भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं
1. लिखित और विस्तृत संविधान
भारत का संविधान एक लिखित और विस्तृत दस्तावेज़ है। इसमें 444 अनुच्छेद हैं जो 22 भागों में विभाजित हैं इसमें 12 अनुसूचियां शामिल हैं और इसमें 103 संवैधानिक संशोधन भी शामिल किए जा चुके हैं। जैनिंगष (Jennings) इसको विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान घोषित करते हैं। यह अमरीकी संविधान, जिसके 7 अनुच्छेद और 27 संशोधन हैं, जापानी संविधान, जिसके 103 अनुच्छेद हैं और फ़्रांसीसी संविधान, जिसके 92 अनुच्छेद हैं, से कहीं बड़ा है। संविधान के निर्माता किसी भी विषय के प्रति उपेक्षा का अवसर नहीं देना चाहते थे क्योंकि वे स्वतन्त्रता के पश्चात देश में विद्यमान सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक समस्याओं के प्रति पूर्णतया सचेत थे।
अनेकों अनुपम विशेषताएँ शामिल करने जैसे राज्य नीति के निर्देशक सिद्वान्त, संकटकाल स्थिति की व्यवस्थाएँ, भाषायी व्यवस्थाएँ, अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ी श्रेणियों से सम्बन्धित व्यवस्थाएँ, निर्वाचन आयोग, संघीय लोक सेवा आयोग और राज्य लोक सेवा आयोगों आदि जैसी संवैधानिक संस्थाओं की व्यवस्थाओं ने संविधान को काफी लम्बा कर दिया। केन्द्र और राज्यों के लिए साझा संविधान बनाने के निर्णय ने भी इसकी लम्बाई बढ़ाई। इसके साथ ही मौलिक अधिकारों, संघ राज्य सम्बन्धों, संविधान की अनुसूचियों आदि जैसी व्यवस्थाओं को विस्तार में लिखने के कारण भी इसका विस्तार हुआ।
इन्हीं कारणों से संविधान लगभग 400 पृष्ठों की एक पुस्तक बन गया। पिफर समय-समय पर पास हुए संवैधानिक संशोधन ने इसके आकार को और अधिक विस्तृत कर दिया।
संविधान के व्यापक आकार के कारण ही इसकी वकीलों का स्वर्ग कह कर आलोचना की गई और अधिक शब्दों के प्रयोग ने इसको अधिक जटिल और कठोर बना दिया। परन्तु, जैसा कि पहले ही लिखा जा चुका है, संविधान के विशाल आकार का कारण था जहां तक संभव हो सके प्रत्येक विषय को स्पष्ट रूप में लिखने और समाधान करने का निर्णय। 1950 से संविधान के लागू होने पर इसके कार्य-व्यवहार से पता लगता है कि इसके बहुत बड़े आकार ने बाधा नहीं डाली। कुछ व्यवस्थाएँ जैसे कि धारा 31 के अधीन सम्पत्ति का अधिकार (जिसको अब भाग iii में से निकाल दिया गया है) को छोड़ कर संविधान के बड़े ने इसकी व्याख्या करने में कोई विशेष समस्या खड़ी नहीं की। बल्कि शान्ति और युद्व दोनों अवसरों पर देश को उत्तम व्यवस्था और आवश्यक स्थायित्व प्रदान करने का कार्य किया है।
स्वनिर्मित और पारित हुआ संविधान
भारत का संविधान एक ऐसा संविधान है जो भारत के लोगों की अपनी निर्वाचित प्रभुसत्तापूर्ण प्रतिनिधि संस्था संविधान निर्माण सभा के द्वारा तैयार किया गया है। यह सभा दिसम्बर, 1946 में केबिनेट मिशन योजना के अधीन गठित की गई थी। इसने अपना प्रथम अधिवेशन 9 दिसम्बर, 1946 को किया और 22 जनवरी 1947 को अपना उद्देश्य प्रस्ताव पास किया था। इसके पश्चात इसने संविधान निर्माण का कार्य ठीक दिशा में तीव्रता से आरम्भ किया और यह अन्तत: 26 नवम्बर, 1949 को संविधान पारित करने और अपनाने की स्थिति में पहुंची। इस प्रकार भारतीय संविधान स्वनिर्मित है और इसे उचित रूप में पारित किया गया है।
कुछ आलोचक इस आधार पर इस विचार को स्वीकार नहीं करते कि संविधान निर्माण सभा बहुत थोड़े-से मतदाताओं ने ही निर्वाचित की थी जोकि जनसंख्या के 20 प्रतिशत भाग से भी कम थे और यह भी साम्प्रदायिक चुनाव मण्डलों के आधार पर निर्वाचित की गई थी। परन्तु बहुत बड़ी संख्या में विद्वान इस आलोचना को स्वीकार नहीं करते। उनका कहना है कि संविधान निर्माण सभा पूर्णतया प्रतिनिधि संस्था थी और इसको लागों के द्वारा दिए प्रभुसत्ता सम्पन्न अधिकारों का प्रयोग करते हुए इसने संविधान का निर्माण किया था।
संविधान की प्रस्तावना
भारत के संविधान की प्रस्तावना एक अच्छी तरह तैयार किया दस्तावेज है जोकि संविधान के दर्शन और उद्देश्यों का वर्णन करती है। यह घोषणा करती है कि भारत एक ऐसा प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रीय-गणराज्य जिसमें लोगों की न्याय, स्वतन्त्रता और समानता प्रदान करने और भाईचारिक सांझ, व्यक्तिगत आदर, राष्ट्र की एकता और अखण्डता को उत्साहित करने और स्थापित रखने का वचन दिया गया है। प्रस्तावना के आरम्भ में प्रस्तावना को भारतीय संविधान का भाग नहीं माना गया था परन्तु सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा केशवानंद भारती केस में दिए गए निर्णय के पश्चात इसको संविधान का एक भाग मान लिया गया है।
