मुस्लिम विवाह की भी यही प्रक्रिया जिसमें विवाह का प्रस्ताव वर पक्ष से आता है, यदि कन्या पक्ष इस प्रस्ताव के पक्ष में अपनी स्वीकृति दे देता है तो वर पक्ष की ओर से प्रमाण के रुप में कुछ धन दिया जाता है। इस धन को मुस्लिम विवाह में ‘मेहर‘ कहते हैं। मुस्लिम समाज में इसी प्रकार विवाह किए जाते हैं।
मुस्लिम विवाह की शर्तें
मुस्लिम विवाह की प्रमुख शर्तें इस प्रकार से हैं -- प्रत्येक मुसलमान जो बालिग हो, पागल न हो निकाह कर सकता है।
- नाबालिग बच्चों का विवाह उनके संरक्षकों की सहमति से किया जा सकता है।
- विवाह की सहमति दोनों पक्षों की इच्छा से होनी चाहिए।
- विवाह की सहमति के समय पर गवाह के रुप में दो पुरुष अथवा एक पुरुष और दो स्त्रियों का होना आवश्यक है।
- एक मुसलमान पुरुष एक समय में 3 स्त्रियों तक से विवाह कर सकता है। लेकिन मुसलमान स्त्री एक समय में केवल एक ही पुरुष से विवाह कर सकती है।
- तीर्थ यात्रा के समय वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं किये जा सकते।
- विवाह की सहमति काजी के सामने होनी चाहिए।
मुस्लिम विवाह में मेहर क्या होता है?
मेहर वह धन या सम्पत्ति है जो पति द्वारा पत्नी को विवाह के प्रतिफल के रुप में प्रदान की जाती है। मेहर 4 प्रकार के होता है-1. मेहरे-मुसम्मा या निश्चित मेहर - यह वह मेहर है जो विवाह के समय इकरारनामे में साफ़ कर दी जाती है। इसे पत्नी को पति से विवाह के समय या बाद में पाने का अधिकार होता है।
2. मेहे-मिस्ल या उचित मेहर - यदि विवाह के समय कोई मेहर तय न हुआ हो तो अदालत उचित मेहर तय करती है। यह लड़की, माँ या बहन के विवाह में मिलने वाली मेहर की धनराशि के आधार पर निश्चित की जाती है।
3. मेहरे-मुअज्जल या तुरन्त मेहर - यह वह धनराशि है जो कि पति को अपनी पत्नी को विवाह के तुरन्त बाद देनी पड़ती है। यदि पति मेहर माँगने पर न दे तो स्त्री पति को वैवाहिक अधिकार देने से इंकार कर सकती है।
4. मेहरे-मुवज्जल या स्थगित मेहर - यह वह मेहर है जो पति के मरने पर या स्त्री को तलाक देने पर मिलता है। इसे स्थगित मेहर इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये पति के मरने या तलाक से पहले नहीं मिलता है।
मुसलमान समाज में तलाक की प्रक्रिया
मुसलमान समाज में तलाक की प्रक्रिया अत्यन्त ही सरल है। इसके लिये न्यायालय जाने की आवश्यकता नहीं। तलाक के संबंध में मुस्लिम पुरुष को असीम अधिकार प्राप्त हैं। और वह सामाजिक रुप से अपनी पत्नी को छोड़ सकता है। इनके यहाँ तलाक मुख्यतया दो प्रकार का होता है-
कोई भी स्वस्थ दिमाग वाला मुसलमान अपनी पत्नी को बिना कारण बताये ही छोड़ सकता है। मुस्लिम समाज में प्रथागत तलाक मुख्यतयाः छः प्रकार के होते हैं- वह केवल मौखिक रुप से ही इन तीन प्रकार से तलाक दे सकता है -
1. तलाके अहसन - इसके अनुसार पति अपनी पत्नी को किसी तुहर (मासिक धर्म) के समय तलाक की घोषणा करता है तथा इद्दत की अवधी तक पत्नी के साथ सहवास नहीं करता है।
2. तलाके हसन - इनमें पति लगातार तीन तुहरों के समय तक तलाक की घोषणा को दुहराता है और इसे पूरा मान लिया जाता है।
3. इला - इला तलाक मे एक मुसलमान पुरुष कसम लेकर 4 महीने तक अपनी पत्नी से सहवास नहीं करता तो इसे तलाक मान लेते हैं।
4. खुला - यह तलाक पति तथा पत्नी की सहमति से होता है। इस तलाक में पति को मेहर की राशि देना आवश्यक नहीं होता है।
5. मुर्बरत - यह तलाक भी पति-पत्नी की पारस्परिक स्वीकृति का परिणाम है। पर इसमें तलाक का प्रस्ताव पति द्वारा रखा जाता है, जबकि खुला में तलाक का प्रस्ताव पत्नी द्वारा रखा जाता है। इसमें भी किसी पक्ष को कोई हर्जाना नहीं देना पड़ता है।
6. जिहर - यदि पति अपनी पत्नी की तुलना किसी ऐसे संबंधी के साथ कर देता है जिसके साथ मुस्लिम कानून के अनुसार विवाह नहीं हो सकता तो पत्नी ‘जिहर‘ तलाक का प्रस्ताव रख सकती है। मुस्लिम विवाह की पद्धति एवं स्वरूपों का अध्ययन करने से विदित होता है कि मुस्लिम विवाह यौनेच्छा की तृप्ति एंव उत्पन्न सन्तान को सिद्ध करने हेते एक शिष्ट समझौता स्थायी और अस्थायी दोनों प्रकार होता है। इसमें वर, वधू को ‘मेहर‘ देने का वचन देता है। इस समझौते को तोड़ा भी जा सकता है।
मुस्लिम विवाह में पुरुषों को असीमित अधिकार दिये गये हैं। पुरुष एक साथ 4 स्त्रियों से विवाह कर सकता है।