संविधानवाद की पाश्चात्य, साम्यवादी, विकासशील देशों की अवधारणाएं

संविधानवाद की अवधारणाएं

संविधानवाद संविधान पर आधारित अवधारणा है। संविधान जनता का सर्वोच्च कानून होता है। प्रत्येक देश के संविधान के अपने राजनीतिक आदर्श व मूल्य होते हैं। प्रत्येक देश की संस्कृति के अपने गुण अन्य देशों से भी साम्य रखने के कारण कई देशों मेंं सांझे संविधानवाद का विकास हो जाता है। यद्यपि यह तो सत्य है कि समस्त विश्व में एक संविधानवाद नहीं हो सकता, क्योंकि विश्व के देशों की संस्कृति में काफी अन्तर है। इसी आधार पर संविधान भी अलग अलग होते हैं और संविधानवाद भी। 

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द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व में तीन तरह का संविधानवाद विकसित हुआ है। इस आधार पर संविधानवाद की तीन अवधारणाएं हैं :-

  1. संविधानवाद की पाश्चात्य अवधारणा
  2. संविधानवाद की साम्यवादी अवधारणा
  3. संविधानवाद की विकासशील देशों की अवधारणा 

संविधानवाद की पाश्चात्य अवधारणा

इस अवधारणा को उदारवादी लोकतन्त्र की अवधारणा भी कहा जाता है। यह अवधारणा मूल्य मुक्त तथा मूल्य अभिभूत दोनों व्याख्याओं पर आधारित हैं। मूल्य मुक्त अवधारणा के रूप में इसमें केवल संविधानिक संस्थाओं का वर्णन किया जाता है, संविधानवाद के आदर्शों व मूल्यों का नहीं। जब राजनीतिक समाज के आदर्शों और मूल्यों के दृष्टिगत संविधानवाद की व्याख्या की जाती है तो वह मूल्य-अभिभूत व्याख्या कहलाती है। मूल्य अभिभूत व्याख्या ही आधुनिक लोकतन्त्र की मांग है। संविधानवाद की पाश्चात्य अवधारणा उदारवाद का दर्शन है। 

यह संविधानवाद साध्य और साध्य दोनों है। इसमें राजनीतिक संस्थाओं के ढांचे के साथ-साथ राजनीतिक समाज के मूल्यों, आदर्शों (स्वतंत्रता, समानता, न्याय) को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। यह संविधानवाद प्रतिबन्धों की व्यवस्था द्वारा सीमित सरकार की व्यवस्था करता है और कुछ संविधानिक उपबन्धों द्वारा राजनीतिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त का भी प्रतिपादन करता है। इससे व्यक्ति की स्वतंत्रता व अधिकारों का बचाव होता है और विधि के शासन द्वारा समाज में सुव्वस्था बनी रहती है। 

पश्चिमी संविधानवाद में संविधान का महत्व सरकार से अधिक होता है क्योंकि सरकार का निर्माण संविधान के बाद में होता है। इस संविधानवाद में संवैधानिक सरकार संविधान के आदर्शों को मानने के लिए बाध्य प्रतीत होती है। संवैधानिक उपबन्ध तथा उत्तरदायित्व का सिद्धान्त उसे संविधानात्मक बनाए रखने में मदद करते हैं। इस तरह पाश्चात्य संविधानवाद लोकतन्त्रीय भावना पर आधारित होता है।

1. पाश्चात्य संविधान के आधार

पाश्चात्य संविधानवाद के आधार - संस्थागत व दार्शनिक हैं। दार्शनिक आधार साध्यों के संकेतक हैं और संस्थागत आधार इन साध्यों को व्यवहार में प्राप्त करने के साधनों की व्यवस्था है। इन्हीं आधारों पर पाश्चात्य संविधानवाद आधारित हैं। ये आधार इन ढंग से समझे जा सकते हैं :-

