मानव अधिवास का अर्थ, परिभाषा एवं प्रकार

यदि परिभाषित करें तो अधिवास मानवीय बसाहट का एक स्वरूप है जो एक मकान से लेकर नगर तक हो सकता है। अधिवास से एक और पर्याय का बोध होता है-क्योंकि अधिवास में बसाहट एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत पूर्व में वीरान पड़े हुए क्षेत्र में मकान बना कर लोगों की बसाहट शुरू हो जाना आता है। भूगोल में यह प्रक्रिया अधिग्रहण भी कही जाती है।

इसलिए हम कह सकते हैं कि अधिवास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यक्तियों के समूह का निर्माण तथा किसी क्षेत्र का चयन मकान बनाने के साथ उनकी आर्थिक सहायता के लिए किया जाता है। अधिवास मुख्य रूप से दो प्रकारों में विभक्त किये जा सकते हैं- ग्रामीण अधिवास और नगरीय अधिवास। इसके पहले कि भारत में ग्रामीण एवं नगरीय अधिवास के अर्थ एवं प्रकार पर चर्चा करें हमें आमतौर पर ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों के बीच के कुछ मौलिक अंतर को समझ लेना चाहिए।

(i) ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों के बीच सबसे बड़ा अन्तर दोनो के बीच क्रियात्मक गति विधियों से है। ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ लोगों के कार्यकलापों में प्राथमिक क्रियाएँ प्रमुख होती हैं वहीं नगरीय क्षेत्रो में द्वितीयक एवं तृतीयक क्रियाएँ प्रमुख हैं। (ii) ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा कम होता है।

मानव अधिवासों के प्रकार

ग्रामीण अधिवास

जहाँ तक ग्रामीण अधिवासों के प्रकार का संबंध है, यह आवासों के वितरण के अंश को दर्शाता है। ग्रामीण अधिवासों के प्रकार भूगोलवेत्ताओं ने अधिवासों को वर्गीकृत करने के लिए अनेकों युक्तियाँ सुझाई हैं। यदि देश में विद्यमान सभी प्रकार के अधिवासों को वर्गीकृत करना चाहें तो इन्हें चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है- (i) सघन/संहत केन्द्रित अधिवास (ii) अर्धसघन/अर्धसंहत/विखंडित अधिवास (iii) पल्ली-पुरवा अधिवास (iv) प्रकीर्ण या परिक्षिप्त अधिवास आइए इन प्रकारों का इनसे जुड़े प्रमुख प्रतिरूपों के साथ अध्ययन करें:

सघन अधिवास 

जैसे कि नाम से ही स्पष्ट है कि इन अधिवासों में मकान पास-पास सट कर बने होते हैं। इसलिए ऐसे अधिवासों में सारे आवास किसी एक केन्द्रीय स्थल पर संकेन्द्रित हो जाते हैं और आवासीय क्षेत्र खेतों व चारागाहों से अलग होते हैं। हमारे देश के अधिकांश आवास इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। ऐसे अधिवास देश के प्रत्येक भाग में मिलते हैं। इन अधिवासों का वितरण समस्त उत्तरी गंगा-सिंध मैदान (उत्तर-पश्चिम में पंजाब से लेकर पूर्व में पश्चिम बंगाल तक), उड़ीसा तट, छत्तीसगढ़ राज्य के महानदी घाटी क्षेत्र, आन्ध्र प्रदेश के तटवर्ती क्षेत्र, कावेरी डेल्टा क्षेत्र (तमिलनाडु), कर्नाटक के मैदानी क्षेत्र, असाम और ित्रापुरा के निचले क्षेत्र तथा शिवालिक घाटियों में है। कभी-कभी लोग सघन अधिवास में अपनी सुरक्षा या प्रतिरक्षा के उद्देश्य से रहते हैं। ऐसे अधिवासों के बड़े ही सुन्दर उदाहरण मध्यप्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में मिलते हैं। राजस्थान में भी लोग सघन अधिवास में कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता तथा पेयजल की कमी के कारण रहते हैं, ताकि वे उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम उपयोग कर सकें।

