संगीत का शाब्दिक अर्थ, परिभाषा, उत्पत्ति, भारतीय संगीत के प्रकार

संगीत शब्द ‘गीत’ शब्द में ‘सम’ उपसर्ग लगाकर बना है। ‘सम’ यानि ‘सहित’ और ‘गीत’ यानि ‘गान’। ‘गान के सहित’ अर्थात् अंगभूत क्रियाओं (नृत्य) व वादन के साथ किया हुआ कार्य संगीत कहलाता है। स्वरों की ऐसी रचना जो कानों को मधुर और सुरीली मालूम हों एवं जो लोगों के चित्त को प्रसन्न करें उसे ही हम संगीत कहते हैं।

संगीत का शाब्दिक अर्थ

भारतीय संस्कृति, सभ्यता व परम्पराओं के अपरिहार्य अंग के रूप में संगीत को उल्लिखित किया गया है। भारतीय संगीत का इतिहास अति प्राचीन है। विश्व के अन्य देशों में लोगों को जब लोकसंगीत का ज्ञान भी नहीं था, तब भारतीय संगीत प्रतिष्ठित स्थान को प्राप्त हो चुका था। भारतीय संगीत द्वारा सम्पूर्ण विश्व को सुर व ताल समन्वित एक अमूल्य विद्या प्राप्त हुई। संगीत का शाब्दिक अर्थ-- संगीत के शाब्दिक अर्थ पर विचार करें तो यह ‘सम्+गै:’ धातु से व्युत्पन्न हुआ है। जिसका अर्थ है अच्छे प्रकार से गाना।

संगीत शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृति ग्रन्थों में ‘‘सम्यक् गीतम्’’ से माना गया है। सम्यक का अर्थ है- ‘‘अच्छी प्रकार से’ तथा गीतं का अर्थ है- ‘गीत’ । अर्थात हर संभव ढंग से प्रभावषाली बनाकर सफलतापूर्वक गाया जाने वाला गीत ही ‘सम्यक-गीतम् है। वामन शिवराम आप्टे संस्कृत हिन्दी कोश के अनुसार सम् + गै + कत् संगीत शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार भी की जाती है-अर्थात संगीत शब्द ‘गीत’ में ‘सम्’ उपसर्ग लगाकर बना है। सम अर्थात सहित तथा गीत का अर्थ है- ‘गान’ यानि गान के सहित दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि संगीत एक अन्विति है, जिसमें गीत, वाद्य एवं नृत्य तीनों का समावेश है। 

पाश्चात्य परम्परा में संगीत के लिए म्यूजिक (MUSIC) शब्द का प्रयोग करते है। म्यूजिक शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाशा के म्यूज से मानी जाती है। वस्तुत: म्यूजिक शब्द का मूल स्वत: म्यूज शब्द है। ग्रीक परंपरा में यह शब्द उन देवियों के लिये प्रयुक्त होता था, जो कि विविध ललित कलाओं की अधिश्ठात्री देवी मानी जाती है। पहले म्यूज शब्द का प्रयोग संगीतकला की देवी के संदर्भ में ही होता था, किंतु कालान्तर में प्रत्येक कला की देवी को म्यूज शब्द से संबोधित किया जाने लगा। मूसिकी’ अरबी परम्परानुसार संगीत का समानाथ्र्ाी शब्द है। ‘मूसिकी’ की व्युत्पत्ति ‘मूसिका’ शब्द से हुई है। यूनानी भाषा में ‘मूसिका’ आवाज को कहते है। इसलिये ‘इल्मेमूसिकी’ (संगीत कला) को आवाजों का इल्म कहा जाने लगा। सृष्टि के प्रारंभ से ही संगीत सट् चित् तथा आनंद का स्रोत बनकर अविरल गति से प्रवाहित होता रहा है। 

संगीत की परिभाषा

श्री भातखण्डे जी के अनुसार- संगीत समुदायवाचक नाम है। इस नाम से तीनों कलाओं में संगीत का प्राधान्य है। अत: केवल संगीत का नाम ही चुन लिया गया है। संगीत के इस सार्वभौमिक अर्थ को स्वीकार करने पर भी गायन, वादन तथा नृत्य में से गायन को प्रमुख माना गया है। 

‘संगीत रत्नाकर’ के अनुसार संगीत की परिभाषा इस प्रकार है- ‘गीतं वाद्यं तथा नृत्तं त्रयं संगीतमुच्यते’। अर्थात् संगीत एक अन्विति है, जिसमें गीत, वाद्य तथा नृत्य तीनों का समावेश है। ‘संगीत’ शब्द में व्यक्तिगत तथा समूहगत दोनों विधियों की अभिव्यंजना स्पष्ट है। इसी कारण व्यक्तिगत गीत, वादन तथा नर्तन के साथ समूहगान, समूहवादन तथा समूहनर्तन का समावेश इसके अन्तर्गत होता है।

कान्ट के अनुसार- संगीत समस्त जीवों के समूह को आनन्द का वरदान देकर अपनी ओर खींच लेता है। 