1. दार्शनिक आधार - प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था के कुछ मूलभूत लक्ष्य होते हैं। इन्हीं लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए वह व्यवस्था गतिशील रहती हैं। यह जरूरी नहीं है कि सभी पाश्चात्य देशों में राजनीतिक व्यवस्थाओं के लक्ष्य समान हों इसलिए पाश्चात्य संविधानवाद के चार दार्शनिक आधार हैं :-
  1. व्यक्ति की स्वतन्त्रता :- यह पाश्चात्य संविधानवाद का प्रमुख साध्य है। समस्त संविधानवाद पाश्चात्य राजनीतिक व्यवस्थाओं में इसी साध्य के आसपास घूमता है। इस साध्य में राजनीतिक संस्थाएं व्यक्ति की मदद करती हैं। व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता को पाश्चात्य राजनीतिक व्यवस्थाओं में साध्य का दर्जा दिया गया है। यदि व्यक्ति को असीमित स्वतंत्रता प्रदान की गई तो वह निरंकुशतावादी बन जाएगा और समाज में अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी, इसलिए व्यक्ति को सीमित स्वतन्त्रता ही दी गई है।
  2. राजनीतिक समानता :- पाश्चात्य संविधानवाद राजनीतिक शक्ति की सर्वोच्चता को प्रतिबन्धित करते हुए उसे विभिन्न वर्गों में बांटता है। यदि राजनीतिक शक्ति का असमान वितरण किया गया तो सदैव राजनीतिक शक्ति के दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाएगी। इसलिए राजनीतिक शक्ति को समान सहभागिता का रूप दिया जाना जरूरी है। पाश्चात्य संविधानवाद का प्रमुख लक्ष्य व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ राजनीतिक समानता का लक्ष्य भी अपनाया गया है। राजनीतिक समानता द्वारा इसमें राजनीतिक शक्ति को निरंकुश बनने से रोकने की उचित व्यवस्था है।
  3. सामाजिक और आर्थिक न्याय :- यदि राजनीतिक सत्ता समाज के समसत वर्गों तथा व्यक्तियों के लिए सामाजिक व आर्थिक न्याय की स्थापना नहीं करेगी तो समाज में आर्थिक और सामाजिक विषमताएं चरम सीमा पर पहुंच कर संविधानिक व्यवस्था को ही चुनौती देने लगेंगी। इससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अन्त के साथ-साथ सामाजिक विघटन की स्थिति पैदा हो जाएगी। इसलिए पाश्चात्य या उदार लोकतन्त्रात्मक संविधानवाद में सामाजिक तथा आर्थिक न्याय को महत्वपूर्ण साध्य माना जाता है ताकि व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ साथ सामाजिक व आर्थिक न्याय की व्यवस्था बनी रहे।
  4. लोक-कल्याण की भावना :- पाश्चात्य संविधानवाद का प्रमुख लक्ष्य जनकल्याण है। खुली प्रतिस्पर्धा और आर्थिक साधनों के अभाव में आर्थिक व सामाजिक विषमता के शिकार लोगों को ऊपर उठाने के लिए पाश्चात्य संविधानवाद में विशेष गुण पाए जाते हैं। पाश्चात्य देशों में समाज के पिछड़े वर्गों के लिए सरकार विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को अपनी संविधानिक व्यवस्था में ही स्थान देती है। उदारवादी लोकतन्त्रीय देशों में शासन-व्यवस्था का प्रमुख लक्ष्य जन-कल्याण को बढ़ावा देना है ताकि अधिकतम व्यक्तियों के लिए अधिकतम सुख के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। इसी साध्य से अन्य साध्यों को गति प्राप्त होती है।
