दुर्खीम के श्रम विभाजन का सिद्धांत, श्रम विभाजन पर दुर्खीम के विचार

श्रम विभाजन से तात्पर्य किसी भी स्थाई संगठन में मिलजुलकर काम करने वाले व्यक्तियों, या समूहों द्वारा भिन्न किन्तु समन्वयात्मक क्रियाओं के संपादन से है। अर्थात समाज में किसी कार्य को संपादित करने वाले व्यक्तियों के बीच सम्पन्न की जाने वाली क्रियाओं एवं सेवाओं के वितरण एवं वैभिन्यकरण की प्रक्रिया श्रम विभाजन कहलाती है। जिसकी अभिव्यक्ति दुर्खीम के श्रम विभाजन सिद्धांत में देखी जा सकती है।

दुर्खीम के श्रम विभाजन का सिद्धांत

दुर्खीम द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों में समाज में श्रम विभाजन का सिद्धांत प्रमुख है। दुर्खीम से पहले स्मिथ, स्पेंसर, मिल विद्वानों ने श्रम विभाजन की व्याख्या आर्थिक आधार पर की थी लेकिन दुर्खीम ने श्रम विभाजन की व्याख्या सामाजिक आधार पर प्रस्तुत की। दुर्खीम ने अपनी डाॅक्टरेट उपाधि के लिए अपने पुस्तक का प्रकाशन सन् 1893 में किया। जिसका विषय ‘‘समाज में श्रम विभाजन’’ है। जिसे अंग्रेजी में "The Division of Labour in Society”  व फ्रेंच भाषा में “De La Division du Travail Social” नाम से प्रकाशित हुआ है। इस पुस्तक में दुर्खीम ने श्रम विभाजन का विस्तार से उल्लेख किया है। यह पुस्तक ‘‘तीन खण्डों’’ में विभाजित है। सम्पूर्ण पुस्तक में चौदह अध्याय हैं। तीन प्रमुख खण्ड हैं।
  1. श्रम विभाजन के प्रकार्य
  2. श्रम विभाजन के कारण एवं दशाएं
  3. श्रम विभाजन के असामान्य स्वरूप
दुर्खीम ने श्रम विभाजन के प्रकार्य के अन्तर्गत सामाजिक एकता के लिए श्रम विभाजन को आधार माना है। साथ ही उसके वैज्ञानिक अध्ययनों के लिए कानूनों के स्वरूप, मानवीय सम्बन्धों व एकता के स्वरूप, अपराध व दण्ड आदि
अनेक समस्याओं व अवधारणाओं की व्याख्या की है। दूसरे खण्ड में श्रम विभाजन के जनित कारण जनसंख्या के आकार एवं घनत्व में वृद्धि एवं सामूहिक चेतना का ह्रास आदि व उनकी दशाओं आदि का सविस्तार उल्लेख किया है। तथा अन्तिम खण्ड श्रम विभाजन के असामान्य स्वरूप -आदर्शहीन श्रम विभाजन, बलात्श्रम विभाजन व व्यक्तिगत कार्य की अपर्याप्तता आदि का उल्लेख किया है। 

सामाजिक एकता- सामाजिक एकता एक नैतिक घटना है यह सामूहिक चेतना की अभिव्यक्ति है।
यांत्रिक एकता- यांत्रिक एकता सादृश्यता अथवा समानता की एकता है। अर्थात जिसमें एक समाज के सभी सदस्य एक दूसरे के समरूप दिखाई देते हैं। व्यक्तियों की समरूपता से दुर्खीम का तात्पर्य उनकी शारीरिक समानता से न
होकर मानसिक और विश्वासगत समानताओं से है।

सावयवी एकता- श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण की बहुलता के कारण प्रत्येक व्यक्ति केवल एक कार्य का ही विशेषज्ञ होता है। और दूसरे कार्याें के लिए उसे समाज के अन्य सदस्यों पर निर्भर रहना होता है। जिससे एक विशेष प्रकार की एकता अर्थात सावयवी एकता होती है। जोकि आधुनिक जटिल समाजों की विशेषता है।

दमनकारी कानून- दमनकारी कानून ‘सार्वजनिक कानून’ होते हैं जो व्यक्ति एवं राज्य के सम्बन्धों का नियमन करते हैं। इनमें व्यक्ति के बजाय सामूहिक हितों को अधिक महत्व दिया जाता है। जैसे आदिम समाजों में व्यक्ति द्वारा सामूहिक चेतना का उल्लंघन करने पर दण्ड दिया जाना। 

प्रतिकारी कानून- प्रतिकारी कानून आधुनिक समाजों की विशेषता है। इन कानूनों का उद्देश्य व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों में उत्पन्न असन्तुलन में सामान्य स्थिति पैदा करना होता है।

असामान्य स्वरूप- श्रम विभाजन के जो स्वरूप समाज में एकता स्थापित नहीं करते, उन्हें श्रम विभाजन के असामान्य स्वरूप कहते हैं, जैसे- आदर्शहीन श्रम विभाजन व बलात् श्रम विभाजन आदि।

