जन्म से मृत्यु तक 16 संस्कारों का विधान किया गया है। ये संस्कार इस प्रकार हैः

हिन्दू समाज में व्यक्तिगत एंव सामाजिक जीवन को सुव्यवस्था प्रदान करने हेतु जिन संस्थागत आधारों को विकसित किया गया है उनमें संस्कार भी एक हैं। संस्कारों का परम्परागत रूप से हिन्दू सामाजिक संगठन में विशेष
महत्व रहा है। मानव जीवन को संगठित, अनुशासित एवं सुसंस्कृत करने के लिये संस्कारों की व्यवस्था की गई है, ताकि वह समाज में रहकर सुखमय जीवन व्यतीत कर सके। इससे व्यक्ति और समाज दोनों का हित सम्पादित होता था। संस्कार जन्म के पूर्व से लेकर मरणपर्यन्त किये जाते थे। जिनकी परम्परा आज जीवित है। इनका उद्देश्य मनुष्य की आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक शुद्धि होकर समस्त जीवन के उत्थान की अद्भुत परम्परा प्रस्तुत होती है। यह संस्कार इस लोक में तथा परलोक में पवित्र करने वाले होते हैं। 

संस्कार का अर्थ

संस्कार शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से घ´ प्रत्यय ओर सुट् का का आगम करने पर सिद्ध होता है। इसका अर्थ होता है-सजाना, सँवारना, संस्कार पद का निर्वचन करते हुए विद्वज्जन लिखते हैं :-  ‘संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते’ अर्थात् संस्कार पहले से विद्यमान दुर्गुणों को हटाकर सद्गुणों को आधान कर देने का नाम है। मनु ने हिन्दू धर्म के 16 संस्कारों को करने का विधान बतलाया है। 

मनुष्य के लिए इन संस्कारों को आवश्यक रूप से करने का विधान करते हुए मनुस्मृतिकार ने लिखा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपनी सन्तानों के निषेकादि संस्कार अवश्य करें। ये संस्कार इस जन्म तथा परजन्म को पवित्र करने वाले होते हैं।

संस्कार की परिभाषा

राजबली के अनुसार ‘‘धार्मिक विधि-विधान अथवा वह कृत्य हैं, जो आन्तरिक तथा आध्यात्मिक सौन्दर्य का दृश्य प्रतीक माना जाता है। यह भी कहा की ‘‘संस्कार का अर्थ शुद्धि की धार्मिक क्रियाओं तथा व्यक्ति के दैहिक, मानसिक और बौद्धिक परिष्कार के लिये किये जाने वाले अनुष्ठानों से है। इन्हीं अनुष्ठानों से एक हिन्दू समाज का पूर्ण विकसित सदस्य बन पाता है।‘‘ इस प्रकार संस्कार का अर्थ जीवन को परिशुद्ध करने हेतु अपनाई गई कार्य-पद्धति है।

‘‘पी.ए.के.अय्यर के अनुसार ‘‘संस्कारों के लिये निकटतम अंग्रेजी शब्द sacrament है ये वह संस्कार हैं जिनका पूरा करने से हिन्दू का जीवन उच्चतर पवित्रता को प्राप्त करता है। ये उनके समस्त जीवन पर छाए हैं, जिस क्षण से वह माँ के गर्भ में आता है, यह मृत्यु तक उसके अंतिम संस्कार (दाह कर्म) को शामिल करते हुए और आगे भी उसकी आत्मा के अन्य विश्व में प्रवेश को सुगम करने के लिये हैं। 

संस्कारों के प्रमुख उद्देश्य 

संस्कारों के प्रमुख उद्देश्य हैं-
  1. व्यक्तित्व का विकास करते हैं।
  2. आध्यात्मिक प्रगति की दिशा की ओर उन्मुख करते हैं। 
  3. संस्कार व्यक्तियों में आत्मविश्वास की वृद्धि करते हैं अथवा आत्म-अभिव्यक्ति का माध्यम हैं। 
  4. भौतिक समृद्धि प्राप्त करने हेतु सक्षम बनाते हैं।
  5. अनुशासित जीवन जीना सिखाते हैं। 
  6. संस्कार नातेदार व्यवस्था को सुदृढ़ करते हैं तथा सामूहिक एकता को बनाए रखने में सहायता प्रदान करते हैं। 

