मुसलमानों में भी अस्थाई प्रकार के विवाह का प्रचलन है जिसे मुता विवाह कहते हैं। यह विवाह स्त्री व पुरुष के आपसी समझौते से होता है और इसमें कोई भी रिश्तेदार हस्तक्षेप नहीं करता। पुरुष को एक मुस्लिम या यहूदी या ईसाई स्त्री से मुता विवाह के संविदा का अधिकार है, किन्तु एक स्त्री एक गैर-मुस्लिम से मुता संविदा नहीं कर सकती है।
हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है ? धर्म, प्रजा (प्रजनन) और रति (आनन्द) हिन्दू विवाह के उद्देश्य हैं। विवाह के उद्देश्यों में यौन का तृतीय स्थान है। धर्म का स्थान प्रथम एवं सर्वोच्च है। प्रजनन को द्वितीय स्थान दिया गया है। पिता को नरक में जाने से रोकने के लिए पुत्र प्राप्त करना भी विवाह का उद्देश्य हैं विवाह के समय पंच महायज्ञ करने के लिए पवित्र अग्नि प्रज्वलित की जाती है। एक पुरुष को जीवन पर्यन्त अपनी पत्नी के साथ पूजा करनी पड़ती है। इस प्रकार विवाह मुख्यतः व्यक्ति के धर्म और उसके कर्तव्यों को पूरा करने के लिए है।
हिन्दू व मुस्लिम विवाह में अन्तर
हिन्दू और मुस्लिम विवाहो में चार आधारों पर भेद किया जा सकता है
1. हिन्दू विवाह में धर्म व धार्मिक भावनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, किन्तु मुस्लिम विवाह में भावनाओं का कोई स्थान नहीं होता है। सभी धार्मिक क्रियाएं तभी मान्य होती हैं जबकि पति-पत्नी मिलकर उन्हें सम्पन्न करें। हिन्दू विवाह आदर्श के विरुद्ध मुस्लिम विवाह मात्रा एक समझौता होता है जिससे यौन सम्बन्ध् स्थापित हो सके और सन्तानोत्पत्ति हो सके।
2. विवाह व्यवस्था के स्वरूप प्रस्ताव रखना और उसकी स्वीकृति मुस्लिम विवाह की विशेषताएं हैं। प्रस्ताव कन्या पक्ष से आता है उसे जिस बैठक में प्रस्ताव आता है उसी में स्वीकार भी किया जाना चाहिए और इसमें दो साक्षियों का होना भी आवश्यक होता है। हिन्दुओं में ऐसा रिवाज नहीं है। मुस्लिम इस बात पर शोर देते हैं कि व्यक्ति में संविदा का क्या सामर्थ्य है परन्तु हिन्दू इस प्रकार के सामर्थ्य में विश्वास नहीं करते। मुस्लिम लोग मेहर की प्रथा का पालन करते हैं जबकि हिन्दुओं में मेहर जैसी प्रथा नहीं होती है।
1. हिन्दू विवाह में धर्म व धार्मिक भावनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, किन्तु मुस्लिम विवाह में भावनाओं का कोई स्थान नहीं होता है। सभी धार्मिक क्रियाएं तभी मान्य होती हैं जबकि पति-पत्नी मिलकर उन्हें सम्पन्न करें। हिन्दू विवाह आदर्श के विरुद्ध मुस्लिम विवाह मात्रा एक समझौता होता है जिससे यौन सम्बन्ध् स्थापित हो सके और सन्तानोत्पत्ति हो सके।
2. विवाह व्यवस्था के स्वरूप प्रस्ताव रखना और उसकी स्वीकृति मुस्लिम विवाह की विशेषताएं हैं। प्रस्ताव कन्या पक्ष से आता है उसे जिस बैठक में प्रस्ताव आता है उसी में स्वीकार भी किया जाना चाहिए और इसमें दो साक्षियों का होना भी आवश्यक होता है। हिन्दुओं में ऐसा रिवाज नहीं है। मुस्लिम इस बात पर शोर देते हैं कि व्यक्ति में संविदा का क्या सामर्थ्य है परन्तु हिन्दू इस प्रकार के सामर्थ्य में विश्वास नहीं करते। मुस्लिम लोग मेहर की प्रथा का पालन करते हैं जबकि हिन्दुओं में मेहर जैसी प्रथा नहीं होती है।
मुसलमान बहु-विवाह में
विश्वास करते हैं, लेकिन हिन्दू ऐसी प्रथा का तिरस्कार करते हैं। जीवन-साथी के चुनाव के लिए मुसलमान लोग
वरीयता व्यवस्था मानते हैं जबकि हिन्दुओं में ऐसी व्यवस्था नहीं है। मुसलमानों की तरह हिन्दू लोग फासिद या बातिल विवाह में भी विश्वास नहीं करते।
3. मुसलमान अस्थाई विवाह मूता को मानते हैं, लेकिन हिन्दू नहीं मानते। हिन्दू विवाह में समझौते के लिए इद्दत को नहीं मानते। अन्तिम, हिन्दू लोग विधवा विवाह को हेय दृष्टि से देखते हैं, जबकि मुसलमान लोग विधवा विवाह में विश्वास रखते हैं।
4. हिन्दुओं में विवाह-विच्छेद केवल मृत्यु के बाद ही सम्भव है, लेकिन मुसलमानों में पुरुष के उन्माद पर विवाह विच्छेद हो जाता है। मुसलमान पुरुष अपनी पत्नी को न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना भी तलाक दे सकता है, लेकिन हिन्दू लोग न्यायालय के माध्यम से ही विवाह विच्छेद कर सकते हैं।
3. मुसलमान अस्थाई विवाह मूता को मानते हैं, लेकिन हिन्दू नहीं मानते। हिन्दू विवाह में समझौते के लिए इद्दत को नहीं मानते। अन्तिम, हिन्दू लोग विधवा विवाह को हेय दृष्टि से देखते हैं, जबकि मुसलमान लोग विधवा विवाह में विश्वास रखते हैं।
4. हिन्दुओं में विवाह-विच्छेद केवल मृत्यु के बाद ही सम्भव है, लेकिन मुसलमानों में पुरुष के उन्माद पर विवाह विच्छेद हो जाता है। मुसलमान पुरुष अपनी पत्नी को न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना भी तलाक दे सकता है, लेकिन हिन्दू लोग न्यायालय के माध्यम से ही विवाह विच्छेद कर सकते हैं।
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