संगीत का अर्थ, परिभाषा, उत्पत्ति एवं मुख्य तत्व

संगीत का अर्थ

संगीत की व्युत्पति “सम् गै (गाना) + कत” है अर्थात् ‘गै’ धातु में ‘सम’ उपसर्ग लगाने से यह शब्द बनता है। ‘गै’ का अर्थ है – ‘गाना’ और सम (सं) एक अव्यय, है, जिसका व्यवहार समानता, संगति, उत्कृष्टता, निरन्तरता, औचित्य आदि को सूचित करने के लिये किया जाता है। अत: संगीत का अर्थ-’उत्कृष्ट, पूर्ण तथा औचित्यपूर्ण ढ़ग से गायन’ माना जा सकता है।

संगीत शब्द ‘गीत’ में सम् उपसर्ग लगाकर बना है। ‘सम्’ अर्थात ‘सहित’ और ‘गीत’ अर्थात् ‘गान’। ‘गान के सहित’, वादन एवं अंगभूत क्रियाओं (नृत्य) के साथ किया हुआ कार्य संगीत कहलाता है।

पश्चिम में संगीत के लिए ‘म्यूजिक’ (Music) शब्द का प्रयोग किया गया है। म्यूजिक शब्द की व्युत्पत्ति ग्रीक शब्द ‘Mousike’ से मानते हैं। वस्तुत: इस शब्द का मूल स्वत: म्यूज (Muse) शब्द में है। ग्रीक परम्परा में यह शब्द उन देवियों के लिए प्रयुक्त संज्ञा है, जो विभिन्न ललित कलाओं की अधिष्ठत्री मानी जाती है। यहाँ भी पहले ‘म्यूज’ संगीत कला की देवी को ही माना जाता था।

अरबी परम्परा में संगीत का समानार्थक शब्द ‘मूसीक़ी’ है। इसकी व्युत्पति ‘मूसिक़ा’ शब्द से मानी जाती है। ‘मूसिक़ा’ यूनानी भाषा में आवाज़ को कहते भारतीय संगीत की प्राचीनता, उत्पत्ति एवं काल विभाजन हैं, इसलिए-इल्मे-मूसीक़ी (संगीत-कला) ‘आवाज़ों यानी रागों का इल्म’ कहलाने लगा।

प्राचीन संस्कृत वाड़्मय में ‘संगीत’ का व्युत्पत्तिगत अर्थ ‘सम्यक गीतम’ रहा है। वराहोपनिषद् की निम्न पंक्ति से इसी अर्थ का बोध स्पष्ट होता है-‘संगीतताललयवाद्यवंश गतापि मौलिस्थकुम्भपरिक्षणधर्निटीव’।।

संगीत की परिभाषा

1. भातखण्डे जी के अनुसार, “गीत वाद्य तथा नृत्य.इन तीनों कलाओं का समावेश ‘संगीत’ शब्द में होता है। वस्तुत: ये तीनो कलाएँ स्वतन्त्र है, किन्तु गीत प्रधान होने के कारण तीनों का समावेश ‘संगीत’ में किया जाता है।

2. संगीत चिन्तामणि के अनुसार, “संगीत” एक व्यापक शब्द है। गीत वाद्य और नृत्य तीनों मिलकर संगीत कहलाते है, जिसमें गीत प्रधान तत्व है, वाद्य उसका अनुकारक है और नृत्य उपरंजक है, अर्थात् वाद्य गीत का अनुकरण करता हें और नृत्य वाद्य का। संगीत शब्द का प्राचीन पर्याय तायैत्रिक है।

3. संगीतसार के अनुसार, – ‘संगीत’ गायन, वादन एवं नृत्य के माध्यम से वांछित भाव उत्पन्न करने वाली रचना है। वास्तव में संगीत कला स्वर, ताल और लय के सन्तुलित मिश्रण की मधुर सुरीली रचना है। जो प्राणिमात्र के चित्त का एकदम आनंदित कर देती है।