इसमें 42वां संशोधन (1976) के द्वारा संशोधन किया गया और शब्द ‘समाजवाद’, ‘धर्म-निरपेक्ष’ और ‘अखण्डता’ इसमें शामिल किए गए।
भारत एक प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी, धर्म
निरपेक्ष लोकतन्त्रीय, गणराज्य है जैसे कि प्रस्तावना में घोषणा की गई है, भारत एक प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रीय गणराज्य है। ये विशेषताएँ भारतीय राज्य के पांच प्रमुख लक्षणों को प्रकट करती हैं:
1. भारत एक प्रभुसत्ता-सम्पन्न राज्य है – प्रस्तावना घोषित करती है कि भारत एक प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य है। यह इसलिए आवश्यक था कि भारत पर ब्रिटिश शासन समाप्त हो चुका था और भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन नहीं रहा था। इसने 15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश शासन की समाप्ति के पश्चात् भारत को तकनीकी रूप में मिले औपनिवेशिक स्तर के समाप्त होने की भी पुष्टि भी इसमें की गई।भारत राज्यों का एक संघ है
संविधान का अनुच्छेद 1 घोषित करता है: भारत राज्यों का एक मिलन है। यह भारत को न तो एक संघात्मक राज्य और न ही एक एकात्मक राज्य घोषित करता है। इस विचार से दो महत्त्वपूर्ण पक्ष सामने आते हैं। फ्पहला यह कि भारत एक ऐसा संघ नहीं जो प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्यों के द्वारा परस्पर सहमति के परिणाम के रूप में अस्तित्व में आया हो, जैसे कि संयुक्त राज्य अमरीका और दूसरी बात यह है कि भारत की भागीदार इकाइयों (प्रदेशों) को इससे अलग होने का कोई अधिकार नहीं है।
संविधान के द्वारा भारत को 29 भाग ए, भाग बी, भाग सी और भाग डी में बांटा गया था। 1956 में पुनर्गठन के पश्चात भारत का 16 राज्यों और 3 केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों में पुनर्गठन किया गया। धीरे-धीरे कई परिवर्तनों के द्वारा और सिक्कम के भारतीय संघ में शामिल हो जाने पर राज्यों की संख्या बदलती रही है। भारत में अब 28 राज्य और 7 केन्द्र प्रशासित क्षेत्र हैं।
संघीय ढांचा और एकात्मक भावना
भारत का संविधान एकात्मक भावना वाली संघीय संरचना ही स्थापित करता है। विद्वान् भारत को एक अर्ध-फेडरेशन (Quasi-Federation) (के. सी. बीयर) या एकात्मक आधर वाली पैफडरेशन या एकीकृत संघात्मक कह देते हैं। एक संघात्मक राज्य के समान भारत का संविधान ये व्यवस्थाएँ स्थापित करता है: (i) केन्द्र और राज्यों में शक्तियों का विभाजन (ii) एक लिखित और कठोर संविधान (iii) संविधान की सर्वोच्चता (iv) स्वतन्त्र न्यायपालिका जिसको कि शक्तियों के विभाजन के बारे मे केन्द्र-राज्य झगड़ों के निर्णय का भी अधिकार है, और (v) दो-सदनीय संसद। परन्तु बहुत ही शक्तिशाली केन्द्र, साझा संविधान, एकल नागरिकता, संकटकाल स्थिति की व्यवस्था, साझा चुनाव कमीशन, साझी अखिल भारतीय सेवाओं की व्यवस्था करके संविधान स्पष्ट रूप में एकात्मक भावना को प्रकट करता है।
संघवाद और एकात्मकवाद का मिश्रण भारतीय समाज के बहुलवादी स्वरूप और क्षेत्रीय विभिन्नताओं को ध्यान में रख कर और राष्ट्र की एकता और अखण्डता की आवश्यकता के कारण किया गया है। प्रथम ने संघवाद के पक्ष में निर्णय लेने के लिए विवश किया और दूसरी ने एकात्मकता की भावना को अपनाना आवश्यक बना दिया। इस प्रकार भारत का संविधान न तो पूर्णतयासंघीय है और न हीं एकात्मक बल्कि यह दोनों का मिश्रण है। यह आंशिक रूप में संघीय और आंशिक रूप में एकात्मक राज्य है।
कठोरता और लचकशीलता का मिश्रण
भारत का संविधान कई विषयों पर संशोधन के लिए एक कठोर संविधान है। इसकी कुछ व्यवस्थाएँ बहुत कठिन ढंग से संशोधित की जा सकती हैं जबकि दूसरे कुछ प्रावधानों में बड़ी आसानी से संशोधन किया जा सकता है। कुछ मामलों में संसद संविधान के कुछ भाग को केवल एक कानून पारित करके ही संशोधित कर सकती है। उदाहरण के रूप में नए राज्य बनाने, किसी राज्य के क्षेत्र बढ़ाये या घटाने, नागरिकता से सम्बन्धित नियम, किसी राज्य की विधान परिषद् को स्थापित करने या समप्त करने से सम्बन्धित संशोधन आसानी से पारित किए जा सकते हैं।
यहाँ अनुच्छेद 249 के अधीन यह किसी राज्य विषय को राज्य सभा दो तिहाई बहुमत से एक राष्ट्रीय महत्त्व का विषय घोषित कर सकती है और उसे एक वर्ष के लिए केन्द्रीय संसद के कानून निर्माण के अधिकार क्षेत्र में ला सकती है।
इसी प्रकार अनुच्छेद 312 के अधीन इसी ढंग के द्वारा वह कोई भी अखिल भारतीय सेवा संगठित कर सकती है या समाप्त कर सकती है। यह विशेषता संविधान की लचकशीलता को दर्शाती है।
परन्तु अनुच्छेद 368 के अधीन संविधान में संशोधन के लिए व्यवस्था की गई है:
