जॉन लॉक का जीवन परिचय एवं महत्त्वपूर्ण रचनाएँ

सामाजिक समझौता सिद्धान्त के प्रतिपादक जॉन लॉक का जन्म 29 अगस्त, 1632 में सामरसेंट शायर के रिंग्टन नामक स्थान पर एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। जब लॉक का जन्म हुआ, उस समय हॉब्स की आयु 43 वर्ष थी और ब्रिटिश संसद अपने अधिकारों के लिए राजा के साथ संघर्ष कर रही थी। जब लॉक की आयु 12 वर्ष थी, इंगलैण्ड में गृहयुद्ध शुरू हो गया। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही प्राप्त करके लॉक ने 15 वर्ष की आयु में वेस्ट मिन्स्टर स्कूल में प्रवेश किया। लॉक ने 1652 ई0 में 20 वर्ष की आयु में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा की प्राप्ति हेतु गया। उसने वहाँ यूनानी भाषा, दर्शनशास्त्र तथा अलंकारशास्त्र का अध्यापक कार्य किया, परन्तु उस समय के संकीर्ण अनुशासन ने औपचारिक अध्ययन के लिए उसके उत्साह को मन्द कर दिया। उसने 1656 में बी0 ए0 तथा 1658 में एम0 ए0 की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में यूनानी भाषा, काव्यशास्त्र और दर्शनशास्त्र के अध्यापक के रूप में कार्य किया। इसके बाद लॉक ने एक चर्च में बिशप बनने का प्रयास किया, लेकिन उसको सफलता नहीं मिली। 

1660 में डेविड टॉमस नामक डॉक्टर के सम्पर्क में आने पर उसने चिकित्साशास्त्र का ज्ञान प्राप्त करके इस क्षेत्र में अपनी रुचि बढ़ाई और एक सफल चिकित्सक बन गया। चिकित्सक के नाते सन् 1666 में उसके सम्बन्ध उस समय के सुप्रसिद्ध राजनीतिज्ञ और विग दल के संस्थापक लार्ड एश्ली से हुए। इसके बाद आगामी 15 वर्षों तक लॉक उनका निजी डॉक्टर रहा। उसने इस दौरान एश्ली के विश्वस्त सचिव के रूप में भी कार्य किया। इससे उसको ब्रिटिश राजनीति और राजनीतिज्ञों को जानने का मौका मिला। 1672 में एश्ली चांसलर बने तथा लॉक ने उनकी कृपा से कतिपय महत्त्वपूर्ण शासकीय पदों पर कार्य किया। परन्तु रोमन कैथोलिक चर्च का पक्ष लेने की राजा की प्रवृत्ति का विरोध करने के कारण उसे 1673 में चांसलर के पद से हटा दिया गया। लॉक पर भी इसका प्रभाव पड़ा। लॉक इसके बाद 1675 में स्वास्थ्य लाभ हेतु फ्रांस चला गया और 1679 तक वहाँ रहा। वापिस लौटने पर उसे पुराने पद पर बिठाया गया। इस दौरान इंगलैण्ड में राजनीतिक विद्रोह की आग फिर से भड़क गई और राजा ने एश्ली से नाराज होकर 1681 में उसे पद से हटा दिया और प्रोटैस्टैण्ट धर्म का समर्थ करने के कारण उसे राजद्रोह का दोषी मानकर उस पर मुकद्दमा चलाया गया। बाद में मुक्त होकर वह हालैण्ड पहुँचा और 1688 तक वहीं रहा। इस दौरान उसने हालैण्ड में देश निर्वासित राजनीतिज्ञों से भेंट की। इस दौरान वह विलियम ऑफ ऑरेंज के सम्पर्क में आया। 1688 में इंगलैण्ड की रक्तहीन क्रान्ति ;ठसववकेमसस त्मअवसनजपवदद्ध के सफल होने पर तथा विलियम ऑफ ऑरेंज द्वारा निमन्त्रण भेजे जाने पर वापिस इंगलैण्ड लौट आया। वहाँ पर लॉक को ‘कमिश्नर ऑफ अमील्स’ का पद दिया गया। 1700 में स्वास्थ्य की कमजोरी के कारण उसने इस पद से त्याग-पत्र दे दिया और 1704 में 72 वर्ष की उम्र में इस महान दार्शनिक की मृत्यु हो गई।

जॉन लॉक की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ

हालैण्ड से लौटकर लॉक ने लेखन कार्य प्रारम्भ किया। लॉक ने राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, शिक्षा, दर्शनशास्त्र आदि विषयों पर 30 से अधिक ग्रन्थ लिखे। यद्यपि उसकी सारी कृतियाँ 50 वर्ष की आयु के पश्चात् प्रकाशित हुर्इं। उसके महत्त्वपूर्ण लेखन कार्य के कारण उसकी गिनती इगलैण्ड के महान् लेखकों में की जाती है। लॉक के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं :-
  1. मानव स्वभाव के सम्बन्ध में निबन्ध : इस पुस्तक की रचना लॉक ने 1687 में की लेकिन यह 1690 में प्रकाशित हुई।
  2. शासन पर दो निबन्ध : यह रचना लॉक की सबसे महत्त्वपूर्ण रचना है। पहले निबन्ध में लॉक ने फिल्मर द्वारा प्रतिपादित राजा के दैवीय अधिकारों का खण्डन किया है। दूसरे निबन्ध में राजा की निरंकुशता का विरोध किया गया है। इस ग्रन्थ में लॉक ने हॉब्स के निरंकुशवाद का विरोध तथा 1688 की रक्तहीन क्रान्ति  के बाद इंगलैण्ड के सिंहासन पर राजा विलियम के सत्तारूढ़ होने के औचित्य को सिद्ध करने का प्रयास किया है। वॉहन ने लॉक की इस रचना को दोनाली बन्दूक कहा है, जिसकी एक नली फिल्मर द्वारा लिखित पुस्तक ‘पेट्रो आर्का’ में प्रतिपादित राजा के दैवी अधिकारों का खण्डन करने के लिए तथा दूसरी नली हॉब्स द्वारा लिखित ‘लेवियाथन’ में प्रतिपादित निरंकुशवाद का विरोध करने के लिए है। लॉक का दूसरा निबन्ध राजनीतिक चिन्तन की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें सरकार के मूल प्रश्नों को उठाया गया है तथा राजसत्ता व कानून के औचित्य को सिद्ध करके बताया गया है कि राज्य की आज्ञा का पालन क्यों अनिवार्य है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रो0 पीटर लॉस्लेट ने कहा है कि यह पुस्तक 1683 में ही लिखी गई लेकिन स्टुअर्ट सम्राटों के दण्ड के भय से प्रकाशित नहीं की गई। यह ग्रन्थ 1688 ई0 की इंगलैण्ड की गौरवपूर्ण क्रान्ति ;ळसवतपवने त्मअवसनजपवदद्ध को सैद्धान्तिक आधार प्रदान करती है। लॉक ने स्वयं इस ग्रन्थ के प्राक्कथन में लिखा है- “यह पुस्तक विलियम ऑफ ऑरेंज के सत्तारूढ़ होने का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास है।”
  3. सहिष्णुता पर पहला पत्र : 1689 ई0 में लॉक ने हालैण्ड में ही लैटिन भाषा में यह पुस्तक प्रकाशित करवाई।
  4. सहिष्णुता पर दूसरा पत्र
  5. सहिष्णुता पर तीसरा पत्र
  6. सहिष्णुता पर चौथा पत्र
  7. कैरोलिना का मौलिक संंविधान 
  8. शिक्षा से सम्बन्धित कतिपय विचार : यह लॉक की अन्तिम रचना है।

उपर्युक्त सभी ग्रन्थों में लॉक की सबसे महत्त्वपूर्ण रचना ‘शासन पर दो निबन्ध’ है।

अध्ययन पद्धति

जहाँ हॉब्स की पद्धति तार्किक, दार्शनिक एवं चिन्तनात्मक है, वहाँ लॉक की पद्धति अनुभववादी व बौद्धिक है। लॉक के अनुसार मानव ज्ञान, अनुभव द्वारा सीमित होता है। अनुभव के बिना ज्ञान की कल्पना नहीं की जा सकती। लॉक के अनुसार अनुभव ज्ञान का स्रोत है और अनुभव से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है। लॉक के अनुसार मानव मस्तिष्क एक कोरे कागज की तरह है, जिसमें जन्मजात कोई विचार नहीं होता। सभी विचारों की उत्पत्ति दो स्रोतों से होती है :
  1. संवेदना से और
  2. प्रत्यक्ष बोध से। इन स्रोतों द्वारा प्राप्त अनुभव मनुष्य के मस्तिष्क में प्रवेश करते हैं जो उसमें चेतना तथा प्रतिबिम्ब उत्पन्न करते हैं। बुद्धि द्वारा मस्तिष्क में तब उन विचारों का विश्लेषण होता है एवं तुलना होती है। फलस्वरूप जटिल विचार उत्पन्न होकर ज्ञान का साधन बनते हैं। ज्ञान तब उत्पन्न होता है जब बुद्धि अपने विचारों की परस्पर तुलना करके उनके परस्पर मतैक्य तथा मतवैभिन्य देखती है। यही ज्ञान लॉक की अनुभववादी पद्धति का आधार है।
लॉक की अनुभववादी पद्धति में तीन मुख्य बातें हैं। ;पद्ध ज्ञान की उत्पत्ति का एक मात्र स्रोत अनुभव है। कोई भी विचार अंतर्जात नहीं होता। स्वत: साक्ष्य विश्वसनीय नहीं है। विचार इन्द्रिय सापेक्ष होता है और उसकी उत्पत्ति अनुभव से होती है। ;पपद्ध ज्ञान का स्वभाव विवेकसम्मत होता है। वास्तविक ज्ञान तभी प्राप्त होता है जबकि बुद्धि विचारों में पारस्परिक सम्बन्धों की स्थापना करती है। ;पपपद्ध ज्ञान का क्षेत्र उसके अज्ञान के क्षेत्र से बहुत छोटा है। लॉक के अनुसार मनुष्य एक ससीम प्राणी है जो इस अनंत, असीम और महान् ब्रह्माण्ड की सभी बातों को जान नहीं सकता है। इसलिए व्यक्ति का ज्ञान उसके अज्ञान की तुलना के स्वल्प है।

लॉक की अध्ययन पद्धति हॉब्स की अध्ययन पद्धति से भिन्न थी। लॉक हॉब्स की तरह एक दार्शनिक नहीं है। उसमें हॉब्स की तरह मौलिकता नहीं है। लॉक का विचार न तो गहन अध्ययन का प्रतिफल है, न तर्क का। वह सिर्फ व्यावहारिक बुद्धि का धनी है। जहाँ हॉब्स ने वैज्ञानिक, भौतिक, मनोवैज्ञानिक तथा तार्किक पद्धति को अपनाया, वहीं लॉक की अध्ययन और विचार-पद्धति अनुभवजन्य, मनोवैज्ञानिक तथा बुद्धिपरक है। लॉक ने प्रबुद्ध विचारकों के विचारों व विश्वासों को सरल, गम्भीर और हृदयग्राही वाणी दी है। इसके बाद भी लॉक की पद्धति में कुछ दोष हैं। प्रथम, यद्यपि लॉक ने यह बताया है कि विचार की उत्पत्ति अनुभव से होती है, तथापि उसने समपूर्ण अनुभूतिजन्य ज्ञान की निश्चितता को स्वीकार नहीं किया। द्वितीय, लॉक की पद्धति की मौलिक त्रुटि यह भी है कि वह संगत नहीं है। शुद्ध तर्क की दृष्टि से उसके विचार पूर्णतया असंगत हैं। इस प्रकार लॉक ने ज्ञान के क्षेत्र को उसके अज्ञान के क्षेत्र से बहुत छोटा माना है। यदि अनुभव आधारित ज्ञान का क्षेत्र सीमित है, तो उस पर विश्वास क्यों किया जाए। लॉक ने बहुत सी अनुभव प्रधान मान्यताओं को स्वयंसिद्ध मानकर गलती की है। अत: उसके विचार अपूर्ण तथा असंगत होने के दोषी हैं। लेकिन संगीत के अभाव में भी विचार पूर्णत: गलत नहीं हो सकता। लॉक की अनुभववादी पद्धति अपने दोषों के बाद भी एक महत्त्वपूर्ण पद्धति है।

मानव स्वभाव का अवधारणा

लॉक के मानव स्वभाव पर विचार हॉब्स से सर्वथा विपरीत हैं। लॉक के मानव स्वभाव पर विचार उसकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मानव-विवेक से सम्बन्धित निबन्ध’ में पाए जाते हैं। लॉक का यह विश्वास है कि मनुष्य एक बुद्धियुक्त सामाजिक प्राणी है। अत: वह एक नैतिक व्यवस्था को मानकर उसके अनुसार चलता है। वह स्वाथ्र्ाी, स्पर्धात्मक तथा लड़ाकू नहीं है। वह अन्य प्राणियों के प्रति सद्भावना युक्त तथा प्रेमयुक्त होता है तथा वह परोपकार और न्याय की भावना को ग्रहण कर लेता है। वह अन्यों के प्रति शांति तथा सौहार्द बनाए रखना चाहता है और स्वयं को एक सामाजिक बन्धन में बाँध कर रखता है। उदारवादी विचारक होने के नाते लॉक के विचार मानव-प्रकृति के बारे में व्यक्ति की गरिमा एवं गौरव के अनुरूप हैं।

लॉक के अनुसार मनुष्य विवेकशील प्राणी है, क्योंकि वह अपने हित को समझता है और यदि उसे स्वतन्त्र रहने दिया जाए तो वह अपना हित-साधन करने में समर्थ है। अपने अनुभव के आधार पर मानव-बुद्धि विवेकपूर्ण निष्कर्ष निकालने में पूर्ण समर्थ है। मानव-प्रकृति के बारे में लॉक का दृष्टिकोण नैतिकतावादी है। लॉक का मानना है कि अपनी नैतिक प्रवृत्ति के कारण ही मानव पशुओं से अलग है। मानव विश्व व्यवस्था का एक अंग है और यह सारा संसार एक नैतिक व्यवस्था है। मानवीय विवेक इस विश्व नैतिक व्यवस्था और मानव में सम्बन्ध स्थापित करता है। लॉक का कहना है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते इस विश्व व्यवस्था में आवश्यकता पड़ने पर एक-दूसरे की सहायता करने को तैयार हो जाता है, लेकिन कभी-कभी उसमें शत्रुता, द्वेष, हिंसा तथा परस्पर भत्र्सना भी हावी हो जाती है। किन्तु अपनी नैतिक प्रवृत्ति, विवेक एवं भौतिक आवश्यकताओं के कारण वह समाज से बाहर जाना नहीं चाहता। वह समाज में रहकर अपने को सामाजिक मानदण्डों के अनुरूप् ढालने का प्रयत्न करता है।

लॉक का मानना है कि विवेकशील प्राणी होने के नाते अपने अस्थायी स्वार्थपन को त्यागकर समाज का अभिन्न अंग बना रहता है। लॉक का कहना है कि सभी मानव जन्म से एक-दूसरे के समान हैं - शारीरिक दृष्टिकोण से नहीं अपितु नैतिक दृष्टिकोण से। प्रत्येक व्यक्ति एक ही गिनाजाता है। अत: वह नैतिक दृष्टि से एक-दूसरे के बराबर है। कोई भी किसी दूसरे की इच्छा पर आश्रित नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी इच्छाएँ हैं। ये समस्त इच्छाएँ मानवीय क्रियाओं का स्रोत हैं। इच्छा पूर्ण होने पर व्यक्ति सुख तथा पूरान होने पर दु:ख का अनुभव करता है। इसलिए मनुष्य हमेशा सुख प्राप्ति के प्रयास ही करता है। मानव सदैव उन्हीं कार्यों को करता है जिनसे उेस आनन्द मिले और दु:ख दूर हो। लॉक का कहना है कि मनुष्य को वही कार्य करना चाहिए जिससे सामूहिक प्रसन्नता प्राप्त हो क्योंकि सामूहिक प्रसन्नता ही कार्यों की अच्छाई-बुराई का मापदण्ड है। लॉक के अनुसार सभी मनुष्य सदा बौद्धिक रूप से विचार कर सुख की प्राप्ति नहीं करते। मनुष्य वर्तमान के सुख को भविष्य के सुख से एवं समीप के सुख को दूर के सुख से अधिक महत्त्च देते हैं। इससे व्यक्तिगत हित सार्वजनिक से मिल जाते हैं। अतएव लॉक ने कहा है कि जहाँ तक सम्भव हो मनुष्यों को दूरस्थ हितों से प्रेरित होकर कार्य करना चाहिए जिससे व्यक्तिगत हित एवं सार्वजनिक हित में समन्वय स्थापित हो सके। मनुष्य को दूरदश्री, सतर्क और चतुर होना चाहिए। लॉक को मनुष्य की स्वशासन की योग्यता पर पूरा भरोसा है। उसका मानना है कि अपनी बुद्धि और विवेकशीलता द्वारा मनुष्य अपने कर्त्तव्यों और प्राकृतिक कानूनों का पालन कर सकता है। वह अपनी इच्छानुसार कार्यों को करने से ही अपना जीवन शान्तिमय बना सकता है।

