जयशंकर प्रसाद का जन्म माघ शुक्ल दशमी संवत् 1946 (सन् 1889) को काशी के एक सम्पन्न और यशस्वी घराने में हुआ था। कहा जाता है कि उनके पूर्वज मूलत: कन्नौज के थे। कन्नौज से सत्राहवीं शताब्दी में वे जौनपुर आकर बस गये थे। उसी कुल की एक शाखा अठारहवीं सदी के अंत में काशी जाकर बस गई थी और वहीं उन्होंने तम्बाकू का व्यापार सम्भाल लिया था। उनके इस व्यापार की प्रगति के कारण ही उनकी कीर्ति ‘सुँघनी साहू’ के रूप में चारों ओर फैल गई और काशी-नरेश के बाद नगर में उन्हीं का रुतबा था। सूँघनी के अलावा तम्बाकू की अन्यान्य किस्मों में भी वे लगातार नई-नई चीजें बनाते रहते थे, जिनका कहीं कोई सानी नहीं था। इस मामले में लगता था कि उन्होंने तम्बाखू के व्यवसाय को एक ललित कला के दर्जे तक पहुँचा दिया है। यह परिवार अपने विद्याप्रेम और दानवीरता के लिए विख्यात था, अत: विद्वानों, कवियों, संगीतज्ञों, पहलवानों, वैद्यों और ज्योतिषियों का वहाँ प्रतिदिन जमघट लगा रहता था।
इनका समस्त परिवार शैवमतावलम्बी था, इसलिए इनके परिवार में शैवमत के सिद्धातों पर प्राय: विचार-गोष्ठियां हुआ करती थी। यही कारण है कि आगे चलकर जयशंकर प्रसाद जी शैव-दर्शन से प्रभावित हुए। पंडितों की नगरी काशी में रहते हुए शास्त्राीय चर्चाओं की बारीकियों का प्रभाव उन पर भला कैसे नहीं पड़ता। जयशंकर प्रसाद जी के दादा और पिताजी दोनों इन पांडित्यपूर्ण वाद-विवाद में स्वयं भाग लेते थे, संस्कृत और तर्कशास्त्र में उनकी गति थी। किंतु उनकी सहज व्यावहारिक बुद्धि इस मस्तिष्क-व्यायाम से कहीं अधिक ध्यान अपने शारीरिक-स्वास्थ्य पर देती है। जयशंकर प्रसाद जी के चाचा आदि सभी पहलवान थे। उनके पिता पर ही उतने बड़े कारोबार और पूरे परिवार को संभालने का उत्तरदायित्व था। एक ओर यह वैभव-विलास तथा दूसरी ओर एक अकेले आदमी के भरोसे सारा कारोबार छोड़कर शेष भाइयों की गैर-जिम्मेदार मस्ती, परिणाम में धीरे-धीरे व्यापार ढीला पड़ता गया। किंतु पिता के जीवन-काल में किसी को इस बारे में चिंता की जरूरत महसूस नहीं हुई। पिताजी की मृत्यु के समय जयशंकर प्रसाद जी की उम्र केवल ग्यारह वर्ष की थी। घर संभालने की जिम्मेदारी अब उनके बड़े भाई शम्भूरत्न के कंधों पर थी। शम्भूरत्न एक अत्यन्त उदार और विशाल-हृदय व्यक्ति थे। किंतु उनमें अपने पिता जैसी व्यापार-कुशलता नहीं थी और इस कारण पैतृक व्यवसाय को एक के बाद एक धक्के लगते गये। कर्ज सिर पर चढ़ता गया मगर रहन-सहन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और अतिथि-सत्कार पर परम्परा भी यथावत् बनी रही। कुछ ही सालों के भीतर बड़े भाई का सहारा भी सिर से उठ गया और सोलह वर्षीया जयशंकर प्रसाद पर समस्याओं का एक पूरा पहाड़ आ टूटा। आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह जर्जर हो चुके एक संस्कारी कुल-परिवार के लुप्त गौरव की रक्षा और पुनरुद्धार की चुनौती तो मुंह बाए खड़ी ही थी, उस पर अन्तहीन मुकदमेबाजी, भारी कर्ज का बोझ, रहे-सहे को भी मिट्टी में मिला देने को तुले हुए स्वार्थान्ध और षड्यंत्रकारी रिश्तेदार, तथाकथित मित्रों-शुभचिन्तकों की खोखली सहानुभूति का असह्य व्यंग... सब कुछ विपरीत-ही-विपरीत था। ऐसे में शिक्षा का क्रम तो टूटना ही था।