- अधिकतर संवैधानिक व्यवस्थाओं में संशोधन संसद के द्वारा कुल सदस्यों की बहुसंख्या से और विद्यमान सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से दोनों सदनों द्वारा एक संशोधन बिल पास कर के किया जा सकता है।
- कुछ विशेष संवैधानिक व्यवस्थाओं में संशोधन के लिए एक अत्यंत कठोर व्यवस्था की गई है। पहले कुछ विषयों के सम्बन्ध में एक संशोधन प्रस्ताव संसद के कुल सदस्यता के बहुमत और उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से और दोनों सदनों में अलग-अलग प्रस्तावों का पास होना आवश्यक है और उसके पश्चात इसकी पुष्टि के कम-से-कम आर्ध राज्यों की राज्य विधान सभाओं से होना आवश्यक है। इस ढंग के द्वारा संशोधन निम्न विषयों पर किया जाता है: (i) राष्ट्रपति के चुनाव का ढंग (ii) संघीय की कार्यपालिका की शक्तियों की क्षेत्र सीमा (iii) राज्य कार्यपालिकाओं की शक्ति की क्षेत्र-सीमा (iv) संघीय न्यायपालिका से सम्बन्धित प्रावधन (v) राज्यों के उच्च न्यायालयों से सम्बन्धित प्रावधान (vi) वैधानिक शक्तियों का विभाजन (vii) संसद में राज्यों का प्रतिनििध्त्व (viii) संविधान में संशोधन का ढंग और (ix) संविधान की सातवीं अनुसूची।
परन्तु वास्तव में संविधान लचकीला सिद्व हुआ है। इस बात का प्रमाण यह है कि 1950 से 2005 तक संविधान में 92 संशोधन किए गए। कांग्रेस की प्रभावी स्थिति (1950-77), (1980-89) के कारण संविधान में वातावरण के अनुसार परिवर्तन किए गए और कई संकटकाल स्थितियों जैसा कि पंजाब और जम्मू और कश्मीर में केन्द्रीय शासन की अवधि बढ़ाने के लिए भी कुछ संशोधन किए गए। यहाँ तक कि 1989 में बनी साझे मोर्चे की सरकार, को भी अपने शासन के एक वर्ष में 4 संशोधन करने पड़े। अब तक संविधान में 103 संशोधन पास हो चुके हैं। और 86 संशोधन बिल पास किए जाने की प्रक्रिया में हैं।
मौलिक अधिकार
भाग III में अनुच्छेद 12-35 के अधीन भारत का संविधान अपने नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान करता है। आरम्भ में 7 मौलिक अधिकार दिए गए थे परन्तु बाद में मौलिक अधिकारों की श्रेणी में से (42वीं संवैधानिक संशोधन 1976 द्वारा) सम्पत्ति का अधिकार समाप्त कर दिया गया और इस प्रकार मौलिक अधिकारों की संख्या घट कर 6 रह गई है। परन्तु प्रत्येक मौलिक अधिकार में बहुत-से अधिकार और स्वतन्त्रताएँ शामिल हैं। नागरिकों के 6 मौलिक अधिकार हैं:
1. समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18) – इसके अनुसार, कानून के सामने सभी नागरिक समान हैं, इसमें किसी भी प्रकार का भेदभाव न किए जाने की व्यवस्था की गई है। सभी को समान अवसर प्रदान करने, छूत-छात की कुप्रथा समाप्त करने और उपाधियां समाप्त करने की व्यवस्था भी की गई है।भारतीय नागरिकों के अब छ: मौलिक अधिकार हैं। सम्पत्ति का अधिकार अब मौलिक अधिकारों की सूची से निकाला हुआ है और यह अब अनुच्छेद 300-ए के अधीन एक कानूनी अधिकार है।
मौलिक अधिकार प्रदान करते और इनकी गारंटी देते हुए, संविधान ने इन पर कई अपवाद भी लागू किए हैं। यह प्रतिबन्ध सार्वजनिक शान्ति और कानून व्यवस्था, नैतिकता, राज्य की सुरक्षा और भारत की प्रभुसत्ता और भू-क्षेत्रीय अखण्डता स्थापित रखने के हित में लागू किए गए हैं। इससे भी अधिक इन अधिकारों में अनुच्छेद 368 के अधीन बताए गए ढंग के अनुसार संशोधन किया जा सकता है और अनुच्छेद 352 के अधीन राष्ट्रीय संकटकाल स्थिति के समय ये स्थगित भी किए जा सकते हैं।
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग और मानव अधिकारों की सुरक्षा
भारत के लोगों के सभी लोकतन्त्रीय और मानव अधिकारों को अधिक अच्छी तरह से सुरक्षा प्रदान करने के लिए केन्द्रीय संसद ने 1993 में मानव अधिकारों की सुरक्षा के बारे अधिनियम पास किया। इसके अधीन भारत के एक सेवा-मुक्त न्यायाधीश के नेतृत्व में मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग स्थापित किया गया। यह एक स्वतन्त्र आयोग है इसे लोगों के मानव अधिकारों के उल्लंघन को रोकने के लिए और मानव अधिकारों का उल्लंघन सिद्व हो जाने पर पीड़ित लोगों के लिए क्षतिपूर्ति करने का आदेश देने के लिए एक नागरिक न्यायालय का दर्जा प्राप्त है। आम लोगों के मानव-अधिकारों और हितों की प्राप्ति और सुरक्षा के लिए सार्वजनिक हित मुकदमा व्यवस्था (Public Interest Litigation-PIL) भी महत्त्वपूर्ण साधन बनी हुई है।
नागरिकों के मौलिक कर्तव्य
संविधान अपने भाग IV-ए अनुच्छेद 51-ए (1976 में 42वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा शामिल किए गए) के अधीन नागरिकों के निम्नलिखित 10 मौलिक कर्त्तव्य निर्धारित करता है:
- संविधान, राष्ट्रीय झंडे और राष्ट्र गान का आदर करना
- स्वतन्त्रता के संग्राम के उच्च आदर्शों पर चलना,
- भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता को बनाए रखना
- देश की सुरक्षा करना और जब भी आवश्यकता पड़े राष्ट्र के लिए अपनी सेवा अर्पित करना
- भारत के सभी लागों को साझे भ्रातृत्व को बढ़ावा देने और औरतों के मान सम्मान को चोट पहुँचाने वाली प्रत्येक कार्यवाही की निंदा करना,
- राष्ट्र की साझी सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा करना,
- प्राकृतिक वातावरण की सुरक्षा करना और जीव जन्तुओं के प्रति दया रखना,
- वैज्ञानिक सोच मानववाद और ज्ञान और शोध की भावना को विकसित करना,
- सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना और हिंसा से दूर रहना, और
- सभी व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों में शानदार प्राप्तियों के लिए उत्सुक रहने का प्रयास करना।
संविधान की 86वें संशोधन के द्वारा माता-पिता का यह कर्त्तव्य बनाया गया है कि वे अपने बच्चों को आवश्यक रूप में शिक्षा प्रदान करवाएँ।
परन्तु यह मौलिक कर्त्तव्य न्यायालयों के द्वारा लागू नहीं किए जा सकते। निर्देशक सिद्वान्त के समान ये मौलिक कर्त्तव्य भी संवैधानिक नैतिकता का एक भाग हैं।
राज्य-नीति के निर्देशक सिद्वान्त
संविधान का भाग I (अनुच्छेद 36-51) राज्य नीति के निर्देशक सिद्वान्तों का वर्णन करता है। यह भारतीय संविधान की सबसे आदर्शात्मक विशेषताओं में से एक है। संविधान में यह भाग शामिल करते समय संविधान निर्माता आयरलैंड के संविधान और गांधीवाद और पेफबियन समाजवाद की विचारधाराओं से प्रभावित हुए।
निर्देशक सिद्वान्त राज्य प्रशासन के लिए यह निर्देश जारी करते हैं कि वह अपनी नीतियों के द्वारा सामाजिक-आर्थिक विकास का उद्देश्य प्राप्त करे। निर्देशक सिद्वान्त राज्य को यह आदेश देते हैं कि यह लोगों के जीवन निर्वाह के लिए उचित साधन प्रदान करे, सम्पत्ति की न्यायपूर्ण बांट सुनिश्चित करे, समान कार्य के लिए समान वेतन, बच्चों, औरतों, श्रमिकों और युवकों के हितों की सुरक्षा करे, बुढ़ापा पैंशन, सामाजिक समानता, स्वशासी संस्थाओं की स्थापना करे, समाज के कमजोर वर्गों के हितों की सुरक्षा करे और घरेलू उद्योग, ग्रामीण विकास, अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति, दूसरे देशों से मित्रता और सहयोग को प्रोत्साहित करे।
जे. एन. जोशी (J. N. Joshi) के शब्दों में, निर्देशक सिद्वान्तों में आधुनिक लोकतन्त्रीय राज्य के लिए एक बहुत ही व्यापक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक कार्यक्रम शामिल किया गया है।
यदि संविधान के भाग III में शामिल मौलिक अधिकार भारत में राजनीतिक लोकतन्त्र की नींव रखते हैं तो, निर्देशक सिद्वान्त (भाग IV) भारत में सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना का आह्वान करते हैं। निर्देशक सिद्वान्त किसी भी न्यायालय के द्वारा कानूनी रूप में लागू नहीं किए जा सकते। तो भी, संविधान यह घोषणा करता है कि वे देश के प्रशासन के लिए मौलिक सिद्वान्त हैं और यह राज्य का कर्त्तव्य है कि वह कानून निर्माण करते समय इन को लागू करे।
द्वि-सदनीय संघीय संसद
संविधान संघीय स्तर पर द्वि-सदनीय संसद की व्यवस्था करता है और इसको संघीय संसद का नाम देता है। इसके दो सदन हैं: लोकसभा और राज्यसभा। लोकसभा संसद का निम्न और लोगों के द्वारा प्रत्यक्ष रूप में निर्वाचित सदन है। यह भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। इसके सदस्यों की अधिक-से-अधिक संख्या 545 निर्धारित की गई है। प्रत्येक राज्य के लोग अपनी जनसंख्या के अनुपात में अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करते हैं। यू. पी. की लोकसभा में 80 और पंजाब की 13 सीटें हैं। लोकसभा के लिए चुनाव इन सिद्वान्तों के अनुसार करवाए जाते हैं: प्रत्यक्ष चुनाव (2) गुप्त मतदान (3) एक मतदाता एक मत (4) साधारण बहुमत जीत प्रणाली (5) सार्वजनिक वयस्क-मताधिकार (पुरुषों और स्त्रियों की मतदाता बनने की कम-से-कम आयु 18 वर्ष की है-पहले यह 21 वर्ष की होती थी)। 25 वर्ष या इससे अध्कि आयु के सभी मतदाता, लोकसभा का चुनाव लड़ने के योग्य हैं इसका कार्यकाल 5 वर्ष है परन्तु राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सिफारिश पर इसको कार्य काल पूर्ण होने से पूर्व भी भंग कर सकता है।
