राग की परिभाषा | राग के लक्षण

राग भारतीय संगीत की अनुपम परिकल्पना है जो भारतीय संगीतज्ञों की सुविकसित एवं सूक्ष्म सौंदर्य चेतना का प्रतीक है । प्राचीन युग में गायक-वादक राग शब्द से परिचित नहीं थे । प्राचीन संगीत में जनरूचि के अनुसार परिवर्तन आता गया तथा धीरे-धीरे राग गायन प्रचार में आया । रागों का विशिष्ट व्यक्तित्व होता है। प्रत्येक राग से एक विशिष्ट भावना की अभिव्यक्ति होती है। राग को उसके विभिन्न स्वरों से पल्लवित करना होता है, जो किसी भी कलाकार का प्रथम उद्देश्य होता है । जो स्वर वर्ण से विभूषित ध्वनि विशेष, लोगों के मानस का रंजक है, उसे ही विद्वानों ने राग की संज्ञा दी है।

राग शब्द मूलतः संस्कृत भाषा का शब्द है । इसकी उत्पत्ति रंज भावे घञ् इस प्रकार हुई है, इससे स्पष्ट होता है कि रंजकता से ही राग है, किन्तु राग के अन्य कई अर्थ भी हैं, जो इस प्रकार हैं- 1. ‘वर्ण, रंग, रंजकवस्तु, 2. लाल रंग, लालिमा, 3. प्रेम, स्नेह, 4. भावना, सौन्दर्य, 5. सहानुभूति, हित आदि ।

राग के ऐतिहासिक विकास में संगीत जगत में कई मान्यताएँ प्रचलित हैं जैसे- कुछ विद्वान राग का आरम्भ मतंग से मानते हैं, कुछ याष्टिक के समय से मानते हैं, कुछ विद्वान यह स्पष्ट मत प्रकट करते हैं कि यह कहना कठिन है कि राग का आरम्भ कब से हुआ । दक्षिण भारतीय संगीत के शब्दकोष में कहा गया है कि राग शब्द कालिदास के समय से प्रचार में आया है। प्राचीन ग्रंथों में रागों का उल्लेख है, किन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि रागों का स्वरूप उस समय कैसा था। कश्यप का ग्रंथ अनुपलब्ध होने से रागों का स्वरूप जानने के लिए बृहद्देशी पर निर्भर करना पड़ता है।

मतंग ने राग की परिभाषा का भिन्न-भिन्न रूप प्रस्तुत किया है । उनके मतानुसार राग की परिभाषा निम्न है- विशिष्ट स्वर वर्ण (गान - क्रिया) से अथवा ध्वनि-भेद के द्वारा जो जन रंजन में समर्थ है, वह राग है

कल्लिनाथ के अनुसार जो राग स्थायी, आरोही, अवरोही, और संचारी चार वर्णों से विभूषित हो तथा जहाँ वर्ण चतुष्टय दिखाई देता हो वह राग कहलाता है।

संगीत रत्नाकर के अनुसार स्वर और वर्ण विशेष अथवा ध्वनिभेद से जिसके द्वारा सज्जनों के चित्त का रंजन हो वह ही राग कहलाता है।

संगीतराज के अनुसार जिस ध्वनि की रचना में विचित्र वर्ण अलंकार प्रयुक्त हो, जिसमें ग्रहादि स्वरों का संदर्भ हो तथा जो रंजक भी हो वही राग है।

पन्डिमत व्यंकटमुखी के अनुसार जो स्वर प्रबन्ध श्रोताओं के मन का रंजन करे वही राग है।

राग किसे कहते हैं

स्वरों तथा वर्णों की वह अनुपम रचना, जिसे सुनकर आनन्द की प्राप्ति हो, राग कहलाती है। विद्वानों ने राग की परिभाषा इस प्रकार दी है:-
योऽसौ ध्वनि विशेषस्तु स्वरवर्ण विभूषितः।
रंजको जनचित्तानां स च रागः उदाहृतः। मतंग- बृहद्देशी, श्लोक 264।

अर्थात ‘‘ध्वनि की वह विशेष रचना जिसको स्वरों तथा वर्णाें द्वारा विभूषित किया गया हो और सुनने वालों के चित्त को मोह ले, राग कहलाती है।’’ राग से विभिन्न रसों की अनुभूति होती है। इसलिए राग की परिभाषा में कहा गया है ‘रसात्मक राग’। इस रसानुभुति से ही सुनने वालो को आनन्दानुभुति होती है।