मानव स्वभाव की अवधारणा के निहितार्थ

लॉक की मानव प्रकृति अवधारणा की प्रमुख बातें हैं :-
  1. मनुष्य एक सामाजिक तथा विवेकशील प्राणी है 
  2. मनुष्य शांति एवं भाई-चारे की भावनवा से रहना चाहता है 
  3. 3ण् मनुष्य के स्वाथ्र्ाी होते हुए भी उसमें दूसरों के प्रति सहानुभूति तथा परोपकार की भावना है।
  4. 4ण् सभी व्यक्ति नैतिक रूप से समान होते हैं। 
  5. लॉक तथा हॉब्स की मानव स्वभाव की तुलना
हॉब्स तथा लॉक के मानव स्वभाव की अवधारणा के अध्ययन के बाद अन्तर देखने को मिलते हैं :-
  1. हॉब्स ने मनुष्य को स्वाथ्र्ाी तथा आत्मकेन्द्रित बताया है, लेकिन लॉक ने उसे परोपकारी तथा सदाचारी बताया है।
  2. हॉब्स मनुष्य को असामाजिक तथा बुद्धिहीन प्राणी कहता है, लेकिन लॉक उसे सामाजिक तथा विवेकशील प्राणी बताता है।
  3. हॉब्स मनुष्य को पशु के समान मानता है, लेकिन लॉक उसे नैतिक गुण सम्पन्न मानता है।
  4. हॉब्स मनष्यों की शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों के आधार पर सभी मनुष्यों को समान मानता है, लेकिन लॉक इसका विरोध करते हुए केवल नैतिक रूप से सभी को समान मानता है।

मानव स्वभाव की अवधारणा की आलोचनाएँ

लॉक के मानव स्वभाव सम्बन्धी विचारों की आलोचनाएँ की गई है :-
  1. लॉक का नैतिकता का सिद्धान्त सन्देहेहेहपूर्ण एवं अस्पष्ट है : लॉक नैतिक रूप से सभी मनुष्यों को समान मानता है लेकिन वह यह स्पष्ट नहीं करता कि अच्छाई की कसौटी क्या है। इसलिए यह सिद्धान्त सन्देहपूर्ण एवं अस्पष्ट है। इसमें वैचारिक स्पष्टता का पूर्णत: अभाव है।
  2. लॉक के मानव-प्रकृ्रति सम्बन्धी विचारों में विरोधाभास व असंगति है : लॉक मनुष्य को एक तरफ तो परोपकारी, शान्त एवं सद्भावी प्रकृति का मानता है और दूसरी ओर उसका मानना है कि व्यक्ति स्वाथ्र्ाी है। इससे वैचारिक असंगति एवं विरोधाभास का जन्म होता है।
  3. लॉक की मानव प्रकृ्रति की अवधारणा एक पक्षीय है : लॉक ने भी हॉब्स की तरह ही मानव स्वभाव के एक पक्ष पर ही विचार किया है। लॉक मानव स्वभाव को अच्छा बताता है। परन्तु मानव में सहयोगी, स्नेही, विवेकपूर्ण एवं सामाजिक प्राणी होने के अलावा दैत्य प्रवृत्तियाँ भी हैं। लॉक ने इस तथ्य की अनदेखी की है कि मानव दैत्य और देव प्रकृतियाँ दोनों का मिश्रण है। उसकी नज़र में मानव केवल अच्छाइयों का प्रतीक है। इस कथन का कोई ऐतिहासिक प्रमाण लॉक के पास नहीं है।
  4. लॉक उपयोगितावाद को बढ़ा़ावा देता है : लॉक की दृष्टि में मनुष्य सदैव सुख प्राप्ति के ही कार्य करता है। वह मानव जीवन का उद्देश्य सुख प्राप्ति ही मानता है। इससे उपयोगितावाद को ही बढ़ावा मिलता है।
  5. लॉक का अपने इस मत के लिए कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है, कोई तार्किक या वैज्ञानिक आधार नहीं है।
उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद लॉक के मानव-स्वभाव पर विचार काफी महत्त्वपूर्ण है। लॉक ने मानव स्वभाव के दैवीय गुणों का वर्णन करते हुए व्यक्ति को एक सामाजिक प्रणाली है। लॉक के इस सिद्धान्त में मानव-प्रकृति का चित्रण लॉक को व्यक्तिवादियों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देता है। लॉक का चिन्तन मनुष्य के सामाजिक होने पर केन्द्रित है। आधुनिक राजनीतिक चिन्तन में लॉक के मानव-प्रकृति पर विचारों की अमूल्य देन है।

प्राकृतिक अवस्था की अवधारणा

हॉब्स की तरह लॉक भी अपने राजनीति दर्शन का प्रारम्भ प्राकृतिक अवस्था से करता है। लॉक की प्राकृतिक अवस्था की अवधारणा हॉब्स की प्राकृतिक दशा की धारणा से बिल्कुल विपरीत है। लॉक का विश्वास है कि मनुष्य एक बुद्धियुक्त प्राणी है और वह नैतिक अवस्था को मानकर उसके अनुसार रह सकता है। लॉक अपने विचारों में हॉब्स से अलग मौलिकता के आधार पर है। लॉक के अनुसार- “जब मनुष्य पृथ्वी पर अपनी बुद्धि के अनुसार बिना किसी बड़े तथा अपना निर्णय स्वयं करने के अधिकार के साथ रहते हैं, वही वास्तव में प्रारम्भिक अवस्था है।” यह कोई असम्भव तथा जंगली लोगों का वर्णन नहीं है बल्कि नैतिकता तथा विवेकपूर्ण ढंग से रहने वाली जाति का वर्णन है। उनका पथ-प्रदर्शन करने वाला प्रकृति का कानून है। “यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ प्रत्येक पूर्ण स्वाधीनता के साथ अपने कार्यों पर नियन्त्रण कर सकता है तथा अपनी इच्छानुसार अपनी वस्तुओं का प्रकृति के कानून के अन्तर्गत बिना किसी अन्य हस्तक्षेप के तथा दूसरों पर निर्भर रहते हुए विक्रय कर सकता है या दूसरों को दे सकता है।” यही समानता की अवस्था है। यह सभी के साथ युद्ध की अवस्था नहीं है।

लॉक के अनुसार “मानव प्रकृति सहनशील, सहयोगी, शांतिपूर्ण होने से प्राकृतिक दशा, शान्ति, सद्भावना, परस्पर सहायता तथा प्रतिरक्षण की अवस्था थी। जहाँ हॉब्स के लिए मनुष्य का जीवन एकाकी, दीन-मलीन तथा अल्प था, वहाँ लॉक के लिए प्रत्येक का जीवन सन्तुष्ट तथा सुखी था। प्राकृतिक अवस्था के मूलभूत गुण ‘शक्ति और धोखा’ नहीं थे, बल्कि पूर्णरूप से न्याय तथा भ्रातृत्व की भावना का साम्राज्य था। यह सामाजिक तथा नैतिक दशा थी, जहाँ मनुष्य स्वतन्त्र, समान व निष्कपट था। यह ‘सद्भावना’, ‘सहायता और आत्मसुरक्षा की दशा थी, जहाँ मनुष्य सुखी एवं निष्पाप जीवन व्यतीत करते थे। लॉक के लिए प्रारम्भिक अवस्था सौहार्द तथा सह-अस्तित्व की है अर्थात् युद्ध की स्थिति न होकर शान्ति की अवस्था है। लॉक की प्रारम्भिक अवस्था पूर्व सामाजिक न होकर पूर्व राजनीतिक अवस्था है। इसमें मनुष्य निरन्तर युद्ध नहीं करता बल्कि इसमें शान्ति और बुद्धि ज्ञान का साम्राज्य है। प्रकृति का कानून राज्य के कानून के विपरीत वही है। प्रकृति के कानून का आधारभूत सिद्धान्त मनुष्यों की समानता है। लॉक ने ‘शासन पर दो निबन्ध’ नामक ग्रन्थ में लिखा है- “जैसा कि सिद्ध हो चुका है मनुष्य पूर्ण स्वतन्त्रता के अधिकार के साथ जन्म लेता है तथा प्रकृति के कानून के उपयोग और प्रयोग पर उसका बिना प्रतिबन्ध के विश्व में अन्य किसी मनुष्य अथवा मनुष्यों के समान अधिकार है। अन्य मनुष्यों के समान ही उसे सम्पत्ति को सुरक्षित रखने अर्थात् जीवन, स्वाधीनता और सम्पत्ति की अन्य लोगों के आक्रमण से केवल सुरक्षा का ही अधिकार प्रकृति से नहीं मिला बल्कि उसका उल्लंघन करने वालों को दण्ड का अधिकार भी मिला है।” प्रारम्भिक अवस्था में केवल वैचारिक, शारीरिक शक्ति तथा सम्पत्ति की ही समानता नहीं थी बल्कि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता भी थी। सम्पत्ति, जीवन तथा स्वतन्त्रता का अधिकार मनुष्य का जन्मजात अपरिवर्तनीय अधिकार था। इन अधिकारों के साथ-साथ इस अवस्था में कर्त्तव्य एवं नैतिक भावनाओं की प्रचुरता भी मनुष्यों में थी। हॉब्स केवल अधिकार की बात करता है। लॉक ने अधिकार के साथ-साथ कर्त्तव्य को भी बाँध दिया है। इस प्रकार लॉक ने हॉब्स के नरक की बजाय अपनी प्राकृतिक अवस्था में स्वर्ग का चित्रण किया है। एक की प्राकृतिक अवस्था कलयुग की प्रतीक है तो दूसरे की सतयुग की; यदि एक अंधकार का वर्णन करता है तो दूसरा प्रकाश है एवं यदि एक निराशावाद का चित्र उपस्थित करता है तो दूसरा आशावाद का। हरमन के अनुसार- “लॉक की प्राकृतिक अवस्था वह पूर्ण स्वतन्त्रता की अवस्था है जिसमें मनुष्य प्राकृतिक विधियों को मानते हुए कुछ भी करने को स्वतन्त्र है।”

प्राकृतिक अवस्था को परिभाषित करते हुए लॉक लिखता है कि- “जब व्यक्ति विवेक के आधार पर इकट्ठे रहते हों, पृथ्वी पर कोई सामान्य उच्च सत्ताधारी व्यक्ति न हो और उनमें से एक दूसरे को परखने की शक्ति हो तो वह उचित रूप से प्राकृतिक अवस्था है।” यह प्राकृतिक अवस्था इस विवेकजनित प्राकृतिक नियम पर आधारित है कि ‘तुम दूसरों के प्रति वही बर्ताव करो, जिसकी तुम दूसरों से अपने प्रति आशा करते हो।’ यह प्राकृतिक अवस्था स्वर्णयुग की अवस्था है क्योंकि इसमें शान्ति व विवेक का बाहुल्य है।

प्राकृतिक अवस्था की विशेषताएँ

लॉक की प्राकृतिक दशा की विशेषताएँ हैं :
  1. प्राकृतिक अवस्था एक सामाजिक अवस्था है जिसमें मनुष्य नैतिक अवस्था को मानने वाला और उसके अनुसार आचरण करने वाला प्राणी था। राज्य एवं शासन का अभाव होने के बावजूद अव्यवस्था एवं अराजकता की स्थिति नहीं होती थी। लॉक के प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य शांत, सहयोगी, सद्भावपूर्ण और सामाजिक था।
  2. प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्यों का पालन भी करता था। मनुष्य के मूल अधिकारों का स्रोत प्राकृतिक कानून है। लॉक के अनुसार मानव के जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के अधिकारों का आधारभूत कारण प्राकृतिक कानून ही था।
  3. लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था, प्राकृतिक अधिकारों वाली अवस्था थी। इसमें न्याय, मैत्री, सद्भावना और शान्ति की भावना का मूल आधार प्राकृतिक कानून है। लॉक का मत है कि ईश्वर ने इन प्राकृतिक कानूनों को मानव आत्मा में स्थापित किया है; जिसके कारण मनुष्य कानून के अनुसार आचरण करता है।
  4. लॉक का मानना है कि मनुष्यों को दूसरों के जीवन, स्वास्थ्य, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति को क्षति पहुँचाने से रोकने के लिए लिए, अन्य मानवों को दण्ड देने का अधिकार था जो प्राकृतिक कानूनों की अवज्ञा करते थे। प्रत्येक को कानून भंग करने वाले को उतना दण्ड देने का अधिकार है जितना कानून भंग को रोकने के लिए प्राप्त है। प्राकृतिक अवस्था को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए, मनुष्य को प्राकृतिक कानून का पालन करने के साथ-साथ उसके उल्लंघन करने वालों को भी दण्डित करना अनिवार्य था।
  5. लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य समान थे क्योंकि “सभी सृष्टि के एक ही स्तर पर और एक ही सर्वशक्तिमान ईश्वर की सन्तान है।” समान होने के कारण सभी प्राकृतिक अधिकारों का उपभोग और परस्पर कर्त्तव्यों का पालन मैत्री, सद्भावना तथा परस्पर सहयोग की भावना के आधार पर करते थे। अत: मानवों में निष्कपट व्यवहार पाया जाता है।
  6. लॉक की प्राकृतिक अवस्था पूर्ण सामाजिक न होकर पूर्व राजनीतिक है। लॉक का मानना है कि हॉब्स की तरह यह पूर्व सामाजिक नहीं है। यह सभी मनुष्यों को सामाजिक प्राणी मानकर व्यक्ति के सभी अधिकार उसके सामाजिक जीवन में ही सम्भव मानता है।
  7. लॉक प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक कानून तथा नागरिक कानून को एक-दूसरे के पूरक मानता है। उनका मानना है कि प्राकृतिक कानून नागरिक कानून का पूर्वगामी ;।दजमबमकमदजद्ध है। यही प्राकृतिक कानून व्यक्तियों के आचरण को नियमित व अनुशासित करता है। 8ण् लॉक नैतिकता को कानून की जननी मानता है। उसका कहना है कि कानून उन्हीं नियमों को क्रियान्वित करता है जो पहले से प्रकृतित: उचित है।
  8. हॉब्स के विपरीत लॉक जीवन, स्वतन्त्रता एवं सम्पत्ति के अधिकार को प्राकृतिक अधिकार मानता है। लॉक का कहना है कि सभी अधिकार पूर्व राजनीतिक अवस्था में भी विद्यमान थे। इस प्रकार लॉक का प्राकृतिक अवस्था का वर्णन हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था से अलग तरह का है। हॉब्स ने मनुष्य को असामजिक प्राणी बताकर बड़ी भूल की है। लॉक मानव को परोपकार, सदाचारी व कर्त्तव्यनिष्ठ प्राणी मानकर चलता है। लॉक प्राकृतिक कानून को नागरिक कानून का पूरक ही मानता है। लॉक की प्राकृतिक अवस्था भी हॉब्स की तरह कुछ कमियों से ग्रसित है।

प्राकृतिक अवस्था की कमियाँ

लॉक की प्रारम्भिक अवस्था में यद्यपि काफी भोलापन, सच्चाई और सौजन्यता विद्यमान है किन्तु इस पर भी यह पूर्णरूपेण दोषयुक्त नहीं है। लॉक की प्राकृतिक अवस्था में कमियाँ हैं :-
  1. लिखित कानूनों का अभाव : लॉक की प्राकृतिक अवस्था में एक स्थापित, निर्धारित एवं सुनिश्चित कानून की कमी थी। कानून का रूप अस्पष्ट था। प्रत्येक व्यक्ति को कानून की व्याख्या अपने ढंग से करने की छूट थी। ऐसा लिखित कानून के अभाव में था। कानून का लिखित रूप न होने की वजह से लोग उसकी मनचाही व्याख्या करने में स्वतन्त्र थे। मनुष्य अपने स्वार्थ एवं पक्षपात की भावना से कानून का प्रयोग करता था। वह अपने ही हित को सार्वजनिक हित माने की गलती करता था। व्यक्ति को अपने कार्यों के बारे में सत्यता या असत्यता का ज्ञान नहीं था। लॉक का कहना है कि “एक स्थायी तथा सुनिश्चित कानून की आवश्यकता है जो सही और गलत का निर्धारण कर सके।” इससे प्राकृतिक अवस्था में कानून का लिखित रूप में न होने का दोष स्पष्ट दिखाई देता है। अत: इस अवस्था में प्राकृतिक कानून के अन्तर्विषय के बारे में अनेक भ्रान्तियाँ तथा अनिश्चितताएँ थीं। कानून की मनचाही व्याख्या अराजकता को जन्म देती है।
  2. निष्पक्ष और स्वतन्त्र न्यायधीशों का अभाव : प्राकृतिक अवस्था में निष्पक्ष न्यायधीश नहीं होते थे। वे पक्षपातपूर्ण ढंग से न्याय करते थे। प्राकृतिक कानून के अनुसार प्रत्येक अपराधी को उतना ही दण्ड दिया जाना चाहिए जितना विवेक और अंतरात्मा आदेश दे। लॉक के अनुसार- “एक प्रसिद्ध तथा निष्पक्ष न्यायधीश की आवश्यकता है जो तत्कालीन कानून के अनुसार अधिकार के साथ सारे झगड़े निपटा सके।” लॉक का यह कथन स्पष्ट करता है कि उस समय प्राकृतिक अवस्था में निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र न्यायधीशों का अभाव था। लॉक की इस अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति स्वयं न्यायधीश है। कोई तीसरा निष्पक्ष व्यक्ति न्यायधीश नहीं था। इस अवस्था में प्राकृतिक कानून की व्याख्या करने तथा उसका निष्पादन करने वाली कोई शक्ति नहीं थी।
  3. कार्यपालिका का अभाव : लॉक की प्राकृतिक अवस्था में न्याययुक्त निर्णय को लागू करने के लिए किसी कार्यपालिका का अभाव था। लॉक के अनुसार- “आवश्यकता पड़ने पर उचित निर्धारित दण्ड देने और उसे क्रियान्वित करने की भी जरूरत है।” इससे स्पष्ट होता है कि लॉक की प्राकृतिक दशा में कोई कार्यकारिणी शक्ति नहीं थी। प्राकृतिक अवस्था में व्यक्ति स्वयं ही कानूनों को लागू करते थे। इस अवस्था में शक्तिशाली व्यक्ति ही अपनी स्वार्थ-सिद्धि करते थे। जिस मनुष्य में इतनी शक्ति नहीं थी कि वह अन्याय के समक्ष अपने प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा कर सके, वह सदा न्याय से वंचित रह जाता था। प्रतिभा में अन्तर होने के कारण हितों में टकराव उत्पन्न होते थे। इनका कार्यपालिका के अभावमें निपटाना नहीं होता था। अत: इस अवस्था में कोई कार्यपालिका नहीं थी।

