छायावादी कवि के नाम और उनकी रचनाएँ

छायावादी काव्य का प्रारम्भ कब हुआ? यह प्रश्न आज भी विवाद का विषय बना हुआ है। स्थूल  रूप से यह माना जाता है कि द्विवेदी युग  सन् 1920 के बाद निष्पभाव हो गया था। वस्तुतः आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित पत्रिका ‘‘सरस्वती‘‘ ही संपादन अवधि को ही द्विवेदी युग की संज्ञा देना उपयुक्त है। उनके कार्यकाल के अन्तिम चरण में (सन् 1915 के आसपास) छायावाद का आरंभ अब लगभग सर्व मान्य हो गया है।

छायावादी कवि के नाम और उनकी रचनाएँ 

‘‘छायावाद‘‘ जैसा कि पहले ही चर्चा की गई है, अपने आप में कविता का एक ऐसा युग है जिसका सम्बन्ध भाव-जगत से हे, हृदय की भूमि से है। भावलोक की तो सत्ता ही अनुभव विषय हे, हृदय से जानने, समझने ओर महसूस करने की वस्तु है। उसी छायावाद में समय.समय पर अनेक रचनाकारों ओर कवियों का समावेश होता रहा। कभी वहाँ ‘‘बृहतत्रयी‘‘ के रूप में ‘‘प्रसाद‘‘, ‘‘निराला‘‘ ओर ‘‘पन्त‘‘ की चर्चा की जाती रही तो कभी बृहच्चतुष्ट्य के रूप में इन तीनों कवियों के साथ ‘‘महादेवी‘‘ का नाम जोडकर देखा जाता रहा। 

कुल मिलाकर छायावाद प्रमुख कवियों या आधार स्तम्भों में इन चारों महाकवियों की चर्चा, किसी न किसी रूप में चलती ही रही। यह अलग बात है कि इन चार कवियों के साथ.साथ छायावाद के अन्य कवियों में, उत्तरछायावादी कवि या गौण छायावाद कवि कहकर माखनलाल चतुर्वेदी, डाॅ. रामकुमार वर्मा, जानकीबल्लभ शास़्त्री, हरिकृष्ण प्रेमी, जनार्दन झा ‘‘द्विज‘‘, लक्ष्मी नारायण मिश्र, इलाचन्द्र जोशी, डाॅ. नगेन्द्र, चन्र्द र्पकाश सिंह, विद्यावती कोकिल, तारा पाण्डेय, मुकुटधर पाण्डेय, उदय शंकर भट्ट तथा नरेन्द्र शर्मा आदि कवियों को भी इसमें समाविष्ट किया जाता रहा। 

छायावाद के चार प्रमुख कवियों से इतर इन सभी कवियों के काव्य और उनकी प्रवृत्तियों को लेकर विवाद भी चलते रहे परन्तु इन्हें छायावाद के प्रमुख कवियों में सर्वमान्यता से शामिल नहीं किया जा सका।

छायावादी कवियों के नाम छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ और महादेवी वर्मा सभी ने अपना सक्रिय सहयोग दिया है। 
  1. जयशंकर प्रसाद
  2. सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
  3. सुमित्रानंदन पंत 
  4. महादेवी वर्मा

1. जयशंकर प्रसाद 

छायावादी काव्य के प्रवर्तक कवियों में प्रसाद जी का स्थान मूर्धन्य है। जयशंकर प्रसाद का जन्म 1889 ई. में काषी के प्रसिद्ध सूँघनी साहु घराने में हुआ। आपके पिता का नाम श्री देवी प्रसाद तथा माता का नाम श्रीमती मुन्नी देवी था। प्रसाद जी की शिक्षा तो प्रारम्भ में भली प्रकार हुई, किन्तु अल्पायु में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण उसमें व्यवधान उत्पन्न हो गया। व्यवसाय तथा परिवार का समस्त उत्तरदायित्व प्रसाद जी पर आ गया। 

