भारतीय संगीत का इतिहास - प्राचीन काल मध्य काल और आधुनिक काल

संगीत की उत्पत्ति कब, कैसे और किसके द्वारा हुई

मनुष्य के जन्म के साथ ही संगीत की उत्पत्ति का इतिहास भी जुड़ा हुआ है। संगीत की उत्पत्ति कब, कैसे और किसके द्वारा हुई, इस बारे में विद्वानों के अनेक मत हैं। संगीत का इतिहास स्वयं मानव का इतिहास है। जैसे-जैसे मनुष्य का विकास होता गया, संगीत की भी उन्नति होती गई। भारतीय संगीत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों ने मुख्य तीन आधार माने हैं:- 

1) धार्मिक आधार - हमारे जितने संगीत शास्त्र है वे सभी यह मानते चले आये हैं कि हमारी संगीत कला के आदि प्रेरक और उपदेशक देव-देवी रहे हैं। हमारे आचार्यों का ऐसा विश्वास है कि शिव, ब्रह्मा, सरस्वती, गन्धर्व किन्नरादि संगीत के आदि प्रेरक हैं। ऐसा माना जाता है कि शंकर जी के डमरु से वर्ण और स्वर दोनों उत्पन्न हुए हैं। शंकर की शक्ति पार्वती, शिवा, दुर्गा भी संगीत की प्रेरक मानी गई है। 

2) प्राकृतिक आधार - इस आधार के अनुसार संगीत की उत्पत्ति प्रकृति से हुई। मनुष्य ने अपने जीवन के आस-पास संगीतमय वातावरण देखा। जैसे नदियों की लहरों से, सागर की तरंगों से, पक्षियों के कलरव से, हवाओं के झोंकों आदि की ध्वनियों को सुनकर ही मनुष्य ने संगीत को जन्म दिया होगा। 

2) मनोवैज्ञानिक आधार - इस आधार के अनुसार जैसे-जैसे मनुष्य क्रमिक विकास की सीढि़याॅं चढ़ता गया वैसे-वैसे ही विभिन्न कलाऐं उसके विकसित जीवन से जुड़ती गई। अतः संगीत आदि सभी कलाऐं क्रमिक विकास से जुडी है। बच्चे के पैदा होते ही उसके कंठ से ध्वनि निकलती है, गायन और वादन इसी ध्वनि का सहज विकास है

भारतीय संगीत का इतिहास

प्रागैतिहासिक काल

पूर्व-पाशाणकाल में मंजीरा वाद्य के समान पत्थर से निर्मित अग्सा नामक वाद्य बनाया गया था। उत्तर-पाशाणकाल में संगीत का कुछ विकास हुआ। धातु युग में संगीत का कुछ अधिक विकास हुआ। इस युग के लोग पर्वोत्सवों को गीत-नृत्य के साथ मनाते थे। इस काल में गीतों का विकास हो चुका था तथा अनेक छन्द बन चुके थे, जोकि सांगीतिक रूप से गाये जाते थे। अत: स्पष्टतया कहा जा सकता है कि उस समय प्रागैतिहासिक-कालीन संगीत विकसित था एवं उसका स्तर भी उत्कृष्ट था।

सिन्धु घाटी की सभ्यता काल

मोहन जोदड़ों तथा हड़प्पा की खुदाई में प्राप्त पुरातत्वावषेशों से यह ज्ञात होता है कि तत्कालीन जीवन में संगीत का पर्याप्त प्रचलन था। धार्मिक एवं लौकिक समारोहों में गीत, वाद्य एवं नृत्य द्वारा मनोरंजन होता था। खुदाई में प्राप्त ताबीजों पर नृत्य और वाद्य के संकेत मिलते है तथा साथ ही नृत्य करती हुई स्त्रियों की मूर्तियाँ प्राप्त हुई है। चीनी मिट्टी का एक ऐसा ताबीज प्राप्त होता है जिस पर एक मनुष्य ढोल बजाते हुये तथा सामने कुछ मनुष्य नृत्य करते हुए दिखाई पड़ते है। इसके अलावा सतलज के किनारे अम्बाला से साठ मील उत्तर में रोपड़ नामक स्थान पर भी कई प्रकार के संगीत-वाद्यों के चिन्ह प्राप्त हुए है। इस स्थान पर एक नृत्यरत नारी प्राप्त हुई है, जोकि चार तारों की वीणा पर वादन कर रही है। मोहनजोदड़ों एवं हड़प्पा की खुदाई में उपलब्ध दो मुद्राओं में दीर्घाकार ढोलक अंकित है जिनके दोनों मुख चर्म में मढ़े हुये है। इस प्रकार उस समय संगीत का रूप विकसित एवं स्तर उत्कृष्ट था।

