पाठ्यक्रम क्या है
पाठ्यक्रम शिक्षा पद्धति का आवश्यक अंग है। शिक्षक किसी भी शिक्षण विधि का प्रयोग करें, किसी भी शिक्षण पद्धति का अनुसरण करें एवं कोई भी विषय पढ़ाए, उसे एक निश्चित पाठ्यक्रम के अनुसार कार्य करना पड़ता है। पाठ्यक्रम के बिना न तो वह शिक्षण को व्यवस्थित कर पाता है और ना ही शिक्षा के व्यापक तथा तात्कालिक उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो सकता है। अब प्रश्न उत्पन्न होता है पाठ्यक्रम क्या है पाठ्यक्रम दो शब्दों के योग से बना है। पाठ्य + क्रम अर्थात् पढ़ने योग्य सामग्री का क्रम।'curriculum' शब्द का हिन्दी रूपान्तरण पाठ्यक्रम है। यह शब्द लैटिन के शब्द 'currer' शब्द से बना है। जिस का अर्थ है- ‘दौड़ का पथ’। अत: पाठ्यक्रम का शाब्दिक अर्थ है- ‘शिक्षा-सम्बन्धी दौड़ का वह मार्ग जिस पर दौड़ कर बालक अपने व्यक्तित्व विकास लक्ष्य को प्राप्त करता है।
पाठ्यक्रम को और अधिक स्पष्ट करते हुए कनिंधम कहते हैं- “पाठ्यक्रम कलाकार (शिक्षक) के हाथों में एक औजार (साधन) है जिससे वह अपनी वस्तु (छात्र) को अपने कक्षाकक्ष (विद्यालय) में अपने आदर्शों के अनुसार ढालता है।” बालक के व्यक्तित्व के विकास के लिए अध्यापक विद्यालय के पूर्ण शिक्षण-सत्र में एक निश्चित विषय सामग्री तथा अनुभवों को अपनी शिक्षण-प्रक्रिया के माध्यम से छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करता है। ये अधिगम-अनुभव ही किसी विषय-विशेष का पाठ्यक्रम बनाते हैं।
पाठ्यक्रम की परिभाषा
पाठ्यक्रम की परिभाषा (pathyakram ki paribhasha) पाठ्यक्रम की परिभाषा इस प्रकार है -
1. हार्न का कथन है - “पाठ्यक्रम अनुभवों का भण्डार है । वह जीवन की समस्याओं की एक श्रृंखला है जो जीवन में समय-समय पर प्राप्त होती है।
2. कनिंघम - “पाठ्यक्रम का अभिप्राय मनुष्य जाति के सम्पूर्ण ज्ञान और अनुभव के सार से लिया जाता है । संक्षेप में वह पाठ्य-विषयों का व्यवस्थित स्वरूप है जो अनेक विद्वानों के सहयोग से निर्मित होता है।
पाठ्यक्रम की आवश्यकता
- पाठ्यक्रम के द्वारा ही स्पष्ट किया जाता है कि विद्यालय में विभिन्न स्तरों पर किस-किस विषय का ज्ञान छात्रों को दिया जायेगा। इस प्रकार पाठ्यक्रम से पाठ्यसामग्री का निर्धारण होता है। जिससे शिक्षण-प्रक्रिया को सुनियोजित करने में सहायता मिलती है।
- पाठ्यक्रम के निश्चित होने से अध्यापक को यह पता लगता है कि पूरे शिक्षण-सत्र के दौरान उसे किस कक्षा विशेष को क्या व कितना पढ़ाना है।
- छात्रों को भी यह पता चल जाता है कि किसी कक्षा विशेष में उन्हें पूरे शिक्षण-सत्र के दौरान क्या-क्या पढ़ना व सीखना है।
- पाठ्यक्रम माता-पिता का मार्गदर्शन करता है।
- पाठ्यक्रम की सहायता से अध्यापक कक्षा शिक्षण के दौरान अपने शिक्षण-लक्ष्यों से नहीं भटकता है।
- पाठ्यक्रम की सहायता से छात्रों की योग्यता का मूल्यांकन एक निश्चित समय के पश्चात् किया जा सकता है।
- पाठ्यक्रम पूरे समाज व देश में शिक्षा के सामान्य स्तर को बनाए रखने में सहायक है।
- परीक्षण के प्रश्नपत्र का निर्माण करने हेतु पाठ्यक्रम एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाता है।
- पाठ्यपुस्तकों का निर्माण पाठ्यक्रम के आधार पर ही होता है।
- पाठ्यक्रम की सहायता से मुख्याध्यापक या निरीक्षक अपने विद्यालय की शैक्षिक प्रगति का निरीक्षण कर सकते हैं।
पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत
पाठ्यक्रम का निर्माण बहुत सोच-चिन्तन रखने वाले विद्वानों द्वारा ही करवाना चाहिए क्योंकि विद्यालय की सभी शैक्षिक क्रियाएं पाठ्यक्रम पर ही आधारित होती है।1. पाठ्यक्रम शैक्षिक उद्देश्यों के अनुकूल हो: पाठ्यक्रम ऐसा हो जो शैक्षिक लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक हो।
पाठ्यक्रम की प्रत्येक इकाई अनेक उद्देश्यों पर आधारित हो। यथा विषय का उद्देश्य छात्रों का सृजनात्मक विकास
करना हैं तो पाठ्यक्रम में रचना-सम्बन्धी प्रकरणों को शामिल किया जाए जो बालक की सृजनात्मकता को
विकसित करने में सहायक हो।
2. मानसिक स्तरानुकूल: आज सम्पूर्ण शिक्षण प्रक्रिया बाल-केन्द्रित है। इस तथ्य को सभी स्वीकारते हैं कि बालक