प्राचीनकाल में राग के 10 लक्षण अथवा नियम माने जाते थे। इसलिए प्रत्येक राग को उन नियमों के अनुसार गाना पड़ता था तथा नियमों के विरूद्ध राग अशुद्ध माना जाता था। राग के प्राचीन 10 लक्षण अथवा नियम इस प्रकार हैं - ग्रह, अंश, न्यास, अपन्यास, औडव़ , षाडव़ , अल्पत्व, बहुत्व, मन्द्र और तार। इनमें से कुछ नियमों का जैसे - ग्रह, न्यास या अपन्यास का प्रचार आधुनिक समय में नहीं है। बाकी नियम आजकल भी प्रचलित हैं।

राग के नियम या लक्षण 

आधुनिक समय में राग के निम्न नियम या लक्षण माने जाते हैं:-
  1. राग को किसी थाट से उत्पन्न होना चाहिए।
  2. राग में कम से कम 5 स्वर होने आवश्यक है।
  3. राग में आरोह तथा अवरोह दोनों आवश्यक है।
  4. राग में वादी-संवादी स्वरों का होना आवश्यक है।
  5. राग में रंजकता का होना आवश्यक है। राग की परिभाषा में दिया गया ‘रंजको जन चितानां’ अर्थात रंजकता होने से ही सुनने वाले मुग्ध हो सकेंगे।
  6. राग में कभी षड़ज स्वर वर्जित नहीं हो सकता। षड़ज स्वर को आधार स्वर माना जाता है। 7. राग में किसी रस की अभिव्यक्ति होनी चाहिए।

राग की जातियां

राग नियमों के अनुसार किसी राग में कम से कम 5 और अधिक से अधिक 7 स्वर हो सकते हैं। रागों में लगने वाले स्वरों की भिन्न-भिन्न संख्याओं के कारण रागों को अलग-अलग तीन विभागों में बाॅटा गया है। इन्ही को जातियां कहते हैं।

1. सम्पूर्ण - जिस राग में सातों स्वर लगे उसे सम्पूर्ण जाति का राग कहते हैं। जैसे - राग बिलावल 

2. षाड़व़ - जिस राग में केवल 6 स्वर लगे उसे षाडव़ जाति का राग कहते हैं। जैसे - राग मारवा 

3. औड़व़ - जिस राग में केवल 5 स्वर लगे उसे औडव़ जाति का राग कहते हैं। जैसे - राग भूपाली परन्तु जैसा कि राग लक्षणों में आपने जाना कि राग में आरोह तथा अवरोह दोनों होने चाहिए, आरोह तथा अवरोह दोनों स्वरों की संख्या एक न हो तथा कम या अधिक हो, जैसे राग खमाज है। इसके आरोह में ‘रे’ वर्जित होने से 6 स्वर लगते हैं परन्तु अवरोह में 7 स्वर लगते हैं इसलिए आरोह-अवरोह का ध्यान रखते हुए तीन जातियों में से प्रत्येक को तीन-तीन उपजातियों में बांटा गया है जो इस प्रकार है:-

सम्पूर्ण षाड़व औड़व
सम्पूर्ण - सम्पूर्णषाडव - सम्पूर्णऔड़व - सम्पूर्ण
सम्पूर्ण - षाड़वषाड़व - षाड़वऔड़व - षाड़व
सम्पूर्ण - औडव़षाड़व - औडव़ औडव़ - औड़व

इस तरह कुल मिलाकर 9 जातियां होती हैं, जिनके अन्तर्गत प्रत्येक हिन्दुस्तानी राग रखा जा सकता है। ये जातियां उसके स्वरों की संख्या के साथ इस प्रकार है:-
  1. सम्पूर्ण - सम्पूर्ण - आरोह में 7 स्वर अवरोह में भी 7 स्वर
  2. सम्पूर्ण - षाड़व - आरोह में 7 स्वर अवरोह में 6 स्वर
  3. सम्पूर्ण - औड़व - आरोह में 7 स्वर अवरोह में 5 स्वर
  4. षाड़व - सम्पूर्ण - आरोह में 6 स्वर अवरोह में 7 स्वर
  5. षाड़व - षाड़व - आरोह में 6 स्वर अवरोह में भी 6 स्वर
  6. षाड़व - औड़व - आरोह में 6 स्वर अवरोह में 5 स्वर
  7. औड़व - सम्पूर्ण - आरोह में 5 स्वर अवरोह में 7 स्वर
  8. औड़व - षाड़व - आरोह में 5 स्वर अवरोह में 6 स्वर
  9. औड़व - औड़व - आरोह में 5 स्वर अवरोह में भी 5 स्वर

Post a Comment

Previous Post Next Post