संस्कृति किसे कहते हैं ?

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । व्यक्ति निर्माण से समाज निर्माण और समाज निर्माण से ही राष्ट्र निर्माण होता है, जो कि संस्कृति युक्त धर्म के पालन से ही सम्भव हो सकता है। प्रत्येक समाज की अपनी विशेष संस्कृति होती है। संस्कृति वस्तुतः मानवता की मेरुदण्ड है। सामान्यतः सुसंस्कारों की योजना को संस्कृति मान लिया जाता है और इस अर्थ में ऐसे व्यक्ति अथवा समूह, जिनकी जीवनविधि में सुसंस्कारों का अभाव होता है, संस्कृतिविहीन समझे जाते हैं। संस्कृति सम्पूर्ण समूह तथा उसके विशिष्ट अंगों के व्यवहार प्रकारों की योजना निश्चित करती है। उसके माध्यम से व्यक्ति तथा विशिष्ट समूह यह जान सकते हैं कि उनके कौन से व्यवहार और कार्य समाज को मान्य और स्वीकार्य हैं, कौन से नहीं । संस्कृति स्थान विशेष के रीति-रिवाजों, उत्सवों, कलाओं, आचार-विचारों आदि को प्रकट करते हुए निश्चित आदर्शों को प्रतिष्ठित करती है । यह आत्मा का शृंगार करती है, हृदय को उदात्त बनाती है तथा मन को निर्मल विचारों से सुशोभित करती है। संस्कृति ही वह असीम शक्ति है, जो एक मनुष्य को दूसरे से जोड़ती है।

इसके माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन की पूर्ण पृष्ठभूमि में अपना स्थान पाता है और संस्कृति के द्वारा उसे जीवन में रचनात्मक सन्तोष के साधन उपलब्ध होते हैं।

संस्कृति का अर्थ

संस्कृति शब्द के अनेक कोशगत अर्थ दिये गए हैं।

‘संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर' के अनुसार संस्कृति शब्द का अर्थ है, “शुद्धि, सफाई, संस्कार, सुधार, मानसिक, सजावट, सभ्यता है।" "

“ “हिन्दी साहित्य कोश' में संस्कृति शब्द 'सम' उपसर्ग के डुकृञ् (करण) धातु से 'सुट' का आगम करके 'क्तिन्' प्रत्यय लगाकर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है- साफ या परिष्कृत करना।' इस प्रकार संस्कृति शब्द का अर्थ परिष्कृत, परिमार्जन, सुधार तथा स्वच्छता आदि से रहा है।

'बृहद हिन्दी कोश' के अनुसार संस्कृति का अर्थ, “पूरा करना, शुद्धि करना, सुधार, परिष्कार, निर्माण, पवित्रीकरण, सजावट, आचरणगत, परम्परा तथा सभ्यता है।"

सरनाम सिंह के अनुसार, “सामाजिक चेतना की समग्रता का सर्वोत्तम निर्वाह ही जिसमें वैयक्तिता विकार युक्त होकर साधनाओं का श्रेष्ठत्तम आकलन करती है, संस्कृति है । ""

इस प्रकार उपर्युक्त शब्दकोशों के आधार पर कहा जा सकता है कि संस्कृति शब्द बहुत व्यापक है। संस्कृति संस्कार देती हैं, मनुष्य के समस्त विकारों का उन्मूलन करके उसे पवित्र बनाती है। संस्कृति मानव जीवन के सम्पूर्ण सामाजिक तथा व्यक्तिगत विकास के प्रयत्नों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, जीवन मूल्यों एवं आदर्शों का प्रतिबिम्ब । अतः संस्कृति वह सामाजिक विरासत है, जो हमें संस्कार के रूप में प्राप्त होती है, जिसे पाकर मनुष्य अपने सम्पूर्ण जीवन को परिमार्जित करता है।

संस्कृति की परिभाषा

संस्कृति वह सामाजिक विरासत है, जो हमें संस्कार रूप में प्राप्त होती है, जिसे पाकर मनुष्य अपने सम्पूर्ण जीवन को परिमार्जित करता है। ओम प्रकाश सारस्वत, संस्कृति को परिभाषित करते हुए कहते हैं, “संस्कृति किसी देश जाति अथवा मानव के उन आन्तरिक गुणों की समष्टि का नाम है, जो उसके आचार-विचार, कार्य-कलाप एवं जीवन पद्धतियों से अभिव्यक्त होती है। हमारी संस्कृति के गुण या मूल्य हैं- दया, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, सत्य, अहिंसा, परोपकार, आस्था, श्रद्धा, क्षमा, उदारता, विश्वबन्धुत्व की भावना, त्याग एवं संयम तथा सदाचार आदि।

'बाबू गुलाब राय' के अनुसार, “जातीय संस्कार ही संस्कृति है।"