इस प्रकार के अधिवासों में 30 से लेकर कई सौ मकानों की संहति होती है, जिनके कार्य, आकृति एवं आकार भी भिन्न-भिन्न होते हैं। औसतन इन अधिवासों में राजस्थान के विरल बसे क्षेत्रों में 500 से 2500 व्यक्तियों से लेकर सघन बसे गंगा मैदान में 10,000 व्यक्तियों से अधिक रहते हैं। अक्सर ऐसे सघन अधिवासों में आवासीय इकाइयों की बनावट एव बसाहट तथा इनके बीच गली एवं सड़कों के विन्यास में एक निश्चित प्रतिरूप होता है। ऐसे प्रतिरूपों की संख्या लगभग 11 चिन्हित की जा चुकी है। परन्तु हम यहाँ उनके 5 प्रमुख प्रतिरूपों की चर्चा करेंगे।
  1. रैखिय प्रतिरूप- इस प्रकार के अधिवास बहुधा मुख्य मार्गो, रेल मार्गों, नदियों इत्यादि के किनारे बन जाते हैं। इसमें मुख्य रेखा के सहारे एक श्रृंखला में श्रेणीबद्ध मकान हो सकते हैं। उदाहरण के लिए ऐसे ग्रामीण अधिवास सागर तट, नदी घाटियों या पर्वत श्रृंखला के सहारे पाये जाते हैं।
  2. आयताकार प्रतिरूप- यह एक बहुत ही सामान्य प्रकार है, जो कृषि जोतों के चारों ओर विकसित होता है। वर्गाकार खण्डों पर आधारित भूमि-बन्दोबस्त पर भी यह आधारित होता है। इसमें सड़कें आयताकार होती हैं जो एक दूसरे को समकोण पर काटती हैं। गाँव के अन्दर की सड़के भी आयताकार क्षेत्र के अनुरूप उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम दिशाओं में आती जाती है। महाराष्ट्र एवं आन्ध्र प्रदेश के तटवर्ती क्षेत्रों में तथा अरावली पहाड़ियों में ऐसे अधिवासों के उदाहरण मिलते हैं।
  3. वर्गाकार प्रतिरूप- यह आयताकार प्रतिरूप का ही एक भिन्न प्रकार है। ऐसे अधिवास मुख्यत: पगडंडियों या सड़कों के मिलन स्थल से संबंद्ध होते हैं। ऐसे अधिवासों का संबंध कभी-कभी गाँवों का विस्तार उपलब्ध चौकोर वर्गाकार क्षेत्र में ही करने की बाध्यता से भी होता है।
  4. वृत्ताकार प्रतिरूप- यमुना के ऊपरी दोआब क्षेत्र तथा यमुना-पार के जिलो में, मालवा क्षेत्र, पंजाब, गुजरात राज्यों के अन्तर्गत बड़े ग्रामों में सघन आबादी के कारण आवासीय इकाइयाँ बहुत अधिक सट कर बनी रहती हैं। मकानों की बाहरी दीवारें आपस में सटी होने से यह एक श्रृँखलाबद्ध सघन इकाई जैसा लगता है। इस प्रकार का वृत्ताकार स्वरूप भूतकाल में सुरक्षा की दृष्टि से मकानों के अधिकतम संकेन्द्रण का परिणाम है।
  5. अरीय त्रिज्या प्रतिरूप- इस प्रकार के प्रतिरूप में कई सड़कें या गलियां किसी केन्द्रीय स्थान जैसे जल का स्रोत (तालाब, कुआँ), मन्दिर, मस्जिद, व्यावसायिक गतिविधि के केन्द्र, या केवल खुली जगह की ओर अभिमुख होती हैं। इसलिए गलियां एक सामान्य केन्द्र से विकरित लगती हैं। इस प्रकार के अधिवासों के उदाहरण हैं- गुरू शिखर के पास माउन्ट आबू में (राजस्थान), विन्ध्याचल (उत्तर प्रदेश)।

अर्ध-सघन अधिवास 

जैसे कि शीर्षक से स्पष्ट है कि आवास पूरी तरह संगठित नहीं होते। इस प्रकार के अधिवास में नाभिकीय रूप से सघन छोटी बसाहट होती है, जिसके चारो ओर पल्ली-पुरवा प्रकीर्ण रूप से बसे रहते हैं। ये संहत अधिवासों की तुलना में ज्यादा स्थान घेरते हैं। ऐसे अधिवास मैदानी एवं पठारी भागो में, स्थानिक पर्यावरणीय स्थितियों के आधार पर पाए जाते हैं।

ऐसे अधिवास मणिपुर में नदियों के सहारे, मध्य प्रदेश के मण्डला एवं बालाघाट जिलों तथा छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में मिलते हैं। विभिन्न जनजातियाँ छोटा नागपुर क्षेत्र में ऐसे अधिवास बनाकर रहती हैं।