2. संस्थागत आधार - पाश्चात्य संविधानवाद के संस्थागत आधार दार्शनिक आधारों को अमली जामा पहनाते हैं। इसके लिए राजनीतिक शक्ति को विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं में वितरित किया जाता है। इससे सरकार को सीमित व उत्तरदायी बनाया जाता है। इसके लिए पाश्चात्य संविधानवाद में राजनीतिक व्यवस्थाओं की शक्ति को निम्नलिखित तरीकों से नियन्त्रित रखा जाता है:-
  1. लोकतन्त्रीय सरकार का गठन :- लोकतन्त्रीय सरकार जनता की प्रतिनिधि होती है। जनता ही राजनीतिक शक्ति का अन्तिम स्रोत मानी जाती है। जिस सरकार का गठन जनता द्वारा किया जाता हो और वह जनता के प्रति ही उत्तरदायी हो, वह कभी निरंकुश नहीं बन सकती। उदारवादी लोकतन्त्रों में ऐसी ही सरकारों को प्राथमिकता दी जाती है।
  2. प्रतिनिधि सरकार :- जब लोकतन्त्रीय सरकार प्रतिनिधि सरकार होगी तो वह सीमित रहेगी। राजनीतिक समाज के प्रत्येक वर्ग को न केवल चुनावों में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो बल्कि सरकार के गठन में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो। सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व न मिलने से प्रतिनिधित्व से हीन वर्ग राजनीतिक सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर सकता है। इसलिए उचित प्रतिनिधित्व की व्यवस्था के अभाव में सरकार सही अर्थों में संस्थागत व्यवस्थाओं से सीमित व प्रतिबंधित नहीं बन सकती।
  3. सामाजिक बहुलवाद :- राजनीतिक समाज में अनेक वर्गों व संघों का पाया जाना स्वाभाविक है। बहुल समाज में सभी वर्गों के हितों में तालमेल बैठाना सरकार का उत्तरदायित्व बनता है। यदि सरकार वर्ग विशेष के हितों की रक्षा करने वाली होगी तो सामाजिक बहुलवाद को धक्का लगेगा और समाज की विघटनकारी ताकतें सुविधाहीन वर्ग के साथ मिलकर सरकार की वैधता को ही चुनौती देने लगेंगे। अत: सरकार को सीमित रखने में सामाजिक बहुलवाद की व्यवस्था महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है। 
  4. खुला समाज अथवा सामाजिक गतिशीलता :- खुला समाज, वास्तव में व्यक्ति के लिए सामाजिक गतिशीलता की व्यवस्था ही है। ऐसा समाज सभी परम्परागत, कानूनी तथा अन्य रूढ़िवादी बन्धनों से मुक्त होता है। ऐसा समाज अन्त:करण, अभिव्यक्ति और भाषण की स्वतंत्रता पर आधारित होता है और समाज के हर व्यक्ति और वर्ग को वैध संघ या संस्था बनाने की छूट होती है। ऐसे समाज में ही राजनीतिक व्यवस्था उन्मुक्त बन सकती हैें और लोकतन्त्रीय रूप ग्रहण कर सकती है। ऐसा समाज किसी विशेष दर्शन से मुक्त रहता है क्योंकि विशेष दर्शन से युक्त समाज में संस्थागत सरकारों पर नियंत्रण करना असम्भव होता है। संस्थागत सरकारों पर स्वयं के दर्शन से रहित खुले समाज में ही सम्भव है।

