विशिष्ट प्रयोजनों के लिए धन पर मतदान करने के संसद के अधिकार का तब तक कोई अर्थ नहीं अनुमान समिति, सार्वजनिक लेखा समिति एवं सार्वजनिक उद्यम समिति है जब तक उसे यह निश्चित करने का अधिकार न हो कि संसद द्वारा स्वीकृत धनराशि का कार्यपालिका द्वारा उन्हीं प्रयोजनों के लिए उपयोग किया जाता है जिनके लिए संसद ने उन्हें स्वीकृति किया है। यह तभी निश्चय हो सकता है जब सार्वजनिक लेखाओं का निरीक्षण किसी स्वतंत्र अधिकारी-लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक-द्वारा किया जाये; और तदन्तर उसके प्रतिवेदन की जांच संसद की एक विशेष समिति द्वारा की जाती है जिसे लोक लेखा समिति कहते हैं। संसद की समिति का निर्माण इस दृष्टि से श्रेयस्कर है कि (1) संसद के पास इतना समय नहीं होता कि वह प्रतिवेदन का विशद् परीक्षण कर सके; (2) चूँकि परीक्षण एक विशिष्ट प्रकार का होता है, अत: वह एक समिति द्वारा ही किया जाना चाहिए; (3) समिति द्वारा परीक्षण होने पर ही वह निर्दलीय होता है, जबकि सदन द्वारा निर्दलीयता अथवा निष्पक्षता संभव नहीं है।
पिछले पैराग्राफ में प्रथम दृष्टया स्पष्ट है कि यह कार्य एक संसदीय समिति को सौंप दिया जाना चाहिए कि सार्वजनिक व्यय स्वीकृति के अनुसार ही किया गया है। लेकिन ऐसी समिति की स्थापना का विचार विलम्ब से आया है। ब्रिटिश संसद ने विनियोजनों को स्वीकार करने का अधिकार 1688 की क्रांति से प्राप्त कर लिया था, किन्तु उसे यह निश्चित करने का अधिकार कि उस द्रव्य का व्यय किस प्रकार किया जाता है, केवल 1861 में ही मिला है, जब लोकसभा ने लोक लोक लेखाओं की समिति का निर्माण किया था। “ब्रिटेन की लोक लेखा समिति अपनी सम्पूर्ण वित्तीय प्रशासन व्यवस्था के अनेक पहलुओं में से एक दिलचस्प पहलू है... और इसी व्यवस्था को श्रेय भी है जिसने शनै:-शनै: जड़ पकड़ का लोक व्यय पर वास्तविक नियंत्रण कर रखा है।” भारत में केन्द्र में लोक लेखा समिति की सर्वप्रथम स्थापना 1921 के मॉण्टफोर्ड सुधारों के फलस्वरूप 1923 में हुई थी। “अपने आरम्भ से ही केन्द्रीय लोक लेखा समिति सार्वजनिक व्यय के विधायी नियंत्रण की एक व्यापक शक्ति बन गयी थी। इसके संगठन संबंधी तथा इसकी सत्ता की सीमाओं के बावजूद इसने सरकार पर सार्वजनिक धन के व्यय में मितव्ययिता के संबंध में दबाव डाला है।” केन्द्रीय सरकार के विभागों को सर्वप्रथम अपने व्यय के औचित्य को सिद्ध करने के लिए बाध्य किया गया। लेकिन यह निकाय वास्तव में संसदीय समिति नहीं थी। वित्त सदस्य ही इसका सभापति होता था, और वित्त विभाग ही समिति के सचिवालय की व्यवस्था करता था।
1950 में संविधान लागू होने के साथ ही इस समिति में से सरकारी तत्व हट गये हैं, और यह समिति सच्ची संसदीय समिति बन गयी है। आरम्भ में इसमें 15 सदस्य थे जो सब लोकसभा के ही सदस्य होते थे। 1953 में इसके सदस्यों की संख्या बढ़कर 22 हो गयी। यह वृद्धि राज्यसभा को प्रतिनिधित्व देने के लिए की गयी थी। इस समिति में उच्च सदन के सदस्यों का सम्मिलित किया जाना ब्रिटिश परम्परा के विपरीत है, क्योंकि वहां लोक लेखा समिति में लॉर्ड सभा का कोई सदस्य नहीं होता। संविधान के अनुच्छेक 151 के अन्तर्गत लोक लेखा तथा लेखा परीक्षा संबंधी प्रतिवेदन संसद के दोनों ही सदनों के समक्ष रखे जाते हैं। इस प्रकार, लोकसभा के ही ढंग पर राज्यसभा को भी यह अधिकार प्राप्त है कि वह लोक लेखाओं के परीक्षण के लिए अपनी निजी लोक लेखा समिति गठित कर ले।
