कालिदास की प्रमुख रचनाएँ | Kalidas Ki Rachnaye

कविकुलगुरू कालिदास, संस्कृत साहित्य के सर्वोत्कृष्ट कवि हैं। अपनी अद्वितीय प्रतिभा के द्वारा उन्होने शाश्वत सुरभारती का बड़ा ही सुन्दर शृङ्गार किया है। उन्होंने अपने युग में जिन शाश्वत विचारों व भावों की अभिव्यञ्जना की है वे संस्कृत साहित्य में अविस्मरणीय हैं । उनकी इस अलौकिक प्रतिभा के कारण ही उन्हे कविकुल शिरोमणि की उपाधि से विभूषित किया गया है। 

कालिदास की प्रमुख रचनाएँ

कालिदास Kalidas के नाम पर विरचित जिन कृतियों का उल्लेख किया जाता है उनमें प्रमुख निम्नांकित हैं -

  1. ऋतुसंहार
  2. कुमारसम्भव
  3. मेघदूत
  4. रघुवंश
  5. मालविकाग्निमित्र
  6. विक्रमोर्वशीय
  7. अभिज्ञानशाकुन्तलम्
  8. श्रुतबोध
  9. राक्षसकाव्य
  10. शृङ्गारतिलक
  11. गङ्गाष्टक
  12. श्यामलादण्डक
  13. नलोदयकाव्य
  14. पुष्पबाणविलास
  15. ज्योतिर्विदाभरण
  16. कुन्तलेश्वरदीत्य
  17. लम्बोदर प्रहसन
  18. सेतु बन्ध
  19. काली स्तोत्र आदि ।

उक्त कृतियों में कुमारसम्भवम् से लेकर अभिज्ञानशाकुन्तलम् तक की रचनाएं निर्विवाद रूप से कालिदास की मानी जाती हैं। 

1. ऋतुसंहार :- ऋतुसंहार कालिदास की प्रथम काव्य कृति है । विद्वानों की दृष्टि में बालकवि कालिदास ने काव्य-कला का आरम्भ इसी ऋतु वर्णन परक लघुकाव्य से किया । इसमें कुल छः सर्ग हैं और उनमें क्रमशः ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर तथा वसन्त इन छः ऋतुओं का अत्यन्त स्वाभाविक, सरस एवं सरल वर्णन है। इसमें ऋतुओं का सहृदयजनों के ऊपर पड़ने वाले प्रभाव का भी हृदयग्राही चित्रण है । प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण हृदय को अत्यन्त आह्लादित करता है । इस काव्य में कालिदास को कमनीय शैली के दर्शन न होने के कारण कुछ विद्वान् इसे कालिदास की रचना नहीं मानते हैं

2. मेघदूत :- यह खण्ड काव्य अथवा गीति काव्य है । इसके दो भाग हैं - 1. पूर्वमेघ 2. उत्तरमेघ। इसमें अपनी वियोग-विधुरा कान्ता के पास वियोगी यक्ष मेघ के द्वारा अपना प्रणय संदेश भेजता है । पूर्वमेघ में महाकवि रामगिरि से लेकर अलका तक के मार्ग का विशद वर्णन करते समय, भारतवर्ष की प्राकृतिक छटा का एक अतीव हृदयावर्जक चित्र खड़ा कर देता है। वस्तुतः पूर्वमेघ मे वाह्य - प्रकृति का सजीव चित्र आखों के समक्ष नाचने लगता है।

3. कुमारसम्भव :- यह एक महाकाव्य है। इसमें कुल सत्रह सर्ग हैं। मल्लिनाथ ने प्रारम्भिक आठ सर्गों पर ही टीका लिखी है, और परवर्ती अलङ्कारशास्त्रियों ने इन्ही आठ सर्गों के पद्यों को अपने ग्रन्थों में उद्धृत किया है । इसलिए विद्वान् प्रारम्भिक आठ सर्गों को ही कालिदास द्वारा विरचित मानते हैं । इस महाकाव्य में शिव के पुत्र कुमार की कथा वर्णित है । कुमार को षाण्मातुर, कार्तिकेय तथा स्कन्द भी कहा जाता हैं । इसकी शैली मनोरम एवं प्रभावशाली है। भगवान शंकर के द्वारा मदन - दहन, रति- विलाप, पार्वती की तपःसाधना तथा शिव-पार्वती के प्रणय प्रसंग आदि का वृतान्त बड़े ही कमनीय ढंग से वर्णित है, जिससे सरसजनों का मन इसमें रमता है।

