वृद्धि तथा विकास का क्या अर्थ है ?

सामान्य रुप से ‘अभिवृद्धि’ शब्द का प्रयोग शरीर और उसके अंगों के भार और आकार में वृद्धि के लिए किया जाता है इस वृद्धि को नापा जा सकता है। ‘विकास’ का सम्बन्ध ‘अभिवृद्धि’ से अवश्य होता है पर यह शरीर के अंगों में होने वाले परिवर्तनों को विशेष रूप से व्यक्त करता हैं। उदाहरण- हड्डियों के आकार में वृद्धि होती है पर कड़ी हो जाने के कारण उनके स्वरूप में परिवर्तन भी हो जाता है। 

“अभिवृद्धि और विकास” की प्रक्रियाएँ उसी समय से आरम्भ हो जाती है जिस समय से बालक का गर्भाधान होता है। ये प्रक्रियाएँ, उनके जन्म के बाद भी चलती रहती है फलस्वरूप, वह विकास की विभिन्न अवस्थाओं में से गुजरता है, जिनमें उनका शारीरिक , मानसिक, सामाजिक आदि विकास होता है।

वृद्धि तथा विकास का अर्थ

जब बालक विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है, तब हम उसमें कुछ परिवर्तन देखते हैं। व्यक्ति विशेष में वृद्धि और विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप होने वाले परिवर्तन कुछ विशेष सिद्धांत के अनुसार होते है। इन सिद्धांतो को वृद्धि एवं विकास के सिद्धांत कहा जाता है।

वृद्धि एवं विकास के सिद्धांत 

1. निरन्तरता का सिद्धांत- यह सिद्धांत बताता है कि विकास एक न रूकने वाली प्रक्रिया है। माँ के गर्भ से ही यह प्रारम्भ हो जाती है तथा मृत्यु पर्यन्त निरन्तर चलती रहती हैं। 

2. विकास की विभिन्न गति का सिद्धांत- सभी व्यक्तियों के विकास की गति भिन्न-भिन्न होती है और विभिन्नता विकास के सम्पूर्ण काल में यथावत् बनी रहती है अर्थात् विकास बराबर होता रहता है, परन्तु इसकी गति सब अवस्थाओं में एक जैसी नहीं रहती। यह गति कभी तीव्र होती है तो कभी 6 मन्द होती है। उदाहरणार्थ, प्रथम तीन वर्षों में बालक के विकस की प्रक्रिया बहुत तीव्र रहती है और उसके बाद यह प्रक्रिया धीमी गति से होती है। इस प्रकार वृद्धि और विकास की गति में उतार-चढा़व आते ही रहते हैं। किसी भी अवस्था में एक जैसी गति नहीं रहती है। 

3. वैयक्तिगत अन्तर का सिद्धांत- इस सिद्धांत में बालकों का विकास अपने व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार होता है। वे अपनी स्वाभाविक गति से ही वृद्धि और विकास के विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़ते रहते हैं और इसी कारण उनमें पर्याप्त विभिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। 