राज्य सभा संसद का उपरि तथा अप्रत्यक्ष रूप में निर्वाचित सदन है। यह सदस्य संघ के राज्यों का प्रतिनििध्त्व करता है। इसकी कुल सदस्यता संख्या 250 है। इसमें से 238 सदस्य राज्य विधान सभाओं के द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली के द्वारा चुने जाते हैं और 12 सदस्य राष्ट्रपति के द्वारा कला, विज्ञान और साहित्य के क्षेत्रों के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से मनोनीत किए जाते हैं। वर्तमान राज्यसभा के 240 सदस्य हैं। राज्यसभा संसद का एक स्थायी सदन है। किन्तु इसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दो वर्ष पश्चात् सेवा निवृत्त हो जाते हैं। प्रत्येक सदस्य के पद का कार्यकाल 6 वर्ष है।
दोनों सदनों में से लोकसभा अधिक शक्तिशाली है। इसके पास ही वास्तविक वित्तीय शक्तियाँ हैं और केवल यही मन्त्रिमण्डल को हटा सकता है। मन्त्रिमण्डल सामूहिक रूप में लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होता है। परन्तु, राज्यसभा उतनी शक्तिहीन भी नहीं जितना कि ब्रिटिश लार्ड सदन है और न ही लोकसभा उतनी शक्तिशाली है जितना कि ब्रिटिश कॉमन सदन। संघीय संसद एक प्रभुसत्ता सम्पन्न संसद नहीं है। यह संविधान के अधीन गठित की जाती है और यह केवल उन्हीं श्क्तियों का प्रयोग कर सकती है जोकि इसको संविधान ने दी हैं।
संसदीय प्रणाली
भारत का संविधान केन्द्र और राज्यों में संसदीय प्रणाली की व्यवस्था करता है। यह ब्रिटिश संसदीय प्रणाली पर आधारित है। भारत का राष्ट्रपति देश का संवैधानिक मुखिया है जिसके पास नाममात्र की शक्तियाँ हैं। प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका है। मन्त्रियों का संसद के सदस्य होना आवश्यक है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य अपने सभी कार्यों के लिए लोकसभा के समक्ष सामूहिक रूप में उत्तरदायी होते हैं। लोकसभा के द्वारा अविश्वास प्रस्ताव पास किए जाने पर मन्त्रिपरिषद् प्रणाली मन्त्रिपषिद् को यह अधिकार है कि यह राष्ट्रपति को लोकसभा भंग करने की सिफारिश कर सकती है। त्यागपत्र देना पड़ता है इसी प्रकार प्रत्येक राज्य में इन्हीं नियमों के अनुसार सरकार कार्य करती है।
इस प्रकार संसदीय प्रणाली की सभी विशेषताएँ भारतीय संविधान में शामिल हैं। परन्तु आजकल इस विषय पर चर्चा भी चल रही है कि संसदीय प्रणाली के स्थान पर भारत में अध्यक्षात्मक स्वरूप की प्रणाली लायी जानी चाहिए कि नहीं। त्रिशंकु संसदों के अस्तित्व में आने के युग और भारतीय दल प्रणाली की तरलता ने कुछ विद्वानों पर यह प्रभाव डाला है कि वे अध्यक्षात्मक सरकार की वकालत करने लगे हैं जिससे कुछ निश्चित समय के लिए एक स्थिर सरकार अस्तित्व में आ सके।
मई-जून, 1996_ अप्रैल, 1997 मार्च, 1998_ अप्रैल, 1999 तथा मई 2004 में राष्ट्र सरकार बनाने में प्रस्तुत आई कठिनाइयों ने एक बार पिफर वर्तमान संसदीय प्रणाली में अध्यक्षता प्रणाली के कम से कम कुछ तत्त्व अपनाने की मांग को दृढ़ किया है। परन्तु इस विचार को राष्ट्रीय स्वीकृति मिलनी अभी शेष है।
वयस्क मताधिकार
भारत का संविधान सभी वयस्कों को वोट का अधिकार प्रदान करना है। प्रो. श्रीनिवासन लिखते हैं, किसी भी योग्यता की शर्त रखे बिना सभी वयस्कों को मत का अधिकार देना संविधान निर्माण सभा के द्वारा उठाए गए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कदमों में से एक है और यह एक विश्वास की कार्यवाही है। भारत सरकार के अधिनियम 1935 के अधीन कुल जनसंख्या के केवल 14 प्रतिशत लोगों को ही मत देने का अधिकार था और स्त्रियों का कुल मतों में भाग नाममात्र का ही था।
अब भारतीय संविधान के अधीन स्त्रियों और पुरुष दोनों को मत का एक समान अधिकार है। अब मत के अधिकार के लिए आयु सीमा 21 वर्ष से घटा कर 18 वर्ष की जा चुकी है। 18 वर्ष से उफपर की आयु के सभी भारतीयों को चुनावों में मतदान करने का अधिकार प्राप्त हैं।
एक अखण्डता राज्य के साथ एकल नागरिकता के साथ एकीकृत राज्य
भारतीय संविधान सभी राज्यों को समान रूप में भारतीय संघ का भाग बनाता है। हमारा गणतंत्र सल्तनतों का गठबन्धन नहीं है बल्कि यह एक वास्तविक संघ है जिसको भारत के लोगों ने भारत के सभी नागरिकों को समान रख कर प्रभुसत्ता के मौलिक संकल्प के आधार पर स्थापित किया है। सभी नागरिकों को एक समान नागरिकता प्रदान की गई है जोकि उनको एक समान अधिकार और स्वतन्त्रताएँ और राज्य प्रशासन की एक जैसी सुरक्षा प्रदान करती है। अब भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों, जोकि 26 जनवरी, 1950 के पश्चात् विदेशों में जाकर बस गए हैं तथा जिन्होंने दूसरे देशों की नागरिकताएँ प्राप्त कर ली हैं, को भी भारत की नागरिकता देने का निर्णय लिया गया है। अब वे दोहरी नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं। उन्हें अपनी वर्तमान नागरिकताओं के साथ-साथ भारतीय नागरिकता भी प्राप्त हो जाएगी। वे दोहरी नागरिकता की प्राप्ति के अधिकारी हो जाएँगे। उन्हें भारत में नागरिक और आर्थिक अधिकार प्राप्त हो जाएँगे, परन्तु उन्हें राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं होंगे।