जयशंकर प्रसाद जी ने तीन विवाह किए थे। प्रथम पत्नी का क्षय रोग से तथा द्वितीय का प्रसूति के समय देहावसान हो गया था। तीसरी पत्नी से इन्हें रत्न शंकर नामक पुत्रा की प्राप्ति हुई। जीवन के अन्तिम दिनों में जयशंकर प्रसाद जी उदर रोग से ग्रस्त हो गए थे तथा इसी रोग ने कार्तिक शुक्ला देवोत्थान एकादशी, विक्रम संवत् 1994 को इस बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति का देहावसान हो गया।
हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद जी की बहुमुखी देन है। उन्होंने उपन्यास, काव्य, नाटक, कहानी, निबंध, चम्पू आदि सभी विधाओं पर सशक्त रूप से लेख्नी चलाई है। लेकिन फिर भी उनकी अमर कीर्ति का आधार स्तंभ काव्य और नाटक ही हैं। इनके उज्ज्वल व्यक्तित्व के अनुसार इनका रचना संसार अत्यंत विस्तृत और बहुआयामी है। इन्होंने नौ वर्ष की अल्पायु में ही ‘कलाधार’ उपनाम से ब्रजभाषा में रचना प्रारम्भ कर दी थी।
काव्य कला तथा अन्य निबन्ध में इनके आलोचनात्मक निबन्ध संग्रहीत हैं।
पश्चिमोत्तर सीमा के पठानों और चाकू बेचने वाली खानाबदोश बलूची िस्त्रायों से लेकर नेपाल और भूटान के कस्तूरीफरोशों तक, महापंडितों से लेकर जादू-टोने वालों तक, दार्शनिक से लेकर नीम-हकीमों तक, साधु-संतों से लेकर तरह-तरह के पाखंडियों तक - मनुष्य का शायद ही कोई रूप, कोई नमूना हो जो उस रंगमंच पर न आया हो। ऐसे में एक संवेदनशील बालक के चित्त पर जीवन-लीला का यह विपुल और रंगारंग वैविध्य अंकित होता चला गया तो यह स्वाभाविक ही था।
इनका समस्त परिवार शैवमतावलम्बी था, इसलिए इनके परिवार में शैवमत के सिद्धातों पर प्राय: विचार-गोष्ठियां हुआ करती थी। यही कारण है कि आगे चलकर जयशंकर प्रसाद जी शैव-दर्शन से प्रभावित हुए। पंडितों की नगरी काशी में रहते हुए शास्त्राीय चर्चाओं की बारीकियों का प्रभाव उन पर भला कैसे नहीं पड़ता। जयशंकर प्रसाद जी के दादा और पिताजी दोनों इन पांडित्यपूर्ण वाद-विवाद में स्वयं भाग लेते थे, संस्कृत और तर्कशास्त्र में उनकी गति थी। किंतु उनकी सहज व्यावहारिक बुद्धि इस मस्तिष्क-व्यायाम से कहीं अधिक ध्यान अपने शारीरिक-स्वास्थ्य पर देती है। जयशंकर प्रसाद जी के चाचा आदि सभी पहलवान थे। उनके पिता पर ही उतने बड़े कारोबार और पूरे परिवार को संभालने का उत्तरदायित्व था। एक ओर यह वैभव-विलास तथा दूसरी ओर एक अकेले आदमी के भरोसे सारा कारोबार छोड़कर शेष भाइयों की गैर-जिम्मेदार मस्ती, परिणाम में धीरे-धीरे व्यापार ढीला पड़ता गया। किंतु पिता के जीवन-काल में किसी को इस बारे में चिंता की जरूरत महसूस नहीं हुई। पिताजी की मृत्यु के समय जयशंकर प्रसाद जी की उम्र केवल ग्यारह वर्ष की थी। घर संभालने की जिम्मेदारी अब उनके बड़े भाई शम्भूरत्न के कंधों पर थी। शम्भूरत्न एक अत्यन्त उदार और विशाल-हृदय व्यक्ति थे। किंतु उनमें अपने पिता जैसी व्यापार-कुशलता नहीं थी और इस कारण पैतृक व्यवसाय को एक के बाद एक धक्के लगते गये। कर्ज सिर पर चढ़ता गया मगर रहन-सहन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और अतिथि-सत्कार पर परम्परा भी यथावत् बनी रही। कुछ ही सालों के भीतर बड़े भाई का सहारा भी सिर से उठ गया और सोलह वर्षीया