संस्कृति अपने व्यापक रूप में ज्ञान, कला, साहित्य, विचारधारा, सामाजिक-धार्मिक
प्रथाओं, कानून एवं अन्य क्षमताओं और आदतों का मिश्रित रूप है, जिसे मनुष्य अपने समाज
से अर्जित करता है। अर्थात, यह सामूहिक ज्ञान प्रणाली है जो मनुष्य को संस्कार देती है।
इसलिए कहा जा सकता है कि संस्कृति से उन संस्कारों का बोध होता है जिनके सहारे
मनुष्य अपने व्यक्तिगत अथवा सामाजिक जीवन के आदर्शों का निर्माण करता है।
एक बड़े लेखक का कहना है कि
‘‘संसार भर में जो भी सर्वोत्तम बातें जानी या कही गई हैं, उनसे अपने आप को परिचित
करना संस्कृति है।‘‘ एक दूसरी परिभाषा में यह कहा गया है कि, ‘‘संस्कृति शारीरिक या
मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण, दृढ़ीकरण या विकास अथवा उससे उत्पन्न अवस्था है।‘‘
संस्कृति क्या है?
संस्कृति वह जटिल समग्रता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून प्रथा तथा ऐसी ही अन्य क्षमताओं
व आदतों को शामिल किया जाता है, जो मनुष्य द्वारा समाज का एक सदस्य
होने के नाते प्राप्त की जाती है।” संस्कृति मानव की सर्वश्रेष्ठ धरोहर है, जिसकी
सहायता से वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ता जा रहा है। संस्कृति के अभाव में
मानव समाज की रचना सम्भव नहीं है। संस्कृति एक सामाजिक विरासत है जिसे
भौतिक तथा अभौतिक अथवा मूर्त व अमूर्त भागों में विभक्त किया जा सकता
है। लोबी के अनुसार सम्पूर्ण सामाजिक परम्परा को
संस्कृति कहते हैं।
संस्कृति मनुष्य के सीखे हुए व्यवहार-प्रतिमानों का योग है। मनुष्य जिस समाज में जन्म लेता है, उसी संस्कृति को धीरे-धीरे समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा सीखता है। एक मनुष्य का लालन-पालन किसी सांस्कृतिक पर्यावरण में ही होता है। संस्कृति में प्रचलित रीति-रिवाजों, धर्म, दर्शन, संगीत, कला, विज्ञान प्रथाओं इत्यादि का प्रभाव मनुष्य के व्यक्तित्व पर पड़ता है।
संस्कृति मनुष्य के सीखे हुए व्यवहार-प्रतिमानों का योग है। मनुष्य जिस समाज में जन्म लेता है, उसी संस्कृति को धीरे-धीरे समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा सीखता है। एक मनुष्य का लालन-पालन किसी सांस्कृतिक पर्यावरण में ही होता है। संस्कृति में प्रचलित रीति-रिवाजों, धर्म, दर्शन, संगीत, कला, विज्ञान प्रथाओं इत्यादि का प्रभाव मनुष्य के व्यक्तित्व पर पड़ता है।
सभी समाजों में
धर्म, परिवार, विवाह, रिश्ते-नातेदारी, प्रथाएँ इत्यादि देखने को मिलती है, चाहे
इनके बाहरी आवरण में कुछ अन्तर क्यों न हो। प्रत्येक संस्कृति में कुछ तत्व
ऐसे होते हैं जो सभी संस्कृतियों में सामान्य रूप से पाये जाते हैं।
संस्कृति का अर्थ
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज से पृथक रहकर अपना अस्तित्व नहीं बनाए रख पाता है। इसके लिए उसे समाज की धारा से जुड़ना पड़ता है, जो कि समाज को निश्चितता एवं स्थायित्व प्रदान करती है। इसी पूर्ण, स्थायी एवं निश्चित व्यवस्था को संस्कृति कहते हैं। इससे समाज के आधारभूत विचार यथा-रीति रिवाज, परम्पराएँ, मशीन, उपकरण, नैतिकता कला, विज्ञान, धर्म विश्वास, सामाजिक संगठन, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था आदि को सम्मिलित किया जाता है।
