जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धान्त

जाति व्यवस्था की ठीक उत्पत्ति की खोज नहीं की जा सकती। इस व्यवस्था का जन्म भारत में हुआ, ऐसा कहा जाता है। भारत-आर्य संस्कृति के अभिलेखों में इसका सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है तथा उन तत्वों का निरन्तर इतिहास भी मिलता है, जिनसे जाति व्यवस्था का निर्माण हुआ। जिन लोगों को भारत-आर्य कहा जाता है, वे भाषाशास्त्रीय दृष्टि से एक बड़े परिवार भारत-यूरोपीय अथवा भारत-जर्मन से सम्बन्ध रखते हैं। उनमें ऐंग्लो-सैक्सन, केल्ट (Celts), रोमन, स्पेनिश, फर्तगीज और ईरानी आदि सम्मिलित हैं। इन लोगों का एक वर्ग, जो ईसापूर्व 2500 वर्ष भारत पहुंचा, भारत-आर्य कहलाया।

जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धांत

जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के प्रजातीय सिद्धांत

डॉ. मजूमदार के अनुसार जाति-प्रथा का जन्म भारत में आर्यों के आगमन के पश्चात हुआ। अपना पृथक अस्तित्व बनाए रखने के लिए भारत-आर्यो के कुछेक व्यक्तियों के समूहों के लिए ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग किया। इस प्रकार उन्होंने ‘दास वर्ण’ शब्द को दास लोगों के लिए प्रयुक्त किया। ऋग्वेद में आय तथा दास के अन्तर को स्पष्ट रूप से बतलाया गया है। केवल रंग में ही नहीं, अपितु बोलचाल, धार्मिक प्रथाओं एवं शारीरिक लक्षणों में भी अन्तर था। ऋग्वेद में तीन वर्गो ब्राम्हण , क्षत्रिय एवं वैश्य का बहुा वर्णन आता है। 

चौथे वर्ग ‘शूद्र’ का वर्णन केवल एक बार मिलता है। प्रथम दो वर्ग, अर्थात् ब्राम्हण एवं क्षत्रिय कवि-पुरोहित तथा योण के दो व्यवसायों को क्रमश: प्रतिनिधित्व करते थे। वैश्य वर्ग में सभी सामान्य लोग थे। शूद्र वर्ग में घरेलू नौकर, जिनकी स्थिति दास-जैसी थी, शामिल थे। 

इन चारों वर्गों के परस्पर सम्बन्धों के बारे में ऋग्वेद में कोई विशिष्ट वर्णन नहीं है, तथापि ब्राम्हण को निश्चित रूप से क्षत्रिय से श्रेष्ठ बतलाया गया है।

जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के राजनीतिक सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार जाति व्यवस्था ब्राम्हणों द्वारा स्वयं को सामाजिक सोपान में उच्चतम स्तर पर रखने हेतु अविष्क्ृत चतुर युक्ति है। डॉ. घुरये (Ghurye) ने लिखा है, जाति भारत-कार्य संस्कृति का ब्रांणिक बच्चा है, जिसका पालन गंगा के मैदान में हुआ, जो वहां से भारत के दूसरे भागों में हस्तांतरित किया गया। उत्तर-वैदिक युग’ के ब्राम्हणीय साहित्य में कुछ संकर तथा बहिष्कृत जातियों का उल्लेख है। 

चार वर्णो में आर्य एवं शूद्र के अन्तर का द्विज एवं शूद्र के नाम से वर्णित किया गया है। प्रथम तीन वर्णो को ‘द्विज’ (दो बार जन्मा) कहा गया है क्योंकि उनका यज्ञोपवीत संस्कार होता है, जो पुनर्जन्म का द्योतक है। शूद्र को ‘एक जाति’ कहा गया। इसके बाद ‘जाति’ शब्द का प्रयोग ‘वर्ण’ के विभिन्न उपभागों के लिए किया गया। परन्तु इस अन्तर को कठोरतापूर्वक पालन नहीं किया गया। कभी-कभी ‘जाति’ शब्द का प्रयोग ‘वर्ण’ के लिए भी हुआ। 

