रैयतवाड़ी व्यवस्था क्या है, रैयतवाड़ी व्यवस्था कब लागू की गई?

रैयतवाड़ी व्यवस्था 1792 ई. में मद्रास प्रेसीडेन्सी के बारामहल जिले में सर्वप्रथम लागू की गई। थॉमस मुनरो 1820 ई. से 1827 ई. के बीच मद्रास का गवर्नर रहा। रैयतवाड़ी व्यवस्था के प्रारंभिक प्रयोग के बाद कैप्टन मुनरो ने इसे 1820 ई. में संपूर्ण मद्रास में लागू कर दिया। इसके तहत कंपनी तथा रैयतों (किसानों) के बीच सीधा समझौता  या संबद्ध था। राजस्व के निधार्रण तथा लगान वसूली में किसी जमींदार या बिचौलिये की भूमिका नहीं होती थी। 

रैयतवाड़ी व्यवस्था में भूमि का स्वामी - कैप्टन रीड तथा थॉमस मुनरो द्वारा प्रत्येक पंजीकृत किसान को भूमि का स्वामी माना गया। वह राजस्व सीधे कंपनी को देगा और उसे अपनी भूमि के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता था लेकिन कर न देने की स्थिति में उसे भूमि देनी पड़ती थी। 

इस व्यवस्था के सैद्धांतिक पक्ष के तहत खेत की उपज का अनुमान कर उसका आधा राजस्व के रूप में जमा करना पड़ता था।

रैयतवाड़ी व्यवस्था 30 वर्षों तक चली। इन वर्षों में 1820 ई. के बाद यह व्यवस्था उन क्षेत्रों में लागू की गई जहाँ कोई भू-सर्वे नहीं हुआ था। (सर्वे से तात्पर्य जमीन, उपज, लागत का आकलन) रैयत को इच्छानुसार खेत न देकर कंपनी के पदाधिकारी उन्हें अन्य खेत में काम करवाने लगे। भूमि कर भी बढ़ा दिया जिससे कृषक वर्ग अपनी भूमि साहूकार के पास रखकर ऋण ले लेते थे और ऋणग्रस्तता के जाल में फँस जाते थे। यदि कृषक वर्ग कर नहीं दे पाते थे तो उनसे भूमि छीन ली जाती थी तथा राजस्व वसूली करने के लिए कंपनी के अधिकारी रैयतों पर अत्याचार करते थे। मद्रास यातना आयोग ने 1854 ई. में इन अत्याचारों का विवरण दिया था। 

इसके पश्चात भूमि का सर्वे पुन: प्रारंभ किया गया तथा करों में भी कमी लाई गयी।

रैयतवाड़ी व्यवस्था के गुण

  1. इसमें सम्पूर्ण निर्धारित लगान सरकारी कोष को जमा होने लगा। 
  2. लगान राशि स्थायी तौर पर निर्धारित नहीं की गई। 20 या 30 वर्षों बाद इसकी वृद्धि संभव थी।
  3. किसान लगातार लगान देकर अपना भू-स्वामित्व बनाए रख सकते थे। 
  4. किसानों के भू-स्वामित्व के स्थायी रिकार्ड बन गए। 

 रैयतवाड़ी व्यवस्था के दोष

  1. लगान इतना अधिक था कि किसानों ने साहूकारों से कर्ज लेकर जमीनें गिरवी रख दी व न चुकाने पर उनकी जमीनें बिक गई।
  2. लगान संग्राहक बड़े निर्दय व क्रूर सिद्ध हुए, उनके अमानवीय व्यवहार की गूँज ब्रिटिश संसद में भी सुनाई दी। 
  3. लगान वृद्धि की भावी आशंका से किसान सदा मानसिक तनाव से ग्रस्त रहने लगा। 
  4. भूमि के व्यक्तिगत सम्पति बन जाने से ग्राम्य जीवन के परम्परागत सामुदायिक बंधन क्षीण हो गए।

रैयतवाड़ी व्यवस्था का प्रभाव

यह व्यवस्था कृषकों के लिए हानिकारक सिद्ध हुई। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ा। कृषक गरीब तथा भूमिहीन हुये तथा ऋणग्रस्तता में फँसकर रह गये। एक सर्वे के अनुसार मद्रास में कंपनी ने पाया कि 1855 ई. में रैयतवाड़ी व्यवस्था के अंतर्गत एक करोड़ पैंतालीस लाख एकड़ जमीन जोती गई और एक करोड़ अस्सी लाख एकड़ जमीन परती रह गयी। इस प्रकार इस व्यवस्था से कृषि पर बुरा प्रभाव पड़ा।

बंबई में रैयतवाड़ी

1819-27 ई. तक एलफिंस्टन बंबई का गवर्नर था। 1819 ई. में उसने पेशवा के राज्य को अपने अधीन कर लिया। इसके बाद एलफिंस्टन (जो कि मुनरो का शिष्य था) ने रैयतवाड़ी व्यवस्था को बंबई में लागू किया।

इस समय पिंगल नामक अधिकारी ने 1824-28 ई. तक भूमि का सर्वे कर उसका वर्गीकरण किया तथा राज्य का हिस्सा उपज का 55 प्रतिशत निश्चित किया। सर्वेक्षण दोषपूर्ण होने के कारण उपज का आंकलन ठीक नहीं बैठा। भूमि कर निश्चित कर दिया तो बहुत से किसानों ने भूमि जोतना बंद कर दिया और काफी क्षेत्र बंजर हो गया। 1835 ई. में लैफ्टिनेटं विनगेट भूि म सर्वे के अधीक्षक नियुक्त हुये। उन्होंने 1847 ई. में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस रिपाटेर् के प्रस्तुकर्त्ताओं में गाल्े डस्मिथ, कैप्टन डेविडसन तथा कैप्टन विनगेट स्वयं शामिल थे। इनके अनुसार भूमि की कर-व्यवस्था के उपजाऊपन के आधार पर निश्चित की गई।

यह व्यवस्था 30 वषोर्  तक बनी रही। इसके पश्चात 1868 ई. में भूमिका का पुन: सर्वेक्षण किया गया। 1861-65 ई. में अमेरिका का गृहयुद्ध हुआ जिसके कारण कपास की कीमत में बढ़ोत्तरी हुई इस वृद्धि के कारण सर्वेक्षण अधिकारियों को भूमि कर 66 प्रतिशत से 100 प्रतिशत तक बढ़ाने का मौका मिल गया और कृषकों को इसके विरोध में न्यायालय जाने की अनुमति नहीं थी जिसके कारण किसानों में ऋणग्रस्तता आयी। बाद में अधिकारियों तथा साहूकारों के शोषण ने उन्हें उग्र बना दिया, जिसके परिणामस्वरूप कृषकों ने 1875 ई. में दक्कन विद्रोह कर दिया था। उपरोक्त का विश्लेषण करने पर बंबई रैयतवाड़ी पद्धति के दोष सामने आते हैं - भू-राजस्व की अधिकता तथा उसकी अनियमितता। 

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