लोक लेखा समिति संसद का ऐसा निकाय है जो प्रति वर्ष निर्वाचित किया जाता है। इसका निर्वाचन एकल संक्रमणीय मत (single transfcrable vote) द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर होता है, जिससे समिति में मुख्य राजनीतिक दलों को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो सके और उसके सदस्यों की संख्या संसद में उनकी अपनी राजनीतिक दलीय शक्ति के अनुपात में हो। समिति का सभापति 1967 तक शासक दल का होता था। यह ब्रिटिश प्रणाली के विरुद्ध था। ब्रिटेन में विरोधी दल का कोई प्रतिष्ठत सदस्य इस स्थान को ग्रहण करता है। भारतीय संसद के विरोधी दल को विशेषाधिकार प्राप्त नहीं था। भारत में विरोधी दलों को इस अधिकार के अभाव का कारण यह है कि यहां स्पष्ट विरोधी दल का अभाव है। 1969 से यह परम्परा पड़ी है कि विरोधी दल का ही कोई नेता लोक लेखा समिति का सभापति होता है। एम.आर. मसानी विरोधी दल के प्रथम नेता थे जो इस समिति के सभापति मनोनीत किये गये थे। लेकिन दो अवसरों पर ही केवल विरोधी दल के सदस्य अध्यक्ष चुने गये हैं।
समिति के कार्य हैं-इसके संबंध में समिति को पूर्णत: संतुष्ट कर लेना चाहिए :
समिति यह पता लगाने के लिए कि संसद द्वारा स्वीकृत धन सरकार द्वारा उसी मद में उपयोग किया गया है, लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक के प्रतिवेदन की जांच करती है। ‘मांग के क्षेत्राधीन’ (within the scope of the demand) वाक्यांश का अर्थ निम्नवत् है :
यह समिति व्यक्तियों, कागजों तथा अभिलेखों को तलब कर सकती है, और इसके निष्कर्ष प्रतिवेदन के रूप में संसद के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। सूक्ष्म निरीक्षण हेतु समिति आजकल अध्ययन समूहों का गठन भी करती है। इनका संबंध प्रतिरक्षा, रेलवे आदि विशिष्ट विभागों से होता है। ये अध्ययन समूह अपना प्रतिवेदन समिति के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। समिति के अर्थ को अधिक प्रभावपूर्ण बनाने के लिए लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक अन्तरिम प्रतिवेदन भी देता है। समिति उन पर विचार करती है। सदन के समक्ष प्रस्तुत अन्तिम प्रतिवेदन के संदर्भ में ही वह सरकार के समक्ष अपनी सिफारिशें प्रस्तुत करती है। समिति के कार्य की यह कहकर आलोचना की जाती है कि जब तक समिति सार्वजनिक लेखाओं की पुनरीक्षा करती है, मामले पुराने पड़ जाते हैं। उक्त व्यवस्था इस आलोचना को निस्सार कर देती है। समिति की सिफारिशों की अधिसमय या परम्परा के कारण सरकार द्वारा स्वीकार किया जाता है। फिर भी,यदि सरकार समझती है कि अमुक सिफारिश किन्हीं कारणों से स्वीकार नहीं है तो वह उस सिफारिश के पुनर्विचार के लिए प्रार्थना कर सकती है। इस प्रकार बहुत से मामले आपसी चर्चा तथा विचारों के आदान-प्रदान से तय हो जाते हैं।
लोक लेखा समिति का संबंध ऐसे लेन-देनों तथा हानियों से होता है जो हो चुके होते हैं। यह लोक लेखाओं की शव-परीक्षा (Post-mortem) के समान है। फिर भी समिति के प्रतिवेदन मार्गदर्शन तथा चेतावनी के रूप में महत्व रखते हैं। लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष के शब्दों में, “यह प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति ऐसा भी है जो इस बात की जांच या समीक्षा करेगा कि क्या किया गया है, तथा यह कार्यपालिका के शैथिल्य या लापरवाही पर बहुत बड़ा प्रतिबंध लगाती है। यह परीक्षण यदि उचित ढंग से किया जाये तो प्रशासन में सामान्य क्षमता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। समिति की जांच भावी अनुमानों तथा भावी नीतियों दोनों के लिए ही मार्गदर्शक के रूप में योग देती है।” यह स्मरणीय है कि लोक लेखा समिति निष्पादकीय निकाय नहीं है क्योंकि इसे कोई निष्पादकीय अधिकार नहीं दिये गये हैं। इसका कार्य केवल लोक-व्यय की पुनरीक्षा तक ही सीमित है। यह सामान्य आशा है कि समिति सार्वजनिक व्यय पर नियंत्रण के लिए एक प्रभावशाली शक्ति सिद्ध होगी।