हीगेल के अनुसार- संगीत हमारी आत्मा के सर्वाधिक निकट है। ध्वनि के रूप में संगीत का जन्म होता है और गीत के रूप में नृत्य की अनुभूति होती है। 

महाराणा कुम्भा ने संगीत के अर्थ की व्याख्या इस प्रकार की है- ‘‘सम्यग्गीतं तु संगीतं गीतादित्रियं तुवा। समष्टि व्यष्टि भावेन शब्द नानेन गीयते।।’’ अर्थात् जो सम्यक रूप से गाया जाय वह संगीत है अथवा गीत, वाद्य और नृत्य इन तीनों की समष्टि और व्यष्टि भाव से अभिव्यक्त संगीत है

संगीत की उत्पत्ति

विद्वानों ने बतलाया है कि ध्वनि दो प्रकार की होती है-
  1. संगीतोपयोगी ध्वनि जिसे हम ‘नाद’ कहते हैं।
  2. संगीतेतर ध्वनि जिसे हम ‘राव’ कहते हैं।
सभी प्रकार की ध्वनि द्रव्य के कम्पन्न से होती है। जब हम तबले में मढ़े हुये चमड़े पर थाप मारते हैं तो हम अनुभव कर सकते हैं कि सारे चमड़े में एक प्रकार का कम्पन्न उत्पन्न होता है। चाहे नाद हो या राव, कम्पन्न से ही ध्वनि उत्पन्न होती है। अन्तर यह है कि राव के उत्पादक का कम्पन नियमित और सतत् (लगातार) होता है। इसी प्रकार राव माध्यम को भी क्षणिक अभिधात से आन्दोलित का अनुभव करता है किन्तु नाद से मध्यम और कान के पर्दे में नियमित स्पन्दन होता है। 

नाद दो प्रकार का होता है- 
  1. अनाहत और 
  2. आहत
अनाहत नाद बिना किसी आघात में होता है वह संगीत के लिए उपयोगी नहीं होता क्योंकि वह रंजक नहीं है। उसका गुरू के द्वारा उपदिष्ट मार्ग योगी लोग अभ्यास करते है। वह मुक्तिदायक होता है। 

आहतनाद आघात से उत्पन्न होता है। उस आहत ध्वनि को जिसमें नियमित और सतत् कम्पन होता है, संगीत में नाद कहते हैं।

नियमित और सतत् कम्पन्न का यह वैशिष्टय है कि वह रंजकता पैदा करता है। भौतिक नियमों के कारण इस प्रकार की ध्वनि करता है। भौतिक दृष्टि से ध्वनि की नियमितता और सत्ततता से ही संगीत का उद्भव होता है। वस्तुत भौतिक शास्त्र में हमें संगीत का उद्भव नहीं बतलाता है यह तो जब संगीत उद्भव हो चुका है तब उसका भौतिक विश्लेषण करके यह बतलाता है कि ‘नाद’ के आवश्यक तत्व क्या है। यह नाद का उद्भव नहीं लक्षण बतलाता है।

भारतीय संगीत के प्रकार

1. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत -

हिन्दुस्तानी संगीत के ज्यादातर संगीतज्ञ स्वयं को तानसेन की परंपरा का वाहक मानते हैं। ध्रुपद, ठुमरी, ख्याल, टप्पा आदि शास्त्रीय संगीत की अलग-अलग विधाएँ हैं। ऐसा कहा जाता है कि तानसेन के संगीत में जादू का सा प्रभाव था। वे यमुना नदी की उठती हुई लहरों को रोक सकते थे और ‘मेघ मल्हार’ राग की शक्ति से वर्षा करवा सकते थे। वास्तव में आज भी भारत के सभी भागों में उनके सुरीले गीत रुचिपूर्वक गाये जाते हैं। अकबर के दरबार में बैजूबावरा, सूरदास आदि जैसे संगीतकारों को संरक्षण दिया गया था। कुछ अत्यंत लोकप्रिय राग हैं बहार, भैरवी, सिंधु भैरवी, भीम पलासी, दरबारी, देश, हंसध्वनि, जय जयंती, मेघमल्हार, तोड़ी, यमन पीलू, श्यामकल्याण, खम्बाज आदि। भारत में वाद्य संगीत की बहुत विधएँ हैं। इनमें सितार, सरोद, सन्तूर, सारंगी जैसे प्रसिद्ध वाद्य हैं। पखावज, तबला, और मृंदगम ताल देने वाले वाद्य हैं। इसी प्रकार बाँसुरी, शहनाई और नादस्वरम् आदि मुख्य वायु वाद्य हैं।

हिन्दुस्तानी शास्त्रीय-संगीत के संगीतज्ञ सामान्यत: एक घराने या एक विशिष्ट विधि से संबंधित होते हैं। ‘घराना’ संगीतज्ञों की वंशानुगत संबद्धता से जुड़ा हुआ शब्द है, जो किसी खास संगीत विधि के सारभाग को सूचित करता है तथा अन्य रागों से विभिन्नता प्रदर्शित करता है। घराना, गुरु-शिष्य परंपरा से निर्धारित होते हैं, अर्थात् एक विशेष गुरु से संगीत की शिक्षा प्राप्त शिष्य समान घराने के कहलाते हैं। ग्वालियर घराना, किरण घराना, जयपुर घराना आदि जाने माने घराने हैं।