संस्कृति शब्द का अंग्रेजी रूपान्तरण "Culture" है, जो कि लैटिन शब्द ‘‘कल्बुरा’’ से बना है, जिसका अर्थ है - ‘‘सुधरी हुई दशा’’ अर्थात् संस्कृति मनुष्य के सीखे गए अच्छे अनुभवों की परिणति है। आदिमकाल में आज तक मनुष्य अपने अस्तित्व एवं सामंजस्य के लिए प्रकृति के साथ निरंतर संघर्ष करता आया है, जिसके फलस्वरूप प्राप्त सुखानुभूतियों का योग संस्कृति है। जिसे एक पढ़ी अगली पीढ़ी तक हस्तांतरित करती रहती है। सामाजिक जीवन की इस हस्तांतरण प्रणाली में मनुष्य मूर्त एवं अमूर्त दोनों ही प्रकार के व्यवहार को हस्तांतरित करता हैं तथा अपने जीवन-यापन के लिए एक कृत्रिम वातावरण का सृजन करता है।
संस्कृति की परिभाषा
विभिन्न विद्वानों ने संस्कृति की व्याख्या विभिन्न प्रकार की है।
टैक्लर के अनुसार ‘‘संस्कृति मनुष्य द्वारा समाज के सदस्य के रूप में ज्ञान विश्वास कला, नैतिकता, कानून, रिवाज तथा अन्य योग्यताओं को अर्जित करने की एक जटिल प्रक्रिया है।’’
वाल्टर के अनुसार ‘‘संस्कृति का कार्य तथा विचार सीखी गयी एक पद्धति है। जो कि समूह के सदस्यों को प्रदान की जाती है और जिससे व्यक्ति के जीवन की महत्वपूर्ण समस्याओं का एक परीक्षित समाधान प्राप्त होता है। इस प्रकार संस्कृति मनुष्य का एक महत्वपूर्ण तथा विशिष्ट लक्षण है।’’
वुडवर्थ के अनुसार ‘‘संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित की जाने वाली प्रक्रिया है, जिसमें कानून, नैतिकताएँ, ज्ञान, विश्वास तथा संचार की कला को सम्मिलित किया जा सकता है।’’
डाॅ. भगवान दास के अनुसार,‘‘ मानसिक क्षेत्र में मनुष्य की प्रत्येक उन्नति संस्कृति का अंग है। इसमें धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान विज्ञान और कलाएं तथा सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं एवं प्रथाओं का समावेश होता है।
‘‘श्री के.एम .मुंशी के अनुसार संक्षिप्त में, ‘‘वस्तुतः संस्कृति जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण है।
‘‘पाश्चात्य विद्वान व्हाइट के अनुसार , ‘‘संस्कृति एक प्रतीकात्मक निरंतर संचयी एवं उन्नतिशील प्रक्रिया है।
‘‘ एक अन्य विद्वान टायलर के अनुसार ‘‘संस्कृति एक जटिल संपूर्ण विचार है जिसमें समाज का सदस्य होने के नाते मनुष्य का सभी ज्ञान, विश्वास, कलाएं, नैतिकता, कानून, परम्परायें और बाकी अन्य सभी क्षमताएं और आदतें सम्मिलित हैं।‘‘
इस प्रकार स्पष्ट है कि संस्कृति उन सभी भौतिक एवं अभौतिक वस्तुओं से संबंधित प्रत्यय हैं, जो समाज के पास उपलब्ध है। दूसरे शब्दों में जीवन-यापन के विशिष्ट ढंग जिसमें बौद्धिक एवं भौतिक दोनों प्रकार के तथ्यों का समावेश करता है संस्कृति के माध्यम से ही एक समाज की दूसरे समाज से अलग पहचान की जाती है। यद्यपि प्रत्येक समाज की अपनी संस्कृति होती है तथापि कुछ सामान्य कारक सभी समाजों की संस्कृति में एक समान होते है।
संस्कृति की विशेषताएं
संस्कृति की विशेषताएं या प्रकृति को इन बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है :- संस्कृति मानव आवश्यकताओं को पूरा करती है।
- संस्कृति किसी समाज की एक अमूल्य धरोहर होती है।
- संस्कृति मानव-निर्मित होती है।
- संस्कृति का हस्तान्तरण पीढी-दर-पीढ़ी होता रहता है।
- संस्कृति वंशानुक्रमण में प्राप्त होती है।
- संस्कृति सीखी व अपनायी जाती है।
- संस्कृति में सामाजिक गुण शामिल रहता है।
- संस्कृति समूह के लिए आदर्श होती है।
- प्रत्येक समाज की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति होती है।
- संस्कृति में अनुकूलन की क्षमता होती है।
