जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत

महावीर

वर्द्धमान महावीर जैन-धर्म के चौबीसवें तीर्थङ्कर थे। जैन परम्परा के अनुसार प्रथम तीर्थङ्कर थे ऋषभदेव और तेईसवें थे पार्श्वनाथ। शेष तीर्थङ्करों के क्रमशः ये नाम मिलते है - अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दन, सुमतिनाथ, पद्यप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ सुविधिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांशनाथ, वासुपूज्य, मिलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनि सुव्रत, नमिनाथ तथा नेमिनाथ ( अरिष्ट नेमिनाथ)  इन तीर्थङ्करों के जीवन-चरित जैन सूत्रों तथा जैन गुरुओं द्वारा रचित चरित्रों में उपलब्ध हैं।

महावीर : महावीर का जन्म वैशाली के उपनगर कुण्डग्राम के एक ज्ञातृकुल में हुआ था। पालि - निकाय में इनका उल्लेख निगण्ठ नातपुत्त (निर्गन्थ ज्ञातृपुत्र) के नाम से मिलता है।" महावीर ने भी बुद्ध के समान सांसारिक सुख-वैभव का परित्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण कर लिया। संसार का त्याग कर वे कठोर तपश्चर्या करने लगे जिसका विस्तृत वर्णन आचारंग - सूत्र में मिलता है। वे वन- प्रदेशों में भ्रमण करते रहे जहाँ जंगली जातियाँ निवास करती थी। उन जंगली जातियों ने उन्हें अनेक प्रकार की यातनाएँ दीं। संभवतः वे छोटा नागपुर के उत्तरी भाग के जंगली क्षेत्रों में पद - यात्रा करते रहे। बीच-बीच में राजगृह में उनका आगमन हो जाता था और वहाँ उनका समुचित सत्कार किया जाता था। इसी क्रम में वे नालन्दा भी गये। वहाँ उनकी भेंट आजीविक मत के प्रवर्तक मक्खलि गोसाल से हुई और दोनों कतिपय वर्षों तक साथ भी रहे। महावीर को बारह वर्षों के कठिन तपोमय जीवन के अनन्तर तेरहवें वर्ष में कैवल्य की उपलब्धि हुई। उस समय उनकी आयु 42 वर्ष थी। यहां से उनके जीवन के प्रमुख अध्याय का आरम्भ हुआ। जिनत्व प्राप्त कर महावीर निगण्ठ सम्प्रदाय के प्रमुख हो गये। उन्होंने जैन संघ को सुसंगठित किया। कहा जाता है कि उनके अनुयायियों में प्रमुख थे 14 हजार जैन मुनि । इनमें भी प्रमुख थे  उनके 11 शिष्य, जो गणधर कहलाते थे, उनके महावीर के निर्वाण के अनन्तर भी जीवित रहे । भगवान् महावीर ने तीस वर्षों तक घूम घूम कर अपने मत का प्रचार किया था, पर इस विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है । कल्पसूत्र के अनुसार उन्होंने राजगृह, नालन्दा, चम्पा, वैशाली, मिथिला तथा श्रावस्ती में वास किया था  पालि-सूत्रों के अनुसार महावीर तथा उनके अनुयायियों के प्रमुख कार्यक्षेत्र थे - राजगृह, नालन्दा, वैशाली, पावा और श्रावस्ती।  उनका निर्वाण भी पावा नामक स्थान में हुआ जो राजगृह के निकट जैनों का प्रमुख तीर्थ है। 

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जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत

जैन दर्शन के दार्शनिक ग्रन्थों की बहुलता है, पर भगवान् महावीर के उपदेश अपने मूल रूप में हमें उपलब्ध नहीं है, क्योंकि जैन धर्म के आगम ग्रन्थों की रचना महावीर के निर्वाण के कई सौ वर्ष पश्चात् हुई । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के परम्परानुसार इनका अंतिम संशोधन ईस्वी सन् की छठी शताब्दी में वलभी में हुआ। जैन दर्शन की सुव्यवस्था का प्रारम्भ ईसापूर्व प्रथम शताब्दी में किया गया। इस काल में तीन विद्वानों- उमास्वाति, कुन्दकुन्दाचार्य तथा समन्तभद्र ने जैन धर्म की दार्शनिक नींव को दृढ़ किया। उमास्वाति मगधवासी थे। इन्होंने अपने प्रख्यात ग्रन्थ तत्वार्थसूत्र तथा तत्वार्थाधिगम की रचना की । कुन्दकुन्दाचार्य दक्षिण के प्रसिद्ध जैन आचार्य थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की जिनमें तीन ग्रन्थ - पंचास्तिकायसार, समयसार तथा प्रवचनसार को जैन तत्व - ज्ञान में उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता के समकक्ष माना जाता है।