2. पाश्चात्य संविधानवाद के तत्व 

पाश्चात्य देशों में संविधान के दो तत्व - सीमित सरकार की परम्परा तथा राजनीतिक उत्तरदायित्व का सिद्धान्त हैं।

1. सीमित सरकार - पाश्चात्य राजनीतिक समाजों में सीमित सरकार की परम्परा का विकास लोकतन्त्र के विकास के साथ ही हुआ है। राजनीतिक शक्ति को नियन्त्रित व उत्तरदायी बनाने के लिए पाश्चात्य समाजों में अनेकों संस्थागत व्यवस्थाएं की गई हैं। 

पश्चिमी देशों में जैसे लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों का विकास होता गया वैसे-वैसे सरकार को नियन्त्रित करने की विधियां भी विकसित होती गई। पाश्चात्य देशों में सरकार को सीमित रखने के लिए निम्नलिखित संस्थागत तरीके अपनाए जाते हैं :-
  1. विधि का शासन - यह शासन इंग्लैण्ड के संविधानवाद की देन है। यह शासन व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने तथा किसी शासक की तानाशाही रोकने का सबसे अच्छा व प्रभावी उपाय है। जब किसी देश में किसी व्यक्ति का शाासन न होकर कानून का शासन होता है तो वहां व्यक्ति की स्वतन्त्रता को कोई हानि नहीं पहुंच सकती। कानून के सामने सभी व्यक्ति समान होते हैं और समस्त राजकीय व प्रशासनिक गतिविधियां कानून द्वारा नियन्त्रित रहती हैं। यह सच्चे संविधानवाद का आधारभूत तत्व होता है। 
  2. मौलिक अधिकारों व स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था - मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं की व्यवस्था पाश्चातय संविधानवाद का आधारभूत स्तम्भ है। संविधान में अधिकारों व स्वतंत्रताओं की व्यवस्था करके सरकार के कार्यों को मर्यादित किया जाता है। इससे सरकार का कार्यक्षेत्र निश्चित होता है और सरकार की निरंकुशता पर रोक भी लगती है। अधिकारों की स्वीकृति ही सामाजिक गतिशीलता को जन्म देती है और सामाजिक विभिन्नताओं को एकता के सूत्र में बांधने का सबसे अच्छा उपाय भी सााबित होती है। 
  3. राजनीतिक शक्ति का विभाजन, पृथक्करण, विकेन्द्रीकरण व नियन्त्रण - पाश्चात्य संविधानवाद में शक्ति विभाजन का महत्वपूर्ण स्थान है। राजनीतिक शक्ति का केन्द्रीय स्तर से स्थानीय स्तर तक विकेन्द्रीकरण करके राजनीतिक शक्ति के केन्द्रीयकरण को रोका जाता है और इसके दुरुपयोग की सम्भावना कम की जाती है। राजनीतिक शक्ति का विभाजन होने से सभी शक्तियां अपने अपने अधिकार क्षेत्र में ही रहकर कार्य करने को विवश होती है और दूसरे के क्षेत्राधिकार में प्रवेश नहीं करती। राजनीतिक शक्ति का विभाजन के साथ-साथ कार्यपालिका, व्यवस्थापिका तथा न्यायपालिका को अलग अलग शक्तियां सौंप दी जाती हैं। यदि राजनीतिक शक्ति तीनों के पास रहेगी तो उनके अपने अपने स्वतंत्र अधिकार क्षेत्र होने के कारण वे एक दूसरे के नियन्त्रक भी बने रहेंगे। 
  4. स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका ;- पाश्चात्य देशों की शासन-व्यवस्था में न्यायपालिका को कार्यपालिका तथा विधानपालिका के हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाता है। स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका ही संवैधानिक प्रतिबन्धों को अमली जामा पहनाती है, यह सरकार को संवैधानिक बनाती है और राजनीतिक शक्तियों का दुरुपयोग रोकती है। न्यायपालिका ही कानून के शासन की स्थापना करती है और सरकार की शक्तियों को सीमित रखती है। निर्णायक शक्ति के कारण न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा विशायिका की निरंकुशता पर रोक लगाती है और कानून का शासन कायम रखती है। निष्पक्ष न्यायपालिका ही पाश्चात्य संविधानवाद की प्रमुख विशेषता है। 
2. राजनीतिक उत्तरदायित्व - पश्चिमी संविधानवाद की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसने शासन के प्रत्येक अंग को जनता के प्रति उत्तरदायी बनाने की व्यवस्था की है। नागरिकों के प्रति सरकार का उत्तरदायित्व पाश्चात्य संविधानवाद का आधारभूत लक्षण है। 