पारिवारिक स्थिति प्रतिकूल होने के बावजूद श्रेष्ठ साहित्य सृजन कर प्रसाद जी ने अनेक अमूल्य रत्न हिन्दी साहित्य को प्रदान किया, किन्तु विषम स्थितियाँ- ऋण ग्रस्तता, मुकद्मेंबाजी, परिजनों की मृत्यु आदि ने इस साधक को रोगग्रस्त कर दिया और 48 वर्ष की अल्पायु में ही सन् 1937 ई. में निधन हो गया। 

प्रसाद जी एक श्रेष्ठ कवि, नाटककार, निबंधकार, कहानीकार और आलोचक थे। प्रसाद जी की छायावादी रचनाओं में ‘झरना’ (1918 ई.), ‘आँसू’ (1925 ई.), ‘लहर’ (1933 ई.), ‘कामायनी’ (1935 ई.) प्रसिद्ध है।

2. सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

छायावादी कवि ‘सूर्यकान्त’ त्रिपाठी ‘निराला’ को विद्रोही कवि कहा जाता है। ये आधुनिक युग के सजग सामाजिक दृष्टा है। सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म बसन्त पंचमी (माघ शुक्ल पंचमी) के दिन सन् 1869 ई. में बंगाल में महिशादल के मेदिनीपुर जिले में हुआ। निराला के पितामह का नाम श्री षिवधारी त्रिपाठी था, जिनके चार लड़के थे- गयादीन, जोधा, रामसहाय तथा रामलाल। निराला के पिता का नाम पं. रामसहाय त्रिपाठी था। 

वे उन्नाव जिले के गढकोला गाँव के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। महिशादल राज्य में ये नौकरी करने आये थे और वहीं रहने लगे थे। इनकी माता ने पुत्र-प्राप्ति के लिए सूर्य का व्रत किया था, इसलिए इनका नाम सूर्यकुमार रखा था। बाद में जब ये बड़े हुए, तो उन्होंने अपना नाम सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ रख लिया। जब निराला तीन वर्ष की अवस्था में थे, तभी उनके माँ 1918 ई. में इन्फ्लुएंजा की बीमारी से दिवंगत हो गई। 

पत्नी की मृत्यु के उपरांत रामसहाय सत्रह साल तक और जीवित रहे और इन्फ्लुएंजा से उनकी भी अकाल मृत्यु हो गयी। 

निराला जी का विवाह 14 वर्ष की अवस्था में ही रायबरेली जिले के डलमऊ स्थान के निवासी श्री रामदयाल दुबे की पुत्री मनोहरा देवी से हो गया था। सन् 1918 में जब ‘निराला’ की अवस्था केवल 22 वर्ष की थी, इनकी पत्नी का देहांत हो गया था। उस समय इनके दो संतानें थीं- एक पुत्री सरोज और एक पुत्र रामकृश्ण। थोड़े दिनों के बाद पुत्र की मृत्यु हो गयी। सन् 1935 ई. में इनकी पुत्री सरोज का 19 वर्ष की अवस्था में ही देहांत हो गया। आजीविका चलाने के लिए ‘निराला’ जी के पास केवल साहित्य-साधना का ही मार्ग था। 

प्रकाशनों की अनुदारता के कारण वे सदैव आर्थिक संकट में रहे। कुछ दिनों इन्होंने ‘समन्वय’ का सम्पादन किया। 

कुछ दिनों ‘मतवाला’ के सम्पादक मंडल में रहे। ‘सुधा’ पत्रिका के भी संपादक रहे। निराला जी समाज की परम्परागत रूढ़ियों से विद्रोह कर व्यापक जीवन दृष्टि तथा मानवतावादी भावना को प्रधानता देते हैं। 1950 से ये इलाहाबाद के दारागंज मुहल्ले में रहने लगे थे। 15 अक्टूबर सन् 1961 ई. रविवार को चित्रकार कमला शंकर के दारागंज वाले मकान में प्रात: 9 बजकर 23 मिनट पर यह कवि सदा के लिए अस्त हो गया।

कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने गद्य व पद्य लगभग सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है। उनके छायावादी काव्य संग्रह में ‘अनामिका’ (1922 ई.), ‘परिमल’ (1930 ई.), ‘गीतिका’ (1936 ई.), ‘तुलसीदास’ (1938 ई.) आदि रचनाएँ सम्मिलित है। अन्य काव्य संग्रहों में ‘कुकुरमुत्ता’ (1942 ई.), ‘अणिमा’ (1943 ई.), ‘बेला’ (1946 ई.), ‘नये पत्ते’ (1946 ई.), ‘अर्चना’ (1950 ई.), ‘आराधना’ (1950 ई.), ‘गीतगुंज’ (1954 ई), ‘अपरा’ (1969 ई.), ‘सांध्य काकली’ (1969 ई.) आदि प्रमुख है। 

इसके अलावा उन्होंने कहानी, उपन्यास, निबंध, जीवनी, रेखाचित्र व आलोचनात्मकपरक रचनाएँ भी लिखी है

3. सुमित्रानंदन पंत 

सुमित्रानंदन पंत छायावाद के तीसरे कवि एवं गद्य लेखक हैं। सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई सन् 1900 ई. में अल्मोड़ा जिले के कौसानी नाम गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम पं. गंगादत्त पंत और माता का नाम श्रीमती सरस्वती देवी था। पं. गंगादत्त के चार पुत्र थे- हरदत्त, रघुवरदत्त, देवीदत्त और गोसाईदत्त। ये चौथे पुत्र गोसाईदत्त ही सुमित्रानंदन पंत बने। इनके जन्म के समय ही इनकी माता का स्वर्गवास हो गया। 

पंत जी की प्रारंभिक शिक्षा कौसानी ग्राम की पाठशाला में ही हुई। वहाँ से चौथी कक्षा पास करके वे अल्मोड़ा आये। अल्मोड़ा के गवर्नमेंट कॉलेज से 9वीं कक्षा पास करके बनारस गये। सन् 1919 में वहाँ से हाईस्कूल परीक्षा पास की और म्योर कॉलेज प्रयाग में बी.ए. में दाखिला लिया। सन् 1921 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया। इस तरह कॉलेज शिक्षा समाप्त करके पंत जी का छात्र जीवन समाप्त हो गया। पांडिचेरी जाने पर पंत जी अरविन्द के दार्शनिक विचारों से प्रभावित हुए। 

उन्होंने 1942 में ‘लोकायतन’ नाम की संस्था की योजना बनाई। उसके बाद पुन: इलाहाबाद आ गए। 

सन् 1955 ई. में पंत जी आल इण्डिया रेडियो पर हिन्दी चीफ प्रोड्यूसर और सन् 1957 में हिन्दी परामर्शदाता के रूप में नौकरी करते रहे। पंत के काव्य रचना के लिए 1916 ई. में पद्मभूषण की उपाधि से अलंकृत किया गया। सन् 1962 में ‘कला और बूढ़ा चाँद’ कृति पर इन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। 1964 ई. में इन्हें उत्तर प्रदेष सरकार ने लोकायतन के लिए 10 हजार रुपये का विषेश पुरस्कार दिया गया। 

1969 ई. में भारतीय ज्ञानपीठ ने इनके कविता संग्रह ‘चितम्बरा’ पर एक लाख रुपये का सर्वोच्च पुरस्कार प्रदान किया।

पंत जी ने हिन्दी की अनेक विधाओं में अपनी रचनाएँ लिखी। परन्तु उनकी ख्याति सबसे अधिक काव्य के क्षेत्र में ही मानी जाती है। सुमित्रानंदन पंत ने अपने काव्य जीवन का आरम्भ ‘वीणा’ नामक काव्य संग्रह से किया।, ‘ग्रंथि’(1920), ‘वीणा’ (1927), ‘पल्लव’ (1928) और ‘गुंजन’ (1932) उनक छायावादी कविता की रचनाएँ है। ‘युगान्त’ (1936), ‘युगवाणी’ (1939) और ‘ग्राम्या’ (1940) में उनके प्रगतिवादी विचार देखने में आते हैं। ‘स्वर्ण किरण’ (1947), ‘स्वर्णधूलि’ (1947), ‘उत्त्ारा’ (1949), ‘युगपथ’ (1948), ‘अतिमा’ (1955) आदि कविताओं में कवि पंत अरविन्द दर्शन से प्रभावित दिखाई देते हैं। ‘कला और बूढ़ा चाँद’ (1959) में कवि समन्वयवादी हो गये। 