वैदिक काल

ईसा से लगभग 2000 वर्ष पूर्व का वेदों का रचना-काल ‘‘वैदिक काल’’ कहलाता है। वैदिक काल में ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद-इन चतुर्वेदों की रचना हुई। आधुनिक भारतीय संगीत का प्रादुर्भाव वैदिक-कालीन सामगान से माना गया है। सामवेद पूर्णतया संगीतमय है। यही कारण है कि चारों वेदों में सामवेद का एक विशिष्ट स्थान है। श्रीमद्भागवदगीता में श्री कृष्ण ने ‘‘वेदानाम् सामवेदोंSस्मि’’ कहकर सामवेद की महत्ता की पराकाष्ठा को सुस्पष्ट कर दिया है। ‘‘साम’’ शब्द का मूल आधार गान अथवा गेय वस्तु रहा है। सामगान में वाणी की सुस्पश्टता का और उसको कई प्रकार से गाने का विधान था। सामगान का प्रारम्भ और समापन दोनों ही ऊँ स्वर द्वारा सम्पन्न होते थे। इसके अलावा रिगवेद में गायन के साथ साथ वाद्यों के निरन्तर साहचर्य के उद्धरण भी मिलते । तैत्तरीय ब्राम्हण एवं सामण के भाश्य के अनुसार वैदिक काल के संगीतज्ञ ताल पद्धति से पूर्णत: परिचित थे। सामगान में प्रथमत: उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित का ही प्रयोग होता था।

कुछ अन्य विद्वानों के मतानुसार प्रारम्भ में मूल स्वर उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित ही है, जिनसे अन्य स्वरों का विकास हुआ पाणिनि ने भी उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित इन तीन मूल स्वरों के विकास के द्वारा ही अन्य स्वरों के तथ्य को स्वीकारते हुए अपने ग्रन्थ ‘‘सिद्धान्त-कौमुदी’’ में लिखा है कि ‘‘निषाद और गान्धार उदात्त, ऋषभ एवं धैवत अनुदात्त तथा शड्ज माध्यम एवं पंचम स्वरित स्वरों पर आधारित है। इस प्रकार स्पष्ट है कि वैदिक काल, से 1000 ईसा पूर्व ही ‘‘सा रे गा म प ध नि’’ ये सात स्वर प्रचार में आ गये थे। इनमें से प्रत्येक स्वर एक दूसरे से ऊँचा कहा गया है। नारद ने अपने ग्रन्थ ‘‘भरत-भाष्य’’ में स्वरों की उच्चता-नीचता को स्पष्ट किया है।

प्राचीन काल

वैदिक युग के पश्चात पुराणों में यथा-मार्कण्डेय पुराण, वायु-पुराण एवं स्कन्द-पुराण आदि में तथा रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्यों में संगीत सम्बन्धी चर्चा हुई है। इसी काल में लोक-संगीतों एवं लोक-नृत्यों का प्रचार-प्रसार भी बढ़ा। उत्सवों और मेलों में गायन, वादन एवं नृत्य का सामूहिक रूप से आनन्द लिया जाता था। मार्कण्डेय-पुराण के 23 वें अध्याय में संगीत का विस्तृत विवेचन हुआ है। छान्दोग्य-उपनिषद् में गीत वाद्य एवं नृत्य इन तीनों का ही उल्लेख हुआ है। प्रतिषाख्य एवं शिक्षा ग्रन्थों में भी संगीत सम्बन्धी विवरण मिलते है।

रामायण महाकाव्य में दशरथ के पुत्रों के जन्मोत्सव एवं विवाह तथा राम के वनवास के पश्चात पुन: अयोध्या-आगमन जैसे मांगलिक अवसरों पर संगीत की एवं नृत्य के घुंघरुओं की झंकार सुनाई पड़ती है। इसी काल में रावण के द्वारा गज से बजाये जाने वाले वाद्य ‘‘रावणास्त्र‘‘ का भी आविष्कार हुआ। आधुनिक वायलिन इसी ‘‘रावणास्त्र‘‘ का ही परिष्कृत रूप है। नृत्य का प्रयोग वैदिक काल से ही यज्ञादि अवसरों पर होता था, परन्तु घुंघरू का प्रयोग सबसे पहले रामायण में ही मिलता है। रामायण में रागप्रणाली के प्रचलन के उदाहरण भी मिलते है।