पार्श्वनाथ ने चार महाव्रतों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह के आचरण का उपदेश दिया । इन्होंने अपने अनुयायियों को एक अधोवस्त्र और एक उत्तरीय धारण करने की अनुमति भी दी थी, परन्तु महावीर कठोर तपश्चर्या के समर्थक (हिमायती) थे, अतः उन्होंने वस्त्र धारण तक का निषेध किया। उन्होंने पार्श्वनाथ के चार महाव्रतों में ब्रह्मचर्य भी जोड़ दिया और चार के स्थान पर पाँच महाव्रतों का प्रतिपादन आरम्भ किया। जैन परम्परानुसार पार्श्वनाथ के केशिन नामक अनुयायी और महावीर में इस विषय पर विचार- विमर्श भी हुआ कि पार्श्वनाथ तथा महावीर की शिक्षा की असमानता को दूर किया जाय; परन्तु भिक्षुओं को वस्त्र धारण की अनुमति दी जाय अथवा नहीं, इस पर वे एकमत न हो सके । इसी प्रश्न पर अवान्तर काल में जैनियों के श्वेताम्बर तथा दिगम्बर- दो सम्प्रदाय हो गये।

भगवान् महावीर के उपदेशों का संग्रह है - कल्प सूत्र तथा आचारांग - सूत्र । पालि- निकाय में भी प्रसंगवश उनके उपदेशों का उल्लेख हुआ है। दीघनिकाय में महावीर द्वारा प्रतिपादित निगण्ठ- मत के चातुर्याम-संवर सिद्धान्त का उल्लेख है ।" इस सिद्धान्त के अनुसार निगण्ठ चार प्रकार के संवरों से संवृत ( आच्छादित, संयत) रहता है - ( 1 ) वह जल के व्यवहार का वारण करता है (जिसमें जल के जीव न मारे जायँ), (2) सभी पापों का वारण करता है, (3) सभी पापों के वारण करने से धुतपाप (पापरहित) होता है, (4) सभी पापों के वारण करने में लगा रहता है। महावीर ने बतलाया कि निगण्ठ इन चार प्रकार के संवरों से संवृत होने के कारण निर्ग्रन्थ गतात्मा (अनिच्छु), यतात्मा (संयमी) और स्थितात्मा कहलाता है।

मोक्ष-मार्ग : जैन-धर्म में मोक्ष के तीन साधन बतलाये गये हैं – (1) सम्यक् दर्शन, (2) सम्यक् ज्ञान तथा ( 3 ) सम्यक् चारित्र्य । दर्शन का अर्थ है श्रद्धा, अतः मुमुक्षु का प्रधान साधन है - सम्यक् श्रद्धा । दूसरा साधन है – सम्यक् ज्ञान। श्रद्धा के समान ही - समस्त सिद्धान्तों तथा तत्त्वों का गम्भीर ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है । पुनः सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् ज्ञान की चरितार्थता सम्यक् चारित्र्य में ही सम्पन्न होती है । इन मोक्षोपयोगी तीनों साधनों को जैन दर्शन में रत्न - वय की संज्ञा दी गयी है ।

जैन दर्शन में मनुष्य के व्यक्तित्व को द्वैध माना गया है- द्रव्यमय और जीवमय । जीव निसर्गतः मुक्त है, परन्तु वासनाजन्य कर्म उनके शुद्ध स्वरूप पर आवरण डाले रहते हैं। ये कर्म आठ प्रकार के माने गये हैं। कुछ कर्म ज्ञान को आवृत किये हुये हैं, कुछ दर्शन को और कुछ मोह उत्पन्न करने के साधन बने हुए। इस प्रकार ये कर्म आठ प्रकार के माने गये हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र तथा अन्तराय जब जीव के साथ कर्म का सम्बन्ध-विच्छेद होगा, तभी मोक्ष की प्राप्ति होगी, तब जीवन जिन (विजयी) हो जायगा, वह पूर्णमुक्त एवं आननन्दमय हो जायगा । जैन धर्म आजीविकों से समान मनुष्य को अनुत्तरदायी नहीं मानता। वह तो इसमें विश्वास करता है कि मनुष्य स्वयमेव अपने सुख-दुःख के लिए उत्तरदायी है ।" पालि निकाय में महावीर को क्रियावाद सिद्धान्त का प्रतिपादक बतलाया गया है।

मोक्ष : उमास्वाति ने समग्र कर्मों के क्षय को ही मोक्ष कहा है। जब जीव अपने नैसर्गिक शुद्ध स्वरूप को पा लेता है तो उसमें अनन्तचतुष्टय - अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य, अनन्त श्रद्धा और अनन्त शान्ति की उत्पत्ति होती है । यही कैवल्य की अवस्था है कैवल्य-प्राप्त व्यक्ति इस पृथ्वी पर निवास करता हुआ समाज के परम कल्याण के कार्यों में संलग्न रहता है, परन्तु सिद्धावस्था तक पहुँचने के लिए प्रमुख को आध्यात्मिक विकास के मार्ग में अपनी नैतिक उन्नति के अनुसार क्रमशः आगे बढ़ाना पड़ता है। उसका आध्यात्मिक विकास सद्यः (तत्काल) नहीं हो जाता । उसको मोक्ष मार्ग के विभिन्न गुणस्थानों (सोपानों)” को पार करतेहुए लक्ष्य तक पहुँचना पड़ता है। जैन दर्शन में इन गुणस्थानों की संख्या चौदह है। जब साधक अनन्त - ज्ञान तथा अनन्त सुख से देदीप्यमान हो उठता है, तो वह तीर्थंकर कहलाता है और उसमें उपदेश देने तथा धार्मिक सम्प्रदाय स्थापित करने की योग्यता आ जाती है। उससे ऊपर आयोग (केवल ) है जो अंतिम अवस्था है। इस अवस्था में पहुँच कर साधक ऊपर उठने लगता है और वह लोकाकाश-आलोकाकाश के मध्य सिद्धशिला नामक सिद्धों की नितान्त पवित्र निवास भूमि में पहुँच जाता है। वह अनन्त चतुष्टय को प्राप्त कर चरम शान्ति का अनुभव करता है। यही साधकों की चरम मुक्तावस्था मानी गयी है।