4. डा0 शरच्चन्द्र श्रीधर परांजपे ने संगीत का अर्थ समझाते हुए ‘संगीत . रत्नाकर’ के मत का ही समर्थन किया है।

5. संगीत रत्नाकर के अनुसार संगीत की परिभाषा निम्नानुसार है- “संगीत एक अन्विति है, जिसमें गीत, वाद्य तथा नृत्य तीनों का समावेश है। संगीत शब्द में व्यक्तिगत तथा समूहगत दोनों विधियों की अभिव्यंजना स्पष्ट है। इसी कारण व्यक्तिगत गीत, वादन एवम् नर्तन के साथ समूहगान, समूहवादन तथा समूहनर्तन का समावेश इसके अन्तर्गत होता है। मानक हिन्दी

6. शब्दकोश के अनुसार- “मधुर ध्वनियों या विशिष्ट नियमों के अनुसार और कुछ विशिष्ट रूप से होने वाले रंजक प्रस्फुटन को संगीत कहते हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते है कि संगीत मुख्यत: गायन, वादन तथा नृत्य इन तीनों का संयोग ही ‘संगीत’ कहलाता है।

संगीत के मुख्य तत्व

संगीत के तीन मूलभूत तत्व स्वर, लय तथा ताल मानें गये है और इन्हें ईश्वर प्रदत्त माना जाता है। नाद संगीत का स्रोत है। 

1. स्वर - स्वरों की उत्पत्ति इसी शाश्वत ध्वनि से मानी जाती है। ‘नादाधीन जगत् सर्वम्’ से ही सम्पूर्ण जगत की ध्वनि उसके नाद, श्रुति, स्वर एंव संगीत की व्याख्या पूर्ण हो जाती है। संगीत का मौलिक उपकरण स्वर है जो आहत नाद से उत्पन्न होता है। संगीत उपयोगी मधुर नाद से उत्पन्न बाईस श्रुतियों में मुख्य बारह श्रुतियों को स्वर कहते है।। 

इन स्वरों के नाम इस प्रकार है- षड़्ज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम धैवत तथा निषाद। शुद्ध एवं विकृत- स्वरों के मुख्यत: दो प्रकार माने गये है।

2. लय - लय को संगीत का आवश्यक एवं महत्वपूर्ण तत्व माना गया है। लय के अभाव में संगीत का कार्य संचालन नितान्त असंभव है। यदि संगीत के स्वर रूपहली आभा विखेरते हैं तो लय संगीत को गति प्रदान कर भावपूर्ण एवं माधुर्यपूर्ण बनाती है। कोई भी कला तभी प्राणवान होती है जब उसमें गति समाहित हो जाती है। लय अथवा गति के द्वारा संगीतात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनुशासित होती है। 

लय संगीत में लगने वाले समय को अपने बन्धन में बाँधकर संगीत को कर्णप्रिय एवं सौन्दर्यपूर्ण बना देती है। यदि लय क्षणमात्र भी अपने कार्य से हट जाये तो लय विहीन संगीत अनाकर्षक एवं कर्ण कटु बन जाती है। 

संगीत में स्वर को लय से अधिक महत्ता प्रदान की जाती है परन्तु लय का महत्व भी स्वर से कम नहीं है। भले ही संगीत में स्वर को लय से अधिक महत्व दिया जाये परन्तु स्वर लय के बन्धन में बंधकर ही परिमार्जित होता है। यह लयबद्ध या गतिबद्ध स्वर ही संगीत कला की कसौटी है। ‘किसी भी राग का विस्तार करते समय अलाप, तान, बोलतान, सरगम आदि लय पर आधारित होते है। लयविहीन स्वर विस्तार को न तो पूर्ण कहा जा सकता है और न ही वह आनन्द के सृजन योग्य होती है। 