लोकसभा में भारी बहस के समय सदस्यों ने इस परिवर्तन को लोक सभा के वित्तीय अधिकारों पर राज्य सभा का हस्तक्षेप करार दिया था। अपनी इस भावना के अनुरूप लोक सभा इसे दोनों अनुमान समिति, सार्वजनिक लेखा समिति एवं सार्वजनिक उद्यम समिति सदनों की संयुक्त समिति मानने को तैयार नहीं थी। ऐसी स्थिति में तत्कालीन लोक सभा अध्यक्ष मावलंकर ने अपनी व्यवस्था देते हुए कहा था कि, “यह संयुक्त समिति नहीं है। यह लोक सभा अध्यख के नियंत्रण में लोक सभा समिति है। जहां पर विचार-विमर्श तथा मतदान का सवाल है उनका भी वही सम्माननीय स्थान होगा, वे भी तो आखिर सदस्य हैं। केवल यही अन्तर होगा कि वे लोक लेखा समिति के सदस्य के रूप में काम करेंगे तो वे लोक सभा अध्यक्ष के नियंत्रण में कार्य करेंगे।”
इस स्पष्टीकरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि लोक लेखा समिति अपने वर्तमान स्वरूप में भी एक संयुक्त समिति के रूप में कार्य नहीं करती। इसके अलावा एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि 1967 तक इस समिति का अध्यक्ष शासक दल का ही कोई सदस्य हुआ करता था, जबकि ब्रिटिश परम्परा में विरोधी दल का कोई सम्माननीय सदस्य लोक लेखा समिति का अध्यक्ष हुआ करता है। भारत में इस परम्परा का निर्वाह न होने का एक प्रमुख कारण हमारे देश में किसी स्पष्ट मान्यता प्राप्त विरोधी दल का अभाव माना जा सकता है। सन् 1969 में प्रथम बार श्री मीनू मसानी विरोधी दल के नेता बने तो उन्हें लोक लेखा समिति का अध्यक्ष भी मनोनीत कर लिया गया और इसके साथ एक स्वस्थ परम्परा की शुरूआत हमारे देश के संसदीय इतिहास में हुई ऐसा कहा जा सकता है। समिति के चुनाव प्रतिवर्ष होते हैं जबकि इसका द्वि-वार्षिक कार्यकाल होता है। इसी कारण हर समय इस समिति में कुछ अनुभवी सदस्य बने रहते हैं। फलत: समिति के अध्यक्ष के प्रभावशाली मार्गदर्शन में अधिक तत्परता, कुशलता तथा पार्टी हितों से परे हटकर यह समिति अपना कार्य करती है।
भारतीय संसदीय कार्यवाही नियम 143 के तहत महालेखापरीक्षक से प्राप्त जानकारी की पृष्ठभूमि में लोक लेखा समिति के कार्यों को निम्नवत् निरूपित किया गया है :
आवश्यकता पड़ने पर समिति अपने सदस्यों के एक छोटे से अध्ययन दल को किसी योजना (Project) अथवा निगम के मौके पर निरीक्षण के लिए भेज सकती है।
समिति को यह पूरा अधिकार है कि वह अपनी जांच से संबंधित किसी दस्तावेज अथवा परिपत्र को मंगवाये अथवा किसी व्यक्ति को बुलवाये (यदि राष्ट्रीय सुरक्षा को इससे कोई खतरा उत्पन्न न हो।) अनुमान समिति, सार्वजनिक लेखा समिति एवं सार्वजनिक उद्यम समिति संसदीय लोकतंत्र व्यवस्था में लोक लेखा समिति एक ऐसा मंच है जहां सरकारी अधिकारी तथा लोक प्रतिनिधि आमने-सामने बैठकर विचार-विमर्श करते हैं तथा सचिव स्तर के अधिकारियों को विभिन्न राजनीतिक दलों के यदा-कदा गुस्सैल सदस्यों के प्रश्नों के विनम्रता से उत्तर देने की अग्नि परीक्षा से गुजरना होता है। यदि वे अपने स्पष्टीकरण से समिति को संतुष्ट नहीं कर पाते हैं तो हार कर यह आश्वासन देना पड़ता है कि भविष्य में लोक व्यय में अपव्यय अथवा ऐसी किसी भी त्रृटि को टालने का प्रयास किया जाएगा। इस मौखिक स्पष्टीकरणों के साथ लिखित स्पष्टीकरण भी लिए जाते हैं तथा समिति की पूरी कार्यवाही का ब्यौरा शब्दश: रखा जाता है।
यद्यपि सरकार के लिए समिति की हर सिफारिश मानना अनिवार्य नहीं है किन्तु व्यवहार में सरकार ऐसा प्रयास करती है कि समिति की अधिकाधिक सिफारिशों का क्रियान्वित करे। मोटे तौर पर समिति की सिफारिशें तीन शीर्षों में विभाजित की जा सकती है :