उस विषय को आसानी से आत्मसात कर सकता है जो उसकी रूचि, अधिगम क्षमता, मानसिक व बौद्धिक विकास
को ध्यान में रखकर निर्मित किया जाता है। यदि बालक प्राकृतिक दृश्यों या घटनाओं में रूचि रखता है तो पाठ्यक्रम
में ऐसी सामग्री का चुनाव किया जाए जिसमें प्राकृतिक दृश्यों आदि का चित्रण हो।
3. क्रियाशीलता: पाठ्यक्रम का आयोजन इस प्रकार से किया जाए जिसमें छात्र को स्वयं कार्य करने के अवसर प्राप्त
हों। क्योंकि बच्चा हमेशा सक्रिय रहना चाहता है। स्वयं करके सीखा ज्ञान हमेशा स्थायी होता है।
4. वातावरण के साथ एकीकरण: शिक्षा बालक को जीवन के साथ साम×जस्य करना सिखाती है। अत: पाठ्यक्रम
में बच्चे के जीवन से सम्बन्धित घटनाओं को शामिल करें, ताकि वह अपने सामाजिक वातावरण के साथ तालमेल
स्थापित कर सके।
5. समवाय का सिद्धांत: ज्ञान स्वयं में पूर्ण इकाई है विभिन्न विषय ज्ञान की उप इकाई है और उनमें आपस में
सहसम्बन्ध होता है। भाषा एक कौशल है, जिसमें हम बच्चों में सुनने, बोलने, पढ़ने और लिखने का कौशल विकसित
करने का प्रयास करते हैं। इन सभी कौशलों को विकसित करने के लिए हिन्दी भाषा के पाठ्यक्रम में जो शिक्षण
सामग्री ली जाती है वह विभिन्न विषयों से सम्बन्धित होनी चाहिए। जैसे किसी महान वैज्ञानिक के पाठ द्वारा हिन्दी
व विज्ञान में समवाय स्थापित किया जा सकता है।
6. उपयोगिता का सिद्धांत: भाषा का अध्ययन करने से ही बालक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में पदार्पण करने में समर्थ
होता है। अत: भाषा के पाठ्यक्रम में ऐसे प्रकरणों को स्थान देना चाहिए जो बालक को भावी जीवन के लिए तैयार
करके समाज का उपयोगी सदस्य बना सकें।
7. निरन्तरता का सिद्धांत: पाठ्यक्रम निर्मित करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि परिचित व ठोस तथ्यों की
सहायता से अपरिचित व सूक्ष्म तथ्यों को जानें, इससे अधिगम में निरन्तरता बनी रहती है।
8. लचीलापन का सिद्धांत: पाठ्यक्रम में समाज की बदलती हुई परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन करने की सुविधा होना जरूरी है ताकि पाठ्यक्रम में बच्चों की तात्कालिक आवश्यकताओं को स्थान देकर पाठ्यक्रम को रूढ़िवादी
होने से बचा सकें।
9. इकाईयों में विभाजित: पाठ्यक्रम छोटी-छोटी इकाईयों में विभाजित होना चाहिए। प्रत्येक इकाई के उद्देश्य स्पष्ट
होने चाहिए। इससे पाठ्यक्रम सुबोध, सुस्पष्ट तथा सुग्राह्य होता है।
10. निर्देश एवं सूचनाएँ: पाठ्यक्रम में अध्यापक के लिए आवश्यक निर्देश एवं सूचनाएं हो। यथा प्रत्येक पाठ के
सामान्य एवं विशिष्ट उद्देश्य, पौराणिक एवं ऐतिहासिक संदर्भों की व्याख्या, उचित शिक्षण साधन, विषय-सामग्री
से सम्बन्धित सहायक-क्रियाएँ शिक्षण प्रक्रिया के दौरान आने वाली समस्याएं एवं उनका समाधान।
पाठ्यक्रम के गुण
- पाठ्यक्रम में समवाय के सिद्धान्तों का पालन किया गया है।
- पाठ्यक्रम में प्रजातान्त्रिक मूल्यों के विकास आदि का ध्यान रखा है।
- पाठ्य सामग्री बच्चों के मानसिक एवं बौद्धिक स्तर के अनुकूल होती है।
- पत्र एवं निबन्ध रचना के माध्यम से लिखित अभिव्यक्ति योग्यता को विकसित कर भावी जीवन के लिए तैयार किया जाता है।
पाठ्यक्रम के दोष
- पाठ्यक्रम में उचित क्रम का अभाव है।
- एक स्तर का पाठ्यक्रम दूसरे स्तर के पाठ्यक्रम से पूरी तरह से सम्बन्धित नहीं है। ,
- बाल-मनोविज्ञान का पूरी तरह ध्यान नहीं रखा जाता।
- पाठ्यक्रम में साहित्यिक क्रियाओं का उचित स्थान नहीं है।
- पाठ्यक्रम को सामाजिक जीवन से सम्बन्धित नहीं किया गया है।
- समवाय के सिद्धान्त का भी पूरी तरह पालन नहीं किया गया है।
Thanks...
ReplyDeleteThnks
ReplyDeleteThanks
ReplyDeleteThankyou
ReplyDeleteThankyou
ReplyDeleteThanku
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteIt's my B.Ed. work Thanks
ReplyDeleteThanks
ReplyDeletePathyakram nirman me school ki bhumika bh bataiye sir🙏🙏🙏
ReplyDeleteThanks
ReplyDeleteHii muje pathykram Vikas ke utprerak bataiye
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