अनुक्रम
स्थिर और सुखकर शारीरिक स्थिति मानसिक संतुलन लाती है और मन की चंचलता को रोकती है। आसनो की प्रारंभिक स्थिति में अनेक प्रकारान्तरों के द्वारा अपने शरीर को अन्तिम स्थिति के अभ्यास के लिए तैयार किया जाता है। महर्षि घेरण्ड, घेरण्ड संहिता में आसनों के सन्दर्भ में बताते हैं कि इस संसार में जितने जीव-जंतु हैं, उनके शरीर की जो सामान्य स्थिति है, उस भंगिमा का अनुसरण करना आसन कहलाता है। भगवान् शिव ने चौरासी लाख आसनों का वर्णन किया है। उनमें से चौरासी विशिष्ट आसन हैं ओर चौरासी आसनों में से बत्तीस आसन मृत्यु लोक के लिए आवश्यक माने गये हैं। महर्षि पतंजलि ने आसन शरीर को स्थिर और सुखदायी रखने की तकनीक के रूप में बताया है।
जो स्थिर और सुखदायी हो वह, आसन है।
हमें किसी भी प्रकार की साधना करने के लिए आसन के अभ्यास की आवश्यकता हेाती हैं । आसन मे स्थिरता व सुख होने पर ही हम प्राणायाम आदि क्रिया सम्पन्न कर सकते हैं। अत: स्वाभाविक व प्राथमिक आवश्यकता साधना के लिए ‘‘आसन’’ की होती है। आसन से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है-
तेजबिंदु उपनिशद् में आसनों को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-
जिस स्थिति में बैठकर सुखपूर्वक निरंतर परमब्रह्म का चिंतन किया जा सके, उसे ही आसन समझना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने आसनों को इस प्रकार बताया है-
कमर से गले तक का भाग, सिर और गले को सीधे अचल धारण करके तथा दिशाओं को न देख केवल अपनी नासिका के अग्र भाग को देखते हुए स्थिर होकर बैठना आसन है। व्यास भाष्य के अनुसार- पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, स्वस्तिकासन, दण्डासन, सोपाश्रय, पर्यड़क्, क्रौन्चनिषदन, हस्तिनिषदन, उष्ट्रनिषदन, समसंस्थान- ये सब स्थिरसुख अर्थात्् यथासुख होने से आसन कहे जाते हैं।
इससे स्पष्ट है कि शारीरिक लाभ तो स्वाभाविक है, लेकिन आध्यात्मिक, मानसिक लाभ भी साथ-साथ मिलते हैं।
प्रयत्न की शिथिलता से तथा अनंत परमात्मा में मन लगाने से सिद्ध होता है। आसन की सिद्धी से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है-
उस आसन की सिद्धि से जाड़ा-गर्मी आदि द्वन्द्वों का आघात नहीं लगता। आसन के फल से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है- व्यास भाष्य- आसन जय के कारण शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों द्वारा (साधक) अभिभूत नहीं होता। स्वामी हरिहरानंद- ‘‘आसनस्थैर्य के कारण शरीर में शून्यता आ जाती है’’ स्पष्ट है कि जब हम आसन सिद्ध कर लेंगे तो हमें शुभ-अशुभ सुख-दुख, गर्मी-ठण्डी आदि भाव नही सतायेंगे। हम बोधशून्य हो जाते हैं। क्योंकि पीड़ा एक चंचलता ही है और आसन सिद्धि तो चंचलता की समाप्ति होने पर ही हो सकती है
आसन का अर्थ
आसन शब्द संस्कृत भाषा के ‘अस’ धातु से बना है जिसके दो अर्थ हैं- पहला है ‘बैठने का स्थान’ तथा दूसरा ‘शारीरिक अवस्था’।- बैठने का स्थान
- शारीरिक अवस्था
स्थिरंसुखमासनम्।। पातंजल योग सूत्र 2/46
जो स्थिर और सुखदायी हो वह, आसन है।
हमें किसी भी प्रकार की साधना करने के लिए आसन के अभ्यास की आवश्यकता हेाती हैं । आसन मे स्थिरता व सुख होने पर ही हम प्राणायाम आदि क्रिया सम्पन्न कर सकते हैं। अत: स्वाभाविक व प्राथमिक आवश्यकता साधना के लिए ‘‘आसन’’ की होती है। आसन से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है-
तेजबिंदु उपनिशद् में आसनों को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-
