वारकरी संप्रदाय क्या है ? वारकरी संप्रदाय के संत कौन थे?

वारकरी हिन्दु धर्म की अध्यात्मिक परंपरा है, महाराष्ट्र और उत्तरी कर्नाटक जैसी भारतीय राज्यों से जुड़ा हुआ है। भगवान श्री विट्ठल के भक्त को वारकरी कहते है तथा इस संप्रदाय को वारकरी सम्प्रदाय कहा जाता है। 

‘वारकरी’ शब्द में ‘वारी’ शब्द अंतर्भूत है। वारी का अर्थ है यात्रा करना, फेरे लगाना। जो अपने आस्था स्थान की भक्तिपूर्ण यात्रा पुनः पुनः करता है, उसे वारकरी कहते है। सामान्यतः उनकी वेशभूषा इस प्रकार होती हैः धोती, अंगरखा, उपरना तथा टोपी। इसी के साथ कंधे पर भगवा रंग का ध्वजा, गले में तुलसी की माला, हाथ में वीणा तथा मुख में हरि का नाम लेते हुए वह वारी के लिए निकलता है। वारकरी मस्तक, गले, छाती, छाती के दोनों ओर, दोनों भुजाएँ, कान एवं पेट पर चन्दन लगाता है। 

वारकरी संप्रदाय का उद्भव दक्षिण भारत के ‘पंढ़रपुर’ नामक स्थान पर विक्रम संवत की तेरहवी शताब्दी में हुआ था। वारकरी का अर्थ है कि ‘वारी’ तथा ‘केरी’ अर्थात ‘परिक्रमा करने वाला’। इस संप्रदाय के प्रवर्तकों में संत ज्ञानेश्वर का स्थान महत्वपूर्ण है। उन्होंने ज्ञानेश्वरी और अमृतानुभव नाम के दो महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना कर वारकरी संप्रदाय के सिद्धांतों को स्पष्ट कर दिया था। इस संप्रदाय में ‘पंचदेवों’ की पूजा की जाती है।

वारकरी संप्रदाय के प्रमुख संत

वारकरी संप्रदाय के प्रमुख संत थे -

1. संत नामदेव 

भक्त शिरोमणि संत नामदेव का कार्यकाल सन् 1270 से सन् 1450 तक रहा है। नामदेव का जन्म शालिवाहन शके 1192 (सन् 1270) की कार्तिक शुक्ला एकादशी रविवार को सूर्योदय के समय हुआ। उनके जन्मस्थान के बारे में मतभेद है। कुछ लोग उनका जन्म नरसी बामणी मानते हैं, तो कुछ पंढरपुर। वे दर्जी जाति के थे। संत नामदेव के गुरु विसोबा खेचर थे। स्नेहसाथी संत ज्ञानेश्वर थे। नामदेव ने अनेक अलौकिक चमत्कार दिखाए। 

2. संत त्रिलोचन 

पं. परशुराम चतुर्वेदी ने इनका जन्म संवत् 1324 बताया है। ये नामदेव के शिष्य थे। इनकी रचनाएँ अब उपलब्ध नहीं हैं लेकिन सिक्खों के ‘गुरुग्रंथसाहेब’ में इनके चार पद उपलब्ध हैं। ये पद उपदेशपरक हैं तथा राग-रागिनियों से युक्त हैं। पूरणदास कृत’नामदेव चरित्र ‘में त्रिलोचन की कथा दी है। त्रिलोचन जाति के वैश्य थे। 

3. संत निपटनिरंजन 

ये हिंदी भाषी नाथपंथी संत हैं। उन्होंने संन्यास लिया था और भ्रमण करते-करते संवत 1720 में महाराष्ट्र में (देवगिरी) आए। वहीं पर रहने लगे। संत निपटनिरंजन का जन्म बुंदेलखंड के चंदेरी नामक ग्राम में जूझौतिया गौड़ ब्राह्मण के घर में हुआ था। उनके जन्मकाल के बारे में विभिन्न मतभेद हैं। शिवसिंह सरोज, डॉ. ग्रियर्सन, डॉ. नलिन विलोचन शर्मा ने इनका जन्म संवत् 1650 माना है। 

डॉ. रामकुमार वर्मा ने इनका जन्म संवत् 1596 माना है। डॉ. किशोरीलाल गुप्त ने इनका जन्म संवत् 1680 माना है। 

4. गोंदा महाराज 

यह संत नामदेव के तृतीय पुत्र थे। गोंदा का जन्म शके 1218 के पूर्व हुआ होगा ऐसा माना जाता है। इनकी रचनाएँ निम्न हैं- संत गाथा में गोंदा के 19 मराठी पद मिलते हैं। संत गाथा में ‘भाट’ शीर्षक के अंतर्गत 55 हिंदी पद मिलते हैं। इन्होंने नामदेव के जीवन के बारे में पद रचना की है। इनका एक हिंदी पद निम्नवत् है- ‘‘गजानन गौरी खूब लाल अंग पर अमूल। तरे मुरख वचनामृत उस जमदूत भागत है।।’’ यहाँ पर गोंदा महाराज ने गजानन का वर्णन किया है। यह अभंग छंद में लिखा हिंदी पद है। इन्होंने पिता नामदेव के साथ शके 1272 में पंढरपुर श्री विट्ठल मंदिर के महाद्वार के सामने समाधि ली।

5. सेनानाई 

सेनानाई के काल के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। डॉ.रानडे इनका समय सन् 1448 मानते हैं। परशुराम चतुर्वेदी इनका काल 14 वीं विक्रमी शताब्दी का उत्तरार्ध व 15 वीं का पूर्वार्ध मानते हैं। महिपति के ‘भक्तविजय ‘के कथानुसार वे यवन बादशाह के नौकर थे। इन्होंने उत्तर भारत की यात्रा की है। इनका पंथ उत्तरी भारत में सेनाताई-पंथ नाम से प्रसिद्ध है। इनकी काव्य संपदा इस प्रकार है- मराठी में 150 अभंग हैं। 