पिछले पैराग्राफ में प्रथम दृष्टया स्पष्ट है कि यह कार्य एक संसदीय समिति को सौंप दिया जाना चाहिए कि सार्वजनिक व्यय स्वीकृति के अनुसार ही किया गया है। लेकिन ऐसी समिति की स्थापना का विचार विलम्ब से आया है। ब्रिटिश संसद ने विनियोजनों को स्वीकार करने का अधिकार 1688 की क्रांति से प्राप्त कर लिया था, किन्तु उसे यह निश्चित करने का अधिकार कि उस द्रव्य का व्यय किस प्रकार किया जाता है, केवल 1861 में ही मिला है, जब लोकसभा ने लोक लोक लेखाओं की समिति का निर्माण किया था। “ब्रिटेन की लोक लेखा समिति अपनी सम्पूर्ण वित्तीय प्रशासन व्यवस्था के अनेक पहलुओं में से एक दिलचस्प पहलू है... और इसी व्यवस्था को श्रेय भी है जिसने शनै:-शनै: जड़ पकड़ का लोक व्यय पर वास्तविक नियंत्रण कर रखा है।” भारत में केन्द्र में लोक लेखा समिति की सर्वप्रथम स्थापना 1921 के मॉण्टफोर्ड सुधारों के फलस्वरूप 1923 में हुई थी। “अपने आरम्भ से ही केन्द्रीय लोक लेखा समिति सार्वजनिक व्यय के विधायी नियंत्रण की एक व्यापक शक्ति बन गयी थी। इसके संगठन संबंधी तथा इसकी सत्ता की सीमाओं के बावजूद इसने सरकार पर सार्वजनिक धन के व्यय में मितव्ययिता के संबंध में दबाव डाला है।” केन्द्रीय सरकार के विभागों को सर्वप्रथम अपने व्यय के औचित्य को सिद्ध करने के लिए बाध्य किया गया। लेकिन यह निकाय वास्तव में संसदीय समिति नहीं थी। वित्त सदस्य ही इसका सभापति होता था, और वित्त विभाग ही समिति के सचिवालय की व्यवस्था करता था।
1950 में संविधान लागू होने के साथ ही इस समिति में से सरकारी तत्व हट गये हैं, और यह समिति सच्ची संसदीय समिति बन गयी है। आरम्भ में इसमें 15 सदस्य थे जो सब लोकसभा के ही सदस्य होते थे। 1953 में इसके सदस्यों की संख्या बढ़कर 22 हो गयी। यह वृद्धि राज्यसभा को प्रतिनिधित्व देने के लिए की गयी थी। इस समिति में उच्च सदन के सदस्यों का सम्मिलित किया जाना ब्रिटिश परम्परा के विपरीत है, क्योंकि वहां लोक लेखा समिति में लॉर्ड सभा का कोई सदस्य नहीं होता। संविधान के अनुच्छेक 151 के अन्तर्गत लोक लेखा तथा लेखा परीक्षा संबंधी प्रतिवेदन संसद के दोनों ही सदनों के समक्ष रखे जाते हैं। इस प्रकार, लोकसभा के ही ढंग पर राज्यसभा को भी यह अधिकार प्राप्त है कि वह लोक लेखाओं के परीक्षण के लिए अपनी निजी लोक लेखा समिति गठित कर ले।
लोक लेखा समिति संसद का ऐसा निकाय है जो प्रति वर्ष निर्वाचित किया जाता है। इसका निर्वाचन एकल संक्रमणीय मत (single transfcrable vote) द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर होता है, जिससे समिति में मुख्य राजनीतिक दलों को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो सके और उसके सदस्यों की संख्या संसद में उनकी अपनी राजनीतिक दलीय शक्ति के अनुपात में हो। समिति का सभापति 1967 तक शासक दल का होता था। यह ब्रिटिश प्रणाली के विरुद्ध था। ब्रिटेन में विरोधी दल का कोई प्रतिष्ठत सदस्य इस स्थान को ग्रहण करता है। भारतीय संसद के विरोधी दल को विशेषाधिकार प्राप्त नहीं था। भारत में विरोधी दलों को इस अधिकार के अभाव का कारण यह है कि यहां स्पष्ट विरोधी दल का अभाव है। 1969 से यह परम्परा पड़ी है कि विरोधी दल का ही कोई नेता लोक लेखा समिति का सभापति होता है। एम.आर. मसानी विरोधी दल के प्रथम नेता थे जो इस समिति के सभापति मनोनीत किये गये थे। लेकिन दो अवसरों पर ही केवल विरोधी दल के सदस्य अध्यक्ष चुने गये हैं।
समिति के कार्य हैं-इसके संबंध में समिति को पूर्णत: संतुष्ट कर लेना चाहिए :
- लेखाओं में जिन राशियों का भुगतान दिखाया गया है वे राशियां उस सेवा या प्रयोजन हेतु, जिसमें उनका प्रयोग किया गया है या जिसके लिए वे प्रभूत की गयी हैं, वैध रूप से प्राप्य या प्रयुक्त की जा सकने योग्य थीं :
- व्यय नियंत्रण करने वाली सत्ता के अनुरूप है; तथा
- प्रत्येक पुनर्विनियोजन (reappropriation) का अधिकार उचित सत्ता द्वारा निर्मित नियमों के अनुसार है या नहीं?
- लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक के प्रतिवेदन के संदर्भ में उन सभी लेखा विवरणों का परीक्षण करना जिसमें राज्य उपक्रमों, व्यापार तथा निर्माण करने वाली योजनाओं तथा परियोजनाओं की आय तथा व्यय का उल्लेख किया गया हो। साथ ही, उनके ऐसे संतुलन-विवरणों (balance sheets), लाभ के विवरणों तथा हानि के लेखों का भी निरीक्षण कराना जिन्हें तैयार करना राष्ट्रपति आवश्यक समझते हों या तो किसी विशेष उपक्रम, व्यापारिक संस्था या परियोजना की वित्त-व्यवस्था को विनियमित करने वाले सांविधिक नियमों के प्रावधानों के अन्तर्गत बनाये गये हों।
- उन स्वायत तथा अर्द्ध-स्वायत निकायों के आय-व्यय के लेखा विवरणों की परीक्षा करना, जिनका लेखा-परीक्षण भारत के लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक द्वारा या राष्ट्रपति के निर्देशों या संसद द्वारा पारित किसी नियम के अन्तर्गत करना संभव हुआ हो।
- लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक के प्रतिवेदन पर अवस्था में विचार करना, जब राष्ट्रपति ने किन्हीं प्राप्तियों की लेखा परीक्षा करने या भंडारों तथा स्कान्धों (stocks) के लेखाओं का परीक्षण करने की आज्ञा दी हो।
समिति यह पता लगाने के लिए कि संसद द्वारा स्वीकृत धन सरकार द्वारा उसी मद में उपयोग किया गया है, लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक के प्रतिवेदन की जांच करती है। ‘मांग के क्षेत्राधीन’ (within the scope of the demand) वाक्यांश का अर्थ निम्नवत् है :
- सार्वजनिक व्यय संसदीय पूर्वानुमोदन के अभाव में संसद द्वारा स्वीकृत विनियोजनों से अधिक नहीं होना चाहिए।
- किसी मांग के अन्तर्गत जिन वस्तुओं पर व्यय किया गया है, उन्हें औचित्यपूर्ण होना चाहिए।
- अनुदान उसी प्रयोजन के लिए उपयोग में लाया जाना चाहिए जिसके लिए संसद द्वारा उसका अनुमोदन किया गया हो।
यह समिति व्यक्तियों, कागजों तथा अभिलेखों को तलब कर सकती है, और इसके निष्कर्ष प्रतिवेदन के रूप में संसद के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। सूक्ष्म निरीक्षण हेतु समिति आजकल अध्ययन समूहों का गठन भी करती है। इनका संबंध प्रतिरक्षा, रेलवे आदि विशिष्ट विभागों से होता है। ये अध्ययन समूह अपना प्रतिवेदन समिति के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। समिति के अर्थ को अधिक प्रभावपूर्ण बनाने के लिए लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक अन्तरिम प्रतिवेदन भी देता है। समिति उन पर विचार करती है। सदन के समक्ष प्रस्तुत अन्तिम प्रतिवेदन के संदर्भ में ही वह सरकार के समक्ष अपनी सिफारिशें प्रस्तुत करती है। समिति के कार्य की यह कहकर आलोचना की जाती है कि जब तक समिति सार्वजनिक लेखाओं की पुनरीक्षा करती है, मामले पुराने पड़ जाते हैं। उक्त व्यवस्था इस आलोचना को निस्सार कर देती है। समिति की सिफारिशों की अधिसमय या परम्परा के कारण सरकार द्वारा स्वीकार किया जाता है। फिर भी,यदि सरकार समझती है कि अमुक सिफारिश किन्हीं कारणों से स्वीकार नहीं है तो वह उस सिफारिश के पुनर्विचार के लिए प्रार्थना कर सकती है। इस प्रकार बहुत से मामले आपसी चर्चा तथा विचारों के आदान-प्रदान से तय हो जाते हैं।
लोक लेखा समिति का संबंध ऐसे लेन-देनों तथा हानियों से होता है जो हो चुके होते हैं। यह लोक लेखाओं की शव-परीक्षा (Post-mortem) के समान है। फिर भी समिति के प्रतिवेदन मार्गदर्शन तथा चेतावनी के रूप में महत्व रखते हैं। लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष के शब्दों में, “यह प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति ऐसा भी है जो इस बात की जांच या समीक्षा करेगा कि क्या किया गया है, तथा यह कार्यपालिका के शैथिल्य या लापरवाही पर बहुत बड़ा प्रतिबंध लगाती है। यह परीक्षण यदि उचित ढंग से किया जाये तो प्रशासन में सामान्य क्षमता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। समिति की जांच भावी अनुमानों तथा भावी नीतियों दोनों के लिए ही मार्गदर्शक के रूप में योग देती है।” यह स्मरणीय है कि लोक लेखा समिति निष्पादकीय निकाय नहीं है क्योंकि इसे कोई निष्पादकीय अधिकार नहीं दिये गये हैं। इसका कार्य केवल लोक-व्यय की पुनरीक्षा तक ही सीमित है। यह सामान्य आशा है कि समिति सार्वजनिक व्यय पर नियंत्रण के लिए एक प्रभावशाली शक्ति सिद्ध होगी।