सघन अधिवासों के समान अर्ध-सघन अधिवासों के भी कई भिन्न प्रतिरूप होते हैं। कुछ प्रतिरूप हैं- (i) चौक-पट्टी प्रतिरूप, (ii) बढ़ी हुई आयताकार प्रतिरूप, (iii) पंखाकार प्रतिरूप।
  1. चेकर बोर्ड या चौक-पट्टी प्रतिरूप- अधिवास का यह एक प्रकार है, जो सामान्यत: दो मार्गों के मिलन स्थल पर मिलता है। गाँवों की गलियाँ, एक दूसरे के साथ मेल खाती हुई, आयताकार प्रतिरूप में बनने लगती हैं जो परस्पर लम्बवत् होती हैं।
  2. बढी हुई आयताकार प्रतिरूप (इलोंगेटेड प्रतिरूप)- स्थानीय कारणों से आयताकार अधिवास की लम्बाई में वृद्धि ऐसे प्रतिरूप को आकार देती है। उदाहरण के तौर पर गंगा के मैदानी इलाकों में जहाँ बाढ़ ग्रस्त स्थितियाँ बनती रहती हैं, वहाँ आयताकार अधिवास का विस्तार लम्बाई में उपरी ऊँचाई वाले भागों की ओर होता है। इसके अलावा नदी के किनारे की स्थितियों के लाभ भी इस प्रतिरूप को प्रोत्साहित करते हैं।
  3. पंखनुमा प्रतिरूप - अधिवास का ऐसा प्रतिरूप तब होता है, जब कोई महत्वपूर्ण केन्द्र या कतार ग्राम के किसी एक छोर पर बना होता है। ऐसा केंद्रिक बिन्दु कोई तालाब, नदी तट, बगीचा, कुआं अथवा पूजा का स्थल हो सकता है। ऐसे प्रतिरूप के उदाहरण नदी के मुहाने (डेल्टा) क्षेत्र में भी बन जाते हैं, क्योंकि यहाँ मकान डेल्टा की पँखनुमा आकृति का अनुसरण करते हैं। महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि नदियों के मुहानों पर ऐसे अधिवास मिलते हैं। हिमालय पाद प्रदेश में भी ऐसे अधिवास सामान्य रूप में पाये जाते हैं।

पल्ली-पुरवा अधिवास

इस प्रकार के अधिवास कई छोटी इकाइयों में प्रकीर्ण रूप से बसे रहते हैं। मुख्य अधिवास का अन्य अधिवासों पर कोई ज्यादा प्रभाव नहीं होता है। अधिवास का वास्तविक स्थान अन्तर करने योग्य नहीं होता तथा मकान एक बड़े क्षेत्र में बिखरे होते हैं, जिनके बीच-बीच में खेत होते हैं। यह विभाजन सामान्यत: सामाजिक व जातीय कारकों द्वारा प्रभावित होता है। इन मकानों को स्थानीय तौर पर फलिया, पारा, धाना, धानी, नांगलेई आदि कहते हैं। ये अधिवास सामान्यत: पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और तटीय मैदानों में पाये जाते हैं। भौगोलिक रूप से इसके अंतर्गत निचला गंगा मैदान, हिमालय की निचली घाटियाँ तथा केन्द्रीय पठार या देश की उच्च भूमियां आती हैं।

परिक्षिप्त या प्रकीर्ण अधिवास

इन अधिवासों को एकाकी अधिवास भी कहते हैं। इन बस्तियों की एक विशेषता होती है। इन अधिवासों की इकाइयाँ छोटी-छोटी होती है अर्थात आवासीय घर या घरों का समूह भी छोटा होता है। इनकी संख्या दो से सात मकानों की हो सकती है। ऐसे अधिवास एक बड़े क्षेत्र में बिखरे होते हैं तथा इनका कोई स्पष्ट प्रतिरूप नहीं बन पाता है। ऐसे अधिवास भारत के जनजाति बहुल मध्य क्षेत्र में पाये जाते हैं, जिसके अन्तर्गत छोटा नागपुर का पठार, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि आते हैं। इसके अतिरिक्त उत्तरी बंगाल, जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु एवं केरल राज्यों में भी ऐसे अधिवास मिलते हैं।

ग्रामीण अधिवासों के प्रकार को प्रभावित करने वाले कारक -

ग्रामीण अधिवासों को प्रभावित करने वाले तीन प्रमुख कारक हैं- (i) भौतिक, (ii) जातीय या सांस्कृतिक तथा (iii) ऐतिहासिक अथवा प्रतिरक्षात्मक। आइये, तीनों कारकों की एक-एक करके चर्चा करें।
  1. प्राकृतिक कारक- इन कारकों में शामिल हैं- भूमि की बनावट, जलवायु, ढाल की दिशा, मृदा की सामथ्र्य, जलवायु, अपवाह, भू-जल स्तर आदि। इन कारकों का प्रभाव आवासीय मकानो के बीच की दूरियों तथा उनके प्रकार इत्यादि पर पड़ता है। राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता निर्णायक कारक है। इसलिए वहाँ मकान किसी तालाब या कुँए के आस-पास संकेन्द्रित हैं।
  2. जातीय और सांस्कृतिक कारक- इनमें शामिल हैं- जाति, समुदाय, जातीयता, धाख्रमक विश्वास इत्यादि। भारत में यह सामान्य रूप से पाया जाता है कि प्रमुख भूमि स्वामी जातियाँ गाँव के नाभिक क्षेत्र में बसती हैं और अन्य सेवा प्रदान करने वाली जातियां ग्राम की परिधि में बसती हैं। इस का परिणाम सामाजिक पृथक्कता तथा अधिवासों का छोटी-छोटी इकाइयों में टूटना है।
  3. ऐतिहासिक या प्रतिरक्षात्मक कारक- ऐतिहासिक काल में भारत के उत्तर-पश्चिम मैदानी भागों के अधिकांश भागों में कई बार आक्रान्ताओं ने आक्रमण किया तथा कुछ भागों को कब्जे में भी लिया। इसके पश्चात् एक लम्बे समय तक बाहरी ताकतों के हमलों के अलावा देश के इस भाग में प्रमुख राज्य व साम्राज्य आपस में लड़ते-झगड़ते रहे। इसलिए नाभिकीय प्रारूप के अधिवास सुरक्षा को ध्यान में रखकर बनते रहे।

