संगीत की उत्पत्ति के सिद्धांत

संगीत की उत्पत्ति के सिद्धांत

संगीत विभिन्न ध्वनियों को मिलाने वाली वह कला है जिसके द्वारा मनोभावों के प्रदर्शन में रोचकता, माधुर्य एवं सुन्दरता आती है। संगीत की परिभाषा केवल मानवीय गायन तक ही सीमित नहीं बल्कि इसके अन्तर्गत पशुओं की चहचहाहट इत्यादि भी सम्मिलित है। 

भारतीय संगीत के इतिहास का सर्वांगीण विवेचन अथवा यथार्थ चित्रण कर देना सरल कार्य नहीं है। यह कला ऐसी ध्वनियों का विवेचन करती है जो कि कर्णप्रिय और मनमोहक होती है।

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संगीत की प्राचीनता के प्रमाण हमें विश्व के प्राचीनतम साहित्य वेद में मिलते हैं। वैदिक साहित्य में संगीत के तीनों अंगों - गीत, वाद्य तथा नृत्य का उल्लेख मिलता है । संगीत के विषय में पर्याप्त मात्रा में प्राप्त वैदिक उद्धरण इस बात का जहाँ पूर्णरूप से उल्लेख करते हैं कि उस समय संगीत काफी विकसित हो चुका था, वहाँ इस बात का भी प्रामाणिक रूप से उल्लेख करते हैं कि संगीत वैदिक काल से बहुत पहले ही शुरु हो चुका था। वैदिक संगीत, संगीत का आदि रूप न होकर एक पूर्णतया विकसित रूप था । ऋग्वेद से प्राचीन किसी ग्रन्थ की सत्ता न मिलने के कारण उस संगीत के स्वरूप के विषय में कोई लिखित शाब्दिक प्रमाण देना सम्भव नहीं है किन्तु वैदिक संगीत के विकसित रूप को  देखते हुए हम यह अनुमान निश्चित रूप से लगा सकते हैं कि इसकी परम्परा बहुत प्राचीन काल से चली आ रही थी ।

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संगीत शब्द की व्युत्पाति 'गीत' में सम् उपसर्ग लगाकर हुई है। सम यानी सहित गीत अर्थात् गान । संस्कृत हिन्दी कोश में संगीत शब्द की उत्पत्ति सम + गै + क्त धातु के संयोग से माना है। मानक हिन्दी शब्द कोश में संगीत शब्द की व्युत्पति पु० (स० सम् गै गान) + क्त धातुओं द्वारा स्वीकार किया गया है। पाश्चात्य परम्परा में संगीत के लिये म्यूजिक शब्द का प्रयोग किया गया है जिसकी उत्पति ग्रीक शब्द से मानी जाती है किन्तु अरबी परम्परा में संगीत शब्द को मूसीकी के नाम ले जानते है जिसकी उत्पाति 'मूसिका' शब्द से मानी जाती है। यूनानी भाषा में मूसिका आवाज को कहते है। अगर साधारण द्रष्टि से देखा जाए तो कलाकार की आन्तरिक भावनाओ की स्वरो के मिश्रण के मधुर रुप में प्रस्तुत करने को संगीत कहा जाता है तथा भारतीय परम्परा मधुर ध्वनियों अथवा सात स्वरो के कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार लय वद्ध प्रस्फुटन को संगीत मानते है कहते है । यदि इसे संधि की दृष्टि से देखा जाये तो सं का अर्थ होगा उत्तम तथा गीत का अर्थ होगा गान । अर्थात् उत्तर गान ही संगीत है । प्रचीन वाङ्मय में भी संगीत की व्युत्पत्तिपरक अर्थ सम्यक् गीत अर्थात् भली भाँति गाया गया गीत है । मधुर ध्वनियों की एक समूह रचना जब नियमबद्ध होकर सर्वसाधारण को आनन्द प्रदान करती है तो उसे हम संगीत कहते हैं। 

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कुछ विद्धानों का यह मत है कि यह विधा अनादि है तथा पृथ्वी की से पूर्व से ही इसका आस्तित्व विधमान था । कुछ का मत है कि इसकी उत्पत्ति मानव सभ्यता के साथ साथ हुआ। भारतीय उपाचार्यो के अनुसार संगीत की उत्पत्ति सृष्टि रचयिता ब्रह्मा जी द्वारा हुई। ब्रह्मा जी ने इस कला को शिवजी को प्रदान किया और शिवजी ने सरस्वती माँ को दिया। माता सरस्वती ने यह विद्या नारद जी को प्रदान की । नारद जी के माध्यम से स्वर्गलोक के गंधर्वो, किन्नरों, एवं अप्सराओं को प्राप्त हुई तथा स्वर्ग बसे भरत, नारद एवं हनुमान जी आदि से यह विद्या अर्थात् संगीत विधा पृथ्वी तक पहुंचा फारसी धर्मावलम्बियों के अनुसार संगीत की उत्पति हजरत मूसा द्वारा हुई है तथा उनका मानना है कि हजरत मूसा को फरिश्तों के साध्यम से एक पत्थर प्राप्त हुआ, पानी की बूँद पड़ने से उस पत्थर के सात टुकड़े हो गये जिससे सात धाराओं से ही सात प्रकार की अलग-अलग ध्वनियों को उत्पन्न किया तथा उन्ही से सात स्वरों की उत्पत्ति हुई । ईसाई धर्मावलम्बियों का मानना है कि ईसा मसीह ने लिण्डा नामक चिड़िया की आवाज से प्रेरणा पाकर संगीत की उत्पत्ति की। कुछ विद्वानो का मत है कि प्रकृति से ही ध्वनिमूलक उपादानों को ग्रहण व परिष्कृत कर लंगीत का निर्माण मानव कण्ठ से सम्पन्न हुआ अगर आध्यात्मिक दृष्टि की बात करे तो संगीत की उत्पति 'ओडम' शब्द से हुआ है त यह 'अ' 'ऊ' 'म' इन तीन अक्षरों के योग से बना है । ओऽम की वह शब्द है जो पृथ्वी पर सर्वप्रयम प्रल्फुटित हुआ । वास्तव में संगीत ही वह सरलतम माध्यम है जो आत्मा को परमात्मा से मिलाने में एक माध्यम का कार्य करता है। संगीत शब्द के प्रयोग के वार में विभिन्न विद्वानो में अन्तर दिखाई देता है । संगीत शाब्द ‘सम' उपसर्ग पूर्वक 'ग' धातु के साथ 'क्त' प्रत्यय जोड़कर बना है। 'सम' उपसर्ग (सम्यक्) अर्थात् अच्छा या उत्तम के साथ 'गै' धातु 'गाम' या 'गीत' के अर्थ में तथा 'क्त' प्रत्पय करने के अर्थ में लिया गया है किसका अर्थ 'सम् + गीत = 'संगीत' = उत्तम या अच्छा गीत है । 'सं' के उच्चारण में ही साहित्य एवं संगीत दोनो का समावेश है । सं का तात्पर्य साहित्य से तथा उसके पीछे जो 'अ' की ध्वनि है वही संगीत है।' 