श्रम विभाजन पर दुर्खीम के विचार

दुर्खीम ने समाजों का निम्नलिखित वर्गीकरण किया।
  1. ‘‘यात्रिक एकात्मकता’’ पर आधारित समाज
  2. ‘‘सावयवी एकात्मकता’’ पर आधारित समाज

1. यांत्रिक एकात्मकता

जैसा कि आपको मालूम हैं, यांत्रिक एकात्मकता से अभिप्राय है समरूपता अथवा एक जैसा होने की एकात्मकता। ऐसी अनेक समरूपताएं तथा घनिष्ठ सामाजिक रिश्ते होते हैं जो व्यक्ति को उसके समाज से बांधे रहते हैं। सामूहिक चेतना अत्यंत सुदृढ़ होती है। सामूहित चेतना से हमारा अभिप्राय उन समान विश्वासों तथा भावनाओं से है जिनके आधार पर समाज के लोगों के आपसी संबंध परिभाषित होते हैं। सामूहित चेतना की शक्ति इस प्रकार के समाजों को एकजुट रखती है और व्यक्तियों को दृढ़ विश्वासों और मूल्यों के माध्यम से जोड़े रखती है। इन मूल्यों को उपेक्षा या उल्लघंन को बहुत गंभीर माना जाता है। दोषी लोगों को कठोर दण्ड मिलता है। 

यहां यह बताना आवश्यक है कि यांत्रिक एकात्मकता पर आधारित समाज में एकरूपता अथवा समरूपता की एकात्मकता है। व्यक्तिगत भिन्नताएं बहुत कम होती हैं तथा श्रम का विभाजन अपेक्षाकृत सरल स्तर का होता हैं।

संक्षेप में यह कहा जा सकता हैं कि इस प्रकार के समाजों में व्यक्तिगत चेतना सामूहिक आर्थिकी आर्थि कीआर्थि की चेतना में विलीन हो जाती है।

2. सावयवी एकात्मकता

सावयवी एकात्मकता से दुर्खीम का तात्पर्य है भिन्नताओं एंव भिन्नताओं की पूरकता पर आधारित एकात्मकता। एक कारखानें का उदाहरण लें। वहां कामगार तथा प्रबंधन के कार्य, आय, सामाजिक प्रस्थिति आदि में काफी अंतर है। किन्तु साथ ही वे एक दूसरे के पूरक हैं। श्रमिकों के बिना प्रबंधन का होना व्यर्थ है और श्रमिकों को संगठित होने के लिए प्रबंधकों की आवश्यकता है। उनका अस्तित्व ही एक दूसरे पर निर्भर है।

सावयवी एकात्मकता पर आधारित समाज औद्योगिकरण के विकास से प्रभावित और परिवर्तित होते है। इसलिए श्रम विभाजन इस प्रकार के समाजों का उल्लेखनीय पक्ष है। सावयवी एकात्मकता पर आधारित समाज वे समाज होते हैं, जिनमें विषमता, भिन्नता तथा विविधता होती है। विषम समाज में बढ़ती हुई ये जटिलता विभिन्न तरह के व्यक्तित्व में, संबंधों तथा समस्याओं में प्रतिबिंबित होती हैं। ऐसे समाजों में व्यक्तिगत चेतना विशिष्ट हो जाती है और सामूहिक चेतना दुर्बल होने लगती हैं। व्यक्तिवाद का महत्व उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। 

यांत्रिक एकात्मकता में सामाजिक प्रतिमान का जो बंधन व्यक्तियों पर रहता है, वह ऐसे समाजों में ढीला पड़ जाता है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा स्वयत्तता का सावयविक एकात्मकता पर आधारित समाज में उतना ही महत्व होता हैं, जितना सामाजिक एकात्मकता का महत्व यांत्रिक एकात्मकता पर आधारित समाजों में होता है।

भौतिक एवं नैतिक सघनता में बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप अस्तित्व के लिए संघर्ष पैदा होता है। यांत्रिक एकात्मकता वाले समाज में लोगों में यदि समानता पनपती हैं तो एक जैसे लाभ और स्त्रोत प्राप्त करने के लिए संघर्ष और प्रतियोगिता भी जन्म लेते हैं। जनसंख्या में वृद्धि और प्राकृतिक संसाधनों में कमी आने से यह होड़ और तेज़ हो जाएगी। किन्तु श्रम विभाजन के फलस्वरूप व्यक्ति विभिन्न क्षेत्रों और कार्यों के विशेषज्ञ बन जाते हैं। 

इस प्रकार वे सह अस्तित्व से रहते हैं तथा एक दूसरे के पूरक बनते हैं। किन्तु यह आदर्श स्थिति क्या सदैव बनी रहती हैं ? दुर्खीम का इस सम्बन्ध में क्या मत हैं, इसकी भी समीक्षा कर ली जाए।

श्रम विभाजन के असामान्य रूप

यदि श्रम विभाजन समाज में नई तथा उच्चतर एकात्मकता कायम करने में सहायता देता है तो तत्कालीन यूरोपीय समाज में अव्यवस्था क्यों थी ? क्या श्रम विभाजन से समस्याएं पैदा हो रही थीं ?