पाश्चात्य संविधानवाद में राजनीतिक उत्तरदायित्व प्रजातन्त्र का मेरुदण्ड है। पाश्चात्य संविधानवाद में राजनीतिक शक्ति को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए संस्थागत उपाय किए गए हैं :-
  1. निश्चित समय के बाद चुनाव - पाश्चात्य देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं में निश्चित अवधि के बाद चुनावों को बहुत महत्वपूर्ण तरीके से सम्पन्न कराया जाता है। चुनावों के द्वारा ही सरकार के औचित्यपूर्ण कार्यों की समीक्षा की जाती है। चुनाव जनता के हाथ में महत्वपूर्ण शस्त्र होता है जिसका प्रयोग जनता जन-विरोधी सरकार को बदलने के लिए प्रयोग करती है। चुनाव की तलवार सदैव शासक-वर्ग को जनहित के प्रति जागरुक बनाए रखती है। कई बार मध्यावधि चुनाव भी सरकार की वैधता की परीक्षा करते हैं। शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने के लिए शासक वर्ग सदैव जनता के कल्याण पर ही ध्यान देने के प्रयास करता रहता है। चुनाव ही संविधानवाद को अमली जामा पहनाता है। चुनावों की व्यवस्था सरकार को उत्तरदायी बनाने का महत्वपूर्ण साधन है।
  2. राजनीतिक दलों की व्यवस्था - राजनीतिक दल जन इच्छा की अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण साधन है। राजनीतिक दलों के बिना राजनीतिक उत्तरदायित्व की स्थापना नहीं हो सकती। दलों के माध्यम से ही नागरिक अपनी विशिष्ट नीतियां प्रकाश में लाते हैं। राजनीतिक दल लोगों को जागरूक बनाते हैं और सरकार व समाज के बीच कड़ी का काम भी करते हैं। राजनीतिक दल जनता की भावना को सरकार तक पहुंचाकर उसे सचेत करते रहते हैं। पाश्चात्य संविधानवाद में एक से अधिक दलों को महत्व देकर उनके द्वारा राजनीतिक व्यवस्था को गतिशील बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने की व्यवस्था है। पश्चिमी संविधानवाद की मान्यता है कि एक दल राजनीतिक उत्तरदायित्व के स्थान पर राजनीतिक निरंकुशता को जन्म देता है। ऐसी व्यवस्था तो साम्यवादी संविधानवाद में पाई जाती है। पश्चिमी देशों में बहुदलीय पद्धति विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधित्व के माध्यम से लोकतन्त्र को मजबूत बनाने का महत्वपूर्ण तरीका है। इसमें विरोधी दल की भूमिका के कारण सत्तारूढ़ दल सरकार की भूमिका का निर्वहन करते समय जनता की आवाज को पहचानने में कभी चूक नहीं करता। इस प्रकार राजनीतिक दलों की भूमिका सरकार को उत्तरदायी बनाये रखती है।
  3. प्रैस की स्वतन्त्रता - पाश्चात्य देशों में प्रैस को सबसे अधिक स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। समाचार पत्र जनमत को व्यक्त करने वाले प्रभावशाली साधन हैं। समाचार पत्र जनता की आवाज सरकार तक पहुंचाकर सरकार को जन-कल्याण के प्रति सचेत करते रहते हैं और उसे अपने जन-उत्तरदायित्व का निर्वहन करने को बाध्य भी करते हैं। इसलिए प्रैस की स्वतन्त्रता राजनीतिक उत्तरदायित्व का महत्वपूर्ण साधन है।
  4. लोकमत का महत्व - जनमत प्रजातन्त्र का प्राण है। समाचारपत्र, रेडियो, दूरदर्शन आदि जनमत को अभिव्यक्त करने वाले प्रमुख साधन हैं। लोकमत एक ऐसा प्रभावशाली अस्त्र है जो सरकार को बनाने या गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति चुनावों के समय होती है। इसको प्रत्येक देश में महत्व दिया जाता है। लोकमत के आगे निरंकुश सरकार भी झुकने को विवश हो जाती है। अत: लोकमत सरकार को उत्तरदायी बनाने का महत्वपूर्ण साधन है।
  5. परम्पराएं और सामाजिक बहुलवाद - प्रत्येक राजनीतिक समाज में गैर-राजनीतिक समूहों व संस्थाओं का सरकार पर दबाव बनाने के लिए विशेष महत्व होता है। ये समूह इतने शक्तिशाली होते हैं कि कई बार ये अप्रत्यक्ष रूप में सरकार को बनाने और गिराने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। ये सरकार पर अपने अपने हितों को प्राप्त करने के लिए अनुचित दबाव भी डाल देते हैं। लेकिन प्रतिरोधी समूह या संघ सरकार को ऐसा करने से रोकते हैं। इस तरह सरकार की शक्तियां मर्यादित बनी रहती हैं। जिस देश में लोकतन्त्रीय परम्पराएं बहुत मजबूत होती हैं, वहां सरकार इन परम्पराओं और उनके सजग प्रहरी गैर राजनीतिक समुदायों की उपेक्षा नहीं कर सकती। उसे सामाजिक बहुलवाद का सम्मान हर अवस्था में करना ही पड़ता है। सुस्थापित परम्पराओं और सामाजिक समूहों की उपेक्षा करने का अर्थ होगा राजनीतिक अराजकता को बुलावा देना।

संविधानवाद की साम्यवादी अवधारणा 

साम्यवादी देशों में संविधानवाद की अवधारणा पाश्चात्य संविधानवाद से सिद्धान्त में साम्य रखते हुए भी व्यवहारिक दृष्टिकोण से काफी भिन्न हैं। इस अवधारणा की दृष्टि में संविधान का उद्देश्य सबके लिए स्वतन्त्रता, समानता, न्याय और अधिकार निश्चित करना न होकर, बल्कि समाजवाद की स्थापना करना है। यह संविधानवाद माक्र्स व लेनिन के वैज्ञानिक समाजवादी विचारों पर आधारित है। समस्त साम्यवादी संविधानवाद सोवियत संविधान के इर्द-गिर्द ही घूमता है और सोवियत संविधान का निर्माण समाजवादी तत्वों से हुआ है। साम्यवादी देशों में सरकार व शक्ति का अर्थ पाश्चात्य देशों के दृष्टिकोण से बिल्कुल विपरीत है। इसी आधार पर संविधानवाद में भी भिन्नता आ जाती है। 

