मैक्स वेबर के सत्ता के सिद्धांत || मैक्स वेबर के सत्ता के स्वरूप या प्रकार

मैक्स वेबर के सत्ता के सिद्धांत

मैक्स वेबर के अनुसार समाज में सत्ता विशेष रूप से आर्थिक आधारों पर आधारित होती, यद्यपि आर्थिक कारक सत्ता के निर्धारण में एकमात्र कारक नहीं कहा जा सकता। आर्थिक जीवन में यह सहज ही स्पष्ट है कि एक ओर मालिक वर्ग उत्पादन के साधनों तथा मजदूरों की सेवाओं पर अपने अधिकार को बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं और दूसरी ओर मजदूर अपनी सेवाओं के बदले में प्राप्त मजदूरी पर अधिकाधिक अधिकार पाने की चेष्टा करते रहते हैं। सत्ता उन्हीं के हाथों में रहती है जिनके पास सम्पत्ति तथा उत्पादन के साधन केंद्रित हों। 
इसी सत्ता के आधार पर मजदूर की स्वाधीनता खरीदी जाती है और मालिक को मजदूर के ऊपर एक विशेष प्रकार के अधिकार प्राप्त होते हैं। यद्यपि इस प्रकार की सत्ता अब दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है और बहुत-कुछ घट भी गई है, फिर भी आर्थिक क्षेत्र में निजी सम्पत्ति तथा उत्पादन के साधन किसी वर्ग के लिए सत्ता के निर्धारण में एक महत्त्वपूर्ण कारक आज भी हैं। max weber ke satta ke siddhant मैक्स वेबर के सत्ता के सिद्धांत की व्याख्या निम्नलिखित है

मैक्स वेबर के सत्ता के स्वरूप या प्रकार

सत्ता के संस्थागत होने के क्षेत्र में वेबर का विश्लेषण बहुत-कुछ इसी दिशा में है। फिर भी मैक्स वेबर ने सत्ता के तीन बुनियादी प्रारूपों में भेद किया। ये तीन प्रकार की सत्ता हैं-
  1. वैधानिक सत्ता (Legal Authority)
  2. परम्परात्मक सत्ता (Traditional Authority)
  3. करिश्माई सत्ता (Charismatic Authority)

1. वैधानिक सत्ता (Legal Authority)-

राज्य द्वारा प्रतिपादित कुछ सामान्य नियमों के अनुसार उत्पन्न अनेक पद ऐसे होते हैं जिनके साथ एक विशिष्ट प्रकार की सत्ता जुड़ी रहती है। इस कारण जो भी व्यक्ति उन पदों पर आसीन होते हैं, उनके हाथों में उन पदों से सम्बन्धित सत्ता भी चली जाती है। उदाहरणार्थ, मिस्टर तिवारी जज के पद पर आसीन होने के नाते उस पद से सम्बन्धित सत्ता (जोकि उन्हें वैधानिक रूप में प्राप्त हुई है) को प्रयोग में लाने के अधिकारी हैं। 

स्पष्ट है कि इस प्रकार की सत्ता का स्रोत व्यक्ति की निजी प्रतिष्ठा में निहित नहीं होता, बल्कि जिन नियमों के अन्तर्गत वह एक विशिष्ट पद पर आसीन है, उन नियमों की सत्ता में निहित है। इसलिए इसका क्षेत्र वहीं तक सीमित है जहाँ तक कि वैधानिक नियम एक व्यक्ति को विशिष्ट अधिकार प्रदान करते हैं। 

एक व्यक्ति को वैधानिक नियम के अन्तर्गत जितना अधिकार प्राप्त हुआ है, उसके बाहर या उससे अधिक सत्ता का प्रयोग वह व्यक्ति नहीं कर सकता। इस प्रकार व्यक्ति की वैधानिक सत्ता के क्षेत्र और उसके बाहर के क्षेत्र में (अर्थात् उस क्षेत्र में जिसमें कि वह एक व्यक्तिगत या निजी हैसियत से रहता है) बुनियादी भेद है। उदाहरणार्थ, मिस्टर तिवारी एक जज की हैसियत से जिन अधिकारों के अधिकारी हैं वे अधिकार एक व्यक्ति के रूप में (जैसे, अपने परिवार के एक सदस्य के रूप में) मिस्टर तिवारी के अधिकारों या सत्ता से बिल्कुल भिन्न हैं। घर पर मिस्टर तिवारी जज नहीं, बल्कि पुत्र, पिता या पति हैं। पिता या पति की सत्ता जज की सत्ता से बिल्कुल भिन्न है।

नोट्स एक जटिल समाज में वैधानिक सत्ता प्रत्येक व्यक्ति के हाथों में समान नहीं होती है, बल्कि इसमें भी एक उँच-नीच का संस्तरण होता है अर्थात् वैधानिक आधार पर समाज में उच्च और निम्न सत्ता होती हैं।

2. परम्परात्मक सत्ता (Traditional Authority)-

वह सत्ता एक व्यक्ति को वैज्ञानिक नियमों के अन्तर्गत एक पद पर आसीन होने के कारण नहीं बल्कि परम्परा द्वारा स्वीकृत पद पर आसीन होने के कारण प्राप्त होती है। चूँकि इस पद को परम्परागत व्यवस्था के अनुसार परिभाषित किया जाता है, इस कारण ऐसे पद पर आसीन होने के नाते व्यक्ति को कुछ विशिष्ट सत्ता मिल जाती है। इस प्रकार की सत्ता परम्परात्मक विश्वासों पर टिकी होने के कारण परम्परात्मक सत्ता कहलाती है। 