जयशंकर प्रसाद पर समस्याओं का एक पूरा पहाड़ आ टूटा। आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह जर्जर हो चुके एक संस्कारी कुल-परिवार के लुप्त गौरव की रक्षा और पुनरुद्धार की चुनौती तो मुंह बाए खड़ी ही थी, उस पर अन्तहीन मुकदमेबाजी, भारी कर्ज का बोझ, रहे-सहे को भी मिट्टी में मिला देने को तुले हुए स्वार्थान्ध और षड्यंत्रकारी रिश्तेदार, तथाकथित मित्रों-शुभचिन्तकों की खोखली सहानुभूति का असह्य व्यंग... सब कुछ विपरीत-ही-विपरीत था। ऐसे में शिक्षा का क्रम तो टूटना ही था।
बड़े भाई के दुलारे-भरे संरक्षण में और उर्दू-हिन्दी-ब्रज भाषा के काव्य-प्रेमियों की संगत में जो स्वप्न धीरे-धीरे इस किशोर कवि के भीतर पनप रहा था वह स्वप्न था वाग्देवी को अपना समूचना जीवन अर्पित कर देने का, और यहाँ भाग्य ने जैसे इसका उल्टा ही सरंजाम कर रखा था। सोलह वर्ष के सुकुमार कवि को दुनियादारी का कठोरतम पाठ पढ़ाने का। कोई और होता तो अपनी सारी प्रतिभा को लेकर इस बोझ के नीचे चकनाचूर हो गया होता। मगर जयशंकर प्रसाद का अन्तरंग काँच का नहीं, हीरे का बना हुआ था। परिस्थिति से मौलिक प्रतिशोध लेते हुए उन्होंने कुछ ही वर्षों के अन्दर न केवल अपने कुटुम्ब की माली हालत सुदृढ़ कर ली बल्कि अपनी मानसिक सम्पत्ति को भी - अपनी बौद्धिक और भावनात्मक कमाई को भी - इस सारे वात्यायक से अक्षत उबार लिया। व्यवस्था भी उतनी ही सम्हाली और अपनी रचनात्मक प्रतिभा के भले ही कुछ मन्थर-विलम्बित, किन्तु निरन्तर और अचूक विकास-कर्म से उन्होंने साहित्य-जगत को विस्मय में डाल दिया। धीरे-धीरे लगभग नामालूम ढंग से उनकी रचनाएँ साहित्य के वातावरण में गहरे मिटती गई और क्या कविता, क्या कहानी, क्या नाटक, हर क्षेत्र में खमीर की तरह रूपान्तकरकारी सिद्ध होती चली गई। साहित्यिक दलबन्दी, द्रोहपूर्ण आलोचना, षडयंत्रपूर्ण चुप्पी - कुछ भी इस प्रतिभा को आगे बढ़ने से नहीं रोक सके। इसका कारण यही था कि इन रचनाओं में भी वही तेजस्विता, वही अनिवार्य मोहिनी-शक्ति थी जो कि उन रचनाओं के स्त्रोत जयशंकर प्रसाद के व्यक्तित्व में थी।
जयशंकर प्रसाद जी ने तीन विवाह किए थे। प्रथम पत्नी का क्षय रोग से तथा द्वितीय का प्रसूति के समय देहावसान हो गया था। तीसरी पत्नी से इन्हें रत्न शंकर नामक पुत्रा की प्राप्ति हुई। जीवन के अन्तिम दिनों में जयशंकर प्रसाद जी उदर रोग से ग्रस्त हो गए थे तथा इसी रोग ने कार्तिक शुक्ला देवोत्थान एकादशी, विक्रम संवत् 1994 को इस बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति का देहावसान हो गया।
हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद जी की बहुमुखी देन है। उन्होंने उपन्यास, काव्य, नाटक, कहानी, निबंध, चम्पू आदि सभी विधाओं पर सशक्त रूप से लेख्नी चलाई है। लेकिन फिर भी उनकी अमर कीर्ति का आधार स्तंभ काव्य और नाटक ही हैं। इनके उज्ज्वल व्यक्तित्व के अनुसार इनका रचना संसार अत्यंत विस्तृत और बहुआयामी है। इन्होंने नौ वर्ष की अल्पायु में ही ‘कलाधार’ उपनाम से ब्रजभाषा में रचना प्रारम्भ कर दी थी।
जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ
1. काव्य -