साम्यवादी सरकार को पूंजीपति वर्ग के हाथ की कठपुतली मानते हैं, जो धनिक वर्ग के हितों की ही पोषक होती है। उनके अनुसार राजनीतिक शक्ति का आधार आर्थिक शक्ति है। उत्पादन शक्ति के धारक होने के कारण पूंजीपति राजनीतिक सत्ता के भी स्वामी होते हैं। इसलिए राजनीतिक शक्ति और मौलिक अधिकारों का प्रयोग जनसाधारण की बजाय अमीर लोग ही करते हैं। इसलिए पाश्चात्य जगत में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था राजनीतिक शक्ति प्राप्त लोगों के लिए ही रहती है। राजनीतिक शक्ति पर किसी प्रकार के नियन्त्रण की बात करना मूर्खता है, क्योंकि आर्थिक व राजनीतिक शक्ति से सम्पन्न सरकार पर कोई भी नियन्त्रण प्रभावी नहीं हो सकता। इसलिए राजनीतिक शक्ति पर नियन्त्रण केवल तभी सम्भव है, जब आर्थिक शक्ति पर नियन्त्रण लगाया जाए।

साम्यवादी संविधानवाद आर्थिक शक्ति पर नियन्त्रण करने के लिए ऐसी समाजवादी व्यवस्था की स्थापना पर जोर देते हैं जो आर्थिक साधनों का बंटवारा समाज की सभी व्यक्तियों या वर्गों में कर दे। उनका मानना है कि आर्थिक शक्ति के विकेन्द्रीकरण से राजनीतिक शक्ति भी समस्त समाज के हाथ में आ जाएगी और सरकार की नीतियों का लाभ सभी व्यक्तियों को मिलने लगेगा। साम्यवादी विचारकों का मानना है कि आर्थिक शक्ति पर नियन्त्रण राजनीतिक शक्ति पर भी स्वयं नियन्त्रण रखने लग जाएगा।

1. संविधानवाद की साम्यवादी अवधारण की मान्यताएं

साम्यवादी संविधानवाद की अवधारणा इन मान्यताओं पर आधारित है :-
  1. शक्ति के आर्थिक पक्ष की सर्वोच्चता :- साम्यवादियों का मानना है कि सामाजिक जीवन में आर्थिक शक्ति की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जिस व्यक्ति के पास आर्थिक शक्ति होती है, वह सम्पूर्ण समाज पर अपना प्रभुत्व कायम करने व रखने में सफल होता है। इसी व्यवस्था के कारण वर्ग-संघर्ष का जन्म होता है और शोषण व अन्याय की शुरुआत होती है। इसलिए वर्ग-संघर्ष व शोषण को रोकने के लिए आर्थिक शक्ति का बंटवारा समाज के समस्त व्यक्तियों के हाथ में होना चाहिए।
  2. समाज में आर्थिक शक्ति से सम्पन्न वर्ग का प्रभुत्व :- आर्थिक शक्ति की सर्वोच्चता एक आर्थिक शक्ति सम्पन्न वर्ग को जन्म देती है। व्यवहार में इसी शक्ति से सम्पन्न वर्ग का राजनीतिक शक्ति पर भी नियन्त्रण रहता है। समस्त समाज आर्थिक शक्ति सम्पन्न वर्ग के निर्देशानुसार ही संचालित होता है।
  3. राजनीतिक शक्ति का आर्थिक शक्ति के अधीन होना :- आर्थिक शक्ति से सम्पन्न वर्ग राजनीतिक शक्ति को भी आर्थिक शक्ति के अधीन कर देता है। समाज की सभी संस्थाएं आर्थिक शक्ति के आगे झुकने को मजबूर हो जाती हैं। इसलिए नियन्त्रण राजनीतिक शक्ति की बजाय आर्थिक शक्ति पर ही लगाए जाने चाहिए। 
इससे स्पष्ट होता है कि साम्यवादी देशों में राजनीतिक शक्ति की बजाय आर्थिक शक्ति पर नियन्त्रण रखने हेतु संवैधानिक प्रावधान किए जाते हैं। साम्यवादी धारणा के अनुसार नियन्त्रणों की संस्थागत व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य आर्थिक शक्ति को सार्वजनिक सत्ता के अधीन करना है। यद्यपि सामाजिक मूल्यों, राजनीतिक आदर्शों और संस्थाओं की प्राप्ति के लिए साम्यवादी देशों में भी पाश्चात्य देशों के समान ही संस्थागत व्यवस्थाएं की गई हैं। साम्यवादी देशों में भी पाश्चात्य संविधानवाद की तरह लिखित व सर्वोच्च संविधान, शक्तियों का विभाजन व पृथक्करण, नागरिकों के मौलिक अधिकार, सरकार का उत्तरदायित्व, कानून का शासन आदि की सैद्धान्तिक रूप में संस्थागत व्यवस्थाएं की गई हैं, लेकिन व्यवहार में इन व्यवस्थाओं का कोई महत्व नहीं है। 