ब्राम्हण युग में ब्राम्हणों की स्थिति में कई गपापाुना वृद्धि हुई। निम्न तीन वर्गो को ब्राम्हण की शिक्षा के अनुसार जीवन व्यतीत करने का आदेश दिया गया। राजा को भी अपना आचरण उनकी शिक्षा के अनुसार नियमित करने के लिए कहा गया। ब्राम्हण की सर्वश्रेष्ठता ने उसको कानून-निर्माताओं से अनेक सामाजिक विशेषाधिकार दिलवा दिए। यह कथन कि ‘शूद्र’ को ईश्वर ने भी सभी का दास बनने के लिए उत्पन्न किया, बार-बार दोहराया गया तथा उसे ‘पादज’ (चरणों से उत्पन्न) कहा गया।

जैसे-जैसे भारत में पुरोहित वर्ग का प्रभाव बढ़ता गया, रीति एवं आचरण के जटिल नियमों का निर्माण हुआ, जिन्हें धार्मिक फस्तकों मं सम्मिलित किया गया। ब्राम्हणों ने अपने वर्ग को बन्द कर लिया तथा दूसरे वर्गो पर अपनी श्रेष्ठता बनाए रखने का प्रयत्न किया। यह ठीक है कि प्रारम्भ में अनमनीय प्रतिबन्मा नहीं थे, परन्तु धीरे-धीरे पृथकत्व की अवधारणा कठोर बनती गई। रीतिगत पवित्रता ने कालान्तर में उग्र रूप धारण कर लिया। पवित्र एवं अपवित्र वस्तुओं के बीच अन्तर किया जाने लगा। भोजन एवं पान की वस्तुओं पर प्रतिबन लगाए गए। 

जब ब्राम्हणों ने अपने वर्ग को बन्द कर लिया तो स्वाभाविकतया अन्य वर्गो ने भी उनका अनुसरण किया।

जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के व्यावसायिक सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार जाति-प्रथा का उद्गम लोगों के विभिन्न समूहों द्वारा किए गए सामाजिक कार्य के स्वरूप एवं गुण में खोजा जा सकता है। अच्छे एवं सम्मानित समझे जाने वाले व्यवसायों को करने वाले व्यक्ति, उन व्यक्तियों की अपेक्षा जो गन्दे व्यवसाय करते थे, उच्च समझे गए। 

नैसफील्ड (Nesfield) के अनुसार, केवल व्यवसाय ही भारत में जाति-संरचना के उद्गम का कारण है। प्रकार्यात्मक विभेदीकरण ने व्यावसायिक विभेदीकरण को जन्म दिया तथा विभिन्न उपजातियों, यथा लोहार, सोनार, चमार, बढ़ई, पटवा, तेली, नाई, धोबी, तम्बोली, कहार, गड़रिया, माली आदि का जन्म हुआ।,

जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के परम्परागत सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार, जाति व्यवस्था का उद्गम दैवीय है। वैदिक साहित्य में कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं, जिनमें कहा गया है कि जातियां ब्रंम्हाम्हा, सर्वोच्च निर्माता, द्वारा निर्मित की गई, ताकि लोग समाज के अस्तित्व-हेतु विभिन्न सामाजिक कार्यो को समरसतापूर्वक पूरा करते रहें। 

डॉ. मजूमदार के अनुसार, यदि हम वर्णों के दैवी उत्पत्ति सिद्धांत को समाज के प्रकार्यात्मक विभाजन की आल।्कारिक व्याख्या मानें तो यह सिद्धांत व्यावहारिक महत्व प्राप्त कर लेता है।,

जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के गिल्ड सिद्धांत

डेंजिल इब्बतसन (Denzil Ibbetson) के अनुसार, जातियां गिल्डों का परिवर्तित रूप हैं। उसके विचार में जाति व्यवस्था तीन तत्वों की अन्त:क्रिया की उपज है। ये तत्व हैं 1. जनजातियां, 2. गिल्ड, एवं 3. धर्म। जनजातियों ने कुछेक निश्चित व्यवसायों को अपनाया एवं गिल्डों का रूप धारण किया। प्राचीन भारत में पुरोहितों को बड़ा सम्मान प्राप्त था। वे आनुवंशिक एवं अन्तर्विवाही समूह थे। 