लय के द्वारा ही राग के वादी, सम्वादी और अनुवादी स्वरों की स्थापना होती है। लय से गायन व वादन में एक क्रमता आ जाती है जिससे संगीत में आत्मकता उत्पन्न हो जाती है और ध्वनि का एक नियमित क्रम मन को विचित्र आनन्द की अनुभूति कराने में सफल हो पाता है। अस्तु, लय स्वरों के संचालन को नियमित कर सांगीतिक रचना को सजीवता प्रदान करती है। लय-तत्व सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। हमारा सम्पूर्ण जीवन लय से ही नियंत्रित होता है।

संगीत में नियमित गति को लय कहा गया है और विलम्बित, मध्य तथा द्रुत लय- लय के तीन प्रकार माने गये है विविध प्रकार के लयों में बंधकर स्वर नानाविध भावों का प्रतिपादन करते हैं। तालों में भी गीत भेदकर रस उद्रेक सम्भव हो पाता है। करूण, श्रृंगार, रौद्र, वीभत्स आदि रसों के लिये तालों की विभिन्न गतियों का बहुत महत्व होता है। लय की ये विभिन्न गतियां मानव के उद्वेगों (संवेगों) को स्पर्श कर उसे आनन्दित कर देती हैं और संगीतकार तथा श्रोता दोनों के हृदय में विभिन्न भाव उत्पन्न करती है। 

विलम्बित लय में स्थिरता एवं गम्भीर होने के कारण तालों की विलम्बित लय श्रोताओं के हृदय में शान्त भाव का संचार करती है। तालों की मध्य लय या गति हास्य, श्रृंगार करूण व वात्सल्य रस से पूर्ण भावों का संचार करती है। द्रुत लय में चपलता आ जाने के कारण तालों की द्रुत गति श्रृंगार, वीर, रौद्र अद्भुत आदि रस उत्पन्न करती है।

3. ताल - संगीत में स्वर तथा लय के बाद ताल का भी विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। संगीत में समय नापने के साधन को ताल कहते है जो विभागों और मात्राओं के समूह से बनता है। इसे हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि लय नापने के साधन को, जो मात्राओं का समूह होता है, वह ताल कहलाता है। ताल लय को प्रकट करने की प्रक्रिया है।

संगीत की उत्पत्ति 

1. संगीत की उत्पत्ति का धार्मिक आधार

संगीत उतना ही प्राचीन एवं अनादि है जितनी मानव जाति । आदिकाल से भारत में संगीत का सम्बन्ध ईश्वर की उपासना और धार्मिक कृत्यों से रहा है। यह सार्वभौम तथ्य है कि संगीत की उत्पत्ति देवी देवताओं से हुई है संगीत मकरन्द के रचयिता नारद जी ने भी संगीत की उत्पत्ति ब्रम्हाजी से मानी है। किन्तु आचार्य शारंगदेव के संगीत रत्नाकर में संगीत की उत्पत्ति सदाशिव से मानी गयी है । 

शारंगदेव ने संगीतोत्पत्ति से लेकर क्रमिक युग के अनेक विद्वानों के नामों की सूची दी है, जिसमें सदाशिव, शिव, ब्रम्हा, दुर्गा, शक्ति, वायु, रंभा, अर्जुन, नारद आदि पौराणिक नामों के साथ-साथ भरत, कश्यप मुनि, मतंग, कोहल, दत्तिल, तुम्बरू, रूद्रट, नान्यदेव, भोजराज आदि ऐतिहासिक व्यक्तियों के भी नाम है।

भारतीय परम्परा में संगीत कला के जनक के रूप में दो आदिदेव माने गये है-सृष्टि के रचयिता ब्रम्हा तथा डमरूधारी भगवान शंकर। संगीतोत्पत्ति का आधार धर्म मानने वालों का यह भी मत है कि संगीत के जन्म का शीर्ष प्रणव ‘ऊ’ शब्द एकाकार होते हुए भी अ, उ, म इन तीन ध्वनियों से निर्मित हुआ है। इसके तीन अक्षर क्रमश: सृष्टि पालन और विलय के द्योतक है। इसमें तीनो अक्षर तीन शक्तियों को प्रदर्शित करते है। अ-सृष्टिकर्ता ब्रह्मा उत्पत्ति कारक उ-पालनकर्ता, रक्षक, शक्ति के प्रतीक विष्णु तथा म-संहारकारक महेष शक्ति स्वरूप भगवान शंकर । 