भरत मुनि कृत ‘‘नाट्यशास्त्र‘‘ इसी काल का संगीत विषयक विख्यात ग्रन्थ माना गया है। यद्यपि इसके रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वत्तजन एकमत नहीं है, फिर भी अधिकांश गुणीजन इसी काल में इसकी रचना मानते है। ‘‘नाटयशास्त्र‘‘ विशेषतया नाटयकला पर आधारित ग्रन्थ है, किन्तु भरत मुनि ने गायन को नाट्य का अभिन्न अंग स्वीकार करते हुए अपने ‘‘नाट्यशास्त्र‘‘ के 28वें से 33वें अध्यायों तक में संगीत विषयक विषद चर्चा की है। इस प्रकार भरत कृत ‘‘नाट्यशास्त्र‘‘ में जहां संगीत सम्बन्धी सामग्री उपलब्ध होती है, वहीं इससे यह भी सिद्ध होता है कि उस समय तक संगीत अत्यन्त ही विकसित अवस्था में था।

मौर्य काल में संगीत मनोरंजन का मुख्य साधन था। भारत का प्रथम सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य संगीतप्रेमी था। उसने संगीत के विकास के लिए बहुत प्रयत्न किया। इस काल में भारतीय एवं यूनानी संस्कृतियों का समन्वय हुआ। चन्द्रगुप्त के पश्चात उसके पुत्र बिन्दुसार के शासनकाल में संगीत के क्षेत्र में कोई विषेश परिवर्तन नहीं हुआ। बिन्दुसार के पश्चात सम्राट अशोक के काल में संगीत का आध्यात्मिक रूप सामने आया।

शुंगकाल में संगीत के क्षेत्र में कोई विषेश उन्नति नहीं हुई। गुजरात प्रान्त में गरवा नृत्य का प्रादुर्भाव शुंगकाल में ही हुआ। कनिष्क के काल में भारतीय संगीत का अच्छा विकास हुआ। कनिश्क-कालीन संगीत के काल को विकास की दृष्टि से हम ‘‘प्रगतिशील युग’’ कह सकते है।

हर्षवर्धन के काल में संगीत का विकास निर्बाध गति से चलता रहा। इसी काल में मतंगमुनि द्वारा ‘‘बृहददेशी’’ नामक ग्रन्थ की रचना हुई। उन्होंने जाति-गायन के स्थान पर राग-गायन का उल्लेख किया। नारद कृत ‘‘नारदीय-शिक्षा’’ का रचनाकाल भी यही है।

मध्यकाल

मुस्लिम आक्रमणों के परिणामस्वरूप मुगल-सभ्यता से प्रभावित होकर भारतीय संगीत अपनी प्राचीनता को विस्मृत करते हुए एक नवीन रूप में विकसित होने लगा। यह काल सांगीतिक दृष्टि से युगान्तकारी कहा जायेगा। संगीत के स्वरूप में इस समय कल्पनातीत परिवर्तन हुआ । भारतीय संगीत उत्तरी एवं दक्षिणी दो पद्धतियों में विभक्त हो गया। दक्षिण भारतीय संगीत अपने प्राचीन मौलिक रूप को अक्षुण रखते हुए उन्नति-पथगामी होता रहा, जबकि उत्तर भारतीय संगीत मुस्लिम-संगीत के सम्पर्क में आकर नित-नवरूपों में विकसित होने लगा।

संगीत की विकास यात्रा मध्यकाल में भी निर्बाध गति से चलती रही। संगीत एवं संगीतज्ञों को राजाश्रय प्राप्त होने के कारण संगीत सामंतषाही बन गया और जनसामान्य से दूर होता चला गया। सामंतषाही ऐश्वर्य के प्रवेश के कारण संगीत अपनी मौलिक मर्यादा से च्युत होकर श्रृंगार-प्रधान हो गया।

चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से नवीन राग-रागिनियों का जन्म हुआ। तत्पश्चात बाबर के शासनकाल में ख्याल, गजल एवं कव्वाली आदि गायन-शैलियों का आरम्भ हुआ संगीत में शृंगारिकता समाविष्ट होने के बाद भी शास्त्रीय संगीत उन्नति होती रही। बाबर के समकालीन कल्लिनाथ पण्डित ने ‘‘संगीत-रत्नाकर’’ की एक विस्तृत टीका लिखी। रामामात्य कृत ‘‘स्वरमेल-कलानिधि’’ भी इसी काल में लिखा गया। 

मध्यकालीन संगीत के इतिहास का विवेचन करने पर यह विदित होता है कि इस काल में संगीतकला की अत्यधिक उन्नति हुई, अनेक नये रागों एवं तालों की रचना हुई तथा तराना, गलज, टप्पा व ख्याल जैसी गायन-शैलियां प्रचार में आयी।

आधुनिक काल

18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतवर्ष पर यूरोप निवासियों के आधिपत्य के परिणामस्वरूप संगीत का विकास बाधित हो गया। इस काल में भारतीय संगीत को कोई आश्रयदाता नहीं मिला इस कारण उसके गुण एवं परिणाम में निश्चित कमी आयी। ब्रिटिषकाल के पूर्वार्ध में भारतीय संगीत की स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गयी थी। रियासती राजा पहले संगीत से विषेश प्रेम-स्नेह रखते थे, किन्तु अंग्रेजी संस्कृति के वशीभूत होकर वे भारतीय संगीत की उपेक्षा करने लगे। परिणामत: वंश-परम्परा के श्रेष्ठ संगीतज्ञ अपने वंशजों एवं प्रतिनिधियों के पास अपनी श्रेष्ठतम कला को छोड़कर न जा सके। यही कारण है कि आज देष में प्रथम श्रेणी के कलाकार गिने-चुने ही है। 

इस संक्रमण-काल में भी भारतीय संगीत से प्रभावित होकर कैप्टन बिलार्ड और सर विलियम जोन आदि अंग्रेजी विद्वानों ने संगीत के पुन: जीवित करने का प्रयास किया तथा ‘‘ए ट्रीटाइज आन दि म्यूजिक ऑफ हिन्दुस्तान’’ जैसे संगीत सम्बन्धी पुस्तकें लिखी, जिससे समाज के शिक्षित वर्ग पर अच्छा प्रभाव पड़ा। इसी समय सौरेन्द्र मोहन ठाकुर ने ‘‘यूनिवर्सल हिस्ट्री आफ म्यूजिक’ नामक संगीत-ग्रन्थ की रचना की।

रवीन्द्र संगीत के प्रतिश्ठाता रवीन्द्र नाथ टैगोर ने 7 हजार छंदो की रचना अनेक गीत नाट्य और नृत्य नाटिकाओं की रचना की तथा उन्होंने 1920 में कलकत्ता में शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय की स्थापना की 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में मुहम्मद रजा ने ‘‘नगमाते-आसफी’’ नामक संगीत का समीक्षा-ग्रन्थ लिखा। इसी शताब्दी के मध्य में कृश्णानन्द व्यास ने राग-कल्पद्रुम’’ की तथा जयपुर के राजा प्रतापसिंह देव ने ‘‘संगीत-सार’’ नामक ग्रन्थ की रचना की। इसी समय में शास्त्रीय बन्धनों में शिथिलता होने के कारण संगीत की एक पृथक धारा ‘‘सुगम संगीत’’ भी क्रमष: जनमानस में प्रचलित होने लगी। 

19वीं शताब्दी के मध्य में लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में संगीत पुर्नप्रतिश्ठित हुआ।

19वीं शताब्दी के मध्य में संगीत-जगत में पं0 विष्णु नारायण भातखण्डे तथा पं0 विष्णु दिगम्बर पलुस्कर दो महान विभूतियों का पदार्पण हुआ। पं0 विष्णु दिगम्बर पलुस्कर जी ने संगीत के उन्नयन हेतु सतत प्रयत्न किये। पं0 पलुस्कर जी ने सन 1908 मे बम्बई मे एक ‘‘गान्धर्व संगीत महाविद्यालय’’ स्थापित किया। उन्होंने ‘‘संगीत-बाल-बोध’’ संगीत-बालप्रकाश’’, ‘‘स्वत्पालापगायन’’, ‘‘संगीत-तत्वदर्शक’’, ‘‘राग-प्रवेश’’ एवं ‘‘भजनामृत’’ आदि संगीत सम्बन्धी 60 से अधिक पुस्तकों की रचना की। उन्होंने एक पृथक स्वरलिप-पद्धति भी आविष्कृत की।