साम्यवादी देशों में साम्यवादी समाज की आर्थिक शक्ति पर नियन्त्रण रखने हेतु व्यवहार में निम्नलिखित तरीके प्रयोग में लाए जाए जाते हैं :-
  1. उत्पादन व वितरण के साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व :- साम्यवादियों का मानना है कि आर्थिक साधनों पर निजी स्वामित्व आर्थिक शक्ति को कुछ पूंजीपतियों तक ही सीमित कर देता है। इससे वर्ग-संघर्ष का जन्म होता है। आर्थिक शक्ति से सम्पन्न वर्ग राजनीतिक सत्ता प्राप्त करके समाज के बहुसंख्यक श्रमिक वर्ग का शोषण करना शुरु कर देता है। समाज का बहुसंख्यक वर्ग पूंजीपतियों के आदर्शों व मूल्यों को मानने पर मजबूर हो जाता है। ऐसी स्थिति में संविधान प्रावधानों - मौलिक अधिकारों व स्वतन्त्रताओं का कोई महत्व नहीं रह जाता। इसलिए संविधानवाद को व्यवहारिक बनाने के लिए उसके मार्ग की बाधाएं दूर करना आवश्यक हो जाता है। ऐसा तभी सम्भव हो सकता है, जब उत्पादन व वितरण के साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व की व्यवस्था हो। इससे राजनीतिक शक्ति व सत्ता का दुरुपयोग होने की संभावना कम हो जाएगी और संविधानवाद को व्यवहारिक गति मिलेगी।
  2. सम्पत्ति का समान वितरण :- उत्पादन व वितरण के साधनों पर सार्वजनिक नियन्त्रण हो जाने पर सम्पत्ति के समान बंटवारे में कोई परेशानी नहीं आएगी। इससे समाज में सम्पत्ति के कारण न तो संघर्ष होगा और न असमानता जन्म लेगी। इसलिए साम्यवादी आर्थिक समानता की स्थापना द्वारा संविधानवाद का लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं। वे समाज को उन सभी बन्धनों से मुक्ति दिलाना चाहते हैं जो संविधानवाद के रास्ते में बाधा बनते हों।
  3. साम्यवादी दल का शासन :- साम्यवादी देशों में आर्थिक समानता के कारण वर्ग-विहीन समाज में राजनीतिक दलों की आवश्यकता नहीं रहती। साम्यवादी बहुदलीय प्रणाली को साम्यवाद के लक्ष्यों को प्राप्त करने के मार्ग में बाधक मानते हैं। परन्तु साम्यवादी लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए समाज को नेतृत्व देने व निर्देश के लिए एक राजनीतिक दल को तो आवश्यमक मानते हैं। साम्यवादियों की दृष्टि में ऐसा दल साम्यवादी दल ही हो सकता है। यह दल ही समाज का सच्चा प्रतिनिधि हो सकता है। यह दल शोषण व दमन का अन्त कर सकता है और सार्वजनिक हित में वृद्धि कर सकता है।
उपरोक्त व्याख्या के आधार पर कहा जा सकता है कि संविधानवाद की साम्यवादी अवधारणा सिद्धान्त में तो पाश्चात्य अवधारणा के पास हो सकती है, लेकिन व्यवहार में वह उससे काफी दूर ही रहती है। साम्यवादियों का मानना है कि संविधानवाद को व्यवहारिक बनाने के लिए नियन्त्रण की पाश्चात्य व्यवस्थाएं प्रभावी नहीं हो सकती। इसलिए वे आर्थिक साधनों के वितरण की मौलिक व्यवस्थाओं द्वारा राजनीतिक शक्ति पर नियन्त्रण स्थापित करके संविधानवाद के आदर्शों को सभी नागरिकों के लिए उपलब्ध कराते हैं। सिद्धान्त तौर पर साम्यवादी देशों में नियन्त्रण की जो औपचारिक व्यवस्थाएं की जाती हैं, व्यवहार में उनका कोई महत्व नहीं है। 