इनकी गौलण (लोकगीत) शीर्षक से रचनाएँ मिलती हैं। गुरुग्रंथसाहेब में इनका एक पद मिलता है। धुलिया में समर्थ वाग्देवता मंदिर की पोथीशाला में इनका काव्य दो रूपों में पाण्डुलिपि में उपलब्ध हुआ है। इनका हिंदी का एक पद यहाँ पर उद्धृत है- ‘‘गरूड़ चढे़ जब विष्णु आया सांच भक्त मेरे दोही, धन्य कबीरा, धन्य रोहिदास, गावे सेना न्हावी।’’ यहाँ पर वेदशास्त्र को झूठा कहा है। मराठी मिश्रित हिंदी भाषा है। 

कबीर और रोहिदास का गुनगान किया है।

6. भानुदास महाराज 

संत भानुदास का जन्म शालिवाहन शके 1370 (सन् 1448 ई) के आसपास हुआ। इनके पुत्र का नाम चक्रपाणि था। संत भानुदास ने 94 मराठी अभंग रचे। इनकी दो हिंदी रचनाएँ गाथाओं में उपलब्ध हैं। वे कृष्ण को अपना भगवान मानते थे इसलिए उन्होंने मथुरा-वृंदावन की यात्राएँ की थीं। इनकी भाषा ब्रजभाषा है। 

इनका हिंदी पद निम्नलिखित है- ‘‘जमुना के तट धेनु चरावत राखत है गैयां, मोहन मेरो सैयां मोर पत्र सिर छत्र सुहाये गोपी धरत बहियां भानुदास प्रभु भगत को बत्सल, करत छत्र छुइयां।’’

7. संत एकनाथ 

आचार्य विनयमोहन शर्मा संत एकनाथ का जन्म शके 1470 मानते हैं। डॉ. रानडे के अनुसार उनका काल शके 1456 ई.सन् 1533 है। डॉ. कृष्ण गं. दिवाकर इनका जन्म महाराष्ट्र में गोदावरी तट पर बसे पैठण में शके 1452 (सन् 1530ई ) में फाल्गुन कृष्ण की नवमी सोमवार के दिन मानते हैं। महाराष्ट्र सारस्वत के लेखक श्री भावे व प्रा. दांडेकर ने इनका जन्म सन् 1548 ई माना। महामहोपाध्याय दत्तो वामन पोतदार के मतानुसार इनका जन्म सन् 1518 ई है। वे संत शिरोमणि भानुदास के वंशज थे। 

इनका उपनाम कुलकण्र्ाी था। बचपन में ही उनके माता-पिता चल बसे। तब उनका लालन-पालन उनके दादाजी चक्रपाणि ने किया था। इनके गुरु देवगड़ के जनार्दन स्वामी थे। 

वे ‘‘शांति ब्रह्म’ नाम से जाने जाते थे तथा मानवधर्म के सच्चे उपासक थे। इन्होंने उत्तर भारत की यात्राएँ की थीं।

8. अनंत महाराज 

इनके बारे में जितनी जानकारी उपलब्ध उसके अनुसार श्री भालचंद्रराव तेलंग को औरंगाबाद में अप्रकाशित पद मिले हैं। 20-11-54 का एक पत्र भी मिला है। अनंत महाराज अहमदनगर के रहने वाले थे। पैठण में एकनाथ मंदिर में आए। वहाँ पर उन्होंने सुंदर चित्र बनाए। अनंत महाराज एकनाथ के शिष्य थे। इनके हिंदी में कुछ पद मिलते हैं। उदाहरण के लिए देखिए - ‘‘सुध बुध सबही हरि हरि मोरी, तन धन जन की प्रीती तोरी व्यापक सायी सब ठोर सोही, सो मन मोहन मों मन मोही।’’ इनकी हिंदी भाषा अपने समसामायिक संतों से अच्छी है। फिर भी इनकी भाषा पर मराठी का प्रभाव है।

9. श्यामसुंदर

इनके बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है, आलोचकों ने इन्हें 16 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध का माना है। इनके मराठी अभंग एवं पदादि उपलब्ध हैं। हिंदी का उनका एक पद है - ‘‘जय जय रामचंद्र महाराज श्याम सुंदर कू तुमबिन कोड़ नहीं और रघुराज। दो कर जोरे बिनति करत हूँ, राखो मेरी लाज। जय जय रामचंद्र महाराज।।’’

10. संत जन जसवंत

यह तुलसीदास (हिंदी भक्तिकालीन कवि) के शिष्य माने जाते हैं। धुलिया के श्री समर्थ वाग्देवता मंदिर में जसवंत के हिंदी पदों व जीवन के बारे में जानकारी मिलती है। मराठी की प्रसाद पत्रिका में इनके बारे में लेख मिलता है। यह शके 1530 के आसपास के माने जाते हैं। इन्होंने उत्तर भारत की यात्राएँ कीं। तुलसीदास को अपना गुरु माना और राम की भक्ति की। राम और कृष्ण को एक ही माना। पश्चिम खानदेश में तापी नदी के किनारे बोरठे नामक गाँव में रहकर वहाँ पर राम मंदिर बनाया। वहीं पर संवत् 1674 (शके 1536) के फाल्गुन महीने की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को समाधि ले ली। इन्होंने हिंदी में रचना की है। ये रचनाएँ भक्ति और नीतिपूर्ण हैं। 

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