पं0 विष्णुनारायण भातखण्डे जी ने भी संगीत के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने अत्यन्त ही सरल एवं सुबोधगामी स्वरलिपि-पद्धति का आविष्कार किया, जोकि आज अत्यन्त लोकप्रिय है। उन्होंने लक्षण-गीत नामक नवीन गायनषैली की रचना की, जिसमें राग का नाम, स्वरूप आरोह-अवरोह एवं जाति आदि अनेक विशेषताएं दी जाती है। पं0 भातखंडे जी ने संगीत-कला को शास्त्रीय आधार प्रदान करके उसे उच्चस्तरीय स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने विभिन्न घरानों और प्रतिष्ठित गायकों को सुनकर, उनकी स्वरलिपि तैयार करके, उनका संकलित रूप ‘‘क्रमिक-पुस्तक-मालिका’’ के रूप में प्रकाशित कराया। उन्होंने थाट-पद्धति विकसित करके नियमबद्ध प्रणाली से गायन-वादन की प्रेरणा दी तथा 10 थाटों में राग वर्गीकरण किया। उन्होंने संगीत-शिक्षा प्रदान करने हेतु अनेक स्थानों पर संगीत-विद्यालयों की भी स्थापना की।

स्वतन्त्रता - प्राप्ति के साथ भारतीय संगीत ने भी करवट बदली। रियासतों के विलीनीकरण के उपरान्त भारतीय सरकार ने संगीत को संरक्षण प्रदान किया। स्वतन्त्र भारत में कला संस्कृति का विकास हुआ। भारत सरकार ने संगीतकला को प्रोतसाहन प्रदान करने हेतु पदमश्री एवं पदमविभूषण जैसे सम्माननीय राष्ट्रीय पदक प्रदान करने आरम्भ किये। इसी क्रम में प्रख्यात गायिका एम0एस0 सुब्बुलक्ष्मी को सन 1997 में भारत सरकार के सर्वोच्च पुरस्कार ‘‘भारतरत्न’’ से सम्मानित किया गया। सन 1953 में ‘‘संगीत नाटक अकादमी’’ की स्थापना की गयी थी तथा सन 1954 में ‘‘ललितकला अकादमी’’ की स्थापना हुई।

इस प्रकार राष्ट्रीय संरक्षण मिलने पर संगीतज्ञों एवं कलाकारों में प्रगति की ओर उन्मुख होने की एक तीव्र इच्छा प्रदीप्त हो उठी। आकाशवाणी ने भी संगीतकला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। सन 1952 से आकाशवाणी के द्वारा ‘‘अखिल भारतीय संगीत’’ का कार्यक्रम प्रसारित किया जाने लगा। भारतीय संविधान में राष्ट्रपति को राज्यसभा में कलाकारों को नामांकित करने का अधिकार दिया गया। 

 प्रारम्भ से लेकर उच्च शिक्षा तक संगीत एक विषय के रूप में पाठ्यक्रम में सम्मिलित हो चुका है। प्रयाग संगीत समिति इलाहाबाद, भातखण्डे संगीत सम विश्वविद्यालय लखनऊ, गान्धर्व महाविद्यालय पूना, स्कूल आफ इण्डियन म्यूजिक बम्बई, इत्यादि आकाशवाणी एवं दूरदर्शन द्वारा शास्त्रीय संगीत तथा सुगम संगीत के अन्तर्गत भजन, गीत व गजल आदि प्रसारित किये जाते है।

आधुनिक युग में संगीत जन-साधारण के अत्यन्त निकट है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत सरकार ने भी संगीत के विकास की ओर ध्यान दिया, रेडियो, संगीत सम्मेलनों, परीक्षाओं के लिये संगीत संस्थाओं की स्थापना, संगीत नाटक अकादमियों सांस्कृतिक केन्द्रों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों के फलस्वरूप आज संगीत की झंकार प्राय: प्रत्येक घर में गूंज रही है, मधुर संगीत की दिव्य लहरियाँ आज प्राय: प्रत्येक घर में गूँज रही है।

Post a Comment

Previous Post Next Post