लोक लेखा समिति का स्वरूप तथा बनावट
भारतीय लोक लेखा समिति वस्तुत: एक संसदीय समिति कही जा सकती है। यह लोक सभा के अध्यक्ष के मार्गदर्शन में कार्य करती है तथा लोकसभा में कार्य करती है तथा लोक सभा में विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधत्व के अनुपात में ही इस समिति में विभिन्न राजनीतिक दलों से सदस्यों का चयन किया जाता है। इस समिति के अध्यक्ष का मनोनयन लोकसभा अध्यक्ष द्वारा किया जाता है तथा लोक सभा सचिवालय इस समिति के कार्यालय की भूमिका अदा करता है। संसदीय कार्यवाही तथा प्रक्रिया नियम 143 में किए गये 4 मई, 1951 के संशोधन के अन्तर्गत लोक लेखा समिति के स्वरूप तथा बनावट को निरूपित करने के लिए निम्न प्रावधान किए गये हैं :- संसद द्वारा पारित विनियोजनों से संबंधित लेखों की जांच के लिए एक लोक लेखा समिति होगी जिसमें 15 सदस्य होंगे। समिति के सदस्यों का संसद द्वारा प्रति वर्ष अनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर एकल परिवर्तनीय मत प्रणाली (Single Transferable Vote System) की सहायता से चयन किया जाता है।
- यदि समिति का अध्यक्ष किसी कारण अनुपस्थित रहे तो स्वयं समिति अपने में से किसी सदस्य को अध्यक्ष नियुक्त कर सकती है।
- समिति का कार्यकाल एक वर्ष का होगा तथा इसमें जो रिक्त स्थान होते जायेंगे उनकी पूर्ति उपर्युक्त मतदान पद्धति से निरन्तर रूप से की जाती है। नव-निर्वाचित सदस्य तब तक अपने पद पर बना रहेगा जब तक उनका पूर्ववर्ती (person in whose place he is elected) इस पद पर बना रहेगा।
- कार्यवाही संचालन के लिए समिति की बैठक में कम से कम चार सदस्य उपस्थित होने चाहिए। सदस्यों में से ही लोक सभा अध्यक्ष द्वारा किसी को समिति का मुखिया (Chairman) मनोनीत किया जाता है, पर यदि लोक सभा का उपाध्यक्ष ही समिति का सदस्य चुना जाता है तो फिर वही लोक लेखा समिति (P.A.C.) का अध्यक्ष नियुक्त किया जायेगा।
- किसी विषय पर मतदान हो और यदि बराबर मत पड़े तो निर्णय करने के लिए समिति के मुखिया को दुबारा मत देने (Casting Vote or Second Vote) का अधिकार प्राप्त होता है।
लोक लेखा समिति का पुनर्गठन
1953 में भारतीय राज्यसभा (Upper House) की नियम समिति (Rule Committee) ने अपने अध्यक्ष से लोक लेखा समिति में राज्य सभा के सदस्यों को भी मनोनीत करने की सिफारिश की, ताकि पी.ए.सी. एक संयुक्त समिति के रूप में कार्य कर सके। लोक सभा ने 23 फरवरी, 1953 को इस प्रस्ताव को एक मत से अस्वीकार कर दिया। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने दोनों सदनों के बीच बढ़ती कटुता को रोकने हेतु लोक सभा में स्वयं एक प्रस्ताव रखकर राज्य सभा से लोक लेखा समिति के लिए सात सदस्य मनोनीत करने का अनुरोध प्रस्ताव 12 मई, 1953 को पास करवा लिया। 1954 से लोक लेखा समिति में कुल 22 सदस्य होते हैं जिनमें से 15 लोक सभा से तथा 7 राज्य सभा से चुने जाते हैं।लोकसभा में भारी बहस के समय सदस्यों ने इस परिवर्तन को लोक सभा के वित्तीय अधिकारों पर राज्य सभा का हस्तक्षेप करार दिया था। अपनी इस भावना के अनुरूप लोक सभा इसे दोनों अनुमान समिति, सार्वजनिक लेखा समिति एवं सार्वजनिक उद्यम समिति सदनों की संयुक्त समिति मानने को तैयार नहीं थी। ऐसी स्थिति में तत्कालीन लोक सभा अध्यक्ष मावलंकर ने अपनी व्यवस्था देते हुए कहा था कि, “यह संयुक्त समिति नहीं है। यह लोक सभा अध्यख के नियंत्रण में लोक सभा समिति है। जहां पर विचार-विमर्श तथा मतदान का सवाल है उनका भी वही सम्माननीय स्थान होगा, वे भी तो आखिर सदस्य हैं। केवल यही अन्तर होगा कि वे लोक लेखा समिति के सदस्य के रूप में काम करेंगे तो वे लोक सभा अध्यक्ष के नियंत्रण में कार्य करेंगे।”
