्राणदार्यता रही हो ।

इस प्रकार सम्भव है कि कवि का जन्म हिमाद्रि के रमणीक अन्चलों, प्राकृतिक सुषमा से चतुर्दिक व्याक्त उपत्यका मे ही हुआ हो, परिस्थितिवशात् कवि को अपनी जन्मभूमि छोड़ देनी पड़ी हो और सौभाग्यवशात् उसे उज्जययिनी की राजपरिषद का वैभवपूर्ण वातारण ससम्मान् आयन्त्रित किया हो। इससे यही प्रतीत होता है कि कालिदास की जन्मभूमि काश्मीर रही होगी तथा कर्मभूमि अवश्यमेव उज्जयिनी ।

कालिदास की प्रमुख रचनाएँ

प्रो० वा० वि० मिराशी' ने कालिदास की कुल आठ रचनाएँ स्वीकार की हैं। उनके अनुसार रघुवंश, कुमार सम्भव मेघदूत विक्रमोर्वशीय मालविकाग्निमित्रम, आभिज्ञानशाकुन्तल तथा कुन्तलेश्वरदौत्य - कुल 8 ग्रन्थ कालिदास ने रचे है। माननीय एम० कृष्णमाचारी' ने भी उपर्युक्त आठ ग्रन्थ ही कालिदास की रचनाए मानी है । परन्तु कुन्तलेश्वर दौत्य के प्रति वे पूर्ण आश्वस्त नही दीख पडते ।

क्षेमेन्द्र 3 कुन्तलेश्वर दैत्य को कालिदास की रचना मानते है यतः कुन्तलेश्वर दौत्य, सम्प्रति, उपलब्ध नही है । अतः उसे कालिदास द्वारा रचित मानने में भी आपत्ति है। क्योकि यदि उपर्युक्त 7 ग्रन्थ अद्यपि उपलब्ध है तो कुन्तलेश्वर दौत्य उपलब्ध क्यो नही हो सका। वैसे कालिदास ने दो महाकाव्य रघुवंश एवं कुमार सम्भव लिखे है रघुवंश मे 19 सर्ग एवं कुमार सम्भव में 8 सर्ग है। मेघदूत एवं ऋतु संहार लघु कलेश्वर के काव्य है। शेष तीन नाटक है। कुछ विद्वान यह मानते है कि कुमार सम्भव में कुल 22 सर्ग थे । परन्तु 17 सर्ग ही सम्प्रति उपलब्ध है। विद्वानों की मान्यता है कि इसके प्रारम्भ 8 सर्ग ही कालिदास ने लिखे है । इन्हीं पर माल्लिनाथ की टीका भी उपलब्ध है।

कालिदास के नाम पर विरचित जिन कृतियों का उल्लेख किया जाता है उनमें प्रमुख निम्नांकित हैं -

  1. ऋतुसंहार
  2. कुमारसम्भव
  3. मेघदूत
  4. रघुवंश
  5. मालविकाग्निमित्र
  6. विक्रमोर्वशीय
  7. अभिज्ञानशाकुन्तलम्
  8. श्रुतबोध
  9. राक्षसकाव्य
  10. शृङ्गारतिलक
  11. गङ्गाष्टक
  12. श्यामलादण्डक
  13. नलोदयकाव्य
  14. पुष्पबाणविलास
  15. ज्योतिर्विदाभरण
  16. कुन्तलेश्वरदीत्य
  17. लम्बोदर प्रहसन
  18. सेतु बन्ध
  19. काली स्तोत्र आदि ।

उक्त कृतियों में कुमारसम्भवम् से लेकर अभिज्ञानशाकुन्तलम् तक की रचनाएं निर्विवाद रूप से कालिदास की मानी जाती हैं। 

1. ऋतुसंहार :- ऋतुसंहार कालिदास की प्रथम काव्य कृति है । विद्वानों की दृष्टि में बालकवि कालिदास ने काव्य-कला का आरम्भ इसी ऋतु वर्णन परक लघुकाव्य से किया । इसमें कुल छः सर्ग हैं और उनमें क्रमशः ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर तथा वसन्त इन छः ऋतुओं का अत्यन्त स्वाभाविक, सरस एवं सरल वर्णन है। इसमें ऋतुओं का सहृदयजनों के ऊपर पड़ने वाले प्रभाव का भी हृदयग्राही चित्रण है । प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण हृदय को अत्यन्त आह्लादित करता है । इस काव्य में कालिदास को कमनीय शैली के दर्शन न होने के कारण कुछ विद्वान् इसे कालिदास की रचना नहीं मानते हैं

2. मेघदूत :- यह खण्ड काव्य अथवा गीति काव्य है । इसके दो भाग हैं - 1. पूर्वमेघ 2. उत्तरमेघ। इसमें अपनी वियोग-विधुरा कान्ता के पास वियोगी यक्ष मेघ के द्वारा अपना प्रणय संदेश भेजता है । पूर्वमेघ में महाकवि रामगिरि से लेकर अलका तक के मार्ग का विशद वर्णन करते समय, भारतवर्ष की प्राकृतिक छटा का एक अतीव हृदयावर्जक चित्र खड़ा कर देता है। वस्तुतः पूर्वमेघ मे वाह्य - प्रकृति का सजीव चित्र आखों के समक्ष नाचने लगता है।