एकल एकीकृत न्यायपालिका
जहाँ अमरीकी संविधान, केवल संघीय न्यायपालिका स्थापित करता है और राज्य न्यायपालिका प्रणाली को प्रत्येक राज्य के संविधान पर छोड़ देता है, वहीं विपरीत भारत का संविधान एक इकहरी न्यायपालिका की व्यवस्था करता है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय शीर्ष स्तर का न्यायालय है, उच्च न्यायालय राज्य स्तरों पर है और शेष न्यायालय उच्च न्यायालय के अधीन कार्य करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय देश में न्याय का अन्तिम न्यायालय है। यह भारत में न्यायिक प्रशासन चलाता है और इस पर नियंत्रण रखता है।
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता
भारतीय संविधान न्यायपालिका को पूर्णतया स्वतन्त्र बनाता है। यह इन तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है:
- न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है।
- उच्च कानूनी योग्यताओं और अनुभव वाले व्यक्तियों को ही न्यायाधीश नियुक्त किया जाता है।
- सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को बहुत ही कठिन प्रक्रिया के द्वारा ही उनके पद से हटाया जा सकता है।
- न्यायाधीशों और न्यायिक कर्मचारियों का वेतन भारत की संचित निधि में से दिया जाता हैं और इनके लिए विधानपालिका की वोट आवश्यक नहीं होती।
- सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार है कि वह अपनी स्वतन्त्रता बनाए रखने के लिए अपना न्यायिक प्रशासन स्वयं संचालित करे।
- सर्वोच्च न्यायालय के सभी अधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश अधिकारण या किसी अन्य न्यायाधीश या अधिकार द्वारा, जिसको कि इसे उद्देश्य बनाया गया है, के द्वारा की जाती है। भारतीय न्यायपालिका ने सदैव ही एक स्वतन्त्र न्यायपालिका की तरह कार्य किया है।
न्यायिक पुनर्निरीक्षण
संविधान देश का सर्वोच्च कानून है। सर्वोच्च न्यायालय, इसकी सुरक्षा और व्याख्या करता है। यह लोगों के मौलिक अधिकारों के प्रहरी के रूप में भी कार्य करता है। इस उद्देश्य के लिए वह न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति का प्रयोग करता है। इसके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय विधानपालिका और कार्यपालिका के सभी कार्यों के संवैधानिक रूप में उचित होने के बारे में निर्णय करता है। यदि संसद के कानून या कार्यपालिका के कार्यों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जाए और इसको यह ग़्ौर-संवैधानिक पाये तो वह उनको रद्द कर सकता है। पिछले समय से सर्वोच्च न्यायालय इस अधिकार का सक्रिय कुशलता से प्रयोग करता आ रहा है और इसने अलग-अलग संवैधानिक मामलों-गोलक नाथ केस, केशवानंद भारती केस, मिनर्वा मिलष केस, गोपालन केस और कई अन्य केसों में ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं। राज्यों के उच्च न्यायालयों राज्य कानूनों से सम्बन्धित ऐसी शक्तियों का प्रयोग करते हैं।
संविधान अपने किसी भी अनुच्छेद के अधीन न्यायिक पुनर्निरीक्षण का अधिकार प्रत्यक्ष रूप में नहीं देता। पिफर भी, यह संविधान के कई अनुच्छेदों विशेष रूप में अनुच्छेदों 13, 32, और 226 पर आधारित है। संविधान की यह विशेषता अमरीकी संविधान में विशेषता जैसी है।
न्यायिक सक्रियता
इस समय भारतीय न्यायपालिका अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों के प्रति अधिक-से-अधिक सक्रिय हो रही है। सार्वजनिक हित मुकद्दमा प्रणाली (PIL) के द्वारा और इसके साथ ही अपनी शक्तियों और उत्तरदायित्वों के अधिक-से-अधिक प्रयोग के द्वारा अब सार्वजनिक हितों की प्राप्ति के लिए अधिक सक्रिय हो रही है। सार्वजनिक हित मुकद्दमा (PIL) के अन्तर्गत न्यायाधीश सार्वजनिक हितों की प्राप्ति के लिए अपने आप (Suo moto) कार्यवाही कर सकते हैं।
मई, 1995 में और फिर जुलाई 2003 में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य को कहा कि वह समूचे भारत के लिए और सभी भारतीयों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करें जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 44 में करने के लिए कहा गया है। न्यायिक सक्रियता भारतीय न्याय प्रणाली की एक उत्तम विशेषता है।
संकटकाल स्थिति से सम्बन्धित व्यवस्थाएँ
वेमर गणराज्य (जर्मनी) के संविधान के समान ही भारतीय संविधान में भी संकटकाल स्थिति से निपटने के लिए व्यवस्थाएँ की गई हैं। यह तीन प्रकार की संकटकाल स्थितियों को पहचानता है और भारत के राष्ट्रपति को इनका सामना करने की शक्ति सौंपता है। इसीलिए इनको राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों के रूप में जाना जाता है। संविधान तीन प्रकार की संकटकालीन स्थितियों का वर्णन करता है:
- राष्ट्रीय संकटकालीन स्थिति अनुच्छेद 352 अर्थात् युद्व या विदेशी आक्रमण या भारत के विरुद्व विदेशी आक्रमण के खतरे या भारत में या इसके किसी भाग में सशस्त्र विद्रोह के परिणाम के रूप में पैदा हुई संकटकालीन स्थिति।
- किसी राज्य में संकटकाल की स्थिति अनुच्छेद 356 अर्थात् किसी भी राज्य में संवैधानिक मशीनरी पेफल हो जाने के परिणामस्वरूप उत्पन्न संकटकाल की स्थिति, और
- वित्तीय संकटकाल स्थिति (अनुच्छेद 360) अर्थात् भारत की वित्तीय स्थिरता में खतरे की स्थिति स्वरूप उत्पन्न हुई संकटकालीन स्थिति।
भारत के राष्ट्रपति को इन संकटकाल की स्थितियों से निपटने के लिए उचित कदम उठाने के अधिकार हैं। किन्तु वास्तव में राष्ट्रपति के ये अधिकार प्रधानमन्त्री और मन्त्रिमण्डल के अधिकार है।
राष्ट्रीय संकटकाल की स्थिति में वास्तविक रूप में समस्त शासन प्रणाली एकात्मक बन जाती है और राष्ट्रपति अनुच्छेद 19 में शामिल मौलिक अधिकारों और संविधानों के अनुच्छेदों 32 और 226 के अधीन उनको लागू करने की व्यवस्था को स्थगित कर सकता है। परन्तु संकटकालीन स्थिति में शक्ति प्रयोग करने के सम्बन्ध में कुछ विशेष निर्धारित नियम और कई सीमाएँ लगाई गई हैं। राष्ट्रपति, केवल प्रधानमन्त्री और मन्त्रिमण्डल की लिखित सिफारिश पर ही संकटकालीन स्थिति की घोषणा कर सकता है। राष्ट्रीय संकटकाल की स्थिति में, (यह व्यवस्था 44वें संशोधन के द्वारा की गई है।) प्रत्येक संकटकालीन स्थिति के लागू करने की घोषणा को एक निर्धारित समय में संसद से स्वीकृति लेनी आवश्यक होती है। 1952 से लेकर राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय संकटकालीन शक्तियों (राष्ट्रीय संकटकाल स्थिति और संवैधानिक संकटकाल स्थिति) का प्रयोग कई बार किया जा चुका है।
संकटकालीन शक्तियों का उद्देश्य लोगों और राज्य के हितों की रक्षा करना है और इसलिए इनका विरोध नहीं किया जा सकता। परन्तु यह संभावना बनी रहती है कि केन्द्रीय कार्यपालिका (सरकार) राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इनका दुरुपयोग कर सकती है, विशेष रूप में अनुच्छेद 356 का केन्द्र दुरुपयोग किया जा सकता है। 1975 में आंतरिक कारणों से संकटकाल स्थिति लागू करना श्रीमती इन्दिरा गांधी के द्वारा की गई एक सत्तावादी कार्यवाही ही थी और इस कार्यवाही के लिए लोगों ने उनको और उनकी कांग्रेस पार्टी को 1977 की चुनावों में बुरी तरह हरा कर दण्ड दिया। इसी प्रकार केन्द्र सरकार के द्वारा संवैधानिक संकटकालीन स्थिति की व्यवस्था का प्रयोग कुछ परिस्थितियों में निश्चय ही स्वेच्छाचारी रूप में किया जाता रहा है। अत: संवैधानिक प्रतिबन्धों के बावजूद संकटकालीन शक्तियों की व्यवस्थाओं का दुरुपयोग किया जा सकता है। परन्तु, संकटकाल से सम्बन्धित व्यवस्था को संविधान में शामिल करने को किसी भी तरह संविधान निर्माण सभा की अनावश्यक और लोकतन्त्र विरोधी कार्यवाही नहीं कहा जा सकता। यह राष्ट्रीय सुरक्षा, शान्ति और स्थिरता के हित में संविधान में शामिल की गई है। आवश्यकता इनको समाप्त करने की नहीं बल्कि इसका ठीक-ठीक करने की है। उपयुक्त अमर नंदी ठीक ही कहते हैं राष्ट्रीय संकटकालीन स्थिति से निपटने के लिए केन्द्रीय कार्यपालिका को दिए गए अधिकार, एक ढंग से सौंपे गई कारतूसों की भरी हुई वह बंदूक है जिसका प्रयोग नागरिकों की स्वतन्त्रता की सुरक्षा और इनकी समाप्ति दोनों के लिए किया जा सकता है। इसलिए, इस बंदूक का प्रयोग बड़ी ही सावधानी से करना चाहिए। इसके साथ हम यह जोड़ना चाहेंगे कि विशेष रूप में केन्द्र के द्वारा अनुच्छेद 356 का प्रयोग उचित और कभी-कभार और सोच समझ कर ही किया जाना चाहिए। किसी भी स्थिति में इसका राजनीतिक दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष व्यवस्थाएँ
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित कबीलों से सम्बन्धित लागों के हितों की सुरक्षा के उद्देश्य से, संविधान अपने भाग XVI में कुछ विशेष व्यवस्थाएँ करता है। अनुच्छेद 330 उनके लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात (जहाँ तक संभव हो सके) में लोकसभा की कुछ स्थान आरक्षित रखने की व्यवस्था करता है। साथ ही यदि राष्ट्रपति यह अनुभव करे कि एंग्लो-इंडियन समुदाय को सदन में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला तो वह इस समुदाय के दो सदस्य लोकसभा में मनोनीत कर सकता है। (अनुच्छेद 331)