इस स्पष्टीकरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि लोक लेखा समिति अपने वर्तमान स्वरूप में भी एक संयुक्त समिति के रूप में कार्य नहीं करती। इसके अलावा एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि 1967 तक इस समिति का अध्यक्ष शासक दल का ही कोई सदस्य हुआ करता था, जबकि ब्रिटिश परम्परा में विरोधी दल का कोई सम्माननीय सदस्य लोक लेखा समिति का अध्यक्ष हुआ करता है। भारत में इस परम्परा का निर्वाह न होने का एक प्रमुख कारण हमारे देश में किसी स्पष्ट मान्यता प्राप्त विरोधी दल का अभाव माना जा सकता है। सन् 1969 में प्रथम बार श्री मीनू मसानी विरोधी दल के नेता बने तो उन्हें लोक लेखा समिति का अध्यक्ष भी मनोनीत कर लिया गया और इसके साथ एक स्वस्थ परम्परा की शुरूआत हमारे देश के संसदीय इतिहास में हुई ऐसा कहा जा सकता है। समिति के चुनाव प्रतिवर्ष होते हैं जबकि इसका द्वि-वार्षिक कार्यकाल होता है। इसी कारण हर समय इस समिति में कुछ अनुभवी सदस्य बने रहते हैं। फलत: समिति के अध्यक्ष के प्रभावशाली मार्गदर्शन में अधिक तत्परता, कुशलता तथा पार्टी हितों से परे हटकर यह समिति अपना कार्य करती है।
लोक लेखा समिति के अधिकार तथा कर्तव्य
लोक लेखा समिति के कार्यों की शुरूआत भारत के महालेखापरीक्षक ;ब्।ळद्ध के प्रतिवेदन को प्राप्त करने के साथ होती है। प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के पश्चात् समिति की अनौपचारिक बैठक में महालेखापरीक्षक समिति को अपने प्रतिवेदन में उठाये गये मुख्य मुद्दों की पृष्ठभूमि तथा इनमें अन्तर्निहित गंभीर अनियमितताओं बाबत पूरी जानकारी देता है। यह समिति को विचारणीय बिन्दुओं की संक्षिप्त सूची बनाने तथा विभागों एवं मंत्रालयों के अधिकारियों के स्पष्टीकरण चाहने के लिए संभावित तर्क श्रृंखला के संदर्भ में भी अपनी राय बतलाता है। स्वयं ए.जी. अथवा उसका प्रतिनिधि समिति की बैठक के समय उपस्थित रहता है जब समिति द्वारा विभागीय अधिकारियों से जवाब तलब किया जाता है।भारतीय संसदीय कार्यवाही नियम 143 के तहत महालेखापरीक्षक से प्राप्त जानकारी की पृष्ठभूमि में लोक लेखा समिति के कार्यों को निम्नवत् निरूपित किया गया है :
- भारत सरकार के विनियोजन लेखों का सूक्ष्म निरीक्षण करना;
- क्या व्यय उसी अधिकारी द्वारा किया गया है जो उसके लिए अधिकृत है?
- लेखों में दिखायी गई राशि को क्या वैध रूप से प्राप्त किया गया है तथा क्या उसे उन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए खर्च किया गया है जिनके लिए संसद ने अपने विनियोजन अधिनियम में स्वीकृति दे रखी है ;
- विभिन्न सरकारी निगमों, उत्पादक संस्थानों तथा योजनाओं (Projects) के आय-व्यय के ब्यौरे तथा उनसे संबंधित महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदन में दर्शायी टिप्पणियों की जांच करे ;
- तैयार किए गये प्रतिवेदन पर विचार करना तथा
- संसद अथवा राष्ट्रपति के आदेशों के अनुसार किसी स्वतंत्र निकाय अथवा निगम (Autonomous Bureau of Corportion) के लेखों के लिए महालेखापरीक्षक द्वारा तैयार अंकेक्षण प्रतिवेदनों की पृष्ठभूमि में इन इकाइयों के आय-व्यय लेखों की जांच करना
लोक लेखा समिति की कार्य प्रक्रिया
अपने गठन के पश्चात् समिति अपनी कार्यवाही की रूपरेखा तैयार कर सभी मंत्रालयों को तथा विभागों को सूचित कर देती है, ताकि उनके प्रतिनिधि नियत तिथि को समिति तथा महालेखा परीक्षक के समक्ष अपना स्पष्टीकरण देने को पूर्ण तैयारी के साथ उपस्थित हो सकें। आवश्यकतानुसार लोक लेखा समिति अपने को छोटे-छोटे कार्य समूहों में विभाजित करके अलग-अलग विभागों के लेखों की जांच व निरीक्षण का कार्य भी करती है। लेकिन विभागीय अधिकारियों की सुनवाई किसी अलग कार्य दल द्वारा नहीं की जा सकती है। यह तो कार्यदल द्वारा तैयार प्रतिवेदन के परिप्रेक्ष्य में पूरी समिति के समक्ष ही होती है।आवश्यकता पड़ने पर समिति अपने सदस्यों के एक छोटे से अध्ययन दल को किसी योजना (Project) अथवा निगम के मौके पर निरीक्षण के लिए भेज सकती है।