दुर्खीम के अनुसार, उस समय श्रम का जो विभाजन हो रहा था, वह सामान्य प्रकार का नहीं था, जिसके बारे में उसने लिखा था। समाज में असामान्य प्रकार का श्रम विभाजन हो रहा था या सामान्य श्रम विभाजन के विपरीत काम हो रहा था। संक्षेप में इनमें निम्नलिखित असामान्य रूप शामिल थे।

1. प्रतिमानहीनता: इसका अर्थ है एक ऐसी स्थिति जिसमें सामाजिक नियम निरर्थक बन गये हैं। भौतिक जीवन में तेज़ी से बदलाव आता हैं, परन्तु नियम, रीति रिवाज तथा मूल्य उसी गति से नहीं बदलते। ऐसा लगता है कि नियम और प्रतिमान पूरी तरह टूट गये हैं। कार्यक्षेत्र में यह स्थिति कामगारों तथा प्रबंधकों के बीच टकराव के रूप में प्रकट होती हैं। काम में गिरावट आती हैं, व्यर्थ के काम होते हैं तथा वर्ग संघर्ष में वृद्धि होती हैं।

सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि लोग काम करते हैं और उत्पादन भी करते हैं, किन्तु उन्हें अपने काम की कोई सार्थकता प्रतीत नहीं होती। उदाहरण के लिए कारखानें में असेम्बली लाइन के श्रमिकों को दिनभर कील ठोंकने, पेच करने जैसे सामान्य तथा उकता देने वाले काम करने पड़ते हैं। उन्हें अपने काम की कोई सार्थकता नज़र नहीं आती। उन्हें यह एहसास नहीं कराया जाता कि वे कोई उपयोगी काम कर रहें हैं। उन्हें यह भी नहीं बताया जाता कि वे समाज के महत्वपूर्ण अंग हैं। कारखाने के काम से संबंधित नियमों और विधियों में इतना परिवर्तन नहीं किया गया कि श्रमिकों के काम को सार्थक माना जाए और उन्हें यह अनुभूति हो कि समाज में उनका भी महत्वपूर्ण स्थान है।

2. असमानता: दुर्खीम के अनुसार, अवसर की असमानता पर आधारित श्रम विभाजन स्थायी एकता लाने में विफल रहता है। श्रम विभाजन के इस प्रकार के असामान्य रूप से व्यक्तियों में समाज के प्रति कुंठा और नाराज़गी पैदा होती है। इस प्रकार तनाव, कटुता, द्वेष तथा विरोध भाव पनपने लगते हैं। भारतीय जाति व्यवस्था और असमानता पर आधारित श्रम विभाजन का उदाहरण माना जा सकता है। लोगों को अपनी क्षमता नहीं बल्कि जन्म के आधार पर विशेष प्रकार के काम करने पड़तें हैं। यह स्थिति उन लोगों के लिए अत्यंत दुखदायी हैं, जो कुछ अन्य संतोषप्रद तथा लाभप्रद काम करने के इच्छुक हैं, किन्तु उचित अवसरों सें वंचित हैं।

3. अपर्याप्त संगठनः इस असामान्य रूप में श्रम विभाजन का मूल उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। काम सामुचित रूप से संगठित तथा समन्वित नहीं होता। कामगार प्रायः निरर्थक कामों में लगे रहते हैं। कामगारों में एकता का अभाव रहता है। इसलिए एकात्मकता भंग हो जाती हैं और अव्यवस्था फैल जाती हैं। बहुत से दफ्तरों में आपने अनेक कर्मचारियों को खाली बैठे देखा होगा। कई लोगों को तो पता ही नहीं होता कि उनका काम क्या हैं। जब अधिकतर लोगों को अपने कर्तव्य की जानकारी तक नह हो तब सामूहिक कार्य कठिन हो जाता है। श्रम विभाजन से उत्पादकता और एकीकरण में वृद्धि होनी चाहिए। जो उदाहरण हमने अभी बताया हैं, उससे विपरीत स्थिति बन जाती है अर्थात् उत्पादकता कम होती हैं तथा एकीकरण का हृास होता हैं ।

दुर्खीम श्रम विभाजन को केवल आर्थिक ही नहीं, सामाजिक क्रिया भी मानते हैं। उनके अनुसार इसकी भूमिका आधुनिक औद्योगिक समाज को एकजुट बनाना है। जो भूमिका सामूहिक चेतना यांत्रिक एकात्मकता के मामले में निभाती थी, वही भूमिका श्रम विभाजन सावयविक एकात्मकता के लिए निभाता है। श्रम विभाजन का जन्म बढ़ती हुए भौतिक तथा नैतिक सघनता के कारण उपजी अस्तित्व की होड़ से होता है। विशेषज्ञता ऐसी स्थिति का निर्माण सकती है जिसमें विभिन्न व्यक्ति एक साथ रह सकते हैं और परस्पर सहयोग कर सकते हैं। परन्तु समकालीन यूरोपीय समाज में श्रम विभाजन के भिन्न और नकारात्मक परिणाम सामने आए। सामाजिक व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया।

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