भारत में मकानों के प्रकार

मकानों या आवासों के प्रकारों में भिन्नता के पीछे आवास निर्माण में प्रयुक्त सामग्रियों की सहज उपलब्धता मुख्य कारक रही है। इसके अलावा यह भूमि की बनावट तथा जलवायविक दशाओं पर भी आधारित है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों या जहाँ हिमपात होता है, दोनों स्थानों में मकानो की छतें ढालूनुमा बनाई जाती हैं। पर जहाँ वर्षा कम होती है, वहां छत सपाट रहती हैं। जहाँ तक मकान बनाने की वस्तुओं का सवाल है, इन्हें दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
  1. मकान की दीवार बनाने की सामग्रियाँ
  2. मकान की छतों के निर्माण में प्रयुक्त सामग्रियाँ
तथापि निर्माण तकनीक के विकास तथा वित्तीय सहायता की उपलब्धि ने ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों के घरों की संरचना के प्रकारों को परिवर्तित कर दिया है।
आइए इनकी एक-एक करके चर्चा करें-

(क) दीवार निर्माण में प्रयुक्त सामग्रियाँ - भारत में दीवार निर्माण में प्रयुक्त सामग्रियों को मुख्यत: पाँच वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है। ये हैं-
  1. मिट्टी का गारा सबसे अधिक और आमतौर पर उपयोग में लाया जाता है और यह सभी प्रकार की मृदाओं में पाया जाता है, जिनका रंग, गठन और संरचना भी अलग अलग होता है। पुरातन सभ्यताओं में इसका सबसे अधिक उपयोग हुआ है। मिट्टी से बने देसी नुमा मकान प्राय: देश के सभी भागों में मिलते हैं। ये मकान पारिवारिक सदस्यों एवं पड़ोसियों के सहयोग द्वारा आसानी से बनाए जाते हैं।
  2. पत्थर या बेसाल्ट पत्थर अथवा अच्छे ढंग से तराशे गए पत्थरों का प्रयोग उन स्थानों पर व्यापक रूप में होता है, जहाँ ये निकट व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं तथा इनका परिवहन भी आसान होता है। बलुआ पत्थर वाले पहाड़ी क्षेत्रों, ज्वालामुखी पठारी क्षेत्रों में ऐसे मकानों के उदाहरण बहुतायत से उपलब्ध हैं।
  3. ईटों से बनी दीवारें आजकल बहुत प्रचलित हैं। आज पूरे देश के करीब करीब सभी ग्रामीण इलाकों में इसका प्रचलन हो गया है। आज ईटों की भट्टियाँ प्राय: सभी ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूद हैं। इन भट्टियों में कच्चे र्इंटो को पकाने के लिए र्इंघन के रूप में कोयले का इस्तेमाल ज्यादा होता है। गाँवों में बहुत आसानी से र्इंटें उपलब्ध हैं। ईटों का अधिक प्रयोग होने के पीछे मुख्य कारण लागत में बचत, चिरस्थायित्व तथा कम जगह में दीवारों का अधिक से अधिक आकारों में बनाया जा सकना है। सबसे अधिक पुरातन प्रमाण सिन्धु-घाटी सभ्यता के कई स्थानों में मिले, जहाँ खुदाई करने पर मकानों के अवशेष मिले जिनमें र्इंटो का प्रयोग हुआ है। ईटों के प्रयोग में इन्हे जोड़ने के लिए मिट्टी का गारा ज्यादातर प्रयुक्त होता है। आजकल सीमेन्ट का गारा ज्यादा प्रयोग में आता है। कम ऊँचाई की दीवारों के लिए तथा लागत-खर्च कम करने के लिए गरीब लोग कच्ची-ईटों का प्रयोग करते हैं।
  4. वन्य प्रदेशों में तथा वनो से सटे इलाकों में इमारती लकड़ियों से बनी दीवारों वाले घर काफी मात्रा में मिलते हैं। इसका प्रमुख कारण इनका निकट उपलब्ध होना है। केन्द्रीय भारत में भील जनजातियों के क्षेत्र में ये बहुतायत में मिलते हैं। 
