किसी राग के स्वरों का उसके वादी, संवादी तथा विशेष स्वरों को दिखलाते हुए
विस्तार करना और साथ में उसे वर्ण, गमक, अलंकार, आदि से विभूषित करना, उस राग का ‘आलाप’
कहलाता है। राग का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए उसके स्वरों को सजाकर धीमी लय में उसका
आलाप करते हैं।
आलाप करने के कई प्रकार प्रचलित थे, जो रागालाप, स्वस्थान-नियम, आलाप्तिगान, रूपकालाप आदि नामों से पुकारे जाते थे। आलाप गायन दो प्रकार से होता है - एक तो गीत गाने से पहले ताल रहित होता है, जिसे गायक नोम-तोम तथा न, न, री, द, त, न, शब्दों द्वारा अथवा आकार में गाता है, तथा दूसरा गीत के साथ ताल-बद्ध होता है जिसे गायक आकार में अथवा गीत के बोलों के साथ गाता है।
आलाप द्वारा गायक राग के स्वरों व राग के स्वरूप को
श्रोताओं के सामने प्रस्तुत करता है और अपनी भावनाओं को राग के स्वरों से अभिव्यक्त करता है।
आलाप करने के कई प्रकार प्रचलित थे, जो रागालाप, स्वस्थान-नियम, आलाप्तिगान, रूपकालाप आदि नामों से पुकारे जाते थे। आलाप गायन दो प्रकार से होता है - एक तो गीत गाने से पहले ताल रहित होता है, जिसे गायक नोम-तोम तथा न, न, री, द, त, न, शब्दों द्वारा अथवा आकार में गाता है, तथा दूसरा गीत के साथ ताल-बद्ध होता है जिसे गायक आकार में अथवा गीत के बोलों के साथ गाता है।
आलाप के प्रकार
आलाप को चार भागों में बांट सकते हैं:-
1.स्थाई
इसमें गायक मध्य सप्तक से राग का आलाप शुरू करता है। एक-एक स्वर को
बढ़ाते-घटाते हुए मन्द्र या मध्य सप्तक में इसका चलन होता है। अधिक से अधिक मध्य सप्तक के
मध्यम या पंचम तक ही इसका विस्तार होता है।
2.अन्तरा
इसमें अधिकतर आलाप मध्य सप्तक के गन्धार, मध्यम अथवा पंचम स्वर से आरम्भ
होता है तथा उसका विस्तार अधिक से अधिक मध्य सप्तक के निषाद अथवा तार षड़ज तक होता है।
3.संचारी
इसमें तार सप्तक के स्वरों का महत्व अधिक होता है। ख्याल गायक तथा वादक
इस भाग में आलाप की लय बडा़ देता हैं। इसमें मींड़, आन्दोलन, गमक, खटका, मुर्की आदि का प्रयोग
अधिक होता है तथा बीच-बीच में आलापों का सम दिखाया जाता है।
4.आभोग
यह आलाप का अन्तिम भाग होता है। इसमें तार-सप्तक के स्वरों का जहाॅ तक सम्भव
हो, प्रयोग करते हैं। इस विभाग में आलाप की गति द्रुत कर दी जाती है, जिसमें गमक का प्रयोग
बहुत सुन्दर लगता हैं। गायक त, न, न, आदि शब्दों में तथा वादक झाला द्वारा विभिन्न लयकारियों
को प्रस्तुत करता है।