16 संस्कार के नाम

मानव जीवन को संस्कारित करने के उद्देश्य से,जन्म से मृत्यु तक 16 संस्कारों का विधान किया गया है। ये संस्कार इस प्रकार हैः 
  1. गर्भाधान संस्कार
  2. पुंसवन संस्कार 
  3. सीमन्तोनयन संस्कार 
  4. जातकर्म संस्कार 
  5. नामकरण 
  6. संस्कार निष्क्रमण 
  7. अन्नप्राशन मुण्डन संस्कार या 
  8. चूडाकर्म संस्कार 
  9. उपनयन संस्कार 
  10. वेदारम्भ संस्कार 
  11. केशान्त संस्कार 
  12. समावर्तन संस्कार 
  13. विवाह संस्कार 
  14. वानप्रस्थ संस्कार 
  15. संन्यास संस्कार 
  16. अन्त्येाष्टि संस्कार
1. गर्भाधान संस्कार - यह प्रथम संस्कार है। इसमें स्वस्थ युवक और युवती विवाह के बंधन में बंधकर पति-पत्नि होकर एक दूसरे के संपर्क में आते है। ऋतुस्नाता पत्नि के गर्भ में पति अपने वीर्य को बीज रूप में प्रतिष्ठित करता है। इस प्रक्रिया को गर्भधारण कहते हैं। यह संस्कार यज्ञपूर्वक सम्पन्न होता है।

2. पुंसवन संस्कार - यह दूसरा संस्कार है, जो गर्भ की स्थिति के दूसरे या तीसरे माह में किया जाता है।  इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य गर्भ की पुष्टि तथा गर्भस्थ शिशु को पुत्रत्व प्रदान करना था। इस संस्कार के समय गर्भवती स्त्री की प्रसन्नता के लिये आनंद उत्सवों का आयोजन भी किया जाता है।

3. सीमन्तोनयन संस्कार - यह संस्कार गर्भाधान के चैथे महीने में पूर्ण करने का विधान है।  जो स्त्री के संतोष, आरोग्य, गर्भ स्थिरता एवं उत्कृष्टता आदि के लिये किया जाता है।  यह सामान्यतः गर्भ के चैथे महीने शुक्ल पक्ष में चंद्रमा के मूल नक्षत्र में होने पर होता है।  इस अवसर पर पति अपने हाथ से पत्नि के केशों में सुगन्धित तेल डालकर कंघे से संवारता है।  उक्त तीनों संस्कार शिशु जन्म से पूर्व गर्भकाल में सम्पन्न होते हैं।

4. जातकर्म संस्कार - शिशु जन्म के समय नाभि काटने से पहले बालक का जातकर्म संस्कार किया जाता है। इस संस्कार में बालक को मन्त्रोचारणपूर्वक सोने की शलाका से असमान मात्रा में घी, शहद चटाया जाता है तथा बालक की जिह्वा पर ऊँ लिखा जाता है।

5. नामकरण संस्कार - जन्म से दसवें दिन या बारहवें दिन अथवा किसी शुभमुर्हूत में या शुभ गुण वाले नक्षत्र में इस संस्कार द्वारा बालक का नाम रखा जाता है। भारतीय संस्कारों में अनिवार्य संस्कार है। इसी दिन यज्ञ हवन कर बच्चे का नाम रखा जाता है।  वैदिक विधान के अनुसार पुत्र का नाम 2, 4 और 6 तथा पुत्री का नाम 3 और 5 अक्षरों का होना चाहिये।

6. निष्क्रमण - यह जन्म के चौथे मास में किया जाता है। जिस दिन यह संस्कार होता है।  उस दिन सन्तान को स्नान कराकर सुन्दर वस्त्र पहनाकर शुभ नक्षत्र तथा शुभ तिथि में शुद्ध वायु का सेवन कराने के लिये घर के बाहर निकाला जाता है।  इसी दिन उसे सूर्य और रात में चंद्रमा का दर्शन भी कराया जाता है। 

7. अन्नप्राशन - अन्नप्राशन के लिए छठा महीना उपयुक्त माना गया है। इस महीने में बच्चे को पहली बार अन्न देना प्रारंभ करते थे। इस संस्कार के अंतर्गत यज्ञ आदि के बाद उसे घी मिलाकर चावल अथवा दही या शहद खिलाया जाता है। 

8. मुण्डन संस्कार या चूडाकर्म संस्कार - चूडा का अर्थ है ‘बाल गुच्छ’, जो मुण्डित सिर पर रखा जाता है, इसको शिखा भी कहते हैं। इस संस्कार के अंतर्गत बालक के सिर का पहली बार मुण्डन किया जाता है। इस संस्कार का समय जन्म का पहला या तीसरा वर्ष होता था। नाई बालों का मुण्डन कर बाल को मिट्टी के बर्तन में रखकर अन्यत्र स्थान में गाढ़ आता है।  मुण्डन के बाद बालक को सिर पर मख्खन तथा मलाई लगाकर स्नान कराया जाता है।  इसके बाद वृद्धजन उसे आशीर्वाद देते थे।

9. उपनयन संस्कार - हिन्दू सामाजिक जीवन में इस संस्कार का महत्वपूर्ण स्थान है। इसे यज्ञोपवीत संस्कार भी कहते है। धर्म शास्त्रों के अनुसार व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है। परन्तु उपनयन संस्कार के बाद वह द्विज कहलाने लगता है। इसे सम्पन्न करने के लिये तीनों वर्णो में अलग-अलग विधान है। ब्राह्यण को वसंत, क्षत्रिय को ग्रीष्म तथा वैश्य को शरद ऋतु में यह संस्कार सम्पन्न कराना चाहिये। शुद्र को यह संस्कार करने की मनाही की गई थी।