  5. टट्टर या ठाठर का प्रयोग मैदानी या वन क्षेत्रों में झोपड़ीनुमा मकान बनाने में किया जाता है। यह बिना किसी लागत मूल्य के मिल जाता है तथा इसके बनाने में किसी विशेष तकनीकी जानकारी की जरूरत नहीं पड़ती। इससे मकान पहाड़ों की ढलान में या शिखर में भी बनाए जा सकते हैं। विन्ध्य और सतपुड़ा श्रेणी में बसने वाले आदिवासी मुख्यत: गोंड़, भील जनजातियाँ इसी प्रकार की सामग्रियों से अपना आवास बनाते हैं।
(ख) छत के निर्माण में प्रयुक्त वस्तुएँ - इन सामग्रियों को सात मुख्य वर्गो में बाँटा जा सकता है। ये हैं- (i) खपरा, (ii) छप्पर या छाजन, (iii) चिकनी मिट्टी और अन्य, (iv) टिन, (v) पत्थर की फश्र्ाी, (vi) लकड़ी और (vii) ईटें तथा अन्य
  1. खपरैली छाजन पूरे देश में सर्वसामान्य रूप से प्रचलित हैं। खपरे भी या तो नालीनुमा अर्धचन्द्राकार या फिर सपाट होते हैं। इनके आकार तथा रूप भी अलग अलग होते हैं। छाजन में प्रयुक्त खपरैलों का आकार भारत के उत्तरी मैदानी भागो में बड़े जबकि पठारी तथा पहाड़ी क्षेत्रो में छोटे होते हैं।
  2. यह कुटिया बनाने की सबसे पुरानी और मौलिक विधा है। यह तरीका आज भी गरीब परिवारों द्वारा अपनाया जाता है। हर प्रकार की दीवार छाजन या फूस से ढँक दी जाती है, चाहे ये दीवार लकड़ी, पत्थर, मिट्टी या टट्टर किसी भी सामग्री से बनी हो।
  3. चिकनी मिट्टी में गोबर मिलाकर छत का निर्माण भारत के पश्चिमी भागों में बहुत ही सामान्य है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह तरीका काफी प्रचलित है। प्रत्येक बसाहट में ऐसे घरों को सीमांकन के रूप में पहचाना जाता है। समयानुसार वर्षा ऋतु आने के पहले गोबर-मिट्टीयुक्त छाजन से पलस्तर चढ़ा देने से बारिश से घरों की सुरक्षा बढ़ जाती है।
  4. पर्वतीय, पहाड़ी तथा पठारी क्षेत्रो में पत्थर की फश्र्ाी का प्रयोग प्राचीन काल से चला आ रहा है। आवश्यकता के अनुरूप छाजन के लिए बलुआ पत्थर या स्लेट पत्थर को काँट-छाँट कर दीवारों के ऊपर बिछाया जाता है। इस प्रकार के छाजन मजबूत तथा ज्यादा समय के लिए स्थाई रहते हैं।
  5. मकान की छत के लिए लकड़ी का प्रयोग भी काफी प्रचलित है, खासकर भारत के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्रों में। इसके भी दो प्रकार हैं- जैसे कि भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में प्रचलन है- जिसमें लकड़ी के चौड़े टुकड़ों को गोलाकार रूप में ऐसा जोड़ा जाता है कि उनके गोलाई वाले किनारे छतों पर इस प्रकार से आच्छादित हों। ताकि घरों को बरसात तथा बर्फ से सुरक्षित रख सकें। उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर राज्यो के भागो में जो अपेक्षाकृत कम ऊँचाई वाले होते हैं, घरों की छतो को टीन या जल सह पदार्थ से ढँक दिया जाता है। 
  6. दीवारों के लेन्टर के ऊपर लोहे की छड़ो की जाली बिछाकर उसके ऊपर र्इंटों की परत बिछाई जाती है, जिस पर सीमेन्ट का गारा बनाकर उसकी परत आच्छादित की जाती है। आजकल ग्रामीण इलाको में ग्रामीण विपणन केन्द्र के घर तथा ग्रामीण-धनवानों के घरों की छतें ऐसी ही बनती हैं। भवन निर्माण की पारंपरिक सामग्रियों का प्रयोग कम हो रहा है और इसके स्थान पर अन्य पदार्थों जैसे- लोहा, टिन चादरें, सीमेंन्ट आदि का प्रयोग हो रहा है।