सुखनैव भवेत् यस्मिन् जस्त्रं ब्रह्मचिंतनम्।
जिस स्थिति में बैठकर सुखपूर्वक निरंतर परमब्रह्म का चिंतन किया जा सके, उसे ही आसन समझना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने आसनों को इस प्रकार बताया है-
समं कायषिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिषष्चानवलोकयन्।। श्रीमद्भगवद्गीता 6/13
कमर से गले तक का भाग, सिर और गले को सीधे अचल धारण करके तथा दिशाओं को न देख केवल अपनी नासिका के अग्र भाग को देखते हुए स्थिर होकर बैठना आसन है। व्यास भाष्य के अनुसार- पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, स्वस्तिकासन, दण्डासन, सोपाश्रय, पर्यड़क्, क्रौन्चनिषदन, हस्तिनिषदन, उष्ट्रनिषदन, समसंस्थान- ये सब स्थिरसुख अर्थात्् यथासुख होने से आसन कहे जाते हैं।
विज्ञानभिक्षु के अनुसार - जितनी भी जीव जातियां है, उनके बैठने के जो आकार विशेष हैं, वे सब आसन कहलाते हैं।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार - आसन के स्थिर होने का तात्पर्य है, शरीर के अस्तित्व का बिल्कुल भान तक न होना।आसनों के सबंध में आचार्य श्री राम शर्मा कहते हैं कि ‘‘आसनों का गुप्त आध्यात्मिक महत्व है, इन क्रियाओं से सूर्य चक्र, मणिपुर चक्र, अनाह्त चक्र आदि सूक्ष्म ग्रंथियों का जागरण होता है और कई मानसिक शक्तियों का असाधारण रूप से विकास होने लगता है।’’
इससे स्पष्ट है कि शारीरिक लाभ तो स्वाभाविक है, लेकिन आध्यात्मिक, मानसिक लाभ भी साथ-साथ मिलते हैं।
आसन की सिद्धी
महर्षि पतंजलि ने आसन की सिद्धी के सन्दर्भ में स्पष्ट करते हुए कहा है कि -
प्रयत्नषैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् ।। योग सूत्र 2/47
प्रयत्न की शिथिलता से तथा अनंत परमात्मा में मन लगाने से सिद्ध होता है। आसन की सिद्धी से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है-
- व्यास भाष्य के अनुसार - प्रयत्नोपरम् से आसन सिद्धि होती है।
- स्वामी हरिहरानंद के अनुसार - आसन सिद्धि अर्थात् शरीर की सम्यक् स्थिरता तथा सुखावस्था प्रयत्नशैथिल्य और अनंत समापत्ति द्वारा होती है।
- स्वामी विवेकानंद के अनुसार - अनंत के चिंतन द्वारा आसन स्थिर हो सकता है। स्पष्ट है कि आसन तभी सिद्ध कहलाता है जब स्थिरता व प्रयत्न की शिथिलता अर्थात् अभाव होगा क्योंकि प्रयत्न करने पर स्थिर सुख का लाभ प्राप्त नही हो सकता है न हीं स्थिरता के भाव प्राप्त हो सकते है।
आसन का परिणाम
जब आसन के अभ्यास से स्थिरता का भाव आ जाएगा वो हमें किसी भी प्रकार का दु:ख द्वन्द्व आदि हमें विचलित नही कर पायेंगे। इसे ही महर्षि पतंजलि ने आसन के फल के रूप में स्पष्ट करते हुए कहा है कि
ततो द्वन्द्वानभिघात: ।। पातंतज योग सूत्र 2/48
उस आसन की सिद्धि से जाड़ा-गर्मी आदि द्वन्द्वों का आघात नहीं लगता। आसन के फल से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है- व्यास भाष्य- आसन जय के कारण शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों द्वारा (साधक) अभिभूत नहीं होता। स्वामी हरिहरानंद- ‘‘आसनस्थैर्य के कारण शरीर में शून्यता आ जाती है’’ स्पष्ट है कि जब हम आसन सिद्ध कर लेंगे तो हमें शुभ-अशुभ सुख-दुख, गर्मी-ठण्डी आदि भाव नही सतायेंगे। हम बोधशून्य हो जाते हैं। क्योंकि पीड़ा एक चंचलता ही है और आसन सिद्धि तो चंचलता की समाप्ति होने पर ही हो सकती है
अत: हममें यह चंचलता रूपी पीड़ा का भान नही होता है हम कसी भी स्थिति मे सुख व शांत होते हैं।
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