हॉब्स तथा लॉक की प्राकृतिक दशा की तुलना

यदि हॉब्स व लॉक की प्राकृतिक दशा की तुलना की जाए तो अन्तर आते हैं :-
  1. हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य का जीवन एकाकी, निर्धन, घृणित, पाशविक और अल्प था, परन्तु लॉक की प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य समान, स्वतन्त्र, विवेकपूर्ण और कर्त्तव्यपरायण है।
  2. हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था संघर्ष और युद्ध की अवस्था थी, लॉक की प्राकृतिक अवस्था शांति, सद्भावना, पारस्परिक सहयोग और सुरक्षा की अवस्था है।
  3. हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था पूर्व सामाजिक थी, लॉक की प्राकृतिक अवस्था पूर्व राजनीतिक है।
  4. हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था में केवल एक ही अधिकार (आत्मरक्षा का अधिकार) था। इसमें कर्त्तव्यों का कोई स्थान नहीं था। इसके विपरीत लॉक ने जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के तीन अधिकारों का वर्णन किया है। इस अवस्था में अधिकारों के साथ कर्त्तव्यों का भी स्थान है।
  5. हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था में केवल प्राकृतिक अधिकार थे, प्राकृतिक कानून नहीं। लॉक की प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक अधिकार व प्राकृतिक कानून दोनों के लिए स्थान है।
  6. हॉब्स प्राकृतिक कानून तथा नागरिक कानून में अन्तर करते हुए उन्हें परस्पर विरोधी मानता है, जबकि लॉक इन दोनों को एक-दूसरे के पूरक मानता है। लॉक के अनुसार प्राकृतिक कानून नागरिक कानून का पूर्वगामी है।

प्राकृतिक अवस्था की आलोचनाएँ

प्राकृतिक अवस्था के स्वर्णिम चित्रण के बावजूद भी लॉक की प्राकृतिक अवस्था की आलोचनाएँ की गई हैं। इसकी कुछ आलोचनाएँ हैं:-
  1. लॉक की प्राकृतिक अवस्था सम्पूर्ण अधिकारयुक्त पूंजीपतियों के वर्ग का दर्शन है जिसका लॉक स्वयं भी एक सदस्य था। लॉक का व्यक्ति केवल अपने अधिकारों की मांग करता हुआ प्रतीत होता है। लॉक का मनुष्य अपने स्वार्थ-सिद्धि के लए दूसरे के अधिकारों का हनन करने में स्वतन्त्र है। लॉक की प्राकृतिक अवस्था में कानून का लिखित रूप न होने की स्थिति में पूंजीपति वर्ग अपने आर्थिक प्रभुत्व के बल पर कानून का मनमाने ढंग से प्रयोग व व्याख्या करता था।
  2. लॉक प्राकृतिक कानून का स्पष्ट चित्रण नहीं करता।
  3. लॉक की प्राकृतिक अवस्था न तो ऐतिहासिक है और न ही प्राकृतिक है। जोन्स के अनुसार-”लॉक की प्राकृतिक अवस्था न तो ऐतिहासिक है और न ही प्राकृतिक। वास्तव में लॉक की प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य की वही स्थिति है जो संगठित समाज में मनुष्य की होती है।”
  4. राज्य के अभाव में अधिकार अर्थहीन होते हैं। लॉक राज्यविहीन अवस्था में प्राकृतिक अधिकारों की बात करता है, जो अविश्वसनीय है।
  5. लॉक की प्राकृतिक अवस्था मानव स्वभाव के एक पक्ष का चित्रण करती है। मानव की दैत्य प्रकृति की इसमें उपेक्षा की गई है। मानव अच्छी तथा बुरी दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों का मिश्रण है। 6ण् लॉक प्राकृतिक अवस्था में जिस शांति का वर्णन करता है, अभूतपूर्व प्रगति होने पर आज भी वह नहीं आई है। अत: उसका प्राकृतिक अवस्था का वर्णन अविश्वसनीय है। 7ण् लॉक ने प्राकृतिक दशा में उस अवस्था को छोड़नेका कारण नहीं बताया है। अत: लॉक की प्राकृतिक दशा का चित्रण अवैज्ञानिक है।
उपर्युक्त आधार पर कहा जा सकता है कि लॉक की प्राकृतिक अवस्था शांति, परोपकार, सदाचारी, बुद्धियुक्त गुणों से भरपूर होते हुए भी कुछ दोषों से ग्रस्त थी। इस अवस्था में कानून का अलिखित होना समाज में अराजकता की स्थिति कायम करने के लिए काफी था। न्याय की परिभाषा करने वाली संस्था का अभाव था। फिर भी लॉक ने अपनी प्राकृतिक दशा के बारे में लिखते हुए मानव-स्वभाव के अच्छे गुणों पर प्रकाश डाला है। आलोचकों ने लॉक की प्राकृतिक अवस्था को अव्यावहारिक माना है परन्तु व्यक्तियों के परस्पर सहयोग और विवेकशीलता की प्रधानता से उसके विचार जीवित हो उठते हैं। नैतिक दर्शन में लॉक की यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण देन है।

प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त

लॉक का राजदर्शन के इतिहास को सबसे बड़ी देन उसके प्राकृतिक अधिकार विशेषकर सम्पत्ति का अधिकार है। यह धारणा लॉक के राजनीतिक दर्शन का सार है। लॉक के सभी सिद्धान्त किसी न किसी रूप में लॉक के प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त से जुड़े हुए हैं। लॉक के अनुसार मनुष्य एक विवेकशील, नैतिक तथा सामाजिक प्राणी है। इस कारण सभी मनुष्य अपने साथी व मित्रों के साथ सुख-शान्ति और सौहार्दपूर्ण भाव से रहते है।ं लॉक ने एक ऐसी अवस्था की कल्पना की है जिसमें सभी व्यक्ति शांतिमय तरीके से राज्य के बिना ही रहते हैं। लॉक इसे प्राकृतिक अवस्था कहता था, लॉक ने इस अवस्था को सद्भावना, पारस्परिक सहयोग, संरक्षण और शान्ति की व्याख्या बताया है। लॉक की यह अवस्था राजनीतिक समाज से पूर्व की अवस्था है। इसमें मानव विवेक कार्य करता है। मनुष्यों को ईश्वर ने विवेक प्रदान किया है। अत: प्रकृति के कानून के अनुसार काम करना सभी का स्वाभाविक कर्त्तव्य है। इन प्राकृतिक कानूनों द्वारा ही व्यक्ति को प्राकृतिक अधिकार प्राप्त होते हैं। आधुनिक युग में साधारणतया यह माना जाता है कि व्यक्ति को अधिकार समाज और राज्य से प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत लॉक की मान्यता है कि व्यक्ति के कुछ ऐसे अधिकार हैं जो कि उसके पैदायशी ;ठपतजी त्पहीजेद्ध अधिकार हैं। ये अधिकार अलंघ्य ;प्दअपवसंइसमद्ध होते हैं। राज्य बनने से पहले भी व्यक्ति को प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक नियमों के तहत अधिकार प्राप्त थे। प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले लोगों ने इन अधिकारों को अधिक प्रभावशाली, सुरक्षित और इनके प्रयोग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए राज्य बनाया। लॉक राज्य से पहले भी प्राकृतिक अवस्था में संगठित समाज का अस्तित्व स्वीकारता है। लॉक का मानना है कि प्राकृतिक अवस्था में इस संगठित समाज के पीछे प्राकृतिक कानून का सिद्धान्त था जो स्वयं विवेक पर आधारित था। प्राकृतिक कानून और अधिकार ईश्वर द्वारा बनाई गई नैतिक व्यवस्थाएँ हैं। लॉक ने जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के अधिकार को प्राकृतिक अधिकार माना है। यद्यपि 17 वीं शताब्दी के अन्त तक प्राकृतिक अधिकारों का अर्थ जीवन, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के अर्जन को माना जाने लगा था पर उन्हें प्राकृतिक मान तार्किक आधार लॉक ने ही प्रदान किया। लॉक ने प्राकृतिक अधिकारों के बारे में कहा है- “अधिकार मनुष्य में प्राकृतिक रूप से जन्मजात होते हैं और यही अधिकार ‘प्राकृतिक’ हैं। ये अधिकार अपरिवर्तनशील व स्वाभाविक होते हैं। ये अधिकार समाज की देन हैं और उनका क्रियान्वयन सभ्य समाज के माध्यम से ही होता है। इनका जन्म मनुष्य की बुद्धि व आवश्यकता के कारण होता है तथा वे सामाजिक अधिकार कहलाते हैं।

लॉक के अनुसार हर व्यक्ति के पास कुछ प्राकृतिक, कभी न छोड़े जाने वाले, मूलभूत अधिकार होते हैं, जिन्हें कोई छू नहीं सकता, चाहे वह राज्य हो या समाज या कोई अन्य व्यक्ति। ये प्राकृतिक अधिकार हर सामाजिक, प्राकृतिक, कानूनी तथा राजनीतिक व्यवस्था में सर्वमान्य होंगे। लॉक ने कहा कि जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकार जन्मसिद्ध और स्वाभाविक होने के कारण समाज की सृष्टि नहीं हैं। मनुष्य इन अधिकारों की रक्षा के लिए नागरिक समाज या राज्य का निर्माण करते हैं। मनुष्य प्राकृतिक अवस्था में भी स्वभाव से प्राकृतिक कानून का पालन करते हैं। ये तीन अधिकार हैं :-
  1. जीवन का अधिकार : मनुष्य को जीवन का अधिकार प्राकृतिक कानून से प्राप्त होता है। लॉक की धारणा है कि आत्मरक्षा व्यक्ति की सर्वोत्तम प्रवृत्ति है और प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को सुरक्षित रखने का निरंतर प्रयास करता है। आत्मरक्षा को हॉब्स मानव की सर्वोत्तम प्रेरणा मानता है, उसी प्रकार लॉक का मानना है कि जीवन का अधिकार जन्मसिद्ध अधिकार है और प्राकृतिक कानूनों के अनुसार उनका विशेषाधिकार है। व्यक्ति न तो अपने जीवन का स्वयं अन्त कर सकता है और न ही वह अन्य किसी व्यक्ति को इसकी अनुमति दे सकता है।
  2. स्वतन्त्रता का अधिकार : लॉक के अनुसार क्योंकि सभी मनुष्य एक ही सृष्टि की कृति हैं, इसलिए वे सब समान और स्वतन्त्र हैं। यह स्वतन्त्रता प्राकृतिक कानून की सीमाओं के अन्तर्गत होती है। स्वाधीनता के अर्थ प्राकृतिक कानून जो मनुष्य की स्वतन्त्रता का साधन होता है के अतिरक्त सभी बन्धनों से मुक्ति होती है। “इस कानून के अनुसार वह किसी अन्य व्यक्ति के अधीन नहीं होते तथा स्वतन्त्रतापूर्वक स्वेच्छा से कार्य करते हैं।” व्यक्ति की यह स्वतन्त्रता प्राकृतिक कानून की सीमाओं के अन्दर होती है। अत: मनमानी स्वतन्त्रता नहीं है। मानव सुखी और शान्त जीवन व्यतीत करते थे क्योंकि सभी स्वतन्त्र और समान थे। वे एक-दूसरे को हानि नहीं पहुँचाते थे। इसलिए प्रत्येक स्वतन्त्रता का पूर्ण आनन्द लेता था।
  3. सम्पत्ति का अधिकार : लॉक ने सम्पत्ति के अधिकार को एक महत्त्वपूर्ण अधिकार माना है। लॉक के अनुसार सम्पत्ति की सुरक्षा का विचार ही मनुष्यों को यह प्रेरणा देता है कि वे प्राकृतिक दशा का त्याग करके समाज की स्थापना करें। लॉक ने सम्पत्ति के अधिकार को प्राकृतिक अधिकार माना है। अपनी रचना ‘द्वितीय निबन्ध’ में लॉक ने इस अधिकार की व्याख्या की है। लॉक ने इस अधिकार को जीवन तथा स्वतन्त्रता के अधिकार से भी महत्त्वपूर्ण माना है। लॉक ने सम्पत्ति के अधिकार का विस्तार से प्रतिपादन किया है। संकुचित अर्थ में लॉक ने केवल निजी सम्पत्ति के अधिकार की ही व्याख्या की है। व्यापक अर्थ में लॉक ने जीवन तथा स्वतन्त्रता के अधिकारों को भी सम्पत्ति के अधिकार में शामिल किया है।
सम्पत्ति पर लॉक के विचार काफी दृढ़ हैं तथा सम्पत्ति के अधिकार के लिए अक्षुण्ता की भावना से युक्त है। प्रारम्भ में ईश्वर ने सभी मनुष्यों को विश्व दिया। अत: किसी एक वस्तु विशेष पर कोई अधिकार नहीं था। यद्यपि भूमि तथा अन्य दीन जीव सभी की सम्पत्ति थे। फिर भी हर व्यक्ति को स्वयं भी सम्पत्ति का अधिकार था। उसके शरीर का श्रम और उसका फल उसकी अपनी सम्पत्ति थी। उसका श्रम भूमि के साथ मिलकर उसकी सम्पत्ति बन जाता था। इस प्रकार श्रम को किसी वस्तु के साथ मिलाकर व्यक्ति उसका स्वामी बन जाता था। लॉक ने अपने इस सिद्धान्त के विपरीत लॉक श्रम सिद्धान्त के आधार पर स्वामित्व की बात करता है। रोमन विधि के अनुसार- “व्यक्तिगत सम्पत्ति का उदय उस समय हुआ जब व्यक्तियों ने वस्तुओं पर अनधिकृत कब्जा करना आरम्भ किया।” लॉक ने उपर्युक्त धारणा का खण्डन किया और कहा कि व्यक्ति का शरीर ही उसकी एकमात्र सम्पत्ति है। जब व्यक्ति अपने शारीरिक श्रम को प्रकृति प्रदत्त अन्य वस्तुओं के साथ मिला लेता है तो वह उन वस्तुओं का अधिकारी बन जाता है। सम्पत्ति सिद्धान्त के उद्भव के बारे में लॉक ने कहा- “जिस चीज को मनुष्य ने अपने शारीरिक श्रम द्वारा प्राप्त किया है, उस पर उसका प्राकृतिक अधिकार है।” लॉक ने आगे कहा है- “सम्पत्ति का अधिकार बहुत पवित्र है। जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति उसके प्राकृतिक अधिकार हैं। समाज न तो सम्पत्ति पर नियंत्रण कर सकता है और न ही कर लगा सकता है।”

लॉक का सम्पत्ति का अधिकार का सिद्धान्त वास्वत में प्रकृति के कानून पर आधारित वंशानुगत उत्तराधिकार का ही सिद्धान्त है। कोई व्यक्ति किसी वस्तु में अपना श्रम मिलाकर ही उसके स्वामित्व का अधिकार ग्रहण करता है। प्रकृति के द्वारा प्रदत्त किसी वस्तु में अपना श्रम मिलाकर ही अपना अधिकार उस पर जताता है। वंशानुगत उत्तराधिकार का अधिकार प्रकृति के इस कानून से उत्पन्न होता है कि मनुष्य को अपनी पत्नी और बच्चों के लिए कुछ करना चाहिए। ईश्वर ने मनुष्य को वस्तुओं पर अपना स्वामित्व कायम करने के लिए बुद्धि तथा शरीर प्रदान किया है। वह श्रम के आधार पर अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति का सर्जन कर सकता है। प्रो0 सेबाइन के अनुसार- “मनुष्य वस्तुओं पर अपनी आन्तरिक शक्ति व्यय करके उन्हें अपना हिस्सा बना लेता है।” लॉक के लिए निजी सम्पत्ति का आधार एक सांझी वस्तु पर व्यय की हुई श्रम शक्ति है।

लॉक सम्पत्ति के दो रूप बताता है- ;1द्ध प्राकृतिक सम्पत्ति ;2द्ध निजी सम्पत्ति। प्राकृतिक सम्पत्ति सभी मानवों की सम्पत्ति है और उस पर सभी का अधिकार है। प्राकृतिक साधनों के साथ मानव उसमें अपना श्रम मिलाकर उसे निजी सम्पत्ति बना लेता है। लॉक ने सम्पत्ति के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहा है कि सम्पत्ति मानव को स्थान, शक्ति और व्यक्तित्व के विकास के लिए अवसर प्रदान करती है। लॉक ने असीम सम्पत्ति संचित करने के अधिकार को उचित ठहराया है। व्यक्ति को प्रकृति से उतना ग्रहण करने का अधिकार है जितना नष्ट होने से पहले उसके जीवन के लिए उपयोगी हो। मनुष्य को सम्पत्ति संचित करनेका तो अधिकार है, परन्तु उसे बिगाड़ने, नष्ट करने या दुरुपयोग करने का अधिकार नहीं है। लॉक ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति स्वेच्छा से सम्पत्ति तो एकत्रित कर सकता है, परन्तु प्राकृतिक कानून दूसरे व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमणको स्वीकृति नहीं दे सकता। लॉक का यह भी मानना है कि यदि किसी के पास आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति हो तो उसे जन सम्पत्ति मान लेना चाहिए। लॉक ने सम्पत्ति अर्जन में श्रम का महत्त्व स्पष्ट किया है। लॉक के अनुसार मनुष्य का श्रम निस्सन्देह उसकी अपनी चीज है, और श्रम सम्पत्ति का सिर्फ निर्माण ही नहीं करता, बल्कि उसके मूल्य को भी निर्धारित करता है। यह सिद्धान्त स्पष्ट करता है कि किसी वस्तु का मूल्य एवं उपयोगिता उस पर लगाए गए श्रम के आधार पर ही निर्धारित हो सकती है।