नगरीय अधिवास

भारत की जनगणना के अनुसार शहरी या नगरीय क्षेत्र वे हैं जिनमें स्थितियाँ मिलती हैं- (क) नगरीय क्षेत्रों में या तो नगरपालिका अथवा निगम या फिर छावनी बोर्ड होगा अथवा अधिसूचित शहरी क्षेत्र समिति मौजूद होनी चाहिए (ख) अन्य सभी क्षेत्र जो इन मानकों को पूरा करते हैं-
  1. कम से कम 5000 जनसंख्या,
  2. कार्यशील पुरुष जनसंख्या का कम से कम 75 प्रतिशत अकृषि क्षेत्र में लगे हों और
  3. जनसंख्या का घनत्व कम से कम 4000 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. हो। 
इसके अतिरिक्त जनगणना कार्य में निख्रदष्ट निर्देशों के अन्तर्गत जब भारत के राज्यों अथवा केन्द्र शासित संघीय राज्यों की सरकारों के सहयोग एवं परामर्श पर तथा भारत के जनगणना आयुक्त के अनुमोदन से कुछ ऐसी भी बसाहटों को जिनके गुण नगरीय क्षेत्रों जैसे होते हैं, किन्तु नगरीय बस्ती की मूलभूत शर्तें जिनका वर्णन अनुच्छेद 29.5 की कण्डिका (ख) में वख्रणत है पूर्णत: लागू नहीं होता हो तो भी उन बसाहटों को नगरीय क्षेत्र में गिना जाता है। उदाहरण के लिए किसी परियोजना की कालोनी के क्षेत्र या फिर पर्यटन विकास के केन्द्र स्थल इत्यादि।

इस प्रकार से, शहरों अथवा नगरीय अधिवासों के दो बड़े वर्ग होते हैं। वे स्थानीय क्षेत्र जो अनुच्छेद 29.5 की कण्डिका (क) में वख्रणत शर्तो के अनुरूप हैं, उन्हें वैधानिक शहर कहा जाता है। दूसरे वर्ग में आने वाले वे नगरीय क्षेत्र हैं जो कण्डिका (ख) में दी गई शर्तों का पूर्णत: पालन करते हैं, इन्हें जनगणना शहर कहा जाता है। नगरीय बसाहट के समूहों में नीचे दिए गए तीन गुणों में से कोई एक गुण हो सकते हैं-
  1. मुख्य नगर एवं उससे जुड़े शहरी अपवृद्धि वाले क्षेत्र;
  2. दो या दो से अधिक संलग्न मुख्य नगर (उनके अपवृद्धि क्षेत्र सहित या उसके बिना);
  3. एक बड़ा शहर और उससे संलग्न एक या एक से अधिक शहरों के अपवृद्धि क्षेत्र इतने सानिध्य में विकसित हो जाते हैं कि कोई लम्बा सा जनसंख्या का वितान फैल गया हो।
नगरीय अपवृद्धि क्षेत्र के उदाहरण हैं- विश्वविद्यालय परिसर, छावनी परिसर, समुद्रतट पर बसे शहरों से सटे बन्दरगाह के परिसर या फिर उड्डयन परिसर, रेलवे कालोनी के परिसर आदि। पर एक बात ध्यान देने योग्य है कि ऐसे शहर कभी भी स्थाई नहीं होते हैं। प्रत्येक जनगणना में इनमें कमोबेश उतार-चढ़ाव होता है, जिससे इन शहरों का अवर्गीकरण या पुनर्वर्गीकरण किया जाता है, क्योंकि जनगणना के समय विद्यमान परिस्थितियाँ निर्णायक होती हैं।

नगरीय अधिवासों के प्रकार

ग्रामीण अधिवासों के सामान नगरीय अधिवासों को कई आधारों पर भिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है। सबसे प्रचलित एवं सर्वसाधरण वर्गीकरण का आधार नगरीय अधिवासों के आकार तथा सम्पादित कार्य होते हैं। आइये इस पर चर्चा करें। जनसंख्या के आकार पर आधारित वर्गीकरण जनसंख्या के आकार को आधार मानकर भारतीय जनगणना, नगरीय क्षेत्रों को 6 वर्गो में विभक्त करता है -

नगरीय अधिवासों का वर्गीकरण

वर्गजनसंख्या
वर्ग I1,00,000 या इससे अधिक
वर्ग II50,000–99,999
वर्ग III 20,000–49,999
वर्ग IV 10,000–19,999
वर्ग V5000–9,999
वर्ग VI5000 से कम

नगरीय अधिवासों का एक और वर्गीकरण है, जो इस प्रकार है-
नगर - ऐसे स्थान जिनकी जनसंख्या एक लाख से कम होती है,
शहर - नगरीय स्थान जहाँ की जनसंख्या एक से 10 लाख के बीच हो,
महानगर - बड़े नगर जहाँ की जनसंख्या 10 लाख से 50 लाख के बीच हो तथा
वृहद महानगर - महानगर जहाँ की जनसंख्या 50 लाख से ऊपर हो।

व्यवसाय मूलक वर्गीकरण

यह देश में शहरी स्थानों के वर्गीकरण का सबसे अधिक प्रचलित एवं सर्वमान्य तरीका है। यह तरीका विश्व के अन्य देशों में भी प्रचलित है। भारत में बहुत से विद्वानों ने नगरीय केन्द्रो को विभिन्न व्यावसायिक वृत्तियों के कार्यकलापों को ध्यान में रखते हुए वर्गीकरण के कई तरीके प्रस्तावित किये। पर इनमें सबसे लोकप्रिय और सबसे अधिक स्वीकृत तरीका अशोक मित्रा द्वारा दिया गया था। जोकि एक प्रसिद्ध जनांकिकी विशेषज्ञ तथा भारत के तत्कालीन महापंजीयक थे।