4. रघुवंश :- उन्नीस सर्गो में रचित कालिदास का यह सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। इसमें राजा दिलीप से प्रारम्भ कर अग्निवर्ण तक के सूर्यवंशी राजाओं की कथा का काव्यात्मक वर्णन है। सूर्यवंशी राजाओं में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के वर्णन हेतु महाकवि ने छः सर्गों ( 10-15 ) को निबद्ध किया है ।

कालिदास की इस कृति में लक्षण ग्रन्थों में प्रतिपादित महाकाव्य का सम्पूर्ण लक्षण घटित हो जाता है। इस महाकाव्य में कालिदास की काव्य-प्रतिभा एवं काव्य-शैली दोनो सर्वोत्कृष्ट रूप में दीख पड़ता है। इसकी रस - योजना, अलंकार - विधान, चरित्र-चित्रण तथा प्रकृति-सौन्दर्य आदि सभी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचकर सहृदय समाज का रसावर्जन करते हुए कालिदा की कीर्ति-कौमुदी को चतुर्दिक् विखेरते हैं। रघुवंश की व्यापकता एवं लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उस पर लगभग 4० टीकायें लिखी गयी है और इसकी रचना करने के कारण कालिदास को 'रघुकार' की पदवी से विभूषित किया जाता है ।

5. मालविकाग्निमित्र :- यह पाँच अङ्को का एक नाटक है। इसमें शुंगवंशीय राजा अग्निमित्र तथा मालविका की प्रणय कथा का मनोहर तथा हृदयहारी चित्रण है। इसमें विलासी राजाओं के अन्तःपुर में होने वाली काम-क्रीड़ाओं तथा रानियों की पारस्परिक असूया आदि का अत्यन्त यथार्थ तथा सजीव चित्रण है ।

6. विक्रमोर्वशीय :- इस नाटक में कुल पाँच अङ्क हैं। ऋग्वेद में वर्णित चन्द्रवंशीय राजा पुरुरवा तथा अप्सरा उर्वशी का प्रेमाख्यान इस नाटक का इतिवृत हैं । परोपकार-परायण पुरुखा द्वारा अप्सरा उर्वशी का राक्षसों के चंगुल से उद्धार से ही कथा का प्रारम्भ होता है। तदनन्तर उर्वशी की पुरुरवा के प्रति कामासक्ति और उर्वशी के वियोग में राजा की मदोन्मत्तता ही प्रतिपाद्य विषय बन जाती है । नाट्यकौशल की उपेक्षा कर कवि ने इसमें अपने काव्यात्मक चमत्कार का ही प्रदर्शन किया है।

7. अभिज्ञानशाकुन्तलम् :- कालिदास की नाट्यकला की चरम परिणति शाकुन्तल में हुई है । यह भारतीय तथा अभारतीय दोनो प्रकार के आलोचकों में समान रूप से आदरणीय है । जहाँ एक ओर भारतीय परम्परा 'काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला' कहकर इसकी महनीयता का गुणगान किया है। वहीं पाश्चात्य जर्मन विद्वान् 'गेटे' 'ऐश्वर्यं यदि वाञ्च्छसि प्रियसखे ! शाकुन्तलं सेव्यताम्' कहकर उसके रसास्वाद हेतु सम्पूर्ण सहृदय जगत् का आह्वान करते हैं। शाकुन्तल में कुल सात अङ्क है, और इसमें पुरूवंशीय नरेश दुष्यन्त तथा कण्व - दुहिता शकुन्तला की प्रणय कथा का अतीव चित्ताकर्षक एवं मनोरम वर्णन है ।

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