- संस्कृति में संतुलन एवं संगठन होता है।
- मानव व्यक्तित्व के निर्माण से संस्कृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
- संस्कृति मानव एवं जीवन से ऊपर तथा श्रेष्ठ होती है।
संस्कृति के प्रकार
संस्कृति दो प्रकार की हो सकती है :- भौतिक संस्कृति, तथा
- अभौतिक संस्कृति।
1. भौतिक संस्कृति
मनुष्य द्वारा निर्मित भौतिक तथा मूर्त वस्तुओं को भौतिक संस्कृति में शामिल किया जाता है। मनुष्य ने विभिन्न प्रकृतिदत्त वस्तुओं व शक्तियों को परिवर्तित करके अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया है। ये सभी भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत आती है। भौतिक संस्कृति में साइकिल, स्कूटर, कार, पेन-पेन्सिल, कागज, पंखे, कूलर, फ्रिज, बल्ब, रेल, जहाज, वायुयान, टेलीफोन, मोबाइल इत्यादि सभी आते हैं।भौतिक
संस्कृति के सभी अंगों व तत्वों को सूचीबद्ध करन सरल कार्य नहीं है।
मानव समाज के विकास के साथ-साथ भौतिक संस्कृति का भी विकास
हुआ तथा पुरानी पीढ़ी की तुलना में नयी पीढ़ी के पास भौतिक संस्कृति
अधिक है।
2. अभौतिक संस्कृति
इस संस्कृति में सामान्यत: सामाजिक विरासत में प्राप्त विश्वास, विचार, व्यवहार, प्रथा, रीति-रिवाज, मनोवृत्ति, ज्ञान, साहित्य, भाषा, संगीत, धर्म, नैतिकता इत्यादि को शामि किया जाता है। ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे चलती है तथा प्रत्येक पीढ़ी में इसका अर्जन व परिवर्तन भी सम्भव होता है। यदि को व्यक्ति अपने समाज के रीति-रिवाजों प्रथाओं, धर्म व नैतिकता के विरूद्ध कार्य करता है तो उसे आलोचना या निन्दा का शिकार होना पड़ता है।महत्वपूर्ण है कि अभौतिक संस्कृति भौतिक
संस्कृति की तुलना में कम परिवर्तनशील है तथा इसमें अधिक स्थायित्व पाया
जाता है।
सांस्कृतिक के घटक
‘संस्कृति’ शब्द के अन्तर्गत मूल्य, मापदंड, कलाकृतियां तथा लोगों के स्वीकृत व्यवहार के स्वरूप आते हैं जिनका बहुत लम्बे काल के अंतर्गत समाज में विकास हुआ है। संस्कृति की परिभाषा व्यवहार की समग्रता (totality of behaviour) के रूप में भी दी जाती है जिसे मानव समाज आपने पुरखों से सीखता है और फिर उन्हें आगे आने वाली पीढ़ी को सिखाता है। समाज में जो सांस्कृतिक परिवर्तन हुआ है तथा अभी भी जो हो रहा है उसके कारक रहे हैं- विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में प्रगति, बड़े पैमाने के उद्योगों का विकास तथा देश के अंदर एवं देश के बाहर परिवहन और संचार के साधनों में सुधार।औद्योगिक प्रगति के चलते विभिन्न प्रकार की वस्तुओं और
सेवाओं के लिए मांग होने लगी है, लोगों की रुचि और पसंद में परिवर्तन हुआ
है तथा इन सभी का प्रभाव लोगों की आदतों और रीति-रिवाजों पर पड़ा है।
1. धर्म
धर्म संस्कृति का अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व है। यह मानवीय क्रियाओं के प्रति
लोगों की अभिवृत्तियों, उनके नैतिक मूल्यों और आचार-नीतियों को प्रभावित करता
है। भारत में व्यवसाय को इसलिए बुरा माना गया है कि इसका संबंध धन
अर्जन से है जिसे धर्म अच्छा नहीं मानता। लेकिन समय बीतने के साथ-साथ
इस धारणा में परिवर्तन आया है। फिर भी मानदारी सच्चा तथा कष्ट में पड़े
हुए लोगों के प्रति सहानुभूति ऐसे मौलिक मूल्य हैं जिनका धर्म के साथ गहरा
संबंध होता है और इन्हें अपनाना लोग अच्छा मानते हैं।
सामाजिक शक्ति के