समिति को यह पूरा अधिकार है कि वह अपनी जांच से संबंधित किसी दस्तावेज अथवा परिपत्र को मंगवाये अथवा किसी व्यक्ति को बुलवाये (यदि राष्ट्रीय सुरक्षा को इससे कोई खतरा उत्पन्न न हो।) अनुमान समिति, सार्वजनिक लेखा समिति एवं सार्वजनिक उद्यम समिति संसदीय लोकतंत्र व्यवस्था में लोक लेखा समिति एक ऐसा मंच है जहां सरकारी अधिकारी तथा लोक प्रतिनिधि आमने-सामने बैठकर विचार-विमर्श करते हैं तथा सचिव स्तर के अधिकारियों को विभिन्न राजनीतिक दलों के यदा-कदा गुस्सैल सदस्यों के प्रश्नों के विनम्रता से उत्तर देने की अग्नि परीक्षा से गुजरना होता है। यदि वे अपने स्पष्टीकरण से समिति को संतुष्ट नहीं कर पाते हैं तो हार कर यह आश्वासन देना पड़ता है कि भविष्य में लोक व्यय में अपव्यय अथवा ऐसी किसी भी त्रृटि को टालने का प्रयास किया जाएगा। इस मौखिक स्पष्टीकरणों के साथ लिखित स्पष्टीकरण भी लिए जाते हैं तथा समिति की पूरी कार्यवाही का ब्यौरा शब्दश: रखा जाता है।
लोक लेखा समिति द्वारा कार्य निष्पादन समीक्षा
लोक लेखा समिति ने अर्थ-व्यवस्था के महत्वपूर्ण क्षेत्रों तथा सरकार की विभिन्न योजनाओं और संगठनों के बारे में सर्वांगीण कार्य निष्पादन परीक्षा की है। इसने इस बात पर भी ध्यान दिया है कि क्या सरकार द्वारा आरम्भ की गयी विभिन्न योजनाओं और परियोजनाओं से अपेक्षित परिणाम प्राप्त हुए हैं अथवा नहीं। लोक लेखा समिति का कार्य न केवल वित्तीय अनियमितताओं को प्रकट करना है बल्कि ‘समग्र सामग्री निवेश’ (इन-पुट) और उससे प्राप्त ‘उत्पादन’ में उचित समन्वय होने या न होने को भी प्रकाश में लाना है। समिति ने उक्त चुनौतीपूर्ण कार्य को बहुत हद तक पूरा किया है। इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए वर्ष 1967.67 में समिति ने रेलवे के कार्य निष्पादन का मूल्यांकन योजना लक्ष्यों के संदर्भ में किया और यह टिप्पणी की है कि सरकार द्वारा अपनायी गयी नीति और तरीके दोषपूर्ण और अवास्तविक थे और उनमें पूंजी निवेश आवश्यकता से अधिक किया गया जिसका अर्थ-व्यवस्था के अन्य आवश्यक क्षेत्रों पर दुष्प्रभाव पड़ा। इसकी समीक्षा की गयी और परिणामत: चौथी पंचवष्र्ाीय योजना में रेलवे के लिए कुल परिव्यय 1.525 करोड़ रूपये से घटाकर 1.275 करोड़ रूपए कर दिया गया।लोक लेखा समिति के कार्यो का मूल्यांकन
लोक लेखा समिति ने अपनी सिफारिशों को लागू कराने बाबत प्रक्रिया को नियमबद्ध कर रखा है। आन्तरिक कार्य नियम 27 में कहा गया है कि, “लोक सभा सचिवालय की लोक लेखा समिति शाखा द्वारा एक पूर्ण विवरण (Up-to-date Statement) रखा जाएगा जिसमें लोक लेखा समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए विभिन्न मंत्रालयों द्वारा उठाये गये अथवा संभावित कदमों का ब्यौरा हो... तथा कमेटी की अगली बैठक के कम से कम एक सप्ताह पूर्व सभी सदस्यों में वितरित करने की व्यवस्था करें।”यद्यपि सरकार के लिए समिति की हर सिफारिश मानना अनिवार्य नहीं है किन्तु व्यवहार में सरकार ऐसा प्रयास करती है कि समिति की अधिकाधिक सिफारिशों का क्रियान्वित करे। मोटे तौर पर समिति की सिफारिशें तीन शीर्षों में विभाजित की जा सकती है :
- प्रशासनिक मामलों में लोक लेखा समिति की सिफारिशेंं - प्रशासकों के अधिकार तथा उन्हें उपयोग करने की स्वतंत्रता एवं नियमों की अवमानना से होने वाली आर्थिक क्षति के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को दंडित करने से संबंधित अनेक अनुशंसाएं (Recommendatoins) लोक लेखा समिति द्वारा अपने विभिन्न प्रतिवेदनों में की गयी हैं।
- वित्तीय प्रशासन से संबंधित मुद्दों पर सुझाव देना - जैसे समय पर लेखा तथा प्रतिवेदन प्रस्तुत करना, बजट तथा अति-व्यय (Over expenditure) पर नियंत्रण, बिना संसदीय स्वीकृति के वित्तीय वर्ष में नयी योजनाएं प्रारम्भ करने की परिपाटी, समय-समय पर विभिन्न विभागों तथा लेखा-अधिकारियों द्वारा तैयार किए गये लेखों में समन्वय, बिना अनुमान किए योजनाओं पर व्यय करने की प्रवृति, राज्यों को दिए जाने वाले अनुदानों में अनियमितता, योजना प्रावधानों के अनुरूप विभिन्न योजनाएं पूरी न हो पाना, अंकेक्षण व्यवस्था का विस्तार कर आन्तरिक तथा प्रशासनिक अंकेक्षण प्रारम्भ करना, आदि मामलों पर समिति अपने सुझाव देती रहती है।
- अन्य सामान्य मामलों में समिति सरकार के विभिन्न ठेकेदारी शर्तों, भण्डारण (Stores), कार्यशालाओं (Workshops) तथा सुरक्षा कारखानों में पायी जाने वाली अनियमितताओं की ओर भी सरकार का ध्यान आकर्षित करती रही है।