भारत के शहरों का अशोक मित्रा की व्यवसाय मूलक विधि द्वारा वर्गीकरण

अशोक मित्रा द्वारा प्रस्तावित वर्गीकरण श्रमिकों की श्रेणियों पर आधारित है। यह श्रमिक श्रेणियाँ जनगणना वर्ष 1961 और जनगणना वर्ष 1971 के आँकड़ो से उपलब्ध की गई थी। परन्तु 1981 की जनगणना में दर्शाए गए व्यवसाय मूलक शहरों एवं नगरों के वर्गीकरण को उपयोग में नहीं लाया जा सकता क्योंकि शहरी स्तर पर औद्योगिक श्रमिकों को 9 औद्योगिक वर्गो में पूरी तरह विभक्त नहीं किया गया था। फिर भी 1991 में एक अभिनव प्रयास किया गया जिसके अन्तर्गत औद्योगिक श्रेणियों को 5 समूहों में बाँटते हुए भारत के सभी शहरों को उनकी व्यावसायिक कार्यशीलता के आधार पर 5 आख्रथक खण्डों में बाँट दिया गया। अन्तिम वर्गीकरण इस प्रकार है-

नगरीय स्थानों का व्यवसाय मूलक वर्गीकरण

आर्थिक खण्डऔद्योगिक श्रेणी
1. प्राथमिक क्रियाकलाप





I कृषि कार्य
II कृषि श्रमिक
III पशु-पालन, वानिकी, मछली पकड़ना,
शिकार करना, बागवानी, उद्यानिकी
तथा अन्य संबंधित क्रियाकलाप
IV खनन एवं उत्खनन इत्यादि
2. उद्योग-धंधे (व्यवसाय)






V निर्माण, संसाधन तैयारी,
सेवाएँ, सुधार एवं मरम्मत सेवाएँ।
(अ) घरेलू उपयोग की वस्तुएँ बनाने
की औद्योगिक इकाइयाँ
(ब) घरेलू उपयोग की वस्तुएं बनाने
के अलावा उद्योग भी।
VI निर्माण कार्य में लगे मजदूर
3. व्यापारVII व्यापार एवं वाणिज्य
4. यातायातVIII परिवहन, गोदाम में संग्रहण, भण्डारण
एवं संचार-व्यवस्था।
5. सेवाएँIX विविध सेवाएँ