रूप में धर्म ने तो लोगों के बीच मजबूत संवेदात्मक बंधन की व्यवस्था की है
परन्तु दूसरी ओर धार्मिक कट्टरपंथिता ने लोगों के दृष्टिकोण को फिरकावादी
बना दिया है और इसके चलते लोग दूसरों के मत के प्रति हठधर्मी और असहिष्णु
हो गये हैं।
भारतीय समाज विभिन्न धर्मों के लोगों से बना है। अलग-अलग धार्मिक समुदायों में अलग-अलग पंथ एवं संप्रदाय हैं। लोग अपनी आस्था के अनुसार धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करते हैं। उनकी आस्थाओं, आदतों और रीति-रिवाजों में उनके धर्म की झलक मिलती है। धर्म निरपेक्षता को भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पक्ष माना जाता है। धर्मनिरपेक्षता से आशय यह होता है कि राज्य, नैतिक सिद्धांत, शिक्षा आदि का धर्म से को संबंध नहीं होता। भारत के संविधान में यह सुनिश्चित कर दिया गया है कि भारत के नागरिकों को अपने-अपने धर्मों को पालने का अधिकार है परन्तु राज्य का को धर्म नहीं होगा।
भारतीय समाज विभिन्न धर्मों के लोगों से बना है। अलग-अलग धार्मिक समुदायों में अलग-अलग पंथ एवं संप्रदाय हैं। लोग अपनी आस्था के अनुसार धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करते हैं। उनकी आस्थाओं, आदतों और रीति-रिवाजों में उनके धर्म की झलक मिलती है। धर्म निरपेक्षता को भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पक्ष माना जाता है। धर्मनिरपेक्षता से आशय यह होता है कि राज्य, नैतिक सिद्धांत, शिक्षा आदि का धर्म से को संबंध नहीं होता। भारत के संविधान में यह सुनिश्चित कर दिया गया है कि भारत के नागरिकों को अपने-अपने धर्मों को पालने का अधिकार है परन्तु राज्य का को धर्म नहीं होगा।
भारत को धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। इस प्रकार लोग
अपने निजी और सामाजिक जीवन में अपने-अपने धार्मिक अनुष्ठानों का पालन
करते हैं लेकिन उनके सामाजिक दायित्वों पर धर्म का को प्रभाव नहीं पड़ता।
धर्म निरपेक्षता के लाभकारी प्रभावों का परीक्षण करने पर हम पाएंगे कि इसका क्या महत्व है। पहली बात तो यह है कि शिक्षा, रोजगार तथा सरकारी कार्यों से संबंधित लोगों के सार्वजनिक जीवन में धर्म के आधार पर उनके बीच को भेदभाव नहीं किया जाता। दूसरी बात है कि विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के अनुयायी अपनी सामान्य समस्याओं का समाधान एक साथ मिलकर करते हैं। खाद्य पदार्थों को छोड़कर अन्य वस्तुओं के व्यवसाय के संबंध में ग्राहकों के साथ धार्मिक आधार पर को भेदभाव नहीं किया जाता।
धर्म निरपेक्षता के लाभकारी प्रभावों का परीक्षण करने पर हम पाएंगे कि इसका क्या महत्व है। पहली बात तो यह है कि शिक्षा, रोजगार तथा सरकारी कार्यों से संबंधित लोगों के सार्वजनिक जीवन में धर्म के आधार पर उनके बीच को भेदभाव नहीं किया जाता। दूसरी बात है कि विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के अनुयायी अपनी सामान्य समस्याओं का समाधान एक साथ मिलकर करते हैं। खाद्य पदार्थों को छोड़कर अन्य वस्तुओं के व्यवसाय के संबंध में ग्राहकों के साथ धार्मिक आधार पर को भेदभाव नहीं किया जाता।
इसके अतिरिक्त चूँकि
सभी धर्मों के बुनियादी मूल्य तथा आचार-नीतियां एक जैसी हैं अत: सामान्य
आधार पर उनके बीच एकता कायम रखी जा सकती है।
2. मूल्य
संस्कृति का एक अन्य महत्वपूर्ण तत्व मूल्य है। सभी समाजों के लोगों की
मान्यता होती है कि कुछ आचार-विचार उनके लिए उचित होंगे। इन्हें मूल्य कहा