3. कुमारसम्भव :- यह एक महाकाव्य है। इसमें कुल सत्रह सर्ग हैं। मल्लिनाथ ने प्रारम्भिक आठ सर्गों पर ही टीका लिखी है, और परवर्ती अलङ्कारशास्त्रियों ने इन्ही आठ सर्गों के पद्यों को अपने ग्रन्थों में उद्धृत किया है । इसलिए विद्वान् प्रारम्भिक आठ सर्गों को ही कालिदास द्वारा विरचित मानते हैं । इस महाकाव्य में शिव के पुत्र कुमार की कथा वर्णित है । कुमार को षाण्मातुर, कार्तिकेय तथा स्कन्द भी कहा जाता हैं । इसकी शैली मनोरम एवं प्रभावशाली है। भगवान शंकर के द्वारा मदन - दहन, रति- विलाप, पार्वती की तपःसाधना तथा शिव-पार्वती के प्रणय प्रसंग आदि का वृतान्त बड़े ही कमनीय ढंग से वर्णित है, जिससे सरसजनों का मन इसमें रमता है।

4. रघुवंश :- उन्नीस सर्गो में रचित कालिदास का यह सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। इसमें राजा दिलीप से प्रारम्भ कर अग्निवर्ण तक के सूर्यवंशी राजाओं की कथा का काव्यात्मक वर्णन है। सूर्यवंशी राजाओं में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के वर्णन हेतु महाकवि ने छः सर्गों ( 10-15 ) को निबद्ध किया है ।

कालिदास की इस कृति में लक्षण ग्रन्थों में प्रतिपादित महाकाव्य का सम्पूर्ण लक्षण घटित हो जाता है। इस महाकाव्य में कालिदास की काव्य-प्रतिभा एवं काव्य-शैली दोनो सर्वोत्कृष्ट रूप में दीख पड़ता है। इसकी रस - योजना, अलंकार - विधान, चरित्र-चित्रण तथा प्रकृति-सौन्दर्य आदि सभी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचकर सहृदय समाज का रसावर्जन करते हुए कालिदा की कीर्ति-कौमुदी को चतुर्दिक् विखेरते हैं। रघुवंश की व्यापकता एवं लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उस पर लगभग 4० टीकायें लिखी गयी है और इसकी रचना करने के कारण कालिदास को 'रघुकार' की पदवी से विभूषित किया जाता है ।

5. मालविकाग्निमित्र :- यह पाँच अङ्को का एक नाटक है। इसमें शुंगवंशीय राजा अग्निमित्र तथा मालविका की प्रणय कथा का मनोहर तथा हृदयहारी चित्रण है। इसमें विलासी राजाओं के अन्तःपुर में होने वाली काम-क्रीड़ाओं तथा रानियों की पारस्परिक असूया आदि का अत्यन्त यथार्थ तथा सजीव चित्रण है ।

6. विक्रमोर्वशीय :- इस नाटक में कुल पाँच अङ्क हैं। ऋग्वेद में वर्णित चन्द्रवंशीय राजा पुरुरवा तथा अप्सरा उर्वशी का प्रेमाख्यान इस नाटक का इतिवृत हैं । परोपकार-परायण पुरुखा द्वारा अप्सरा उर्वशी का राक्षसों के चंगुल से उद्धार से ही कथा का प्रारम्भ होता है। तदनन्तर उर्वशी की पुरुरवा के प्रति कामासक्ति और उर्वशी के वियोग में राजा की मदोन्मत्तता ही प्रतिपाद्य विषय बन जाती है । नाट्यकौशल की उपेक्षा कर कवि ने इसमें अपने काव्यात्मक चमत्कार का ही प्रदर्शन किया है।

7. अभिज्ञानशाकुन्तलम् :- कालिदास की नाट्यकला की चरम परिणति शाकुन्तल में हुई है । यह भारतीय तथा अभारतीय दोनो प्रकार के आलोचकों में समान रूप से आदरणीय है । जहाँ एक ओर भारतीय परम्परा 'काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला' कहकर इसकी महनीयता का गुणगान किया है। वहीं पाश्चात्य जर्मन विद्वान् 'गेटे' 'ऐश्वर्यं यदि वाञ्च्छसि प्रियसखे ! शाकुन्तलं सेव्यताम्' कहकर उसके रसास्वाद हेतु सम्पूर्ण सहृदय जगत् का आह्वान करते हैं। शाकुन्तल में कुल सात अङ्क है, और इसमें पुरूवंशीय नरेश दुष्यन्त तथा कण्व - दुहिता शकुन्तला की प्रणय कथा का अतीव चित्ताकर्षक एवं मनोरम वर्णन है ।

संदर्भ - 

1. कालिदास, पृ0 88
2. हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर, पृ0 121
3. औचित्य विचार चर्चा, पृ० 139
4. कालिदास, प्रो० वा० वि० मिराशी, पृ0 96
5. सन्दर्भ - कालिदास पृ० 29, डा० रामाशंकर तिवारी ।
2. राजतरंगिणी 3 / 182
3. सन्दर्भ - कालिदास, पृ० 32 डा० तिवारी
4. भोज प्रबन्ध - द्वादश प्रबन्ध |
5. हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिट्रेचर, पृ0 121 १

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