4. विकास क्रम की एकरूपता का सिद्धांत- विकास की गति एक जैसी न होने तथा पर्याप्त वैयक्तिक अन्तर पाए जाने पर भी विकास क्रम में कुछ एकरूपता के दर्शन होते हैं। इस क्रम में एक ही जाति विशेष के सभी सदस्यों में कुछ एक जैसी विशेषताएं देखने को मिलती हैं। उदाहरण के लिए मनुष्य जाति के सभी बालकों की वृद्धि सिर से पैर की ओर होती है जैसे बालक जन्म के प्रथम सप्ताह में केवल सिर को उठा पाता है। फिर अगले 3 माह में वह अपने नेत्रों की गति पर नियंत्रण करना सीख पाता है। 6 माह में वह अपने हाथों की गतियों पर अधिकार कर लेता है। 8 माह में वह सहारा लेकर बैठने लगता है। 10 माह में वह स्वयं बैठने और घिसट कर चलने लगता है। एक वर्ष का हो जाने पर उसे अपने पैरों पर नियंत्रण हो जाता है और वह खड़ा होने लगता है। और चलने की कोषिष करने लगता है। 
  • 5 वर्ष - सामाजिकता में पढ़ना 
  • 4 वर्ष - संख्या आकार का ज्ञान 
  • 3 वर्ष - वाक्य बोलना 
  • 2 वर्ष - आंतो पर नियंत्रण 
  • 18 माह - चलना, शब्द बोलना 
  • 12 माह - खड़ा होना 
  • 40 सप्ताह - बैठना, खिसकना 
  • 28 सप्ताह - हाथों से पकड़ने की चेष्टा करना 
  • 16 सप्ताह - सिर का संतुलन 
  • 4 सप्ताह - आँखों पर नियंत्रण 
  • 0 - जन्म 40 सप्ताह - जन्म से पूर्व की स्थिति 
  • 24 सप्ताह - शारीरिक एवं रासयनिक नियंत्रण 
  • 20 सप्ताह - गर्दन की सहज क्रिया 
  • 18 सप्ताह - मुट्ठी बन्द करना 
  • 16 सप्ताह - निगलना व छींकना 
  • 10 सप्ताह - धड़ का विकास 
  • 08 सप्ताह - गर्भावस्था 
  • 01 सप्ताह - भ्रूणावस्था 
5. सामान्य व विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार विकास और वृद्धि की सभी दिशाओं में विशिष्ट क्रियाओं से पहले सामान्य क्रियाऐं होती है जैसे- बालक अपने हाथों से कुछ चीज पकड़ने से पहले बालक इधर-उधर यूँ ही हाथ मारने या फेलाने की कोषिष करता है किसी विशेष वस्तु की ओर इशारा करने से पूर्व अपने हाथों की सामान्य रूप से चलाता हैं, परन्तु बाद में वृद्धि और विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप बालक पूरी अभिव्यक्ति करने लगता किसी विषेष वस्तु के प्रति। 

6. एकीकरण का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार, बालक पहले सम्पूर्ण अंग को फिर अंग के भागों को चलाना सीखता है। उसके बाद वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है। उदाहरणार्थ- वह पहले पूरे हाथ को फिर ऊँगलियों को और फिर हाथ और ऊँगलियों को एक साथ चलाना सीखता है। 

7. परस्पर संबध का सिद्धांत- विकास की सभी दषाएँ- शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक आदि एक-दूसरे से परस्पर संबंधित हैं। इनमें से किसी भी एक दिषा में होने वाला विकास अन्य सभी दिशाओं में होन े वाले विकास को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए जिन बच्चों में औसत से अधिक वृद्धि होती है, वे शारीरिक और सामाजिक विकास की दृष्टि से भी काफी आगे बढ़े हुये होते हैं। दूसरी ओर एक क्षेत्र में पाई जाने वाली न्यूनता दूसरे क्षेत्र में हो रही प्रगति में बाधक सिद्ध होती है। यही कारण है कि शारीरिक विकास की दृष्टि से पिछड़े बालक संवेगात्मक, सामाजिक और बौद्धिक विकास में भी उतने ही पीछे रह जाते हैं। 

8. परिपक्वता एवं तत्परता का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार विकास का सीधा सम्बन्ध शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता से हैं। जब व्यक्ति अपने और वातावरण के प्रति समांजस्य बैठा लेता है तब वह विभिन्न प्रकार की विशिष्ट क्रियाओं को करने में सक्षम अथवा परिपक्व माना जाने लगता है। जैसे- एक वर्ष के बालक को हम पूरे वाक्य बोलने की क्रिया नहीं सम्पन्न करा सकते क्योंकि इसके लिए वह परिपक्व एवं तत्पर नहीं होता है किन्तु 2-3 वर्ष की अवस्था पूरी करने पर वह इन क्रियाओं को करने में सक्षम होता है। 

9. वंषानुक्रम एवं वातावरण की अन्तः क्रिया का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति वंषानुक्रम एवं वातावरण की अन्तः क्रिया का परिणाम होता है। बालक के विकास में इन दोनांे का योगदान होता है। उच्च कोटि के वंषानुक्रम लेकर उत्पन्न होने पर यदि उचित वातावरण नहीं मिल पाता है तब बालक का समुचित विकास नहीं हो पाता है। इसी प्रकार निम्न जन्मजात शक्तियों वाले बालक को बहुत अच्छा वातावरण मिलने पर भी उसका सही विकास नहीं हो पाता है। इस प्रकार मानव के विकास में वंषानुक्रम एवं वातावरण दोनों का योगदान होता है। 

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