निजी सम्पत्ति के पक्ष में तर्क

लॉक ने निजी सम्पत्ति को औचित्यपूर्ण सिद्ध करने के पक्ष में तर्क दिए हैं :-
  1. आरम्भ में भूमि तथा इसके सारे फल प्रकृति द्वारा सारी मानव जाति को दिये गए थे।
  2. मानव को इनका प्रयोग करने से पहले इन्हें अपना बनाना है।
  3. हर व्यक्ति का व्यक्तित्व, उसकी शारीरिक मेहनत तथा उसके हाथों का कार्य उनकी अपनी सम्पत्ति है। 
  4. प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य अपनी-अपनी मेहनत से जो लेते हैं, वह उनकी निजी सम्पत्ति है बशर्ते कि वह दूसरों के लिए काफी छोड़ दें।
  5. सम्पत्ति पैदा करने के लिए किसी दूसरे की आज्ञा लेने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह जिन्दा रहने की आवश्यकता है।
इस प्रकार लॉक उपर्युक्त तर्कों के आधार पर निजी सम्पत्ति को न्यायसंगत ठहराते हैं।

निजी सम्पत्ति के अधिकार पर सीमाएँ

लॉक निजी सम्पत्ति के अधिकार पर कुछ सीमाएँ या बन्धन लगाते हैं जो हैं :-
  1. किसी को सम्पत्ति नष्ट करने का अधिकार नहीं है : लॉक कहता है कि सम्पत्ति को एकत्रित तो किया जा सकता है लेकिन नष्ट नहीं किया जा सकता। सम्पत्ति को बेचकर मुद्रा के रूप में प्राप्त कर सकते हैं। लॉक ने असीमित मुद्रा को पूंजी के रूप में एकत्र किये जोने पर बल दिया। अत: लॉक ने निजी सम्पत्ति को सुरक्षित रखने के लिए इसको नष्ट करने पर रोक लगाई है। लॉक के अनुसार- “मानव को सम्पत्ति संचित करने का अधिकार है, परन्तु उसे बिगाड़ने, नष्ट करने या दुरुपयोग करने का अधिकार नहीं है।
  2. सम्पत्ति को दूसरों के लिए छोड़ देना चाहिए : लॉक कहता है कि जो प्राकृतिक भूमि आदि मनुष्य मेहनत से अपनी निजी सम्पत्ति बना लेते हैं, उससे वह दूसरों के लिए कुछ उत्पादन करते हैं और यह उत्पादन समाज की सामान्य भूमि आदि की कमी को पूरा कर देता है। व्यक्ति सारी प्राकृतिक सम्पत्ति को निजी सम्पत्ति में नहीं बदल सकता। लॉक का कहना है- “प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से उतना ग्रहण करने का अधिकार है। जितना उसके जीवन के लिए उपयोगी हो और दूसरों के लिए भी पर्याप्त हिस्सा बचा रहे।”
  3. निजी सम्पत्ति वह है जिसे व्यक्ति ने अपना श्रम मिलाकर अर्जित किया है : लॉक का कहना है व्यक्ति अपने सामथ्र्य अनुसार अपना श्रम मिलाकर किसी भी प्राकृतिक वस्तु को अपना सकता है। व्यक्ति अपने श्रम का मालिक होता है तथा श्रम उसकी सम्पत्ति है। यदि वह अपना श्रम दूसरे को बेच देता है तो वह श्रम दूसरे व्यक्ति की सम्पत्ति बन जाता है। अत: श्रम द्वारा ही किसी वस्तु पर व्यक्ति के स्वामित्व का फैसला निर्भर करता है। बिना श्रम प्राप्त सम्पत्ति निजी सम्पत्ति नहीं हो सकती।
  4. आवश्यकता से ज्यादा संचित सम्पत्ति जन सम्पत्ति मानी जा सकती है।

निजी सम्पत्ति के अधिकार के निहितार्थ

लॉक के निजी सम्पत्ति के सिद्धान्त की कुछ महत्त्वपूर्ण बातें हैं :-
  1. निजी सम्पत्ति शारीरिक श्रम व योग्यता से प्राप्त होती है।
  2. व्यक्ति का श्रम एक निजी वस्तु है। वह जब चाहे किसी को भी इसे बेच सकता है तथा दूसरा इसे खरीद सकता है।
  3. निजी सम्पत्ति का अधिकार प्राकृतिक है।
  4. निजी सम्पत्ति उत्पादन का आधार है।
  5. श्रम को खरीदने वाला श्रम का न्यायसंगत स्वामी बन सकता है।
  6. निजी सम्पत्ति क्रय व विक्रय योग्य वस्तु है।
  7. निजी सम्पत्ति के अधिकार के बिना मानव जीवन का कोई आकर्षण नहीं है।
  8. समाज हित में निजी सम्पत्ति के अधिकार पर बन्धन लगाया जा सकता है।
  9. निजी सम्पत्ति का अधिकार मेहनत को प्रोत्साहित करता है।

प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त की आलोचना

लॉक का प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण देन होते हुए भी कुछ कमियों से ग्रसित है। अनेक विचारकों ने इस की आलोचनाएँ की हैं :-
  1. लॉक का यह कथन कि अधिकार, राज्य या समाज से पहले उत्पन्न हुए - इतिहास, तर्क या सामान्य बुद्धि के विपरीत है। लॉक की दृष्टि में अधिकारों का स्रोत प्रकृति है। परन्तु अधिकारों का स्रोत समाज होता है और उसकी रक्षा के लिए राज्य का होना अनिवार्य है।
  2. लॉक ने सम्पत्तिके अधिकार पर तो विस्तार से लिखा है लेकिन जीवन तथा स्वतन्त्रता के अधिकार पर ज्यादा नहीं कहा।
  3. लॉक के प्राकृतिक अधिकारों में परस्पर विरोधाभास है। लॉक एक तरफ तो उन्हें प्राकृतिक मानता है और दूसरी तरफ श्रम को सम्पत्ति के अधिकार का आधार मानता है। यदि प्राकृतिक अधिकार जन्मजात व स्वाभाविक हैं तो उसके अर्जन की क्या जरूरत है।
  4. लॉक का प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त पूंजीवाद का रक्षक है। श्रम-सिद्धान्त को परिभाषित करते हुए लॉक ने कहा है- “जिस घास को मेरे घोड़े ने खाया है, मेरे नौकर ने काटा है, और मैंने छीला है; वह मेरी सम्पत्ति है और उस पर किसी दूसरे का अधिकार नहीं है।” अत: लॉक का यह सिद्धान्त पूंजीवाद का समर्थक है।
  5. लॉक ने स्वतन्त्रता पर जोर दिया है, समानता पर नहीं। जबकि आधुनिक युग में समानता के अभाव में स्वतन्त्रता अधूरी है।
  6. लॉक के अधिकारों का क्षेत्र सीमित है। आधुनिक युग में शिक्षा, धर्म संस्कृति के अधिकार भी बहुत महत्त्वपूर्ण अधिकार हैं।
  7. लॉक किसी व्यक्ति के बिना श्रम किये उत्तराधिकार द्वारा दूसरे की सम्पत्ति प्राप्त करने के नियम का स्पष्ट उल्लेख नहीं करता।
  8. लॉक आर्थिक असमानता की तो बात करता है लेकिन उसे दूर करने के उपाय नहीं बताता।
  9. लॉक आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति संचित करने पर सम्पत्ति को जनहित में छीनने की बात तो करता है लेकिन सम्पत्ति छीनने की प्रक्रिया पर मौन है।
अनेक आलोचनाओं के बावजूद भी लॉक का प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त राजनीतिक चिन्तन में उत्कृष्ट देन है। लॉक का सिद्धान्त आधुनिक युग में भी महत्त्वपूर्ण है। इसका महत्त्व निम्न आधारों पर स्पष्ट हो जाता है।

प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त का प्रभाव

  1. लॉक का यह सिद्धान्त मौलिक अधिकारों का जनक है। आज के सभी प्रजातन्त्रीय देशों में लॉक के इन सिद्धान्तों को अपनाया गया है। अमेरिका के संविधान पर तो लॉक का गहरा प्रभाव है। अमेरिकन संविधान का चौदहवाँ संशोधन घोषणा करता है कि- “कानून की उचित प्रक्रिया के बिना राज्य किसी भी व्यक्ति को जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति से वंचित नहीं कर सकता।”
  2. इस सिद्धान्त का न्ण्छण्व् (संयुक्त राष्ट्र संघ) पर भी स्पष्ट प्रभाव है। इसके चार्टर में मानवीय अधिकारों के महत्त्व को स्वीकार करते हुए मानवाधिकारों को शामिल किया गया है। वे अधिकार लॉक की देन है।
  3. इस सिद्धान्त का कार्लमाक्र्स के ‘अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त’ ;ज्ीमवतल व िैनतचसने टंसनमद्ध पर भी स्पष्ट प्रभाव है। माक्र्स भी श्रम को ही महत्त्व देकर अपने सिद्धान्त की व्याख्या करता है।
  4. लॉक की सबसे महत्त्वपूर्ण इस देन का प्रभाव 18 वीं तथा 19 वीं शताब्दी के उदारवादी विचारकों पर भी पड़ा। 
अत: निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि अपनी अनेक आलोचनाओं के बावजूद भी लॉक का प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक बहुत महत्त्वपूर्ण देन है। डनिंग ने कहा है- “राजनीतिक दर्शन को लॉक का सर्वाधिक विशिष्ट योगदान प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त है।” लॉक ने एडम स्मिथ जैसे अर्थशास्त्रियों पर भी अपनी अमिट छाप छोड़ी है। प्राकृतिक अधिकारों के रूप में लॉक की यह देन उत्कृष्ट है।

सामाजिक समझौता सिद्धान्त

लॉज के राजनीतिक चिन्तन का सर्वाधिक प्रमुख भाग सामाजिक समझौता सिद्धान्त है जिसके द्वारा लॉक ने इंगलैण्ड में हुई 1688 की गौरवपूर्ण क्रान्ति ;ळसवतपवने त्मअवसनजपवदद्ध के औचित्य को ठीक ठहराया है। सामाजिक समझौता सिद्धान्त सबसे पहले हॉब्स ने प्रतिपादित किया, परन्तु लॉक ने उसे उदारवादी आधार प्रदान करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। लॉक भी हॉब्स के इस विचार से सहमत था कि राज्य की उत्पत्ति समझौते का परिणाम है, दैवी इच्छा की नहीं। लॉक के इस सिद्धान्त का विवरण उसकी प्रमुख पुस्तक ‘शासन पर दो निबन्ध’ में मिलता है। लॉक ने इसमें लिखा है कि “परमात्मा ने मनुष्य को एक ऐसा प्राणी बनाया कि उसके अपने निर्णय में ही मनुष्य को अकेला रखना उचित नहीं था। अत: उसने इसे सामाजिक बनाने के लिए आवश्यकता, स्वेच्छा और सुविधा के मजबूत बन्धनों में आबद्ध कर दिया तथा समाज में रहने और उसका उपभोग करने के लिए इसे भाषा प्रदान की।”

जॉन लॉक के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक, शान्तिप्रिय प्राणी है। प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य समान और स्वतन्त्रता का जीवन व्यतीत करता था। मनुष्य स्वभाव से स्वाथ्र्ाी नहीं था और एक शान्त और सम्पन्न जीवन जीना चाहता था। अत: प्राकृतिक अवस्था शान्ति, सम्पन्नता, सहयोग, समानता तथा स्वतन्त्रता की अवस्था थी। प्राकृतिक अवस्था में पूर्ण रूप से भ्रातृत्व और न्याय की भावना का साम्राज्य था। प्राकृतिक अवस्था को शासित करने के लिए प्राकृतिक कानून था। प्राकृतिक कानून पर शान्ति एवं व्यवस्था आधारित होती थी जिसे मनुष्य अपने विवेक द्वारा समझने में समर्थ था। प्राकृतिक अवस्था में प्रत्येक मनुष्य को ऐसे अधिकार प्राप्त थे जिसे कोई वंचित नहीं कर सकता था। लॉक ने इन तीनों अधिकारों को मानवीय विवेक का परिणाम कहा है। ये तीन अधिकार - जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकार हैं। लॉक ने कहा कि प्राकृतिक अवस्था की कुछ कमियाँ थीं, इसलिए उन कमियों को दूर करने के लिए समझौता किया गया।
  1. प्राकृतिक अवस्था में नियम स्पष्टता का अभाव था। उसमें कोई ऐसी निश्चित, प्रकट एवं सर्वसम्मत विधि नहीं थी, जिसके द्वारा उचित-अनुचित का निर्णय हो सके। इस अवस्था में लिखित कानून के अभाव में सदैव कानून की गलत व्याख्या की जाती थी। प्राकृतिक कानून का शक्तिशाली व्यक्ति अपने विवेक के आधार पर स्वार्थ-सिद्धि के लिए प्रयोग करते थे।
  2. इस अवस्था में निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र न्यायधीशों का अभाव था। इस अवस्था में न्याय का स्वरूप पक्षपातपूर्ण था। पक्षपातपूर्ण ढंग से न्याय किया जाता था। कोई तीसरा पक्ष निष्पक्ष नहीं था। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं न्यायधीश था।
  3. इस अवस्था में न्याययुक्त निर्णय लागू करने के लिए कार्यपालिका का अभाव था। इसलिए निर्णयों का उपयुक्त क्रियान्वयन नहीं हो पाता था। अत: प्राकृतिक अवस्था में पाई जाने वाली असुविधाओं और कठिनाइयों से बचने के लिए मनुष्यों ने एक समझौता किया।
लॉक के अनुसार समझौते का स्वरूप सामाजिक है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति ने सम्पूर्ण समाज के प्रत्येक व्यक्ति को सर्वसम्मति से यह समझौता किया। लॉक का सामाजिक समझौता दो बार हुआ है। पहले समझौते द्वारा मनुष्य ने राजनीतिक व नागरिक समाज की स्थापना की। इससे मानव ने अपनी प्राकृतिक अवस्था का अन्त किया। इस प्रकार मनुष्य ने इस समझौते द्वारा जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अपने प्राकृतिक अधिकारों तथा कानून को मानव ने सदैव के लिए सुरक्षित कर दिया। दूसरे समझौते द्वारा जनसहमति से शासन को नियुक्त किया जाता है। शासक, नागरिक समाज के अभिकर्ता के रूप में जीवन स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के प्राकृतिक अधिकारों के अन्तर्गत ही कानून की व्याख्या एवं उसे लागू करता है। शासक, नागरिक समाज के एक ट्रस्टी के रूप में अपने कर्त्तव्यों का पालन करता है। लॉक कहता है कि सामाजिक समझौते की प्रक्रिया के अन्त में राजनीतिक समाज है, जिसका निर्माण इस प्रकार हुआ है- “प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक के साथ संगठन तथा समुदाय के निर्माण हेतु सहझौता करता है। जिस उद्देश्य के लिए समझौता किया जाता है वह सामान्यत: सम्पत्ति की सुरक्षा है जिसका अर्थ जीवन, स्वाधीनता तथा सम्पत्ति की आन्तरिक तथा बाहरी खतरों से सुरक्षा है।

इस समझौते के अनुसार मनुष्य अपने सारे अधिकार नहीं छोड़ता लेकिन प्राकृतिक केवल अपनी असुविधाओं को दूर करने के लिए प्राकृतिक कानून की व्याख्या और क्रियान्वयन के अधिकार को छोड़ता है। लेकिन यह अधिकार किसी एक व्यक्ति या समूह को न मिलकर सारे समुदाय को मिलता है। यह समझौता निरंकुश राज्य की उत्पत्ति नहीं करता। इससे राजनीतिक समाज को केवल वे ही अधिकार मिले हैं जो व्यक्ति ने उसे स्वेच्छा से दिए हैं। वह व्यक्ति के उन अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता जो उसे नहीं दिए गए हैं। लॉक के इस समझौते के अनुसार दो समझौते हुए। पहला समझौता जनता के बीच तथा दूसरा जनता व शासक के बीच हुआ। सम्प्रभु पहले में शामिल नहीं था। इसलिए वह व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। राजनीतिक समाज की स्थापना हेतु किया गया दूसरा समझौता सीमित व उत्तरदायी सरकार की स्थापना करता है। इस समझौते की प्रमुख विशेषताएँ हैं :-
  1. लॉक के अनुसार दो बार समझौता हुआ। प्रथम समझौते द्वारा नागरिक समाज की स्थापना होती है तथा दूसरे समझौते द्वारा राजनीतिक समाज की स्थापना होती है।
  2. यह समझौता सभी व्यक्तियों की स्वीकृति पर आधारित होता है। सहमति मौन भी हो सकती है, परन्तु सहमति अति आवश्यक है क्योंकि राज्य का स्रोत जन-इच्छा है।
  3. यह समझौता अखंड्य ;प्ततमअवबंइसमद्ध है। एक बार समझौता हो जाने पर इसे भंग नहीं किया जा सकता। इसको तोड़ने का मतलब है - प्राकृतिक अवस्था में वापिस लौटना।
  4. इस समझौते के अनुसार प्रत्येक पीढ़ी इसको मानने को बाध्य है। भावी पीढ़ी समझौते पर मौन स्वीकृति देती है। यदि वे अपनी जन्मभूमि त्यागते हैं तो वे उत्तराधिकार के लाभों से वंचित रह जाते हैं।
  5. इस समझौते द्वारा व्यक्ति अपने कुछ प्राकृतिक अधिकारों का परित्याग करता है, सभी प्राकृतिक अधिकारों का नही। वह अपना अधिकार समस्त जनसमूह को सौंपता है। यह समझौता जीवन स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए किया जाता है। अत: यह सीमित समझौता है।
  6. इस समझौते से नागरिक समुदाय का जन्म होता है, सरकार का नहीं। सरकार का निर्माण तो एक ट्रस्ट द्वारा होता है। इसलिए सरकार तो बदली जा सकती है, लेकिन इस समझौते को भंग नहीं किया जा सकता।
  7. लॉक के अनुसार प्रकृति के कानून की व्याख्या करने तथा उसे लागू करने वाला शासक स्वयं भी उससे बाधित है। जिन शर्तों के आधार पर शासक को नियुक्त किया जाता है, शासक को उसका पालन करना है। अत: शासक सर्वोच्च सत्ता सम्पन्न नहीं है।
  8. लॉक के सामाजिक समझौते के अन्तर्गत शासक को जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के प्राकृतिक अधिकारों का सम्मान करना पड़ता है। अत: प्राकृतिक अवस्था के अन्त होने के बाद भी सामाजिक समझौते में मनुष्य के प्राकृतिक अधिकार सुरक्षित रहते हैं।
  9. नागरिक समाज सामाजिक समझौते द्वारा शासन के दो अंगों विधानसभा तथा कार्यपालिका की स्थापना करता है। विधानसभा का कार्य कानून निर्माण करना है, जिनके आधार पर न्यायधीश निष्पक्ष न्यायिक निर्णय करते हैं। कार्यपालिका विधानसभा के कानूनों और न्यायधीशों के न्यायिक निर्णयों को लागू करती है। अत: सामाजिक समझौता सिद्धान्त सीमित रूप से शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त को स्वीकार करता है।
  10. लॉक ने व्यक्तिवादी राज्य-व्यवस्था की स्थापना की है और उसे व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा करने वाला साधन कहा है।
  11. यह समझौता प्राकृतिक कानून का अन्त नहीं करता। इससे प्राकृतिक कानून के महत्त्व में वृद्धि होती है। लॉक ने कहा है- “प्राकृतिक कानून के दायित्वों का समाज में अन्त नहीं होता।”
  12. यह समझौता हॉब्स के समझौते की तरह दासता का बन्धन नहीं है। अपितु स्वतन्त्रता का एक अधिकार पत्र है। इससे व्यक्ति कुछ खाते नहीं हैं। उन्हें अधिकारों को लागू करने में जो कठिनाइयाँ आती हैं, उनका अन्त करने को प्रयत्न समझौते द्वारा किया जाता है।