काव्यगत रचनाओं के अलावा पंत ने कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, आत्मकथा तथा आलोचनात्मक रचनाएँ भी लिखी। 

4. महादेवी वर्मा 

छायावादी कवियों में चतुर्थ और अंतिम कवयित्री के रूप में ‘महादेवी वर्मा’ का नाम लिया जाता है। छायावादी काव्य के आधार-स्तम्भों में कवयित्री महादेवी वर्मा का नाम विषेश उल्लेखनीय है। महादेवी वर्मा का जन्म होली के दिन सन् 1907 ई. में फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ। इनके पिता का नाम गोविन्दप्रसाद और माता का नाम श्रीमती हेमरानी देवी था। इनका विवाह 9 वर्ष की अवस्था में ही सन् 1916 ई. में स्वरूपनारायण वर्मा के साथ हो गया था, पर वह सम्बन्ध बना नहीं रहा। इनका बाल्यकाल बहुत ही दुखद और अभाव रहित था। शायद इन्हीं अभाव रहित जीवन ने इन्हें करुणा की कवयित्री बनने के लिए बाध्य किया। उन्हें रंगों से बहुत प्रेम था। 

वे बाल्यकाल में ही चाची की सिंदूर की डिबिया चुराकर एकान्त में जमीन पर ही चित्र बनाया करती थी। रंगों से प्रेम के बावजूद प्रौढ़ावस्था आने पर भी वह सादे वस्त्र का प्रयोग करने लगी थी। 

महादेवी वर्मा की बचपन की शिक्षा इन्दौर में हुई। उसके बाद इलाहाबाद आयीं और प्रयाग के गल्र्स कॉलेज से बी.ए. पास किया। उसके बाद प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. पास किया। फिर ये प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रिंसिपल हो गई। कुछ समय तक ‘चांद’ और ‘साहित्यकार’ नामक पत्रों की संपादिका भी रही हैं। उत्तर प्रदेश की सरकार ने इन्हें अपने यहाँ विधानसभा की सदस्य भी मनोनीत किया था। 

सन् 1956 ई. में भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्म-भूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया था।

महादेवी जी की अधिकांश रचनाएँ काव्य हैं। उन्होंने संस्मरण, रेखाचित्र और आलोचना के क्षेत्र में रचनाएँ लिखी है। इनके काव्य में एक साथ प्रणय, वेदना, दु:ख, करुणा, रहस्यवाद, छायावाद, सर्वात्मवाद इत्यादि के दर्शन किये जा सकते हैं। उनके कृतियों का प्रथम संग्रह ‘नीहार’ नाम से प्रकाशित हुआ। 

द्वितीय काव्य संग्रह ‘रश्मि’ है। तृतीय ‘नीरजा’ नामक काव्य संग्रह के रूप में प्रकाशित हुई। 

चौथा काव्य संग्रह ‘सांध्यगीत’ है और अंतिम काव्य संग्रह ‘दीपषिखा’ है। इनकी रचनाओं के क्रमिक विकास को देखते हुए ‘आधुनिक कवि’ नामक पुस्तक में लिखा गया है ‘‘प्रभात में पहले ‘नीहार’ आता है, फिर रश्मि अवतीर्ण होती है, फिर ‘नीरजा’ खिलती है, फिर ‘सांध्यगीत’ की बेला आती है और तब कहीं रात की छाया घिर आने पर दीपषिखा जलायी जाती है।’’ इस पंक्ति में प्रात: से संध्या तक का उल्लेख रचना के नामों के माध्यम से किया गया है। 

छायावादी विशेषताओं से अनुप्राणित महादेवी वर्मा की चार प्रमुख रचनाएँ हैं- ‘नीहार’, ‘रश्मि’, ‘नीरजा’ और ‘सान्ध्यगीत’। इन चारों का संग्रह ‘यामा’ नाम से प्रकाशित हुआ जो ज्ञानपीठ पुरस्कार, 1982 से सम्मानित है।

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