जयशंकर प्रसाद ने अपनी काव्य धारा को द्विवेदी कालीन इतिवृतात्मकता निकालकर नवीनता की ओर प्रेरित किया, सुन्दर काल्पनिक विलान के नीचे छायावादी और रहस्यवादी काव्य का स्वरूप उपस्थित करने में ये सिद्धहस्त रहे हैं। इनकी इसी विचारधारा ने आगे चलकर निराला, पंत, महादेवी जैसे कलाकारों को जन्म दिया। यह कहना उचित होगा कि जयशंकर प्रसाद ने अपनी प्रतिमा के बल पर भाव, भाषा, शैली, छन्द, विषय आदि को छायावादी और रहस्यवादी परिवेश प्रदान किया। जयशंकर प्रसाद जी काव्य और कविता-संग्रह हैं:-- कामायनी
- आँसू
- झरना
- लहर
- महाराणा का महत्त्व
- प्रेम पथिक
- कानन कुसुम
- चित्राधार
- करुणालय।
2. नाटक -
हिन्दी नाट्य साहित्य के इतिहास में भारतेन्दु युग नाटकों का प्रयोग काल था। इस काल में अनुवाद, रूपान्तर और मौलिक नाटकों की जो परम्परा मिली, उसका द्विवेदी युग में यथेष्ट विकास नहीं हो पाया। इसमें अंग्रेजी तथा बंगला से कुछ नाटकों के अनुवाद अवश्य हुए किन्तु उनमें नवीन नाट्यविधान की धूमिल रेखएं ही सामने आई। पारसी रंगमंच के अधिक प्रभाव के कारण उत्कृष्ट मौलिक रचनाओं की ओर किसी का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ। स्वयं भारतेन्दु द्वारा निर्मित रंगमंच का प्रभाव भी इसी पारसी रंगमंच की तड़क-भड़क के प्रभाव में निष्प्राण हो गया। इस विषय परिस्थित में जयशंकर प्रसाद जी नाट्य क्षेत्र में अवतरित हुए। इन्होंने काव्य-कला के साथ-साथ नाट्य कला को परिभाषित कर सहित्यिक जगत को चमत्कृत कर दिया। जयशंकर प्रसाद के नाटक हैं’-- राज्यश्री
- विशाख
- अजातशत्रु
- जनमेजय का नाग यज्ञ
- कामना
- स्कन्दगुप्त
- एक घूंट
- चन्द्रगुप्त
- ध्रुवस्वामिनी
- कल्याणी-परिणय
- सज्जन।
3. उपन्यास -
जयशंकर प्रसाद ने उपन्यासों की रचना भी की है। काव्य के क्षेत्र में जहां वे आदर्श और भावुक बनकर हमारे सामने आए तथा नाटक के क्षेत्र में भारतीय संस्कृति के आराधक के रूप में हमारे सम्मुख उपस्थित हुए, वहीं वे उपन्यासों में आधुनिक समस्याओं के प्रति सजग और जागरुक दिखाई पड़ते हैं। जयशंकर प्रसाद जी के उपन्यास -- कंकाल
- तितली
- इरावती (इसे वे पूरा नहीं कर पाए, क्योंकि इसके प्रणयन में संलग्न रहते हुए वे अकाल काल-कवलित हो गए।)
4.कहानी -
कहानी के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद जी का स्थान गौरवपूर्ण रहा है। जब हिन्दी कहानी-कला अपने शैशव काल में ही थी, तब जयशंकर प्रसाद जी की कहानी ‘‘इन्दु’’ नाटक पित्राका में प्रकाशित हुई। उसकी कहानी अपनी मौलिकता के कारण उस समय की श्रेष्ठतम कहानियों में गिनी गई। इसके बाद प्रसाद जी ने अनेक कहानियों की रचना की। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यदि हिन्दी की सर्वोत्तम कहानियों का कोई संग्रह प्रकाशित किया जाए तो उसमें पचास प्रतिशत कहानियां जयशंकर प्रसाद की होंगी। जयशंकर प्रसाद जी के कहानी संग्रहों के नाम हैं-- आकाशदीप
- इन्द्रजाल
- प्रतिध्वनि
- आँधी
- छाया।
5. निबन्ध और आलोचना -
जयशंकर प्रसाद ने यद्यपि किसी विशाल आलोचनात्मक granth की रचना नहीं की, तथापि उनके आलोचनात्मक निबन्ध ही उनकी गवेषणात्मक, प्रज्ञा, विश्लेषण, मनीषा और विचाराभिव्यक्ति के परिवाचक हैं।काव्य कला तथा अन्य निबन्ध में इनके आलोचनात्मक निबन्ध संग्रहीत हैं।