हॉब्स से तुलना

हॉब्स और लॉक दोनों समझौतावादी विचारक हैं। (i) दोनों के अनुसार एक ही समझौता होता है। (ii) दोनों ने यह माना कि सरकार समझौता प्रक्रिया में शामिल नहीं होती। (iii) दोनों ने राज्य की उत्पत्ति के दैवीय अधिकार का विरोध किया है। (iv) दोनों के अनुसार समझौता व्यक्तियों में होता है। (v) दोनों सामाजिक समझौते में विश्वास करते हैं, सरकारे समझौते के सिद्धान्त में नहीं। उपर्युक्त बातों में समान होते होन पर भी दोनों के सिद्धान्त में कुछ अन्तर मौलिक हैं :-
  1. हॉब्स का समझौता कठोर आवश्यकता का प्रतिफल है, परन्तु लॉक का समझौता विवेक का परिणाम है।
  2. हॉब्स का समझौता सामान्य स्वभाव का है, लॉक का सीमित और विशिष्ट स्वभाव का है।
  3. हॉब्स के समझौते के अनुसार व्यक्ति अपना अधिकार किसी विशेष व्यक्ति या व्यक्ति समूह को सौंपते हैं, लॉक के अनुसार व्यक्ति समुदाय को अपना अधिकार देते हैं।
  4. हॉब्स के अनुसार व्यक्ति अपने सारे अधिकार राज्य को सौंपता है, परन्तु लॉक के अनुसार व्यक्ति अपने सीमित अधिकार राज्य को देता है।
  5. हॉब्स के समझौते के परिणामस्वरूप एक निरंकुश, सर्वशक्तिशाली, असीम एवं अमर्यादित सम्प्रभु का जन्म होता है, परन्तु लॉक के अनुसार एक सीमित, मर्यादित एवं उदार राज्य का जन्म होता है।
  6. हॉब्स का समझौता एक दार्शनिक विचार है, लॉक का ऐतिहासिक तथ्य भी।
  7. हॉब्स का सामाजिक समझौता प्राकृतिक अवस्था व प्राकृतिक कानून दोनों को समाप्त कर देता है, परन्तु लॉक का समझौता प्राकृतिक अवस्था का तो अन्त करता है, प्राकृतिक कानून का नहीं। लॉक के अनुसार मनुष्य प्राकृतिक अवस्था के समान राज्य में भी प्राकृतिक कानून का पालन करने को बाध्य है।
  8. हॉब्स का शासक कानून बनाता है, परन्तु लॉक का शासन कानून नहीं बनाता, सिर्फ कानून का पता लगाता है। हॉब्स के अनुसार राज्य के बाद कानून का जन्म होता है। लॉक के अनुसार कानून के बाद राज्य का जन्म होता है।
  9. लॉक का समझौता स्वतन्त्रता का प्रपत्र है, जबकि हॉब्स का समझौता दासता का पट्टा है।
  10. हॉब्स का समझौता प्राकृतिक अवस्था की अराजकता को दूर करने के लिए हुआ था, जबकि लॉक का समझौता प्राकृतिक अवस्था की तीनों कमियों को दूर करने के लिए हुआ था।
  11. हॉब्स के अनुसार एक समझौता हुआ जबकि लॉक के अनुसार दो प्रकार के समझौते हुए।

लॉक के सामाजिक समझौते की आलोचनाएँ

  1. अस्पष्टता और अनिश्चितता : लॉक के सामाजिक समझौते के बारे में आलोचक कहते हैं कि लॉक ने यह स्पष्ट नहीं किया कि सरकार का निर्माण कब और कैसे हुआ। लॉक के विचारों से यह प्रतीत होता है कि सामाजिक समझौते के द्वारा राज्य का निर्माण हुआ है, परन्तु उसकी व्याख्या से यह स्पष्ट नहीं होता कि सामाजिक समझौते से सरकार की भी स्थापना होती है या नहीं। अत: विचारकों में इस बात पर मतभेद है कि लॉक एक समझौते की बात करता है या दो की।
  2. अनैतिहासिक व काल्पनिक : लॉक ने सामाजिक समझौते द्वारा राज्य व शासन का जो विवरण दिया है, वह काल्पनिक है। उसके विवरण का ऐतिहासिक तथ्यों से मेल नहीं है। लॉक के मानव स्वभाव का चित्रण एक पक्षीय है। सत्य यह है कि मनुष्य कई सद्गुणों तथा दुर्गुणों का मिश्रण है। परन्तु लॉक केवल सद्गुणों का ही चित्रण करता है। लॉक के इस कथन में ऐतिहासिक प्रमाणों का अभाव है।
  3. लॉक ने राज्य और शासन में अन्तर करते हुए, व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका की स्थापना की है। किन्तु आलोचकों का मानना है कि प्राकृतिक अवस्था में मानव शासन से अपरिचित थे। अत: उनसे राजनीतिक परिपक्वता की उम्मीद नहीं की जा सकती। सामाजिक समझौते में लॉक ने जो मानव की राजनीतिक सूझ-बूझ दिखाई है, उसकी कल्पना नहीं की जा सकती।
  4. सामाजिक समझौते का एक दोष यह भी है कि यह सिद्धान्त राज्य के पूर्व समझौते की कल्पना करता है परन्तु राज्य की स्थापना के बाद ही समझौते किये जा सकते हैं।
  5. विरोधाभास : लाकॅ का सामाजिक समझातै का सिद्धान्त एक तरफ तो  सवर्स म्मति की बात करता है तो दूसरी आरे बहुमत के शासन का समर्थन करता है। लॉक ने इस स्थिति की कल्पना नहीं की है कि बहुमत भी अत्याचारी हो सकता है और अपनी शक्ति का प्रयोग जनता के अधिकारों के हनन के लिए कर सकता है।
  6. लॉक समझौते का आधार सहमति को मानता है, परन्तु इतिहास में ऐसे कई राज्यों का उल्लेख मिलता है जो बल व शक्ति के आधार पर बने व नष्ट हुए।
  7. लॉक ने बार-बार मूल समझौता शब्द का प्रयोग किया है लेकिन कहीं भी इसका अर्थ स्पष्ट नहीं किया। लॉक इस बात को भी स्पष्ट नहीं कर पाए कि मौलिक समझौते के परिणामस्वरूप वास्तव में जो उत्पन्न होता है, वह स्वयं समाज ही है या केवल सरकार।
इस प्रकार लॉक के सामाजिक समझौते की कई आलोचनाएँ की गर्इं। अनेक विचारकों ने कहा कि लॉक में कुछ भी नया नहीं है। ऐसा कार्य तो पहले भी कई दार्शनिकों द्वारा सम्पन्न हो चुका है। परन्तु लॉक के समझौते की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसने इसे सुनिश्चितता प्रदान की, उसका मुख्य लक्ष्य व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा को स्वीकार किया। बाद वाली पीढ़ियों ने उसके इस सिद्धान्त को बहुत पसन्द किया। उनके उदारवादी विचारों ने लॉक को मध्यवर्गीय क्रान्ति का सच्चा प्रवक्ता बना दिया था। उसके इस सिद्धान्त ने परवर्ती राजनीतिक चिन्तकों को प्रभावित किया। इस प्रकार लॉक एक महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली हैं।

राज्य का सिद्धान्त : सीमित राज्य

लॉक का राज्य व्यक्तियों के पारस्परिक समझौते की उपज है। लॉक ने प्राकृतिक अवस्था की कमियों को दूर करने के लिए अपने राज्य की स्थापना की है। प्राकृतिक अवस्था के दोषों को दूर करके मानव द्वारा राज्य की स्थापना करके शांति और सुव्यवस्था कायम करने के उद्देश्य से लॉक ने अपने सीमित राज्य की व्यवस्था की है। लॉक के समझौते द्वारा राजनीतक समाज की व्यवस्था उत्पन्न की जाती है। प्राकृतिक समाज में रहने वाले व्यक्तियों द्वारा सर्वोच्च समुदाय अथवा राजनीतिक समाज या राज्य की उत्पत्ति की जाती है।

लॉक के राज्य में प्रभुसत्ता समुदाय के पास रहती है, लेकिन इसका उपभोग बहुमत द्वारा किया जाता है। राज्य निरंकुशता के साथ कार्य कर सकता है, किन्तु जनहित के लिए। इसके कानूनों को प्राकृतिक तथा ईश्वरीय कानों को अनुरूप होना चाहिए। इसे तुरन्त दिए गए आदेशों का पालन नहीं करना चाहिए बल्कि कानूनों तथा अधिकृत जजों के माध्यम से ही करना चाहिए। विधायिका कानून बनाने की शक्ति को हस्तान्तरित नहीं कर सकती। समुदाय अपनी इच्छानुसार न्यासधारियों को बदल सकता है। लॉक के सामाजिक समझौते द्वारा स्थापित राज्य की निम्न विशेषताएँ हैं :-
  1. संवैध्ैाानिक राज्य  : लॉक का राज्य एक संवैधानिक राज्य है। इसका अर्थ यह है कि राज्य कानून के द्वारा अनुशासित, अनुप्राणित और संचालित होता है। लॉक की मान्यता है कि जहाँ मनुष्य अनिश्चित, अज्ञात एवं स्वेच्छाचारी इच्छा के अधीन रहते हैं, वहाँ उन्हें राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं हो सकती। विधानसभा प्राकृतिक कानून की सीमा के अन्तर्गत रहकर कानून निर्माण का कार्य करती है। जहाँ राज्य संचालन कानूनों द्वारा होता है, वहाँ नागरिकों की राजनीतिक स्वतन्त्रता सुरक्षित रह सकती है। लॉक का कहना है- “समाज तथा शासन के उद्देश्यों के साथ निरंकुश स्वेच्छाचारी शक्ति अर्थात् बिना निश्चित स्थापित कानूनों के शासन करने की धारणा कोई संगति नहीं रखती।” लॉक का कहना है कि प्रत्येक राज्य में कार्यपालिका के पास संकटकालीन शक्तियाँ होती हैं। इन शक्तियों को विशेषाधिकार कहा जाता है। ये विशेषाधिकार कानून का पूरक होते हैं। इस प्रकार लॉक विशेषाधिकार के महत्त्व को कानून की सत्ता के अनुपूरक के रूप में ही स्वीकार करता है। अत: लॉक संवैधानिक राज्य का प्रबल प्रवक्ता है। इसलिए लॉक ने कहा है- “जहाँ कानून का अंत होता है, वहीं निरंकुशता का प्रारम्भ होता है।”
  2. जनकल्याण का उद्देश्य  : लॉक के राज्य की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता ‘राज्य जनता के लिए, जनता राज्य के लिए नहीं’ है। लॉक ने इस बात पर जोर दिया कि सरकार का उद्देश्य मानव-समुदाय का कल्याण करना है। लॉक ने लिखा है- “सम्पत्ति को नियमित करने और उसका परिरक्षण करने के लिए दण्ड सहित कानून बनाने तथा उन कानूनों को क्रियान्वित करनेके लिए समुदाय की सैनिक शक्ति प्रयुक्त करने के अधिकार . . . यह सिर्फ जनता की भलाई के लिए है।” लॉक ने राज्य का यन्त्रवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए राज्य को उपकरण मानते हुए जनता के कल्याण की बात कही है। राज्य का उद्देश्य मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों - जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति की रक्षा करना है। अत: राज्य का उद्देश्य जनकल्याण है।
  3. सहमति पर आधारित : लॉक के राज्य की उत्पत्ति जनसमुदाय की व्यापक सहमति पर ही होती है। प्राकृतिक अवस्था में सभी मनुष्य स्वतन्त्र और समान हैं, इसलिए किसी को उसकी इच्छा के विपरीत राज्य का सदस्य बनने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। जो लोग राज्य की व्यवस्था से बाहर प्राकृतिक अवस्था में रहना चाहें वे प्राकृतिक अवस्था में रह सकते हैं। लॉक के अनुसार मनुष्यों की सहमति स्पष्ट और प्रत्यक्ष न होकर मौन भी हो सकती है। फिर भी लॉक इस बात पर जोर देता है कि राज्य समस्त जनता की सहमति है एवं जनकल्याणार्थ राज्य को सहमति प्रदान करती है और उसकी आज्ञा का पालन करती है। लॉक के अनुसार जन-इच्छा पर आधारित राज्य को मान्य होने के लिए उसे पुन: स्वीकार करना आवश्यक है। जन्म लेते समय मनुष्य किसी राज्य या सरकार के अधीन नहीं होता परन्तु अगर वयस्क होने के बाद मानव अपने जन्म के देश की सरकार द्वारा सेवाओं को स्वीकार करते हैं तो यह उसकी सहमति का परिचायक है। यदि शासक जनहित में कार्य करे तो जनता को उसके विरुद्ध विद्रोह करने का भी अधिकार है।
  4. धर्मनिरपेक्ष राज्य : लॉक का राज्य धर्म सहिष्णु राज्य है। लॉक का मानना है कि विभिन्न धर्मावलम्बियों के रहने से राज्य की एकता नष्ट नहीं होती है। लॉक के लिए धर्म व्यक्तिगत वस्तु है। धर्म का सम्बन्ध व्यक्ति की भावना तथा आत्मा से होता है। लॉक व्यक्ति को उसके अन्त:करण की भावना के अनुसार उपासना की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। अत: राज्य के लोगों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। परन्तु यदि मानव की धार्मिक गतिविधियों से समाज पर बुरा प्रभाव पड़ता है या शान्ति भंग होती है तो लॉक के अनुसार राज्य उनकी धार्मिक गतिविधियों पर प्रतिबन्ध लगा सकता है। धर्म और राज्य दोनों के अलग-अलग कार्य होते हैं। हॉब्स की तरह लॉक न तो राज्य को धर्मवादी और न चर्च को राज्य के अधीन रखने का पक्षपाती है। वह धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाता है।
  5. उदारवादी राज्य : लॉक का राज्य उदारवादी है। वह जनसहमति पर आधारित है। उसका उद्देश्य जनकल्याण है, वह संवैधानिक है, वह मर्यादित है, वह सहिष्णु है एवं जनता को कुछ स्थितियों में राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार प्रदान करता है। लॉक ने शासकों को नैतिक बन्धन में बाँधकर उन्हें शासितों या प्रजा के प्रति उत्तरदायी बनाया है। लॉक ने शासन को विधि के अधीन कर, पृथक्करण के सिद्धान्त का बीजारोपण कर, बहुमत के निर्णय में अपनी आस्था प्रकट कर एवं हिंसक सुधारों के बदले शान्तिपूर्ण सुधारों का प्रतिपादन कर लॉक ने उदारवाद का परिचय दिया है।
  6. सीमित राज्य : लॉक का राज्य सीमित और मर्यादित है, असीम और निरंकुश नहीं। लॉक ने राज्य पर सीमाएँ लगाकर उसे मर्यादित बना दिया है। लॉक ने कहा कि राज्य जनता द्वारा प्रदत्त अधिकारों का ही प्रयोग कर सकता है। राज्य तो जनता का मात्र अभिकर्ता है। राज्य को विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए धरोहर के रूप में शक्ति प्रदान की है। राज्य उनसे हटकर कोई कार्य नहीं कर सकता। लॉक का मत है कि नागरिक कानून प्राकृतिक कानून का अंग है। नागरिक कानून प्राकृतिक कानून की व्याख्या करके अनुचित कार्यों के लिए शीघ्र दण्ड की व्यवस्था करता है। प्राकृतिक कानून सर्वदा उचित-अनुचित का मापदण्ड होता है। विधानपालिका प्राकृतिक कानून के अनुसार अपने कानून का निर्माण करती है। इस प्रकार राज्य प्राकृतिक कानून द्वारा सीमित होता है। राज्य कभी सम्पत्ति के अधिकार का हरण नहीं कर सकता। लॉक का कथन है- “राज्य को निश्चित उद्देश्यों की प्राति हेतु न्यासधारी शक्तियाँ ही प्राप्त हैं।” लॉक की रचना ‘शासन पर दो निबन्ध’ में प्रमुख उद्देश्य शासन की सत्ता को मर्यादित करना है। अत: लॉक सीमित एवं मर्यादित शासन पर बल देता है।
  7. निषेध्ेाात्मक राज्य : लॉक का कार्यक्षेत्र निषेधात्मक है। राज्य सिर्फ सुरक्षा, शान्ति और न्याय सम्बन्धी कार्यों को पूरा करता है। नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य एवं नैतिक बनाना राज्य का दायित्व नहीं है। वह स्वेच्छा से नागरिकों की सम्पत्ति पर कर नहीं लगा सकता। वेपर के अनुसार- “राज्य केवल उन्हीं असुविधाओं और कठिनाइयों को दूर करने की कोशिश करता है। जो प्राकृतिक अवस्था में थी। वह केवल सुरक्षा, सुव्यवस्था और न्याय के तीन कार्य करता है। इसके अतिरिक्त् शिक्षा देना, उनका स्वास्थ्य सुधारना, उन्हें सुसंस्कृत और नेतिक बनाने का कार्य कोई राज्य नहीं कर सकता।” लॉक का राज्य न तो नागरिकों के चरित्र सुधारने का प्रयास करता है और न ही उनके जीवनयापन की व्यवस्था करता है। निषेधात्मक होते हुए भी लॉक का राज्य स्वार्थ को परमार्थ में बदलने के लिए सक्षम है। लॉक का राज्य कृत्रिम दण्डों का प्रावधान कर मनुष्यों का अधिकाधिक सुख, सुविधा और प्रसन्नता का उपभोग करने में सहायता करता है। लॉक ने अपने राज्य की स्थापना करके राजनीति विज्ञान की कुछ गम्भीर समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया है; जैसे - राज्य का उद्देश्य क्या है और राज्य का आदेश व्यक्ति क्यों मानता है ? लॉक ने इन समस्याओं का स्पष्ट उत्तर अपने इस सिद्धान्त के माध्यम से दिया है। लॉक राज्य का उद्देश्य जनकल्याण को बताता है। राज्य व्यक्ति के अधिकारों का संरक्षक है, इसिलए व्यक्ति स्वेच्छानुसार राज्य की बात मानते हैं। इस प्रकार लॉक ने सीमित एवं मर्यादित राज्य की स्थापना द्वारा जनकल्याणकारी रूप का वर्णन किया है। अत: लॉक का राज्य उदारवादी, कल्याणकारी, जनसहमति पर आधारित राज्य है। यह सीमित और मर्यादित राज्य है जिसका वैधानिक और संवैधानिक आधार है। अत: लॉक को इस सिद्धान्त की स्थापना से एक उदारवादी चिन्तक के रूप में मान्यता मिली है। लॉक की इस देन को कभी नकारा नहीं जा सकता। आधुनिक चिन्तन में लॉक की उदारवादी विचारधारा का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