राज्य विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए सीटें आरक्षित रखने की व्यवस्था क्रमवार धारा 331 और 332 के अधीन की गई है। 84वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा आरक्षण का कार्यकाल अब 2010 तक बढ़ा दिया गया है। अब आरक्षण का लाभ अन्य पिछड़ी श्रेणियों (OBCs) को भी दे दिया गया है परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि नौकरियों में कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।
संसद तथा विधानपालिकाओं में आरक्षण की व्यवस्था के साथ-साथ सरकारी नौकरियों और अलग-अलग विश्वविद्यालयों और व्यावसायिक संस्थाओं में भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित कबीलों के लिए नौकरियाँ आरक्षित रखी जाती हैं। संविधान अनुसूचित जातियों, अनुसूचित कबीलों और पिछड़ी श्रेणियों की स्थिति का लगातार आकलन करने के लिए एक आयोग स्थापित करने की भी व्यवस्था का प्रावधान करता है।
मई, 1990 में एक संवैधनिक संशोधन के द्वारा इस उद्देश्य के लिए एक आयोग स्थापित किया गया। अब मानव अधिकारों के बारे राष्ट्रीय आयोग भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों से सम्बन्धित लोगों के अधिकारों के उल्लंघन से सम्बन्धित शिकायतों की जांच कर सकता है।
भाषा से सम्बन्धित व्यवस्थाएँ
संविधान केन्द्र (संघ), भाषायी क्षेत्रों, सर्वोच्च न्यायालयों और उच्च न्यायालयों की भाषा परिभाषित करता है। अनुच्छेद 343 में लिखा गया है कि देश की सरकारी भाषा देवनागरी लिपि में हिन्दी होगी। परन्तु इसके साथ ही यह अंग्रेजी भाषा जारी रखने की भी व्यवस्था करता है। हर एक राज्य की विधानसभा अपने राज्य की भाषा को सरकारी भाषा के रूप में स्वीकार कर सकती है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय की भाषा अभी भी अंग्रेजी बनी हुई है। अनुच्छेद 351 के अधीन संविधान केन्द्र (संघ) को यह आदेश देता है कि वह हिन्दी को विकसित करे और इसका प्रयोग लोकप्रिय बनाए।
संविधान की सातवीं अनुसूची में संविधान अब 22 प्रमुख भारतीय भाषाओं को मान्यता देता है-आसामी, बंगाली, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, नेपाली, मणिपुरी, कोंकनी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलुगू और उर्दू, डोगरी, सन्थाली, मैथिली आदि।
अनेक स्त्रोतों से तैयार किया गया संविधान
भारत का संविधान तैयार करते समय इसके निर्माताओं ने अनेक स्त्रोतों का प्रयोग किया। स्वतन्त्रता आन्दोलन ने उन पर धर्म-निरपेक्षता, स्वतन्त्रता तथा समानता को अपनाने के लिए प्रभाव डाला। उन्होंने भारत सरकार अधिनियम 1935 की कुछ व्यवस्थाओं का प्रयोग किया और विदेशी संविधान की कई विशेषताएँ को भी उन्होंने अपनाया। संसदीय प्रणाली और द्वि-सदनीय प्रणाली अपनाने के लिए उनको ब्रिटिश संविधान ने प्रभावित किया। अमरीकी संविधान ने उनको गणराज्यवाद, न्यायपालिका की स्वतन्त्रता, न्यायिक पुनर्निरीक्षण और अधिकार-पत्र अपनाने के पक्ष में प्रभावित किया।
1917 की समाजवादी क्रान्ति के पश्चात (भूतपूर्व) सोवियत संघ की प्रगति ने उनको अपना लक्ष्य समाजवाद निश्चित करने के लिए प्रभावित किया। इसी प्रकार उनको केनेडा, आस्ट्रेलिया, वेमर गणराज्य (जर्मनी) और आयरलैंड के संविधानों ने भी प्रभावित किया।
26 जनवरी, 1950 में लागू होने के पश्चात्, भारत का संविधान कई स्त्रोतों से विकसित होता रहा है- संसदीय कानून, न्यायिक निर्णय, परम्पराएँ, वैज्ञानिक व्याख्याएँ और संविधान निर्माण सभा के रिकार्ड भी इसके स्रोत बने हैं। भारतीय संविधान न तो उधारों का थैला है, न कोई आयात किया गया संविधान और न ही यह भारत सरकार अधिनियम 1935 का श्रंगारित और विस्तृत स्वरूप है। संविधान निर्माताओं ने विदेशी संविधानों या भारत सरकार अधिनियम 1935 के प्रभाव अधीन संवैधानिक विशेषताएँ और व्यवस्थाएँ अपनाते समय सदैव ही इनको भारतीय आवश्यकताओं और इच्छाओं अनुकूल ढाला। इन विशेषताओं के कारण ही भारत का संविधान भारतीय वातावरण के लिए सबसे उपयुक्त तथा व्यवहार-कुशल संविधान बना गया है। यहाँ तक कि इसके विशाल आकार ने भारत का अपनी सरकार और प्रशासन को गठित करने और चलाने में शान्ति और युद्व या संकटकालीन स्थिति में प्रभावशाली ढंग से नेतृत्व किया है।
इसकी प्रमुख विशेषताओं को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है: प्रस्तावना, मौलिक अधिकार, निर्देशक सिद्वान्त, धर्म-निरपेक्षता, संघवाद, गणराज्यवाद, न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और नि:सन्देह उदार संसदीय लोकतन्त्र।
Sir aap ne aapni wabsite pr kon sa Template lagaya hai. Kiya aap mujhe is Template ka nam bta sakte hai? Plz.
ReplyDeleteEmporio
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