1991 जनगणना में अपनाई गई कार्य-प्रणाली जिसके द्वारा शहरों को व्यवसाय मूलक आधार पर वर्गीकृत किया गया था, वह इस प्रकार है-
  1. प्रत्येक शहरी बसाहट के समूहों के या शहर से सटे कस्बों की बसाहटो में कुल प्रमुख कार्यशील व्यवसाइयों का प्रतिशत 5 आख्रथक खण्डो में कितना-कितना है, यह गणना द्वारा तय कर लिया जाता है।
  2. व्यवसाय आधारित श्रेणी क्रम को प्रत्येक शहरी बसाहट के समूह के लिए इस प्रकार से तय किया गया था-
    1. यदि किसी एक औद्योगिक खण्ड में कार्यरत व्यक्तियों की संख्या 40 प्रतिशत या इससे अधिक है तो ऐसे शहरी बसाहट के समूह को उसी औद्योगिक खण्ड के एकल-क्रियाशील श्रेणी में वर्गीकृत किया जाता है। 
    2. यदि किसी एक औद्योगिक खण्ड में कार्यरत व्यक्तियों की संख्या 40 प्रतिशत से कम है तो दो अन्य इकाइयों में मौजूद संख्या को जोड़ दिया जाता है यदि दोनों का योग 60 प्रतिशत से अधिक है तो ऐसे शहरी बसाहट के समूहो को द्वि-क्रियाशील की श्रेणी में वर्गीकृत किया जाता है।
    3. यदि दो इकाइयों में कार्यरत व्यक्तियों की संख्या तब भी 60 प्रतिशत या अधिक नहीं होती तब तीन अधिकतम प्रतिशत वाली इकाइयों में कार्यरत लोगों की संख्याओं को जोड़ दिया जाता है और फिर ऐसे शहरी बसाहट के समूह को बहु कार्यशील श्रेणी में वर्गीकृत किया जाता है। 
  3. यदि किसी विशेष परिस्थिति में किसी बाह्य शहरी समूह की बसाहट में एक चौथाई कार्यशील व्यक्तियों का व्यवसाय किन्ही चार कार्यो में अर्थात (अ) वानिकी, माित्स्यकी (पौध-रोपण, पशुपालन इत्यादि सहित), (ब) खनन एवं उत्खनन, (स) वस्तु निर्माण वाले घरेलू उद्योग और (द) निर्माण कार्यो में कार्यरत हो तो प्रत्येक शहरी बसाहट की कार्यशील श्रेणी का वर्गीकरण उनके संबंधित व्यवसाय कार्यशीलता के आधार पर उपश्रेणियों में किया जाता है बशर्ते कि उपश्रेणी की व्यावसायिक कार्यशीलता प्रथम या द्वितीय कोटि की हो।
उपरोक्त वख्रणत विभाजन प्रणाली का आश्रय लेते हुए भारत के सभी 3ए697 शहरी बसाहटों के समूहों (जम्मू-कश्मीर के अलावा) को विभिन्न कार्यशील श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया था। इस प्रयास के परिणाम इस प्रकार प्राप्त हुए-
  1. भारत की कुल शहरी बसाहट समूह के लगभग आधे अर्थात 1756 इकाइयों को प्रथम श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है, जहाँ के व्यवसाय प्राथमिक दर्जे के हैं। परन्तु इनकी जनसंख्या भारत की कुल शहरी जनसंख्या के 15.85 प्रतिशत के बराबर होती है। इस श्रेणी के अन्तर्गत आने वाले अधिकांश शहर काफी छोटे आकार के होते हैं। इन शहरो के दो तिहाई स्थानों में एकल व्यवसाय प्रधान कार्यशील व्यक्ति होते है बाकी एक तिहाई कार्यशील लोग बहु-धंधी अर्थात विविध व्यवसाय से संबंध रखने वाले होते हैं। ऐसे शहरों की संख्या उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा (371) थी। 
  2. देश में 723 ऐसे शहरी बसाहट के समूह हैं जहाँ के लोगों का मुख्य व्यवसाय उद्योगों से जुड़ा है। खासबात यह है कि इन स्थानो की बसाहट की जनसंख्या का आधे से अधिक भाग नगरीय है। इनमें उन स्थानों की संख्या एक तिहाई से ज्यादा है, जिनकी जनसंख्या 1 लाख या इससे अधिक है। औद्योगिक श्रेणी के अन्तर्गत वर्गीकृत शहरी बसाहटों की 4/5 जनसंख्या इन्ही शहरी बसाहटो में रहती है। आधे से कुछ कम ऐसे स्थानों में एकल व्यवसाय प्रधान कार्यशील लोग रहते हैं। परंतु बहु कार्यशील श्रेणी वाले स्थानों की संख्या काफी कम है। तमिलनाडु राज्य में सबसे अधिक (101) इकाइयाँ औद्योगिक शहरी बसाहटों की श्रेणी के अन्तर्गत आती हैं। इसके बाद उत्तर प्रदेश (91) तथा गुजरात (87) इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। 
  3. शहरी बसाहट/नगर की उन इकाइयों की संख्या 460 थी जिन्हें व्यापार की श्रेणी के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया था। इनकी जनसंख्या देश की शहरी जनसंख्या के 7 प्रतिशत के बराबर थी। इनमें से अधिकांश व्यापारिक नगरों/शहरी बसाहटो के समूह में कार्य की प्रकृति बहु कार्यशील होती है, जबकि शेष बचे नगर द्वि-कार्यशील प्रकृति के होते हैं। ऐसे शहरों की सबसे ज्यादा संख्या (121) उत्तर प्रदेश में थी जबकि बाकी के राज्यों में व्यापार से संबद्ध ऐसे शहरों की संख्या बहुत ही कम है। 
  4. परिवहन से संबद्ध श्रेणी में केवल 23 नगर वर्गीकृत किए गए जिनका देश की नगरीय जनसंख्या में योगदान 1 प्रतिशत से भी कम है। इनमें से अधिकांश शहरी स्थानों का आकार छोटा होता है यद्यपि कुछ बड़े आकार के भी होते हैं, जैसे- पश्चिमी बंगाल का खड़गपुर, उत्तर प्रदेश में मुगलसराय आदि। जहाँ तक कार्यशील व्यवसाय का संबंध है, इन 23 में से 10 शहरी बसाहटों में एकल व्यावसायिक लोग रहते हैं। बाकी 10 में विविध व्यावसायिक कार्यो वाले लोग रहते हैं।
  5. करीब 736 ऐसे शहरी बसाहट वाली इकाइयाँ देश में हैं जिनमें विविध सेवाएँ ही प्रमुख व्यवसाय के साधन होते हैं। इनमें बसने वाले लोगों की जनसंख्या देश की कुल नगरीय जनसंख्या के एक चौथाई के बराबर है। इनमें से अधिकांश जनसंख्या (70 प्रतिशत) प्रथम श्रेणी के शहरों में रहती है। जहाँ तक उनकी व्यावसायिक कार्यशीलता का सम्बन्ध है, अधिकांश शहरों के निवासियों का व्यवसाय बहु कार्यशील या द्वि-कार्यशील होते हैं। उत्तर प्रदेश में ऐसे शहरों की संख्या 114 तथा मध्य प्रदेश में 82 है।

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