सरकार का सिद्धान्त : सीमित सरकार

लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था को मनुष्यों ने समझौते द्वारा समाप्त करके नए समाज की स्थापना की है। इसकी स्थापना का उद्देश्य अपनी कठिनाइयों को दूर करना तथा अपने प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा करना था। जनता ने शासक को सभी अधिकार नहीं सौंपे, केवल वही अधिकार दिए जिससे जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति की रक्षा हो सके। लॉक ने सरकार को सरकार न कह कर ट्रस्ट का नाम दिया जिसे जनता के समान अधिकार प्राप्त नहीं हैं। सरकार के तो जनता के प्रति कर्त्तव्य हैं कि ट्रस्ट के अनुसार काम करे और यदि सरकार ट्रस्ट की मर्यादाओं का अतिक्रमण करती है तो समुदाय को सरकार को भंग करने का अधिकार प्राप्त है। लॉक के राजदर्शन में राज्य एवं सरकार में कोई स्पष्ट अन्तर नहीं किया है। उसके अनुसार सामाजिक समझौते से राज्य का निर्माण होता है न कि सरकार का।

सरकार की स्थापना

लॉक के अनुसार सामाजिक समझौते के माध्यम से नागरिक समुदाय अथवा समाज की स्थापना हो जाने के बाद सरकार की स्थापना किसी समझौते द्वारा नहीं, बल्कि एक विश्वस्त न्यास या ट्रस्टी द्वारा हुई। लॉक का सरकार को समाज के अधीन रखना इस बात पर जोर देना है कि सरकार जनहित के लिए है। अपने कार्य में असफल रहने पर सरकार को बदला जा सकता है। लॉक के अनुसार- “राज्य एक समुदाय है जो लोगों के समझौते द्वारा संगठित किया जाता है। परन्तु सरकार वह है जिसे यह समुदाय अपने कर्त्तव्यों को व्यावहारिक स्वरूप देने के लिए एक न्यास की स्थापना करके स्थापित करता है।” लॉक का मनना है कि समुदाय बिना सम्प्रभु के सहयोग के इस ट्रस्टी की स्थापना करता है। लॉक ने कहा है कि शासन के विघटन होने पर भी राज्य कायम रहता है। लॉक का शासन या सरकार सिर्फ जनता का ट्रस्टी है और वह जनता के प्रति उत्तरदायी होता है। इसकी शक्तियों का स्रोत जनता है, मूल समझौता नहीं।

सरकार के कार्य

सरकार की स्थापना के बाद लॉक सरकार के कार्यों पर चर्चा करता है। लॉक ने सरकार को प्रत्येक व्यक्ति के जीवन, सम्पत्ति तथा स्वतन्त्रता की रक्षा करने का कार्य सौंपा है। लॉक ने कहा है- “मनुष्यों के राज्य में संगठित होने तथा अपने आपको सरकार के अधीन रखने का महान् एवं मुख्य उद्देश्य अपनी-अपनी सम्पत्ति की रक्षा करना है।” लॉक के अनुसार सरकार के तीन कार्य हैं :-
  1. सरकार का प्रथम कार्य व्यवस्थापिका के माध्यम से समस्त विवादों का निर्णय करना, जीवन को व्यवस्थित करना, उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय का मापदण्ड निर्धारित करना है। 
  2. सरकार के कार्यपालिका सम्बन्धी कार्य जैसे युद्ध की घोषणा करना, नागरिकों के हितों की रक्षा करना, शान्ति स्थापित करना तथा अन्य राज्यों से सन्धि करना व न्यायपालिका के निर्णयों को क्रियान्वित करना है।
  3. सरकार का तीसरा प्रमुख कार्य व्यवस्थापिका सम्बन्धी कार्य है। यह कार्य एक ऐसी निष्पक्ष शक्ति की स्थापना से सम्बन्धित है जो कानूनों के अनुसार विवादों का निर्णय कर सके।
लॉक के अनुसार सरकार अपने अधिकारों का प्रयोग स्वेच्छा से नहीं कर सकती। सरकार की शक्तियाँ धरोहर मात्र हैं। वह जनता द्वारा स्थापित न्यास है, जिसे समाज को वापिस लेने का अधिकार है। जब सरकार ईमानदारी से अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह न करे तो उसे बदलने का अधिकार जनता के पास है। लॉक के अनुसार कार्यों के अलग-अलग होने से सरकार के तीन अंग इनका सम्पादन करते हैं।

सरकार के अंग

लॉक ने प्राकृतिक अवस्था की असुविधाओं को दूर करने के लिए सरकार के तीन अंगों को कार्य सौंपकर उनका निराकरण किया। ये तीन अंग हैं:-
  1. विधानपालिका शक्ति : सरकार न्याय तथा अन्याय का मापदण्ड तथा समस्त विवादों का निर्णय करने के लिए एक सामान्य मापदण्ड निर्धारित करती है। विधानपालिका समुदाय की सर्वोच्च शक्ति को धरोहर के रूप में प्रयोग करती है। फिर भी शासन के अन्दर वह सबसे महत्त्वपूर्ण और सर्वोच्च होती है। शासन के स्वरूप का निर्धारण इसी बात से होता है कि विधायिनी शक्ति का प्रयोग कौन करता है। लॉक का मानना है कि यदि वह शक्ति निरंकुश शासक के हाथ में हो तो जनता का जीवन कष्टमय हो जाता है। लॉक ने कहा कि विधानपालिका की शक्ति निरंकुश नहीं है। उसे मर्यादा में रहकर कार्य करना पड़ता है। वह मनमानी नहीं कर सकती। उसकी शक्तियों का प्रयोग केवल जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही हो सकता है। वह केवल समाज हित में कार्य करेगी, किसी व्यक्ति को उसकी सम्पत्ति से वंचित नहीं कर सकती। इसे नागरिकों के प्राकृतिक अधिकारों का सम्मान करना पड़ता है और वह अपनी वैधानिक शक्तियों का प्रयोग दूसरे को नहीं दे सकती। विधानपालिका सर्वसम्मति के सिद्धान्त के अनुसार ही कार्य करती है।
  2. कार्यपालिका शक्ति : यह शासन का दसरा प्रमुख अंग है। लॉक इसे कानून लागू करने के अतिरिक्त न्याय करने का भी अधिकार प्रदान करता है। अतएव कार्यपालिका को न्यायपालिका से अधिक शक्तियाँ प्रदान की हैं। यह एक ऐसी निष्पक्ष शक्ति है जो कानून के अनुसार व्यक्तियों के आपस के झगड़ों का निर्णय करती है। प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक कानून को लागू करते समय यह सम्भावना रहती थी कि मनुष्य अपने स्वार्थ, प्रतिशोध और क्रोध से प्रभावित हो सकता है। उसकी सहानुभूति संसद के साथ होते हुए भी उसने शासक की निरंकुशता पर रोक लगाने के लिए शक्तियों का विभाजन किया। उसने कार्यपालिका को न्याय सम्बन्धी अधिकार इसलिए दिये क्योंकि विधानपालिका तो कुछ समय के लिए सत्र में रहती है जबकि कार्यपालिका की तो सदा जरूरत पड़ सकती है। इसलिए कार्यपालिका को जनकल्याण में कानून की बनाने का अधिकार है। यह उसका विशेषाधिकार है। वस्: लॉक की कार्यपालिका विधानपालिका की उसी प्रकार ट्रस्टी है, जिस प्रकार उसकी विधानपालिका समस्त समुदाय की।
  3. संघपालिका शक्ति: इस अंग का कार्य दूसरे देशों के साथ सन्धियाँ करना है। इसका सम्बन्ध विदेश नीति से है। यह अंग दूसरे लोगों की सुरक्षा और हितों की रक्षा के लिए विदेशों में प्रबन्ध करती है। युद्ध की घोषणा करना, शान्ति स्थापना तथा दूसरे राज्यों से सन्धि करना, इस संघपालिका की शक्ति के अन्तर्गत आते हैं। संघपालिका शक्ति के क्रियान्वयन के लिए शासन के पृथक् अंग की व्यवस्था न कर लॉक इसे कार्यपालिका के अधीन ही रखने का सुझाव देता है। लॉक का मानना है कि विधानपालिका के कानूनों द्वारा संघीय शक्ति का संचालन नहीं हो सकता। इसका संचालन तो प्रखर बुद्धि और गहन विवेक वाले व्यक्तियों पर ही निर्भर करता है।

सरकार के तीन रूप

लॉक के अनुसार सरकार का स्वरूप इस बात पर निर्भर करता है कि बहुमत समुदाय अपनी शक्ति का किस प्रकार प्रयोग करना चाहता है। इस आधार पर सरकार के तीन रूप हो सकते हैं :-
  1. जनतन्त्र : यदि व्यवस्थापिका शक्ति समाज स्वयं अपने हाथों में रखता है तथा उन्हें लागू करने के लिए अधिकारियों की नियुक्ति करता है तो शासन का स्वरूप जनतन्त्रीय है।
  2. अल्पतन्त्र : यदि समाज की व्यवस्थापिका शक्ति बहुमत द्वारा कुछ चुने हुए व्यक्तियों या उनके उत्तराधिकारियों को दी जाती है तो सरकार अल्पतन्त्र सरकार कहलाती है।
  3. राजतन्त्र : यदि व्यवस्थापिका शक्ति केवल एक व्यक्ति को दी जाती है तो शासन का रूप राजतन्त्रात्मक है। 

शक्ति पृथक्करण की व्यवस्था

लॉक ने सरकार के तीन अंगों की स्थापना करके विधायिका तथा कार्यपालिका में स्पष्ट और अनिश्चित पृथक्कता स्वीकार की और कार्यपालिका को विधायिका के अधीनस्थ बनाया। लॉक इन दोनों शक्तियों के एकीकरण पर असहमति जताते हुए कहा- “जिन व्यक्तियों के हाथ में विधि निर्माण की शक्ति होती है, उनमें विधियों को क्रियान्वित करने की शक्ति अपने हाथ में ले लेने की प्रबल इच्छा हो सकती है क्योंकि शक्ति हथियाने का प्रलोभन मनुष्य की एक महान् दुर्बलता है।” लॉक ने कहा कि कार्यपालिका का सत्र हमेशा चलना चाहिए। विधानपालिका के लिए ऐसा आवश्यक नहीं। यद्यपि लॉक शक्तियों का पृथक्करण की बात करता है, परन्तु कार्यपालिका व विधानपालिका के कार्य एक ही अंग को सौंपने को तैयार है। वेपर का मत है- “लॉक ने उस शक्ति पृथक्करण की अवधारणा का प्रतिपादन नहीं किया है जिसे हम आगे चलकर अमेरिकी संविधान में पाते हैं। अमेरिकी संविधान में निहित शक्ति पृथक्करण का तात्पर्य है कि शासन का कोई भी अंग अन्य अंगों से सर्वोच्च नहीं है, जबकि लॉक ने विधायिका की सर्वोच्चता का प्रतिपादन किया था।” अत: लॉक का दर्शन शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त का असली जनक नहीं है। उसके दर्शन में तो बीज मात्र ही है।

सरकार की सीमाएँ

लॉक कानूनी प्रभुसत्ता के सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं करता। वह कानूनी सार्वभौम को लोकप्रिय सार्वभौम को सौंप देता है। वह एक ऐसी सरकार के पक्ष में है जो शक्ति विभाजन के सिद्धान्त पर आधारित है तथा बहुत सी सीमाओं से सीमित है। लॉक की सरकार की प्रमुख सीमाएँ हैं:-
  1. यह सरकार जनहित के विरुद्ध कोई आदेश नहीं दे सकती।
  2. वह व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों का उल्लंघन, उन्हें कम या समाप्त नहीं कर सकती।
  3. वह निरंकुशता के साथ शासन नहीं कर सकती। उसके कार्य कानून के अनुरूप ही होने चाहिएं।
  4. यह प्रजा पर बिना उसकी सहमति के कर नहीं लगा सकती।
  5. इसके कानून प्राकृतिक कानूनों तथा दैवीय कानूनों के अनुसार होने चाहिएं।

आलोचनाएँ

लॉक की सीमित सरकार की प्रमुख आलोचनाएँ हैं :-
  1. सरकार व राज्य में भेद को स्पष्ट नहीं किया। लॉक ने इनके प्रयोग में स्पष्टता नहीं दिखाई। कभी दोनों का समान अर्थ में प्रयोग किया, कभी राज्य को सरकार के अधीन माना है।
  2. लॉक के राज्य का वर्गीकरण अवैज्ञानिक है। उनका वर्गीकरण राज्य का नहीं सरकार का है, क्योंकि उसने विधायनी शक्ति जो सरकार का तत्त्व है, के आधार पर राज्य का वर्गीकरण किया है।
  3. विधायिका शक्ति का समुचित प्रयोग नहीं कर सकती। लॉक के सिद्धान्त में समुदाय की शक्ति ट्रस्ट के रूप में सरकार की विधानपालिका शक्ति के पास आती है, परन्तु उसे अपनी श्रेष्ठता को प्रदर्शित करने का मौका नहीं मिलता। समुदाय की शक्ति तभी सक्रिय होती है जब सरकार का विघटन होता है।
  4. लॉक के पास सरकार हटाने का कोई ऐसा मापदण्ड नहीं है जिसके आधार पर निर्णय किया जा सके कि सरकार ट्रस्ट का पालन कर रही है या नहीं। यह भी प्रश्न है कि यह कौन निर्णय करे कि सरकार ट्रस्ट के विरुद्ध काम कर रही है। इसके बारे लोगों की राय कैसे जानी जाए ?
उपर्युक्त आलोचनाओं के बाद कहा जा सकता है कि लॉक का यह सिद्धान्त एक सैद्धान्तिक संकल्पना मात्र है, व्यावहारिक नहीं। फिर भी आधुनिक शासन प्रणालियों में सरकार के जिन अंगों और कार्यों को मान्यता मिली है। वे लॉक के दर्शन का महत्त्व सिद्ध करते हैं। अत: लॉक का सीमित सरकार का सिद्धान्त आधुनिक युग में महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है।