इसके लिए उचित अवस्था या काल निर्धारित है। ब्राह्मण कुमार का उपनयन गर्भाधान या जन्म से लेकर छठे वर्ष में, क्षत्रिय का आठवें तथा वैश्य का 11वें वर्ष में किया जाता है। 

‘उपनयन’ संस्कार में ‘यज्ञोपवीत’ की मूल भूमिका है। इसलिए इसे ‘यज्ञोपवीत’ संस्कार भी कहा जाता है।

10. वेदारम्भ संस्कार - वेदाध्ययन प्रारम्भ करने के पूर्व जो धार्मिक विधि की जाती है उसको ‘वेदारम्भ संस्कार’ कहते हैं। इस संस्कार के द्वारा शिष्य चारों वेदों के सांगोपांग अध्ययन के लिए नियम धारण करता है। प्रात: काल शुभमुहूर्त में आचार्य (गुरु) यज्ञादि का सम्पादन कर शिष्य को वैदिक मन्त्रों का अध्ययन आरम्भ कराता है। यह संस्कार उपनयन संस्कार वाले दिन ही या उससे एक वर्ष के अन्दर गुरुकुल में सम्पन्न होता है। वेदों के अध्ययन का आरम्भ गायत्राी मन्त्रा से किया जाता है। 

11. केशान्त संस्कार -  इस संस्कार में सिर के तथा शरीर के अन्य भाग जैसे दाढ़ी आदि के केश बनाए जाते हैं। गुरु के समीप रहते हुए जब बालक विधिवत् शिक्षा ग्रहण करते हुए युवा अवस्था में प्रवेश करता है गुरु उसका केशान्त संस्कार करता है।

12. समावर्तन संस्कार - वेद-वेदांगों एवं सम्पूर्ण धर्म शास्त्रों का अध्ययन कर लेने एवं शिक्षा समाप्ति के पश्चात् बालक को स्नातक की उपाधि प्रदान की जाती है। इस संस्कार में गुरु शिष्य को सम्पूर्ण सामग्रियों सहित स्नान करवाता है।समावर्तन संस्कार के साथ मनुष्य के जीवन का पहला चरण अर्थात् ब्रह्मचर्य आश्रम समाप्त होता है तथा गृहस्थ आश्रम आरम्भ होता है।

13. विवाह संस्कार - स्त्री-पुरूष के संयोग को विवाह कहा गया है जिसका हिन्दू संस्कारों में महत्वपूर्ण स्थान है। स्त्री-पुरूष एक रथ के दो चक्र है जिनके बिना संसार प्रवर्तित नहीं होता। वे एक दूसरे के बिना अपूर्ण है। हिन्दू भावना के अनुसार स्त्री-पुरूष का यह संबंध शाश्वत तथा जन्म जन्मांतर है। स्त्री को पुरुष की अर्धांगिनी माना गया है।

14. वानप्रस्थ संस्कार -  केश पक जाने तथा पुत्र का पुत्र उत्पन्न हो जाने गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों को पूरा कर लेने के बाद जीवन के तृतीय चरण में वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश के लिये वानप्रस्थ संस्कार किया जाता है। 

15. संन्यास संस्कार - आयु के अन्तिम भाग में संन्यासी बनने के लिए यह संस्कार किया जाता है। वानप्रस्थ जीवन में रहकर आध्यात्मिकता की और बढत़ े हुये जब व्यक्ति अपने को लोभ, मोह और पक्षपात से मुक्त कर लेता है तो वह सन्यास आश्रम में प्रवेश का अधिकारी हो जाता है। इस आश्रम में प्रवेश से पूर्व जो संस्कार किया जाता है उसे सन्यास संस्कार कहते है। इसमें मंत्रों के साथ व्यक्ति का यज्ञोपवीत और उसके केश जल में प्रवाहित कर दिये जाते है। यह मानसिक दृष्टि से संसार को छोड़ने वाला संस्कार होता है। 

16. अन्त्येाष्टि संस्कार - जीवन यात्रा पूरी होने पर किया जाने वाला अन्त्येष्टि संस्कार होता है। हिन्दू सामाजिक जीवन में मृत्यु के बाद अन्त्येष्टि क्रिया को संस्कार माना जाता है। अन्त्येष्टि संस्कार को विधि विधान से किया जाता था।

मनुष्य जीवन में उपर्युक्त इन हिन्दू धर्म के16 संस्कारों का अत्यन्त महत्व है। मनु ने इन संस्कारों को आवश्यक रूप में करने का निर्देश दिया है। 

इन संस्कारों के करने से मनुष्य के पूर्व जन्म के बुरे कर्मों एवं संस्कारों का निवारण होता है। अत: ये संस्कार अवश्य किए जाने चाहिए।

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