उदाहारण के लिए, कृषि युग में भारतीय गाँवों में पाई जाने वाली पंचायत में ‘पंचों’ की सत्ता को ही लीजिए-इन पंचों की सत्ता वैधानिक नियमों के अन्तर्गत नहीं आती थी बल्कि परम्परागत रूप में उन्हें सत्ता प्राप्त हो जाती थी। यहाँ तक कि पंच की सत्ता की तुलना ईश्वरीय सत्ता से की जाती थी, जैसाकि ‘पंच-परमेश्वर’ की धारणा में व्यक्त होता है। उसी प्रकार पितृसत्तात्मक परिवार में पिता को परिवार से सम्बन्धित समस्त विषयों में जो अधिकार या सत्ता प्राप्त होती है, उसका भी आधार वैधानिक नियम नहीं, परम्परा होता है पिता की आज्ञा का पालन हम इसलिए नहीं करते कि उनको कोई वैधानिक सत्ता प्राप्त है, बल्कि इसलिए करते हैं कि परम्परागत रूप में ऐसा ही होता आ रहा है। 

वैधानिक सत्ता वैधानिक नियमों के अनुसार निश्चित तथा सीमित होती है क्योंकि वैधानिक नियम निश्चित और स्पष्ट रूप से परिभाषित होते हैं। परन्तु परंपरा या सामाजिक नियमों में इतनी और निश्चितता नहीं होती है। जज की हैसियत में मिस्टर तिवारी की सत्ता की भाँति कोई निश्चित सीमा नहीं होती है। जज की हैसियत में मिस्टर तिवारी की सत्ता कहाँ पर आरम्भ और कहाँ पर समाप्त होती है, यह बहुत-विफल निश्चित रूप से कहा जा सकता है परन्तु पिता की हैसियत में मिस्टर तिवारी की सत्ता की कोई निश्चित सीमा निर्धारित करना कठिन है।

3. करिश्माई सत्ता (Charismatic Authority)-

यह सत्ता न तो वैधानिक नियमों पर और न ही परम्परा पर, बल्कि कुछ करिश्मा या चमत्कार पर आधारित होती है। जिन व्यक्तियों में कोई विलक्षणता, करामात या चमत्कार दिखाने की वास्तविक या अनुमानित शक्ति होती है, वे इस प्रकार की सत्ता के अधिकारी होते हैं। इस प्रकार की सत्ता को प्राप्त करने में एक व्यक्ति को कापफी समय लग जाता है और पर्याप्त साधन, प्रयत्न और कभी-कभी प्रचार के पश्चात ही उसकी वह सत्ता लोगों द्वारा स्वीकृत होती है। 
दूसरे शब्दों में, एक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को इस प्रकार विकसित करता है (या लोग यह समझने या विश्वास करने लगते हैं कि उसने अपने व्यक्तित्व को इतना विकसित कर लिया है) कि उसमें कुछ विलक्षण शक्ति अथवा चमत्कार दिखाने वाली शक्ति या गुण (चाहे वह वास्तविक हो या अनुमानित) जाता है, जिसके बल पर वह दूसरों को अपने आगे झुका देता है और लोग उसकी व्यक्तिगत सत्ता को स्वीकार कर लेते हैं। 

इस प्रकार करिश्माई नेता अपने प्रति या अपने लक्ष्य या आदर्श के प्रति निष्ठा के नाम पर दूसरों से आज्ञापालन करने की माँग करता है। जादूगर, पीर, पैगम्बर, अवतार, धार्मिक नेता, सैनिक, योद्धा, किसी दल के नेता आदि इसी प्रकार के सत्ताधारी व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों की सत्ता को लोग इस कारण स्वीकार कर लेते हैं कि इनमें कुछ ऐसे अद्वितीय या विलक्षण गुण पाए जाते हैं जो साधारण लोगों में नहीं मिलते हैं। 

अत: प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में इस प्रकार के विशेष गुणों के लिए श्रद्धा स्वभावत: ही होती है। इन गुणों को बहुधा दैवीय या ईश्वरीय गुणों के समान या उनके अंश के रूप में भी माना जाता है। इस कारण इस प्रकार के सत्ताधारी व्यक्ति की आज्ञा का पालन श्रद्धा-भक्ति के साथ किया जाता है। इस प्रकार के सत्ताधारी व्यक्ति को चमत्कार द्वारा अपनी विलक्षण शक्ति का प्रदर्शन करना पड़ता है या युद्ध में विजय या अन्य दूसरी सफलताओं द्वारा दूसरे लोगों में यह विश्वास दृढ़ करना होता है कि वह वास्तव में कुछ अद्वितीय शक्ति का अधिकारी है। 

परम्परात्मक सत्ता की भाँति करिश्माई सत्ता की भी कोई निश्चित सीमा नहीं होती है। परन्तु इस सत्ता की अवधि मूलतः अस्थायी होती है और इसका पतन उसी समय होने लगता है जबकि इस प्रकार के सत्ताधारी व्यक्ति अपनी विलक्षण शक्ति का प्रभावपूर्ण प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं। साथ ही, इस सत्ता की रचना या तो परम्परागत या वैधानिक दिशा में परिवर्तित हो सकती है, अर्थात् करिश्माई सत्ता परम्परात्मक या वैधानिक सत्ता में भी बदल सकती है।

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