लॉक क्रान्ति के दार्शनिक के रूप में

लॉक ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘शासन पर द्वितीय निबन्ध’ में क्रान्ति पर अपने विचार प्रकट किए हैं। लॉक सरकार को जनता के अधीन रखता है। लॉक का मानना है कि राज्य का निर्माण सर्वसहमति से जनकल्याण के लिए समुदाय द्वारा एक समझौते के तहत हुआ है। इस प्रक्रिया में नियन्त्रण की शक्ति लोगों के पास ही रहती है। लॉक के अनुसार- “यदि कोई व्यक्ति समाज या व्यक्ति समूह के अधिकारों को नष्ट करने की चेष्टा करता है और योजना बनाता है, यहाँ तक कि यदि इस समाज के विधायक भी इतने मूर्ख या दुष्ट हो जाएँ कि लोगों की स्वतन्त्रताओं और सम्पत्तियों का ही अपहरण करने लगे तो समाज अपने आपको बचाने के लिए सर्वोच्च शक्ति निरन्तर अपने पास रखता है।” लॉक किसी ऐसे सार्वभौम का विचार नहीं करता जिसके कानून बनाने के अधिकार पर कोई प्रश्न न किया जा सके। यदि सरकार अपनी अधिकार सीमा का उल्लंघन करती है तो जनता को उसके विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार है। जनता को यह निर्णय करने का अधिकार है कि सरकार अपने कर्त्तव्य का पालन कर रही है या नहीं। यदि नहीं तो जनता ऐसी अयोग्य तथा दुराचारी सरकारको पदच्युत कर सकती है। एक ऐसा शासक जो निरंकुश है, जनता को युद्ध की ज्वाला में झोंकता है तो जनता को विद्रोह का पूरा अधिकार है। जनता सम्प्रभु को सारे अधिकार उनको सुरक्षा व संरक्षण प्रदान करने के लिए देती है। यदि इन अधिकारों की सुरक्षा में कोई खामी पैदा हो जाए तो जनता को विद्रोह का पूरा अधिकार है। लॉक का कहना है- “सारे अधिकार इस विश्वास से दिए जाते हैं कि एक लक्ष्य प्राप्त होगा। उस लक्ष्य के सीमित होने के कारण, जब कभी भी सरकार द्वारा उनकी उपेक्षा की जाती है तो वह विश्वास निश्चय ही समाप्त हो जाता है।” विधायिका सरकार का सबसे शक्तिशाली अंग होता है। उसे केवल जनता के अधिकारों , जो जनता ने उसे दिए हैं, से ही सन्तुष्ट होना पड़ता है। यदि विधायिका उन अधिकारों का अतिक्रमण करे तो विरोध अनिवार्य है। लॉक की प्रभुसत्ता जनता में निहित है। अत: जनता को अन्याय का विरोध करने का पूरा अधिकार प्राप्त है।

लॉक का प्रमुख उद्देश्य निरंकुश शासन के विरुद्ध संवैधानिक अथवा सीमित सरकार का समर्थन करना है। सरकार की शक्तियाँ धरोहर मात्र हैं। सरकार सर्वोच्च होते हुए भी मनमानी नहीं कर सकती। उसके अधिकार क्षेत्र सीमित हैं। लॉक के अनुसार- “जब भी जनता यह महसूस करे कि व्यवस्थापिका उसे सौंपे गए ट्रस्ट के विरुद्ध जा रही है तो उसे हटा देने अथवा परिवर्तन करने की सर्वोच्च शक्ति जनता में अब भी रहती है।” भ्रष्ट शासकों को पदच्युत करने के लिए लॉक संवैधानिक उपायों का सुझाव देता है। परन्तु यदि भ्रष्ट या दुष्ट शासक लोगों के विरोध का हिंसक दमन करता है तो जनता को वह असंवैधानिक उपायों के प्रयोग की सलाह देता है। लॉक ने कहा है कि “यदि यह स्पष्ट हो जाए कि राजनीतिक सत्ता अन्याय के मार्ग पर चल रही है, सरकार प्राकृतिक नियमों की अवहेलना कर रही है, लोगों के प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा करने में असमर्थ है, मनमानी कर रही है, तो इन परिस्थितियों में जनता को क्रान्ति का अधिकार है।” सरकार के भंग होने के बारे में लॉक कहता है कि “सरकार तब भंग हो जाती है जब कानून निर्माण की शक्ति उस संस्था से हट जाती है जिसको जनता ने यह दी थी या तब जबकि कार्यपालिका या व्यवस्थापिका उसका प्रयोग ट्रस्ट की शर्तों के विपरीत करते हैं।”

शासन या सरकार के विरुद्ध विद्रोह के कारण

लॉक ने सर्वप्रथम उन परिस्थितियों का उल्लेख किया है जब जनता विद्रोह करना अपना पवित्र कर्त्तव्य समझती है। लॉक की मान्यता है कि विद्रोह का अधिकार जनता के पास न होकर शासक के उत्तरदायित्व पर निर्भर है। कार्यपालिका जब अपने विशेषाधिकार का दुरुपयोग कर नियत समय पर विधानपालिका का सत्र नहीं बुलाती है एवं बिना विधानपालिका की अनुमति से स्वेच्छापूर्वक शासन करती है, तब कानून निर्माण की शक्ति विधानपालिका के हाथों से कार्यपालिका के पास चली जाती है। उस अवस्था में जनता को विद्रोह का अधिकार है। लॉक निम्नलिखित परिस्थितियों में जनता को विरोध का अधिकार देता है :
  1. यदि शासन जनता की सहमति पर आधारित न हो।
  2. यदि वह जनता का विश्वास खो दे।
  3. यदि वह ट्रस्ट विरोधी आचरण करे।
  4. यदि वह जनता के जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के अधिकारों का अतिक्रमण करे। 5ण् यदि वह अनिपुण, स्वेच्छाचारी और निरंकुश हो।
  5. यदि वह जनता की सहमति के बिना चुनाव सम्बन्धी कानूनों में परिवर्तन करे।
  6. यदि वह देश के नागरिकों को विदेशी शासकों का गुलाम बनाने का प्रयास करे तो उसके विरुद्ध विद्रोह करना जनता का अधिकार ही नहीं, एक पवित्र कर्त्तव्य भी है। इसका अर्थ यह है कि ईश्वर ने मनुष्य को विद्रोह का अधिकार दिया है जिससे वे अन्याय, अनीति और अत्याचार से अपनी रक्षा कर सकें, क्योंकि अत्याचार तो स्वर्ग के देवता भी सहन नहीं करते। इसलिए लॉक ने कहा है- “प्राधिकरण के बिना शक्ति का वास्तविक उपचार शक्ति द्वारा इसका विरोध करना ही है।” लॉक ने यह भी स्पष्ट किया है कि विद्रोह द्वारा शासन का अन्त होता है, समाज का नहीं। विद्रोह का अधिकार किसे ?
विद्रोह के अधिकार के बारे में एक प्रश्न उभरता है कि विद्रोह का अधिकार किसे है ? जनता को, बहुमत को, अल्पमत को या एक व्यक्ति को। लॉस्की व सेबाइन जैसे विचारकों का मत है कि लॉक विद्रोह का अधिकार जनता या बहुसंख्यक को देता है। लॉक ने स्वयं कहा है कि “अल्पसंख्यकों द्वारा विद्रोह करना व्यर्थ है।” परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि अल्पसंख्यकों या एक व्यक्ति को विद्रोह नहीं करना चाहिए। यदि शासक के अत्याचारों से जनता उत्पीड़ित न हो तो इसके लिए बहुसंख्यक की प्रतीक्षा करना जरूरी नहीं है। बहुसंख्यक के सहयोग बिना क्रान्ति सफल नहीं हो सकती। लॉक ने अपने ग्रन्थ के 14 वें अध्याय में लिखा है कि “एक व्यक्ति को भी विद्रोह का अधिकार है यदि उसे अधिकार से वंचित किया जाता है।” विद्रोह करना कानूनी अधिकार नहीं है। विद्रोह का अर्थ अन्धकार में छलांग मारना है। प्राय: सभी क्रान्तियों में विद्रोह की आग गणमान्य या कुछ ही लोगों द्वारा सुलगाई जाती है और बाद में अन्य लोग भी उसमें शामिल हो जाते हैं। अत: लॉक कहता है कि “विद्रोह का अधिकार एक व्यक्ति को भी है। शर्त सिर्फ यह है कि उसे अधिकार का प्रयोग विवेकपूर्ण ढंग से सार्वजनिक हित में अन्य व्यक्तियों के मतों का समुचित आदर करते हुए करना चाहिए।

लॉक एक गम्भीर विचारक था। उसने जनता में निहित क्रान्ति के अधिकार का प्रयोग विशेष परिस्थितियों में ही करने का सुझाव दिया। तुच्छ व क्षणिक कार्यों से क्रान्ति नहीं करनी चाहिए। क्रान्ति तभी करनी चाहिए जब शासक जतना के हितों की रक्षा करने में सक्षम हो। क्रान्ति को सफल बनाने के लिए इसमें बहुमत का भाग लेना आवश्यक है। क्रान्ति की आग चाहे एक व्यक्ति के द्वारा भड़काई जाए या अल्पमत द्वारा जब तक बहुमत उसमें शामिल न हो तब तक सम्पूर्ण समाज-हित की भावना प्रकट नहीं होती।

आलोचनाएँ

लॉक के क्रान्ति के सिद्धान्त की इन आधारों पर आलोचना हुई है :-
  1. तर्कहीन व अव्यावहारिक : लॉक का यह सिद्धान्त तर्कहीनता के दोष से ग्रस्त है। लॉक का क्रान्ति का सिद्धान्त अव्यावहारिक है। आधुनिक समय में कोई भी राज्य अपने नागरिकों को क्रान्ति का अधिकार नहीं दे सकता। यदि इसे व्यावहारिक रूप दिया जाए तो समाज में अराजकता फैल जाएगी। इसलिए इन्हें नैतिक व वैध आधार प्रदान नहीं किया जा सकता।
  2. हिंसा का समर्थक : लॉक का यह सिद्धान्त समाज में हिंसा फैलाने का पक्षपाती है। आज प्रत्येक राज्य शान्ति कायम करने के विपरीत उपाय करता है। शान्ति भंग करने वालों से निपटने के लिए कठोर दण्डात्मक उपाय भी करता है। आधुनिक राज्यों में हिंसा का समर्थन करना अशान्ति को बढ़ाता है।
  3. क्रान्ति का बहुमत द्वारा समर्थित होने पर ही वैधता प्राप्त होती है। अत: यह सिद्धान्त पक्षपातपूर्ण रवैया रखता है। इसमें अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों के कारण क्रान्ति करने पर बहुमत का समर्थन मिलने पर ही विद्रोह किया जा सकता है। अत: यह सिद्धान्त बहुमत का अल्पमत पर अन्याय का दोषी है।
  4. लॉक ने क्रान्ति की प्रक्रिया को स्पष्ट नहीं किया है। उसने केवल यह बताया कि यदि शासक अन्यायी हो जाए तो जनता का विद्रोह का अधिकार है। उसने यह स्पष्ट नहीं किया कि लोग यह कार्यवाही किस प्रकार करते हैं। 
  5. सेबाइन के अनुसार- “लॉक ने विद्रोह विषयक अपने सभी तर्कों में विधिसंगत शब्द का प्रयोग करके पूर्ण और शायद अनावश्यक भ्रम उत्पन्न कर दिया है।” स्वयं लॉक द्वारा क्रान्ति का समर्थन इस बात को स्पष्ट कर देता है कि विधिसंगत कार्य सदा न्यायपूर्ण और नैतिक नहीं हो सकता।
  6. रसेल के अनुसार - “लॉक ने कहा है कि अन्यायी शासन के विरुद्ध विद्रोह अवश्य करना चाहिए। परन्तु व्यवहार में यह तभी सार्थक होता है जब किसी संस्था को यह निर्णय करने का अधिकार हो कि शासन कब अन्यायी या अवैध है। लॉक ने इसकी व्यवस्था नहीं की है। लॉक इस बात को भूल जाता है कि मनुष्य कितना भी ईमानदार हो, पूर्णत: निष्पक्ष नहीं हो सकता।”
उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद यह कहा जा सकता है कि लॉक का क्रान्ति का सिद्धान्त राजनीति दर्शन के इतिहास में उसकी अमूल्य देन है। अमेरिका के स्वतन्त्रता संग्राम एवं फ्रांस की क्रान्ति पर लॉक का महान् प्रभाव पड़ा। लॉक ने 1688 की गौरवपूर्ण क्रान्ति का उदाहरण देते हुए, क्रान्ति के औचित्य को ठीक ठहराने का पूरा प्रयास इस सिद्धान्त द्वारा किया है। लॉक ने अपनी पुस्तक ‘नागरिक शासन’ जो 1690 में प्रकाशित की, उसकी भूमिका में उसने लिखा है- “इसमें हमारा उद्देश्य वर्तमान राजा विलियम के सिंहासन पर बैठने की घटना को सुप्रतिष्ठित बनाना है।” लॉक एक प्रगतिशील विचारक थे। उनका प्रमुख ध्येय इस सिद्धान्त की स्थापना करके रक्तहीन क्रान्ति ;ठसववकसमे त्मअवसनजपवदद्ध का औचित्य ही सिद्ध करना था। उसके इस सिद्धान्त का जैफरसन पर काफी प्रभाव पड़ा। अत: इसके संदर्भ में कहा जा सकता है कि लॉक के विद्रोह विषयक विचार आधुनिक युग में भी महत्त्वपूर्ण, उपयोगी एवं स्मरणीय हैं। इसलिए लॉक का यह सिद्धान्त राजनीति दर्शन के इतिहास में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं अमूल्य देन है।

लॉक एक व्यक्तिवादी के रूप में

राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में लॉक का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। लॉक का मानना है कि पृथ्वी और उस पर विद्यमान सभी संस्थाएँ व्यक्ति के लिए ही हैं, व्यक्ति उनके लिए नहीं है। लॉक के दर्शन का आधार यह है कि व्यक्ति के कुछ मूल तथा अपरिवर्तनीय अधिकार होते हैं, जो स्वाधीनता, जीवन तथा सम्पत्ति के अधिकार हैं, जिन्हें उनसे छीना जा सकता है। लॉक को उपर्युक्त व्यवस्था के कारण ही उसे व्यक्तिवाद का अग्रदूत कहा जाता है। जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के इन अधिकारों की सुरक्षा के लिए राज्य को संरक्षक बना सकता है। लॉक एक स्पष्टवादी विचारक है। वह अपने व्यक्ति को समाज तथा राज्य दोनों से पहले रखता है। लॉक के लिए यदि कोई सार्वभौम है तो वह राज्य न होकर व्यक्ति ही है। राज्य एक साधन है तथा व्यक्ति उसका लक्ष्य है। राज्य एक सुविधा है तथा सर्वशक्तिमान व्यक्तियों का सेवक है। यह व्यक्तियों के अधीन उनका एक एजेण्ट अथवा प्रतिनिधि है।