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संगीत की उत्पत्ति के सिद्धान्त

संगीतोत्पत्ति के विषय में प्राचीन काल से ही विचार होता आ रहा है। इस विषय पर विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न मत दिए हैं। यही कारण है कि आज संगीत की उत्पत्ति के विषय में हमें अनेक मत एवम् सिद्धान्त प्राप्त होते हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का विवेचन निम्नलिखित है-

1. संगीत की दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त

संगीत की दैवी उत्पत्ति का सम्बन्ध देवताओं के साथ जोड़ा जाता था। उस काल में ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव इन तीन देवताओं का महत्त्व सबसे ज्यादा माना जाता था। संगीत को गान्धर्व - विद्या भी कहा गया है । भरत के अनुसार गान्धर्व विद्या के तत्वों को समाहित करने वाला नाट्यवेद स्वयं ब्रह्मा की रचना है।± डॉ0 उमेश जोशी ने अपने ग्रंथ 'भारतीय संगीत का इतिहास' में बताया है कि नारद के अनेक वर्षों तक योग-साधना की । तब शंकर ने प्रसन्न होकर उन्हें संगीत-कला प्रदान की । पार्वती की शयनमुद्रा को देखकर उनके अंगों, प्रत्यंगों के आधार पर शिवजी ने रूद्रवीणा बनायी और अपने पाँच मुखों से पाँच रागों की उत्पत्ति की। तत्पाश्चात् छठा राग पार्वती के श्रीमुख से उत्पन्न हुआ। शिवजी के पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा उर्ध्व मुख से क्रमशः 'भैरव, हिण्डोल', मेघ, दीपक तथा श्री राग उत्पन्न हुए तथा पार्वती द्वारा कैशिकी राग की उत्पत्ति हुई ।

2. प्रकृति से संगीत का जन्म

कुछ विद्वानों का ऐसा मत है कि प्रकृति द्वारा संगीत का जन्म हुआ है। मिस्र के कलाविशेषज्ञ 'गवासा' का कथन है- 'मनुष्य ने संगीत का मनोरम उपहार प्रकृति से प्राप्त किया। उसने अपने जीवन के इर्द-गिर्द संगीतमय वातावरण देखा। सागर की उत्तुंग लहरों से, पक्षियों के प्रलुब्धकारी कलरव से, समीर के मधुर-शीतल झोंको की अंगड़ाइयों से, चाँद और रजनी की प्रलुब्ध क्रीड़ाओं से उसे प्रत्येक दिशा में संगीत के मधुर स्वर प्रस्फुटित होते दिखाई दिए। शनैः शनैः मनुष्य ने उनका अनुकरण करना प्रारम्भ कर दिया। जब उसने प्रकृति के ये मधुर स्वर ग्रहण कर लिये तो उसके जीवन में एक नवीन रसमयता का उदय हुआ । जीवन में इसी सरसता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए मनुष्य ने स्वरों पर अधिक विचार करना प्रारम्भ किया। उस विचार का यह परिणाम हुआ कि विश्व का संगीत परिष्कृत रूप में प्राप्त हो सका ।'

3. पशु-पक्षियों की ध्वनियों के अनुकरण से संगीत की उत्पत्ति

कुछ प्राचीन ग्रंथों में पशु-पक्षियों के ध्वनियों से संगीत की उत्पत्ति मानी गई है तथा आधुनिक विद्वानों ने भी इस मत को अपने ग्रंथ में स्वीकारा है। नारदीय शिक्षा का कथन है कि वसन्तकाल में मोर षड़ज स्वर को, कोकिल पंचम स्वर को, अश्व धैवत स्वर को तथा हाथी निषाद स्वर को बोलते हैं। 

संगीतोत्पत्ति के सिद्धान्त के विषय में इन मुख्य तीन बिन्दुओं के अलावा भी अन्य विद्वानों ने अपने अलग-अलग विचार दिये हैं। जैसे - विभिन्न प्रकार की ध्वनियों के बोध से संगीत की उत्पत्ति, संगीत उत्पत्ति का मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त आदि ।

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