अतः संस्कार रूप में ग्रहण सभी आदर्शों का योग संस्कृति है ।

हजारी प्रसाद द्विवेदी की मान्यता है, “सभ्यता का आन्तरिक प्रभाव संस्कृति है । सभ्यता समाज की बाह्य व्यवस्थाओं का नाम है, संस्कृति व्यक्ति के अन्तर के विकास का नाम है। "

“संस्कृति का अर्थ समस्त सीखा हुआ व्यवहार होता है। संस्कृति मानवीय व्यक्तित्व की वह विशेषता है या विशेषताओं का समूह है जो इस व्यक्तित्व को एक विशेष अर्थ में महत्त्वपूर्ण बनाती है। वस्तुतः संस्कृति उन गुणों का समुदाय है, जिन्हें मनुष्य अनेक प्रकार की शिक्षा द्वारा अपने प्रयत्न से प्राप्त करता है। 

बी0एस0 सानयाल ने परिभाषित करते हुए कहा, “संस्कृति सिद्धान्त और व्यवहार में मूल्यों के साक्षात्कार के लिए प्रयुक्त शब्द है ।" 

संस्कृति का सम्बन्ध मानवीय समाज से है। समाज संस्कृति के द्वारा ही सभ्य उत्तमशील और उन्नति की तरफ चलता है। संस्कृति के द्वारा ही मनुष्य के मानदण्ड और व्यवहार निर्धारित होते हैं। डॉ० गौरी शंकर भट्ट का कथन है कि, “संस्कृति वह यन्त्र है, जिसके द्वारा मनुष्य अपनी शरीरी आवश्यकता को पूरी करता है। ये आवश्यकताएँ सार्वभौमिक हैं। अतएव संस्कृति भी सार्वभौमिक है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रयास में ही संस्थाओं का जन्म होता है, जिनके द्वारा मानव व्यवहार के आदर्श मानदण्ड निर्धारित होते हैं। अतः प्राथमिक तथा द्वितीयक आवश्यकताओं की तृप्ति के प्रयास में निर्मित संस्थाओं की पारम्परिक सम्बन्ध प्रणाली ही संस्कृति संस्कृति मानव जीवन की गतिविधियों का संचालन करती है। यह सम्पूर्ण मानव जीवन की आधार शिला है। जीवन-पद्धति, आचार-विचार, सामाजिक परम्परा आदि संस्कृति से ही सम्बन्धित होते हैं। संस्कृति एक प्रकार का सामाजिक भाव है क्योंकि प्रदेश, प्रान्त, क्षेत्र, देश के लोग इस रीति को जीवन-यापन के लिए अपनाया करते आ रहे हैं। संस्कृति नदी के जल के समान गतिशील है जिस प्रकार नदियों-नालों का जल बहता हुआ धीरे-धीरे भागीरथी का रूप धारण कर लेता है। उसी प्रकार सामाजिक भाव एवं आचार-विचार धीरे-धीरे संस्कृति में परिवर्तित होते रहते हैं। जितना हमारा समाज स्वच्छ होगा उतना ही सुसंस्कृत हमारे राष्ट्र का निर्माण होगा। संस्कृति को परिभाषित करते हुए अशोक गौत्तम कहते हैं कि, “संस्कृति एक ऐसा शब्द है, जिससे मानव के संस्कार, संस्कारित विचार, दृष्टिकोण, उच्च व्यवहार आदि विद्यमान रहते हैं। जो व्यक्ति और वर्ग के माध्यम से समाज और राष्ट्र की श्रेष्ठता की परिचायक होती है। 

उपरोक्त विद्वानों के मतों के पश्चात् कहा जा सकता है कि संस्कृति मानव जीवन के सम्पूर्ण सामाजिक तथा व्यक्तिगत प्रयत्नों, नैतिक-अनैतिक, भौतिक अभौतिक, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, क्रियाओं, व्यवहारों, जीवन मूल्यों एवं आदर्शों का जीवन्त प्रतिविम्ब है। मनुष्य की समस्त क्रियाएँ संस्कृति से प्रभावित होती है। संस्कृति के माध्यम से ही मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास करता है। यह किसी भी मानव जीवन का सौन्दर्य होती है। संस्कृति को किसी एक महत्त्वपूर्ण परिभाषा के द्वारा नहीं बांधा ना सकता है क्योंकि संस्कृति हर प्रदेश, प्रान्त, क्षेत्र और देश की अनेक विभिन्नताओं, धर्मों, संस्कारों व व्यवहारों का मिश्रण होती है। समाज संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग है और संस्कृति समाज की आत्मा है। जिस प्रकार शरीर की समस्त इन्द्रियाँ मिलकर शरीर का संचालन करती हैं, उसी प्रकार व्यवहार, संस्कार, धर्म और आचार-विचार मिलकर संस्कृति का संचालन करते हैं।

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