 तीनों शक्तियों का समाविष्ट रूप त्रिमूर्ति ही परमेश्वर है। इसलिये स्वर ईश्वर को एक रूप माना गया है। शब्द और स्वर दोनों की उत्पत्ति ‘ओम’ से हुई है। पहले स्वर उत्पन्न हुआ तदुरान्त शब्द। वस्तुत: जो ओम् की साधना कर पाते है वही यथार्थ में संगीत का रूप समझ पाते है। इसमें स्वर लय, ताल सभी कुछ निहित है। यही शब्द संगीत के जन्म का कारण है। 

2. संगीत की उत्पत्ति का मनोवैज्ञानिक आधार 

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जैसे-जैसे मानव श्रमिक विकास की सीढ़ियाँ चढ़ता गया वैसे ही विभिन्न कलायें उसके विकसित जीवन से जुड़ती चली गयी । अत: संगीत आदि सभी कलाओं का क्रमिक विकास हुआ है। बालक के जन्म लेते ही उसके कण्ठ से रोने की ध्वनि निकलती है, गायन और वादन इसी ध्वनि के सहज विकास से हुआ है। मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में ‘कला संवेगों का अभिव्यक्तिकरण है। 

संगीत मर्मज्ञ फ्रायड का सिद्धान्त है कि ‘Music is a psychological need and natural process’ इसलिए मनोवैज्ञानिकों ने संगीत कला के संबंध में भी यही माना है कि मानव ने अपनी विभिन्न भावनाओं को ऊँची-नीची ध्वनियों की सहायता से अभिव्यक्त किया और उसी से संगीत की उत्पत्ति हुई। 

3. संगीत की उत्पत्ति का प्राकृतिक आधार

विद्वानों ने प्रकृति को भी संगीतोपत्ति का आधार माना है। कुछ विद्वानों का मत है कि संगीत की उत्पत्ति में पशु-पक्षियों की विभिन्न ध्वनियों का योगदान है। विभिन्न पशु-पक्षियों की ध्वनि के श्रवण के अतिरिक्त भी मानव ने संगीत-मय वातावरण का अवलोकन करते हुए प्रकृति से उद्दीभूत विभिन्न मधुर ध्वनियों का श्रवण किया। उसे झरनों तथा सरिताओं की कलकल में, सागर की उठती गिरती तरंगों में नटखट पवन के मधुर झोंकों में, वृक्ष के पल्लवों में, वर्षा की बूँदों में प्रस्फुटित हुई ध्वनि सुनाई दी। धीरे-धीरे मानव ने उनका अनुकरण करना प्रारम्भ किया इससे उसके जीवन में सरसता का समावेश हुआ और उसने इस सरसता को स्थिर रखने के लिए तथा मधुर प्राकृतिक ध्वनियों को और अधिक सुन्दर बनाने के लिए स्वरों का विचार किया। कहने का तात्पर्य है कि सांगीतिक ध्वनि का आदि स्त्रोत ‘प्राकृतिक ध्वनि’ ही है। 

संगीतोत्पत्ति संबंधी विभिन्न आधारों का अवलोकन करने पर कहा जा सकता है कि संगीत की उत्पत्ति प्रकृति से हुई है। यदि गूढ़ता से विचार किया जाये तो संगीतोत्पत्ति का मूलाधार ईश्वर रचित प्रकृति से ही प्राप्त हुये है। बस अंतर केवल इतना ही है कि प्रकृति में समाविष्ट ‘नाद’ तथा ‘गति’ के ही परिष्कृत रूप ‘स्वर’ और ‘लय’ के रूप में प्रस्फुटित हुये है।

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