जाता है। मूल्य प्रणाली से आशय यह होता है कि कुछ कार्यों को उनके उचित
होने की प्राथमिकता और वांछनीय के सापेक्ष महत्व के आधार पर किया जाए।
इसी के आधार पर व्यक्ति तथा व्यक्तियों का समूह अच्छे और बुरे के बीच अंतर
कर पाता है। वह जान पाता है कि ‘क्या करना चाहिए’ और ‘क्या नहीं करना
चाहिए’।
सामाजिक संदर्भ में मूल्यों के सापेक्ष महत्व को समझने के लिए उन्हें विभिन्न प्रकार के वर्गों में बांटा जा सकता है। जैसे कि सैद्धांतिक मूल्य (सत्यता और तर्कसंगतता), आर्थिक मूल्य (भौतिक लाभ और व्यावहारिकता), सामाजिक मूल्य (लोगों के प्रति प्रेम, समानता), राजनीतिक मूल्य (शक्ति प्राप्त करना), धार्मिक मूल्य (नैतिकता, सद्व्यवहार) और उपयोगितावादी मूल्य (अधिक लोगों की अधिकतम भला)। किसी मूल्य विशेष को कितनी प्राथमिकता दी जाती है यह इस बात पर निर्भर करता है कि समाज में विभिन्न हितों वाले कौन से लोग हैं।
पश्चिम के समाजों में जिन मूल्यों की प्रधानता है वे एशिया के देशों के मूल्यों से भिन्न हैं। लेकिन मूल्य स्थायी (static) नहीं होते। मध्य युग में पश्चिम के देशों में धार्मिक मूल्यों की प्रधानता थी। लेकिन अब वहां स्थिति बिल्कुल विपरीत हो ग है। मध्य युग में द्रव्य और संपत्ति की प्राप्ति (आर्थिक मूल्य) को दोषपूर्ण माना जाता था लेकिन पूंजीवादी समाज का तो यह प्रमुख गुण माना जाने लगा है। आगे चलकर अल्पविकसित देशों में भी ऐसा ही हुआ।
सामाजिक संदर्भ में मूल्यों के सापेक्ष महत्व को समझने के लिए उन्हें विभिन्न प्रकार के वर्गों में बांटा जा सकता है। जैसे कि सैद्धांतिक मूल्य (सत्यता और तर्कसंगतता), आर्थिक मूल्य (भौतिक लाभ और व्यावहारिकता), सामाजिक मूल्य (लोगों के प्रति प्रेम, समानता), राजनीतिक मूल्य (शक्ति प्राप्त करना), धार्मिक मूल्य (नैतिकता, सद्व्यवहार) और उपयोगितावादी मूल्य (अधिक लोगों की अधिकतम भला)। किसी मूल्य विशेष को कितनी प्राथमिकता दी जाती है यह इस बात पर निर्भर करता है कि समाज में विभिन्न हितों वाले कौन से लोग हैं।
पश्चिम के समाजों में जिन मूल्यों की प्रधानता है वे एशिया के देशों के मूल्यों से भिन्न हैं। लेकिन मूल्य स्थायी (static) नहीं होते। मध्य युग में पश्चिम के देशों में धार्मिक मूल्यों की प्रधानता थी। लेकिन अब वहां स्थिति बिल्कुल विपरीत हो ग है। मध्य युग में द्रव्य और संपत्ति की प्राप्ति (आर्थिक मूल्य) को दोषपूर्ण माना जाता था लेकिन पूंजीवादी समाज का तो यह प्रमुख गुण माना जाने लगा है। आगे चलकर अल्पविकसित देशों में भी ऐसा ही हुआ।
भारत के स्वतंत्र होने
के बाद के पिछले 50 वर्षों के दौरान इस देश के लोगों ने पाश्चात्य मूल्यों को
अपना लिया है, विशेषतः नगरी क्षेत्रों में धार्मिक और सामाजिक मूल्यों के स्थान
पर लोग अब आर्थिक और राजनीतिक मूल्यों पर अधिक बल देने लगे हैं।
संदर्भ -
- श्रीवास्तव, अंजना, महिला शिक्षा तथा कानून, 12।ए चतुर्थ तल, रमन टावर आगरा, राखी प्रकाशन प्रा.लि. (2016)
- दुबे मनीष कुमार, शर्मा अंषु, शारीरिक शिक्षा स्वास्थ्य एवं योग, 12A, चतुर्थ तल, रमन टावर, संजय प्लेस आगरा 282002, राखी प्रकाशन प्रा.लि. (2016)
- पाण्डे रेणु, कार्की निधि, विविधता समावेशित शिक्षा और जेण्डर, 12A, चतुर्थ तल, रमन टावर, संजय प्लेस आगरा 282002, राखी प्रकाशन प्रा.लि. (2016)
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संस्कृति