पाठ्यवस्तु का अर्थ, परिभाषा, पाठ्यक्रम के मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधायें

पाठ्यवस्तु में निर्धारित पाठ्य-विषयों से संबंधित क्रियाओं का ही समावेश होता है। इस प्रकार पाठ्यवस्तु के अंतर्गत किसी विषयवस्तु का विवरण शिक्षण के लिए तैयार किया जाता है जिसे शिक्षक छात्रों को पढ़ाता है।

पाठ्यपुस्तक की परिभाषा

1. हेनरी हरेप के अनुसार -’’ पाठ्यवस्तु (सिलेबस) केवल मुद्रित संदर्शिका है जो यह बताती है कि छात्र को क्या सीखना है? पाठ्यवस्तु की तैयारी पाठ्यक्रम विकास के कार्य का एक तर्कसम्मत सोपान है।’’ 

2. श्रीमती आर.के. शर्मा के अनुसार -’’पाठ्यवस्तु किसी विद्यालयी या शैक्षिक विषय की उस विस्तृत रूपरेखा से है जिसमें विद्यालय शिक्षक, शिक्षार्थी एवं समुदाय के उत्तरदायित्वों के निर्वहन के साथ-साथ छात्र के सर्वागीण विकास के अध्ययन तत्व समाहित होते हैं।’’

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पाठ्यक्रम के मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधायें 

पाठ्यक्रम के मार्ग में अनेक बाधायें भी आ जाती है जिससे यह अपेक्षित गति से सम्पन्न नहीं हो पाता। मौरिस एवं हाउसन के अनुसार किसी सफल नवीन प्रवृत्ति की व्यापक स्वीकृति में सामान्यता पचास वर्ष तक लग जाते है। अत: पाठ्यक्रम के मार्ग में आने वाली बाधाओं को जानना तथा उनको दूर करने के उपाय करना भी आवश्यक होता है। पाठ्यक्रम के मार्ग में उत्पन्न होने वाली कुछ प्रमुख बाधायें इस प्रकार हैं-

1. परम्परा के प्रति प्रेम एवं झुकाव- प्रारम्भ में पाठ्यक्रम मे जो प्रकरण अथवा अन्तर्वस्तु सम्मिलित किये जाते है उनका अपना कुछ-न-कुछ औचित्य होता है। कुछ प्रकरणों का कुछ समय बाद कोई औचित्य नहीं रह जाता तथा वे कालातीत हो जाते है किन्तु फिर भी वे पाठ्यक्रम के अंग बने रहते है। ऐसा परम्परा के प्रति प्रेम एवं झुकाव के कारण होता है। इस कमी को सभी स्तरों के पाठ्यक्रम कार्यकर्त्ताओं में अनुभव किया जा सकता है। अत: ऐसे प्रकरणों को जिनके निकाल देने से छात्रों को कोई हानि नहीं होती है तथा वे पाठ्यक्रम के आकार को मात्र बड़ा कर रहे है निकालकर उनके स्थान पर उपयोगी समयानुकूल सामग्री को सम्मिलित किया जाना चाहिए। 

2. आस्थाओं एवं सिद्धान्तों के प्रति प्रतिबद्धता की कमी- किसी भी कार्यक्रम की सफलता उसमें आस्था की दृढ़ता तथा उसके सिद्धांतों के प्रति प्रतिबअद्धता पर निर्भर करती है। प्राय: नवीन परिवर्तनों के प्रति कार्यकत्ताओं में आस्था एवं विश्वास का अभाव होता है। जिससे वे उनके प्रति प्रतिबद्ध भी नहीं हो पाते है। ऐसे में इन परिवर्तित कार्यक्रमों से सम्बन्धित व्यक्ति ऊपरी मन से ही इन्हें स्वीकार करते है तथा अपेक्षित उद्यतता एवं तत्परता से कार्य नहीं करते है। परिणामस्वरूप परिवर्तन के मार्ग में बाधा उत्पन्न होती है। 