अन्य गिल्डों ने भी समान रीतियों को अपनाया, जो कालान्तर में जातियां बन गई।

जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के धार्मिक सिद्धांत

होकार्ट (Hocart) तथा सेनार्ट (Senart) इस सिद्धांत के प्रमुख प्रतिपादक हैं। होकार्ट के अनुसार, सामाजिक स्तरीकरण की उत्पत्ति धार्मिक नियमों एवं रीति-रिवाजों के कारण हुई। प्राचीन भारत में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान था। राजा को ईश्वर का प्रतिबिम्ब समझा जाता था। पुरोहित राजा विभिन्न व्यावसायिक समूहों को विभिन्न पद प्रदान करते थे। सेनार्ट ने कड़े सांस्कारिक भोजन-सम्बन्धाी वर्जनाओं के आधार पर जाति व्यवस्था की उत्पत्ति की व्याख्या करने का प्रयत्न किया है। उसका विचार है कि भिन्न पारिवारिक कर्तव्यों के कारण सांस्कारिक भोजन के बारे में कुछेक प्रतिबन्धों का जन्म हुआ। किसी विशेष देवता के अनुयायी स्वयं को समान पूर्वज की संतान मानते थे, एवं अपने देवता को विशिष्ट प्रकार का भोजन श्रणंजलि के रूप में भेंट करते थे। 

समान देवता में विश्वास करने वाले लोग स्वयं को उन लोगों से भिन्न समझते थे, जो अन्य किसी देवता के उपासक थे।

जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के विकासवादी सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार, जाति व्यवस्था का जन्म अचानक किसी एक नियत तिथि को नहीं हुआ। यह सामाजिक विकास की लम्बी प्रक्रिया का परिणाम है। 

वर्तमान जाति व्यवस्था के विकास में अनेक तत्वों ने योगदान दिया है। इन तत्वों में प्रमुख हैं

  1. आनुवंशिक व्यवसाय
  2. ब्राम्हणों की स्वयं को पवित्र रखने की इच्छा
  3. राज्य के कठोर एकात्मक नियन्त्रण का अभाव
  4. कानून एवं प्रथा के क्षेत्र में समान नियमों को लागू करने के बारे में शासकों की अनिच्छा तथा विभिन्न समूहों के भिन्नात्मक रीति-रिवाजों को मान्यता प्रदान करने की तत्परता
  5. पुनर्जन्म एवं कर्म के सिद्धांत में विश्वास
  6. एकान्तिक परिवार, पूर्वजों की पूजा एवं सांस्कारिक भोजन-सम्बन्धाी विचार
  7. विरोधी संस्कृतियों विशेषतया पितृसत्तात्मक एवं मातृसत्तात्मक प्रणालियों का संघर्ष
  8. प्रजातियों का संघर्ष, वर्ण-पूर्वाग्रह एवं विजय
  9. विभिन्न विजेताओं, विशेषतया अंग्रेजों द्वारा अनुसरित विचारपूर्ण आर्थिक एवं प्रशासकीय नीतियां
  10. भारतीय द्वीप का भौगोलिक पृथकत्व
  11. हिंदू समाज का गतिहीन स्वरूप
  12. विदेशी आक्रमण
  13. ग्रामीण सामाजिक संरचना।

उपर्युक्त सभी तत्वों ने समय-समय पर तुच्छ आधारों पर छोटे-छोटे समूहों के निर्माण को प्रोत्साहित किया। धीरे-धीरे इन समूहों मं एकता एवं सामुदायिक भावना का विकास होता गया और ये समाज के स्थायी समूह बन गए। फिर भी यह ध्यान रहे कि जाति व्यवस्था पर भारत का ही एकाधिकार नहीं है। यह संसार के अनेक भागों में थी और अब भी वर्तमान है। मध्ययुगीन यूरोप की सामन्ती व्यवस्था, जाति व्यवस्था का ही एक अंग थी। कुछेक प्रजातीय समूह, यथा यहूदियों एवं हब्शियों को अमेरिका सहित अब भी अनेक सभ्य देशों में निम्न जाति का समझा जाता है। 

हिंदू जाति व्यवस्था की विचित्र बात यह है कि इसमें कुछेक समूहों को अस्पृश्य एवं अगम्य समझा जाता है।

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