कीर्तन, भजन, राग जैसे भक्तिपूर्ण संगीत ‘आदिग्रंथ’ में समाहित हैं।

2. कर्नाटक संगीत -

कर्नाटक संगीत की रचना का श्रेय सामूहिक रूप से तीन संगीतज्ञों श्याम शास्त्री, थ्यागराजा और मुत्थुस्वामी दीक्षितर को दिया जाता है, जो 1700 ई. से 1850 ई. के बीच के काल के थे। पुरंदरदास, कर्नाटक संगीत के एक दूसरे महत्त्वपूर्ण रचनाकार थे। थ्यागराजा का सम्मान एक महान कलाकार और संत दोनों रूपों में किया जाता है। वे कर्नाटक संगीत के साक्षात् मूर्त्त प्रतीक हैं। उनकी मुख्य रचनाओं को ‘‘कृति’’ के रूप में जाना जाता है, जो भक्ति प्रकृति की है। तीन महान संगीतज्ञों ने नए तरीकों का प्रयोग किया। 

महावैद्यनाथ अययर (सन् 1844-93), पतनम सुब्रह्मण्यम आयंगर (सन् 1854-1902 ई.), रामनद श्रीनिवास आयंगर (सन् 1860-1919 ई.) आदि कर्नाटक संगीत के अन्य महत्त्वपूर्ण संगीतज्ञ हैं। बाँसुरी, वीणा, नादस्वरम्, मृदगम्, घटम् कर्नाटक संगीत में प्रयुक्त मुख्य वाद्ययंत्रा हैं।

हिन्दुस्तानी और कर्नाटक संगीत में कुछ असमानताओं के बावजूद उनमें कुछ समान विशेषताएं मौजूद है, जैसे कर्नाटक संगीत का ‘आलपन’ हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के ‘आलाप’ के समान है। कर्नाटक संगीत में व्यवहृत ‘तिलाना’ हिन्दुस्तानी संगीत के ‘तराना’ से मिलता जुलता है। दोनों संगीत विधएं ‘ताल’ या तालम् पर जोर देते हैं।

3. आधुनिक भारतीय संगीत -

अंग्रेजी शासन के साथ पश्चिमी संगीत भी हमारे देश में आया। भारतीय संगीत की मांग को संतुष्ट करने के लिए भारतीयों ने वायलिन और शहनाई वाद्ययंत्रों को अपनाया। मंच पर संगीत का वृन्दवादन एक नया विकास है। कैसेटों के उपयोग ने धुनों और रागों के मौखिक प्रदर्शन को प्रतिस्थापित कर दिया है। संगीत, जो कुछ सुविधा-सम्पन्न ध्नी लोग के बीच ही सीमित था, अब व्यापक जनता को उपलब्ध है। देश में मंचीय प्रदर्शनों के द्वारा हजारों संगीत प्रेमी आनंद उठा सकते हैं। 

संगीत की शिक्षा अब गुरु-शिष्य व्यवस्था पर ही निर्भर नहीं है, अब इसकी शिक्षा संगीत सिखाने वाले संस्थानों में भी दी जाती है। अमीर खुसरो, सदारंग अदरंग, मियां तानसेन, गोपाल नायक, स्वामी हरिदास, पंडित वी. डी. पलुस्कर, पंडित वी.एन. भातखंड़े, थ्यागराजा, मुत्थुस्वामी दीक्षितर, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, पंडित विनायक राव पटवर्द्धन, पंडित भीमसेन जोशी, पंडित वुफमार गंध्र्व, केसरबाई केरकर तथा श्रीमती गंगूबाई हंगल आदि प्रमुख संगीत गायक हैं। 

वादकों में पंडित रविशंकर प्रमुख संगीतज्ञ हैं।

4. लोक संगीत -

शास्त्रीय संगीत के अतिरिक्त भारत के पास लोक संगीत या लोकप्रिय संगीत की एक समृद्ध विरासत है। यह संगीत जनभावनाओं को प्रस्तुत करता है। साधरण गीत, जीवन के प्रत्येक घटनाओं को चाहे वह कोई पर्व हो, नई त्रतु का आगमन हो, विवाह या किसी बच्चे के जन्म का अवसर हो, ऐसे उत्सव मनाने के लिए रचे जाते हैं। राजस्थानी लोकसंगीत जैसे मांड़, भाटियाली और बंगाल की भटियाली पूरे देश में लोकप्रिय है। रागिनी हरियाणा का प्रसिद्ध लोक गीत है।

लोक गीतों का एक खास अर्थ तथा संदेश होता है। वे अक्सर ऐतिहासिक घटनाओं और महत्त्वपूर्ण अनुष्ठानों का वर्णन करते हैं। कश्मीरी ‘गुलराज’ सामान्यत: एक लोक कथा है। मध्य प्रदेश का ‘पंड्याणी’ भी एक कथा है, जिसे संगीतबद्ध कर प्रस्तुत किया जाता है।

Post a Comment

Previous Post Next Post