3. अभिमत एवं आस्था में विभेद की असमर्थता- परिवर्तन के प्रति अभिमत एवं आस्था को सामान्यता एक ही अर्थ मे ले लिया जाता हैं किन्तु इनमें अन्तर होता है। यद्यपि अभिमत आस्था की दिशा में ही एक कदम होता है फिर भी इसे आस्था नहीं माना जा सकता है। आस्था में अभिमत की अपेक्षा बहुत अधिक दृढ़ता होती है। इसका कारण यह है कि आस्था गहन चिन्तन के पश्चात् बनती है तथा इसकी स्थायित्व के बारे में आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। अत: पाठ्यक्रम परिवर्तन की 25 दृष्टि से इन दोनों में विभेद करना आवश्यक होता है। किन्तु प्राय: लोग इनके विभेद करने में असमर्थ होते है तथा अभिमत को ही आस्था मान बैठते है। अभिमत को ही आस्था का रूप मानने के कारण पाठ्यक्रम का आधार नहीं बन पाता।

4. शिक्षकों की जड़ता एवं रूढ़िवादिता- किसी भी शैक्षिक कार्यक्रम का आयोजन एवं उसका क्रियान्वयन शिक्षकों द्वारा ही किया जाता है। नवीन कार्यक्रमों का क्रियान्वयन एवं उनकी सफलता शिक्षकों में उनके प्रति उत्साह श्रमशीलता एवं भविष्योन्मुख सोच पर निर्भर करती है। प्रसिद्ध पाठ्यक्रम विशेषज्ञ डॉ. सी. ई. बीबी के अनुसार-’’ पाठ्यक्रम में परिवर्तन लाने तथा नवाचारों को अपनाने के मार्ग में शिक्षकों की जड़ता एवं रूढ़िवादिता सबसे बड़ी बाधा उत्पन्न करती है। वे नवीन प्रयोग करने में, नवाचारों को अपनाने में उनका संरक्षण करने में हिचकते है। अभिभावकों तथा अन्य शैक्षिक रूचि वाले अभिकरणों की प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं का भी उन्हें भय रहता है। कुछ इसलिए भी हिचकते है कि उनके सहकर्मी उन पर ताने कसते है कि क्यों सबके मार्ग में काँटे बो रहे हों।’’ अत: शिक्षकों की इस प्रवृत्ति के गहन विश्लेषण की आवश्यकता है। डॉ. बीबी के मतानुसार नवाचारों को अपनाने में शिक्षकों की विफलता के दो कारण हो सकते है। प्रथम- यह कि वे उन नवाचारों को अपनाना ही नहीं चाहते हों तथा द्वितीय- उन्हें समझनें एवं अपनाने के लिए सक्षम ही न हों। अत: इसके समाधान हेतु उन्हें समुचित प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।

5. राष्ट्रीय हठधर्मिता (National Obstinancy)-पाठ्यक्रम के विकास के संबंध में किसी भी राष्ट्र के सम्मुख दो स्थितियाँ होती हैं। एक तो यह कि किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था विदेशी प्रतिमानों पर नहीं चल सकती तथा उसे स्वयं अपने प्रतिमान विकसित करने आवश्यक होते हैं। दूसरी तरफ दूसरे देशों में शिक्षा संबंधी सफल प्रयोगों से प्रत्येक देश न्यूनाधिक अंशों में अवश्य लाभान्वित हो सकता है। इसलिए जहाँ एक ओर किसी विदेशी प्रतिमान का अंधानुकरण किसी देश के लिए हानिप्रद सिद्ध हो सकता है वहीं दूसरी ओर किसी उपयोगी विचार अथवा दृष्टिकोण को मात्र विदेशी होने के कारण अस्वीकार कर देना भी अविवेकपूर्ण कार्य है। दूसरी स्थिति के संबंध में अनेक राष्ट्रों में हठवादिता भी दिखाई पड़ती है। इस प्रकार की हठवादितापूर्ण राष्ट्रीय भावना पाठ्यक्रम के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा होती है। विकासशील देशों के लिए तो इस प्रकार की भावना और भी अधिक हानिप्रद होती है। अत: किसी भी देश में किये गये सफल प्रयोगों को स्वीकार करने में दूसरे राष्ट्रों को उदार भावना अपनानी चाहिए तथा यदि अनिवार्य हो तो उन प्रयोगों में अपनी स्थितियों के अनुसार कुछ आवश्यक संशोधन कर लेने चाहिए।