साम्यवादी देशों में शक्तियों के पृथक्करण, मौलिक अधिकार, कानून का शासन आदि संवैधानिक व्यवस्थाएं संविधानवाद की स्थापना में अपना कोई योगदान नहीं देती। साम्यवादी दल की तानाशाही के आगे ये व्यवस्थाएं निरर्थक व औपचारिकता मात्र रह जाती है। 

सोवियत संघ में 1917 में लेनिन की सरकार स्थापित होने के बाद वहां साम्यवादी दल की तानाशाही रही। लेनिन की दृष्टि में संवैधानिक उपबन्धों की कोई अहमियत नहीं थी। उसके बाद स्टालिन ने भी अपनी तानाशाही सरकार द्वारा संविधानवाद की धज्जियां उड़ा दी। इसी तरह पौलैण्ड, हंगरी, रुमानिया, चेकोस्लावाकिया, उत्तरी कोरिया, वियतनाम, क्यूबा आदि देशों में साम्यवाद की स्थापना होने के बाद से उसके पतन तक संविधान के आदर्शों की बजाय साम्यवादी दल या साम्यवादियों के आदर्शों का ही बोलबाला रहा। 

1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद तथा अन्य साम्यवादी देशों द्वारा लोकतन्त्र को अपनाए जाने तक संविधानवाद के आदर्शों को व्यावहारिक तौर पर दबाया गया। आज चीन, वियतनाम व क्यूबा आदि साम्यवादी देशों में संविधानवाद का व्यावहारिक स्वरूप कुछ और ही है। इन देशों में साम्यवादी दलों या साम्यवादी नेतृत्व के आगे संवैधानिक उपबन्धों का कोई महत्व नहीं है। इन देशों में अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्यों पर अधिक जोर दिया जाता है। इन देशों के संविधानों में ऐसी धाराएं हैं जो साम्यवादी दल की तानाशाही की आड़ में संविधानात्मक की ही धज्जियां उड़ा देती हैं। संविधान के पास सरकार को नियन्त्रित व उत्तरदायी बनाने के लिए साम्यवादी दल के होते हुए कोई उपाय शेष नहीं रह जाता। इसलिए कुछ आलोचक साम्यवादी देशों में संविधानवाद के अस्तित्व से ही इंकार करते हैं क्योंकि वहां पर समस्त गतिविधियों का निर्णायक यही है। 

इन देशों में संविधानिक उपबन्ध जनता के साथ धोखा है और स्वयं संविधान भी साम्यवादी दल के हाथ में एक कठपुतली है। अत: साम्यवादी देशों में संविधानवाद की बात करना भी मूर्खता है।

संविधानवाद की विकासशील देशों की अवधारणा

राजनीतिक स्थावित्व के अभाव में विकासशील देशों में संविधानवाद का विकास उतना नहीं हुआ है, जितना पश्चिमी देशों में हुआ है। भारत को छोड़कर सभी विकासशील देशों की राजनीतिक व्यवस्थाएं अभी संक्रमणकाल के दौर से गुजर रही हैं। भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो राजनीतिक स्थायित्व के साथ-साथ संविधानवाद में भी पाश्चात्य देशों से पीछे नहीं है। भारत में संविधानवाद अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुका है। 

भारत ने पाश्चात्य संविधानवाद के समस्त आदर्श प्राप्त कर लिए हैं और वह बराबर संविधानवाद का विकास कर रहा है। विकासशील देशों की अपनी कूछ समस्याएं हैं जो संविधानवाद के मार्ग में बाधा बनकर खड़ी हैं। फिर भी विकासशील देश कम या अधिक मात्रा में पश्चिमी देशों की तरह संविधानवाद का पोषण कर रहे हैं। विकासशील देशों के संविधानवाद को समझने के लिए इन देशों की समस्याओं को समझना बहुत आवश्यक है।

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