स्याद्वाद : जैन- दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त स्याद्वाद अथवा सप्तभंगी नय है । 100 जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु अनेकधर्मात्मक होती है । समस्त वस्तु- धर्मों का यथार्थज्ञान तो उसी व्यक्ति को हो सकता है जिसने कैवल्यपद को प्राप्त कर लिया है। साधारण मानव तो वस्तु के एक धर्ममात्र को ही जानने का सामर्थ्य रखता है। अतः उसका ज्ञान आंशिक रहता है। वस्तु के अनन्त धर्मों में से एक के ज्ञान की संज्ञा 'नय' है । साधारणत: ज्ञान तीन प्रकार का हो सकता है-दुर्णय, नय तथा प्रमाण । यदि विद्यमान वस्तु को हम विद्यमान ही बतलावें तो इसके अन्य प्रकारों का निषेध होने के कारण यह ज्ञान 'दुर्णय' होगा । अन्य प्रकारों का निषेध किये बिना यदि वस्तु को सद् बतलाया गया तो यह आंशिक ज्ञान संवलित होने के कारण 'नय' कहलायेगा। किन्तु 'प्रमाण' इन सबसे भिन्न होता है । विद्यमान वस्तु के विषय में सम्भवतः यह सद् है, अर्थात् स्यात् सत् कहने से ही वस्तु के ज्ञात तथा अज्ञात धर्मों का संकलन होता है, अतः यह प्रमाण की कोटि में आता है । अतएव प्रत्येक परामर्श के पहले उसे सीमित तथा सापेक्ष बनाने के लिए 'स्यात्' विशेषण जोड़ना आवश्यक है। जैन न्याय में सत्ता के सापेक्ष रूप को स्वीकार करने के कारण परामर्श का रूप सात प्रकार का माना गया जिसे सप्तभंगी नय कहते हैं। इस का रूप इस प्रकार है-

1. स्यादस्ति (संभवतः अब है ) ।
2. स्यान्नास्ति (संभवत: अब नहीं है ) ।
3. स्यादस्ति च नास्ति च (संभवतः अब है और संभवतः नहीं है ) ।
4. स्याद् अवक्तव्यम् (संभवतः अवर्णनीय है ) ।
5. स्यादस्ति च अवक्तव्यं च (संभवतः अब है और अवर्णनीय भी है ) ।
6. स्थान्नास्ति च अवक्तव्यं च (संभवत: अब नहीं है और वर्णनीय भी है ) ।
7. स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यं च (संभवतः अब है, अब नहीं भी है और वर्णनीय भी है) ।

सप्तभंगी नय का यह स्वरूप महावीर के निर्वाणोपरान्त विकसित हुआ, पर भगवतीसूत्र में उनके मुख से 'स्यादस्ति, स्यान्नानास्ति तथा स्याद् अवक्तव्यः' की व्याख्या करायी गयी है। महावीर को इसकी प्रेरणा उपनिषदों से मिली, क्योंकि उपनिषदों में ब्रह्म कहीं सत्, कहीं असत्, कहीं उभयात्मक बतलाया गया है। इन मतों के आधार पर ही अवान्तर काल में सत्ता को अनेकान्त मानने की कल्पना की गयी होंगी। 

जैन दर्शन में सत् के स्वरूप का विवेचन अन्य दर्शनों से भिन्न प्रकार से किया गया है। जैन दर्शन प्रत्येक पदार्थ के दो अंशों को मानता है- शाश्वत तथा अशाश्वत । शाश्वत अंश के कारण प्रत्येक वस्तु नित्य है और अशाश्वत के कारण वह अनित्य है अर्थात् उत्पत्ति- विनाशशील है। उभयांशों के निरीक्षण पर ही सर्वांगीण सत्यता अवलम्बित है, अतः प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न होने वाला तथा नष्टवान् होने के साथ साथ स्थिर होने वाला भी है ("उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्" - त०सू० 5 / 29 ) । जैन दर्शन जगत् के नानात्व में विद्यमान एकत्व को स्वीकार करता है और वह मानता है कि जितना जगत् का नानात्व वास्तविक है, उतना ही उसका एकत्व भी ।

जैन दर्शन नौ पदार्थों की सत्ता को मानता है। ये हैं- जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष । 102 दर्शन का विषय होने के कारण इन पर विशेष विचार करना यहाँ आवश्यक नहीं समझा जा रहा है।

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