6. समुचित नियोजन का अभाव (Lack of Proper Planning)-समुचित नियोजन किसी भी कार्यक्रम की सफलता की एक अनिवार्य पूर्व आवश्यकता है। अत: पाठ्यक्रम विकास के लिए भी समुचित नियोजन अति आवश्यक होता है। समुचित नियोजन के अभाव में प्रभावी पाठ्यक्रम संभव नहीं हो सकता है। इसके अतिरिक्त परिवर्तन के प्रति प्राय: सभी क्षेत्रों में एक मनोवैज्ञानिक अवरोध की भावना भी पाई जाती है। इस अवरोध की भावना को समुचित नियोजन तथा उसमें अंतर्निहित उपयुक्त मार्गदर्शन के द्वारा कम किया जा सकता है तथा कुछ समय पश्चात् समाप्त भी किया जा सकता है। किन्तु प्राय: यह देखने में आता है कि अनेक पाठ्यक्रम संबंधी कार्यक्रमों का समुचित नियोजन नहीं किया जाता है तथा उनके क्रियान्वयन का ठीक ढंग से निरंतर मूल्यांकन भी नहीं किया जाता है तथा उनके क्रियान्वयन का ठीक ढंग से निरंतर मूल्यांकन भी नहीं किया जाता है।

परिणामस्वरूप ऐसे कार्यक्रम विफल हो जाते हैं। अत: समुचित नियोजन का अभाव पाठ्यक्रम के मार्ग में एक बाधा सिद्ध होता है। उपर्युक्त बाधाओं के अतिरिक्त पाठ्यक्रम के मार्ग में अनिश्चय की स्थिति, आत्मविश्वास की कमी, अंतर्द्वन्द्व, संकोच, आलोचना का भय, साहसपूर्ण प्रयोगों को कर सकने में अक्षमता, विरोध की प्रवृत्ति, तकनीकी ज्ञान का अभाव तथा अनुसंधान के प्रति उपेक्षा भाव आदि अनेक ऐसी बाधायें आती हैं जिनके कारण की गति या तो धीमी पड़ जाती है।

पाठ्यवस्तु तथा पाठ्य-पुस्तक में अन्त: संबंध

पाठ्यवस्तु तथा पाठ्य-पुस्तक एक-दूसरे के बगैर अधूरे हैं। पाठ्यवस्तु के बगैर पाठ्य-पुस्तक का निर्माण नहीं किया जा सकता है। जहाँ पाठ्यवस्तु निर्धारित पाठ्य-विषयों के शिक्षण हेतु अंतर्वस्तु, उसके ज्ञान की सीमा, छात्रों द्वारा प्राप्त किये जाने वाले कौशलों को निश्चित करता है तथा शैक्षिक सत्र में पढ़ाये जाने वाले व्यक्तिगत पहलुओं एवं निष्कर्षो की विस्तृत जानकारी प्रदान करता है, जबकि पाठ्य-पुस्तक विषयों के ज्ञान को एक स्थान पर पुस्तक के रूप में संगठित ढंग से प्रस्तुत करने का काम करती है। यह शिक्षकों एवं छात्रों के लिए मार्गदर्शक का कार्य करती है तथा छात्रों एवं शिक्षकों को जानकारी प्राप्त होती है कि विषयवस्तु का अध्यापन किस प्रकार करना चाहिए। इसलिए पाठ्यवस्तु के बगैर पाठ्य-पुस्तक की कल्पना निराधार है।

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