लॉक का सम्पूर्ण दर्शन व्यक्ति के इर्द-गिर्द ही घूमता है। हर कार्य इस प्रकार से होता है कि व्यक्ति की सार्वभौमिकता कायम रहती है। लॉक का मानना है कि व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करना राज्य का कर्त्तव्य है और राज्य को व्यक्ति की सहमति के बिना कोई कार्य करने की अनुमति नहीं देता है। लॉक के अनुसार व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध राज्य का सदस्य बनने के लिए बाध्य नहीं जा सकता। राज्य के दुव्र्यवहार अथवा अधिकार का दरुपयोग करने पर व्यक्ति को उसका विरोध करने का अधिकार है। व्यक्ति राज्य से पहले है। एक व्यक्तिवादी के रूप में लॉक का दावा निम्न बातों पर निर्भर करता है।
  1. व्यक्ति के जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकार प्राकृतिक उसके जन्मजात तथा प्राकृतिक अधिकार है। प्राकृतिक कानून विवेक पर आधारित होने के कारण यह सभी व्यक्तियों को समान मानता है। ये अधिकार व्यक्ति के निजी अधिकार हैं। इनके स्वाभाविक व जन्मसिद्ध होने के कारण राज्य कभी भी इनसे विमुक्त नहीं हो सकता।
  2. राज्य का उद्देश्य व्यक्ति के अधिकारों का संरक्षण है। लॉक के अनुसार राज्य का उद्देश्य जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा करता है। इसी से राज्य का औचित्य सिद्ध हो सकता है। लॉक ने कह कि यदि इन अधिकारों की रक्षा होती तो राज्य का अस्तित्व कायम रह सकता है। राज्य का जन्म इन अधिकारों को सुरक्षित बनाने के लिए ही होता है।
  3. व्यक्तियों की सहमति ही राज्य का आधार है। यह सहमति मौन भी हो सकती है। लॉक का सहमति सिद्धान्त उनके व्यक्तिवाद पर ही आधारित है। लॉक ने कहा है कि व्यक्तियों का आपसी सहमति तथा इच्छा ने ही राज्य की संरचना की है और किसी को राज्य की सदस्यता स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। लॉक ने भावी पीढ़ियों को राज्य की सदस्यता स्वीकार करने या न करने की छूट दी है जो उसके व्यक्तिवाद का परिचायक है। प्राकृतिक अवस्था के लोगों को समझौते में शामिल होकर नहीं होते, वे प्राकृतिक अवस्था में ही बने रहते हैं। इस प्रकार इसकी सदस्यता के सम्बन्ध में लॉक ने प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा का आदर किया है।
  4. लॉक ने व्यक्ति को राज्य का विरोध करने का अधिकार दिया है। लॉक के अनुसार- “समुदाय की सर्वोच्च शक्ति अन्तिम रूप से समाज में ही निहित होती है जिससे आवश्यकता पड़ने पर समाज उसका प्रयोग कर भ्रष्ट शासकों को अपदस्थ कर नये शासकों का चुनाव कर सकता है। लॉक के अनुसार राज्य का निर्माण जनकल्याण के लिए किया गया है। राज्य एक ट्रस्ट के समान है। वह जनता की सहमति पर आधारित तथा वैधानिक होता है। अत: यदि वह निर्धारित उद्देश्यों को पूरा करने में असफल रहता है तो उस स्थिति में जनता को उसके विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार है। 
  5. लॉक का व्यक्तिवाद उसके नकारात्मक राज्य की अवधारणा द्वारा प्रमाणित होता है। राज्य के कार्य नकारात्मक कर्त्तव्यों तक ही सीमित हैं। राज्य केवल तभी हस्तक्षेप करता है, जब व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन होता है। नैतिकता, बुद्धि तथा शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्ति को अकेला छोड़ दिया जाता है। राज्य का उद्देश्य केवल जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकार की रक्षा करने तक ही सीमित है। बाकी सारे अधिकार व्यक्ति की अपनी इच्छानुसार संरक्षित होते हैं। इसलिए नकारात्मक राज्य का सिद्धान्त लॉक को सर्वश्रेष्ठ व्यक्तिवादी सिद्ध करता है।
  6. लॉक ने धार्मिक सहिष्णुता का विचार देकर व्यक्तिवादी होने का परिचय दिया है। लॉक ने कहा है कि सभी धर्मों और सम्प्रदायों को अपने विकास का अवसर दिया जाना चाहिए, बशर्ते उससे राज्य में अव्यवस्था न फैलती हो। लॉक धर्म को एक व्यक्तिगत चीज मानता है। इसलिए राज्य को व्यक्तियों के धर्म और विश्वास में किसी तरह से हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। इस प्रकार लॉक प्रत्येक व्यक्ति को अपने अन्त:करण के अनुसार धार्मिक पूजा और उपासना की स्वतन्त्रता प्रदान करता है।
  7. लॉक के चिन्तन में उपयोगितावाद स्पष्ट दिखाई देता है। वह मानता है कि प्राकृतिक अवस्था के दु:खों को दूर करने के लिए तथा सुखों की प्राप्ति के लिए ही राजनीतिक समाज की स्थापना होती है और इनकी उपयोिता इसी में निहित है कि वह व्यक्तियों को अधिक सुख पहुँचाये। इस प्रकार लॉक व्यक्ति के सुख को प्राथमिकता देता है। 
  8. व्यक्तिगत सम्पत्ति के कट्टर समर्थक लॉक ने कहा कि श्रम द्वारा अर्जित या जहाँ व्यक्ति अपना श्रम लगाता है वह वस्तु उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति हो जाती है और राज्य व्यक्ति की अनुमति के बिना उससे उसका एक भी हिस्सा नहीं ले सकता। लॉक का कहना है कि व्यक्ति उन वस्तुओं का मालिक बन जाता है जिनमें वह अपना शारीरिक श्रम मिला देता है। यह व्यक्ति या वैयक्तिकता का महत्त्व स्पष्ट करता है। अत: लॉक का श्रम सिद्धान्त उसके व्यक्तिवाद की ही पहचान है।
  9. लॉक का क्रान्ति का सिद्धान्त बिना किसी सन्देह के लॉक के व्यक्तिवादी होने का प्रबल पक्षधर है। लॉक का कहना है कि राज्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करता है तो शासन करने का अधिकार समाप्त हो जाता है। व्यक्ति को उसका तख्ता पलटने का पूरा अधिकार प्राप्त हो जाता है। लॉक ने व्यक्ति को राज्य की तुलना में प्राथमिकता देकर व्यक्तिवादी होने का ही परिचय दिया है।
  10. लॉक के राजनीतिक दर्शन में व्यक्ति ही राज्य से श्रेष्ठतर स्थान पर लेता है। राज्य का औचित्य केवल इस बात में है कि वह व्यक्तियों द्वारा सौंपे गए अधिकारों को प्राकृतिक नियमानुकूल प्रयोग करे तथा न सौंपे गए अधिकारों की रक्षा करे।
  11. लॉक का मानना है कि शासक समाज के प्रतिनिधि हैं। वे उतने ही अधिकार रखते हैं जो व्यक्तियों द्वारा दिये जाते हैं। इस प्रकार लॉक ने व्यक्तिवाद की आधारशिला को मजबूत बनाया है। डनिंग ने स्वीकार किया है कि व्यक्तिवाद की आधारशिला मनुष्य को प्राकृतिक अधिकारों तथा चिन्तन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाती है। लॉक ने व्यक्ति को ही अपनी सम्पूर्ण व्यवस्था का केन्द्रबिन्दु बनाया है। बार्कर के शब्दों में “लॉक में व्यक्ति की आत्मा की सर्वोच्च गरिमा स्वीकार करने वाली तथा सुधार चाहने वाली महान् भावना थी।” मैक्सी के अनुसार- “लॉक ने व्यक्तिवाद को अजेय राजनीतिक तथ्य बनाया है।” लॉक का व्यक्तिवाद उदारवाद तथा उपयोगितावाद का जन्मदाता माना जा सकता है।

आलोचनाएँ

लॉक का व्यक्तिवाद कुछ आलोचनाओं का शिकार हुआ है। (i) लॉक व्यक्ति को सम्पूर्ण प्रभुसत्तासम्पन्न मानता है। यदि वह सम्पूर्ण प्रभुसत्ता सम्पन्न है तो उसे अपने स्वयं के निर्णय का परित्याग करने के लिए बाध्य किया जा सकता है, क्योंकि बहुमत उसके साथ नहीं है। (ii) लॉक ने अत्याचारी शासन के विरुद्ध व्यक्तियों को विद्रोह का अधिकार दिया है, वह भी बहुसंख्यकों को दिया है, अल्पसंख्यक वर्ग को नहीं। परन्तु इन आलोचनाओं के बावजूद भी लॉक व्यक्तिवाद का अग्रदूत कहलाता है। प्रो0 वाहन के अनुसार- “लॉक की व्यवस्था में हर वस्तु व्यक्ति के चारों ओर चक्कर काटती हुई दिखाई देती है। प्रत्येक वस्तु को इस प्राकर से व्यवस्थित किया गया है कि व्यक्ति की सर्वोच्च सत्ता सब प्रकार से सुरक्षित रह सके। इसलिए कहा जा सकता है कि लॉक उदारवाद व उपयोगितावाद को आधार प्रदान करता है और उसकी राजनीतिक चिन्तन में व्यक्तिवाद के रूप में अमूल्य देन है।

लॉक का महत्त्व और देन

किसी भी राजनीतिक विचारक के सिद्धान्तों के आधार पर ही उसके महत्त्व को स्वीकार किया जाता है। लॉक के दर्शन का अवलोकन करने से उसके दर्शन में अनेक कमियाँ नज़र आती हैं। लॉक का दर्शन मौलिक भी नहीं था। उसके सिद्धान्तों में तर्कहीनता तथा विरोधाभास पाए जाते हैं। लॉक हाब्स की तरह ज्यादा बुद्धिमत्ता का परिचय नहीं देते हैं। उकना चिन्तन विभिन्न स्रोतों से एकत्रित विचारों का पुंज माना जा सकता है। इसलिए उसे विचारों को एकत्रित करके क्रमबद्ध करने के लिए महान् माना जाता है। लॉक के दर्शन का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण सामान्य बोध है। लॉक ने सरल व हृदयग्राही भाषा में जनता के सामने अपने विचार प्रस् किये। उसके महत्त्व को सेबाइन ने समझाते हुए कहा है- “चूँकि उसमें अतीत के विभिन्न तत्त्व सम्मिलित थे, इसलिए उत्तरवर्ती शताब्दी में उनके राजनीतिक दर्शन से विविध सिद्धान्तों का आविर्भाव हुआ।” लॉक बाद में महान् और शक्तिशाली अमरीका तथा फ्रांससी क्रान्तियों के महान् प्रेरणा-स्रोत बन गए। लॉक का महत्त्व उनकी महत्त्वपूर्ण दोनों के आधार पर स्पष्ट हो जाता है।

लॉक की देन

लॉक की राजनीतिक चिन्तन में महत्त्वपूर्ण देन है :-
  1. प्राकृतिक अधिकारों  का सिद्धान्त : लॉक की यह धारणा कि मनुष्य जन्म से ही प्राकृतिक अधिकारों से सुशोभित है, उसकी राजनीतिक सिद्धान्त की सबसे बड़ी देन है। उसने जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकारों को मनुष्यों का विशेषाधिकार मानते हुए, उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी शासन पर छोड़ी है। किसी भी शासक को उनका उल्लंघन करने का अधिकार नहीं है। व्यक्ति का सुख तथा उसकी सुरक्षा शासक के प्रमुख कर्त्तव्य हैं। इनके आधार पर ही राज्य को साधन तथा व्यक्ति को साध्य माना गया है। यदि राज्य व्यक्ति का साध्य बनने में असफल रहता है तो जनता को विद्रोह करने का पूरा अधिकार है। प्रो0 डनिंग के अनुसार- “लॉक के समान अधिकार उसके राजनीतिक संस्थाओं की समीक्षा में इस प्रकार ओत-प्रोत हैं कि वे वास्तविक राजनीतिक समाज के असितत्व के लिए ही अपरिहार्य दिखलाई पड़ते हैं।” लॉक की प्राकृतिक अधिकारों की धारणा का आगे चलकर जैफरसन जैसे विचारकों पर भी प्रभाव पड़ा। आधुनिक देशों में मौलिक अधिकारों के प्रावधान लॉक की धारणा पर ही आधारित है।
  2. जनतन्त्रीय शासन : लॉक के दर्शन की यह सबसे महत्त्वपूर्ण देन है। जन-इच्छा पर आधारित सरकार तथा बहुमत द्वारा शासन की उसकी धारणा। लॉक के संवैधानिक शासन सम्बन्धी विचार ने 18 वीं शताब्दी के मस्तिष्क को बहुत प्रभावित किया। मैक्सी के अनुसार- “निर्माण करने वाला हाथ, कहीं वाल्पील का, कहीं जैफरसन का और कहीं गम्बेटा का अथवा कहीं केवूर का था, किन्तु प्रेरणा निश्चित रूप से लॉक की थी।” उसने जनसहमति पर आधारित शासन का प्रबल समर्थन किया। आधुनिक राज्यों में संविधानवाद की धारणा उसके दर्शनपर ही आधारित है।
  3. उदारवाद का जनक : लॉक की दार्शनिक और राजनीतिक मान्यताएँ उनके उदारवादी दृष्टिकोण का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। लॉक ने दावा किया कि राज्य का उद्देश्य नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा करना है। वेपर के शब्दों में- “उन्होंने उदारवाद की अनिवार्य विषय वस्तु का प्रतिपादन किया था अर्थात् जनता ही सारी राजनीतिक सत्ता का स्रोत है, जनता की स्वतन्त्र सहमति के बिना सरकार का अस्तित्व न्यायसंगत नहीं, सरकार की सभी कार्यवाहियों का नागरिकों के एक सक्रिय संगठन द्वारा आंका जाना आवश्यक होगा। यदि राज्य अपने उचित अधिकार का अतिक्रमण करे तो उसका विरोध किया जाना चाहिए। लॉक का सीमित राज्य व सीमित सरकार का सिद्धान्त उदारवाद का आधार-स्तम्भ है।
  4. व्यक्तिवाद का सिद्धान्त : लॉक की सबसे महत्त्वपूर्ण देन उसकी व्यक्तिवादी विचारधारा है। लॉक के दर्शन का केन्द्र व्यक्ति और उसके अधिकार हैं। वाहन के शब्दो में- “लॉक की प्रणाली में प्रत्येक चीज का आधार व्यक्ति है, प्रत्येक व्यवस्था का उद्देश्य व्यक्ति की सम्प्रभुता को अक्षुण्ण रखना है।” लॉक ने प्राकृतिक अधिकारों को गौरवान्वित कर, व्यक्ति की आत्मा की सर्वोच्च गरिमा को स्वीकार कर, सार्वजनिक हितों पर व्यक्तिगत हितों को महत्त्व देकर उसने व्यक्तिवाद की पृष्ठभूमि को महबूत बनाया है। लॉक ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर बल दिया तथा व्यक्ति को साध्य तथा राज्य को साधन माना है। उसके बुनियादी विचारों पर व्यक्तिवाद आधारित है।
  5. शक्ति-पृथक्करण का सिद्धान्त : लाकॅ की महत्त्वपण्ू ार् दने उसका शक्ति-पृथक्करण का सिद्धान्त है। इसका मान्टेस्क्यू पर गहरा प्रभाव पड़ा है। ग्रान्सियान्स्की के अनुसार- “मान्टेस्क्यू का सत्ताओं के पृथक्करण का सिद्धान्त लॉक की संकल्पना का ही आगे गहन विकास था।” लॉक का यह मानना था कि शासन की समस्त शक्तियों का केन्द्रीयकरण, स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए सही नहीं है। व्यक्ति की स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने के साधन के रूप में इस सिद्धान्त का प्रयोग करने वाला लॉक शायद पहला आधुनिक विचारक था। लॉक सरकारी सत्ता को विधायी, कार्यकारी तथा संघपालिका अंगों में विभाजित करता है ताकि शक्ति का केन्द्रीयकरण न हो। लास्की के अनुसार- “मान्टेस्क्यू द्वारा लॉक को अर्पित की गई श्रद्धांजलि अभी अशेष है।”
  6. कानून का शासन : लॉक की राजनीतिक शक्ति की परिभाषा का महत्त्वपूर्ण तत्त्व यह है कि इसे कानून बनानेका अधिकार है। लॉक कानून के शासन को प्रमुखता देता है तथा कानून के शासन का उल्लंघन करने वाले शासक को अत्याचारी मानता है। लॉक के शब्दों में “नागरिक समाज में रहने वाले एक भी व्यक्ति को समाज के कानूनों का अपवाद करने का अधिकार नहीं है।” वह निर्धारित कानूनों द्वारा स्थापित शासन को उचित मानता है। आधुनिक राज्य कानून का पूरा सम्मान करते हैं।
  7. क्रान्ति का सिद्धान्त : लॉक का मानना है कि यदि शासक अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करने में असफल हो जाए या अत्याचारी हो जाए तो जनता को शासन के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार है। लॉक के इस सिद्धान्त का अमेरिका तथा फ्रांस की क्रान्तियों पर गहरा प्रभाव पड़ा। लॉक का कहना है कि सरकार जनता की ट्रस्टी है। यदि वह ट्रस्ट का उल्लंघन करे तो उसे हटाना ही उचित है। लॉक के इसी कथन ने 1688 की गौरवमयी क्रान्ति का औचित्य सिद्ध किया है और अमेरिका व फ्रांस में भी परोक्ष रूप से क्रान्तियों के सूत्रधारों को इस कथन ने प्रभावित किया।
  8. धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा : लॉक व्यक्ति को उसके अन्त:करण के अनुसार उपासना की स्वतन्त्रता देता है। लॉस्की के अनुसार- “लॉक वास्तव में उन अंग्रेजी विचारकों में प्रथम था जिनके चिन्तन का आधार मुख्यत: धर्मनिरपेक्ष है।” लॉक के राज्य में पूर्ण सहिष्णुता थी। लॉक का मानना है कि राज्य व चर्च अलग-अलग हैं। राज्य आत्मा व चर्च के क्षेत्रधिकार से परे है। राज्य को धार्मिक मामलों में तटस्थ होना चाहिए। यदि कोई धार्मिक उन्माद उत्पन्न हो तो राज्य को शान्ति का प्रयास करना चाहिए। इसलिए लॉक ने धर्मनिरपेक्षता का समर्थन किया। उसके सिद्धान्त में चर्च को एक स्वैच्छिक समाज में पहली बार परिवर्तित किया गया।
  9. उपयोगितावादी तत्त्व : लॉक का सिद्धान्त उपयोगितावादी तत्त्वों के कारण उपयोगितावादी विचारक बेन्थम को भी प्रभावित करता है। लॉक ने कहा, “वह कार्य जो सार्वजनिक कल्याण के लिए है वह ईश्वर की इच्छा के अनुसार है।” लॉक ने राज्य का उद्देश्य व्यक्ति के अधिकतम सुखों की सुरक्षा बताया। लॉक राज्य को व्यक्ति की सुविधाओं का यन्त्र मात्र मानते हैं। अत: बेन्थम लॉक के बड़े ऋणी हैं।
  10. आधुनिक राज्य की अवधारणा : लॉक की धारणाएँ समाज की प्रभुसत्ता, बहुमत द्वारा निर्णय, सीमित संवैधानिक सरकार का आदर्श तथा सहमति की सरकार आदि आदर्श आधुनिक राज्यों में प्रचलित हैं। आधुनिक राज्य लॉक की इन धारणाओं के किसी न किसी रूप में अवश्य प्रभावित है। आधुनिक विचारक किसी न किसी रूप में लॉक के प्रत्यक्ष ज्ञान का ऋणी है।
  11. रूसो पर प्रभाव : लॉक के समाज को सामान्य इच्छा के सिद्धान्त पर लॉक का स्पष्ट प्रभाव है। लॉक के अनुसार सर्वोच्च सत्ता समाज में ही निवास करती है। रूसो की सामान्य इच्छा लॉक के समुदाय की सर्वोच्चता के सिद्धान्त पर आधारित है।
यद्यपि लॉक के विचारों में विरोधाभास एवं अस्पष्टता पाई जाती है, किन्तु राजनीतिक सिद्धान्त पर लॉक का अमिट प्रभाव पड़ा है। उसके जीवनकाल में उसकी धारणाओं का बहुत सम्मान था। भावी पीढ़ियों को भी लॉक ने प्रभावित किया। लॉक की विचारधारा ने उसे मध्यवर्गीय क्रान्ति का सच्चा प्रवक्ता बना दिया था। लॉक की राजनीतिक चिन्तन की मुख्य देन व्यक्तिवाद, लोकप्रभुता, उदारवाद, संविधानवाद और नागरिकों के मौलिक अधिकार हैं। लॉक की महत्ता का मापदण्ड उनके राजनीतिक विचारों द्वारा परवर्ती राजनीतिक चिन्तन को प्रभावित करता है। अत: हम कह सकते हैं कि लॉक का राजनीतिक चिन्तन को योगदान अमूल्य व अमर है।

Post a Comment

Previous Post Next Post