बजट का अर्थ, परिभाषा स्वरूप, एवं सिद्धांत

‘बजट’ शब्द फ्रांसीसी भाषा के शब्द ‘बूजट’ (Bougette) से लिया गया है, जिसका अर्थ है चमड़े का बैग या थैला। आधुनिक अर्थ में इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले इंग्लैण्ड में 1733 ई0 में किया गया जबकि वित्तमंत्री ने अपनी वित्तीय योजना को लोकसभा के सम्मुख प्रस्तुत किया तो पहली बार व्यंग के रूप में यह कहा गया कि वित्तमंत्री ने अपना ‘बजट खोला’ तभी से सरकार की वार्षिक आय तथा व्यय के वित्तीय विवरण (Financial Statement) के लिये इस शब्द का प्रयोग होने लगा।

बजट का आशय 

बजट से हमारा आशय सरकार या लोकसत्ताओं द्वारा वित्तीय संसाधनों को जुटाने एवं उनको व्यय करने सम्बन्धी कार्यक्रमों की रूपरेखा से लगाया जाता है। बजट एक सरकारी प्रपत्र होता है जिसमें सार्वजनिक कार्यक्रमों को संचालित करने के लिये आवश्यक कार्यों की पूर्ति करने के स्रोत एवं मात्रा के साथ सम्बन्धित मदों का पूर्ण विवरण होता है। जिसका सम्बन्ध किसी एक निश्चित समयावधि से होता है। इस प्रकार बजट सरकार के अर्थपूर्ण प्रशासन एवं कुशलता का प्रतीक माना गया है। बजट सरकारी कार्यों का एक प्रस्तावित विवरण एवं आवश्यक धनराशि के संग्रहण के लिए प्रस्तावित एवं अनुमानित व्यवस्था होती है। बजट की मुख्य विशेषताओं एवं मुख्य आयामों से आप बजट के आशय को भली-भांति समझ सकेंगे।

बजट की परिभाषा

कुछ लेखकों ने बजट की परिभाषा अनुमानित आमदनियों तथा खर्चों के केवल एक विवरण के रूप में की है। अन्य लेखकों ने बजट शब्द को राजस्व तथा विनियोजन अधिनियम (Revenue and Appropriation Act) का पर्यायवाची कहा है। Lerory Beaulieu ने लिखा है कि “बजट एक निश्चित अवधि के अन्तर्गत होने वाली अनुमानित प्राप्तियों तथा खर्चों का एक विवरण है, यह एक तुलनात्मक तालिका है जिसमें उगाही जाने वाली आमदनियों तथा किये जाने वाले खर्चों की धनराशियाँ दी हुई होती है; इसके भी अतिरिक्त, यह आय का संग्रह करने तथा खर्च करने के लिये उपयुक्त प्राधिकारियों द्वारा दिया गया एक आदेश अथवा अधिकार हैं” Rene Stourm ने बजट की परिभाषा इस प्रकार की है कि “यह एक लेख-पत्र है जिसमें सरकारी आय तथा व्यय की एक प्रारम्भिक अनुमोदित योजना दी हुई होती है।” जबकि G.Jeze ने बजट का वर्णन इस प्रकार किया है “यह सम्पूर्ण सरकारी प्राप्तियों (Receipts) तथा खर्चों का एक पूर्वानुमान (Forecast) तथा (Estimate) है, और कुछ प्राप्तियों का संग्रह करने तथा कुछ खर्चों को करने का एक आदेश है। उपरोक्त परिभाषायें कम से कम दो प्रकार से दोषपूर्ण हैं। सर्वप्रथम इनमें यह नहीं कहा गया है कि बजट में विगत संक्रियाओं (Operations), वर्तमान दशाओं तथा साथ ही साथ भविष्य के प्रस्तावों से संबंधित तथ्यों का उल्लेख होना चाहियें। दूसरे, इन परिभाषाओं में बजट तथा ‘राजस्व व विनियोजन अधिनियमों’ के बीच कोई भेद नहीं किया गया है। इन दोनों में भेद किया जाना चाहियें। बजट तो प्रशासन के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है और राजस्व व नियोजन अधिनियम व्यवस्थापिका अथवा विधान-मण्डल में कार्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

बजट में, एकीकृत तथा व्यापक रूप में, उन सभी तथ्यों का समावेश किया जाना चाहिये, जोकि सरकार के विगत तथा भावी व्यय और राजकोष (Treasury) की आय तथा वित्तीय स्थिति से संबंध रखते हों। डब्ल्यू0 एफ0 विलोबी के अनुसार, “बजट सरकार की आमदनियों तथा खर्चों का केवल अनुमान मात्र ही नहीं है, बल्कि इससे कुछ अधिक हैं। वह ;बजटद्ध एक ही साथ रिपोर्ट, अनुमान तथा प्रस्ताव है अथवा उसे ऐसा होना चाहिये। यह एक ऐसा लेखपत्र (Document) है, अथवा होना चाहिए जिसके द्वारा मुख्य कार्यपालिका धन प्राप्त करने वाली तथा व्यय की स्वीकृति देने वाली सत्ता के समक्ष इस बात का प्रतिवेदन करती है कि उसने और उसके अधीनस्थ कर्मचारियों ने गत वर्ष प्रशासन का संचालन किस प्रकार किया; लोक कोषागार की वर्तमान स्थिति क्या है? और इन सूचनाओं के आधार पर वह आगामी वर्ष के लिए अपने कार्यक्रम की घोषणा संकेत करता है जिसके द्वारा कि एक सरकारी अभिकरण की वित्तीय नीति का निर्माण किया जाता है और यह बतलाती है कि उस कार्यक्रम के निष्पादन के लिए धन की व्यवस्था किस प्रकार की जाएगी।”

इस प्रकार, बजट वित्तीय कार्यों की एक योजना है। एक अन्य विद्वान ने बजट-पद्धति का वर्णन इस प्रकार किया है कि “बजट-पद्धति एक ऐसी व्यवस्थित रीति है जिसके द्वारा भूत (Past) तथा वर्तमान से सूचनायें एकत्र की जाती हैं और तदनन्तर यह प्रतिवेदन किया जाता है कि वे योजनायें किस प्रकार क्रियान्वित की गई।
शिराज के अनुसार, ‘‘बजट आय तथा व्यय का विवरण है। यह सरकार द्वारा अनुमानित व्यय को पूरा करने के लिए बनाया जाता है। इसमें सामान्यत: दो वित्तीय अवधियाँ होती हैं - समाप्त होने वाली अवधि तथा आगामी अवधि। संक्षेप में बजट में पिछले वर्ष के आय-व्यय का अनुमान तथा घाटों को पूरा करने और बचत को वितरित करने के लिए प्रस्ताव होते हैं।’’
  1. किंग के अनुसार, ‘‘बजट एक प्रशुल्क योजना है, जिसके द्वारा व्यय को आय से सन्तुलित किया जाता है।’’
  2. गैस्टन जेज के अनुसार, ‘‘एक आधुनिक राज्य में बजट एक पूर्व कल्पना तथा सार्वजनिक आय एवं व्यय का एक अनुमान है तथा कुछ विशिष्ट व्ययों को करने व आय को प्राप्त करने का अधिकार है।’’
  3. पी0एफ0 टेलर के शब्दों में, ‘‘बजट सरकार की मास्टर वित्तीय योजना है। यह आगामी आय के अनुमान तथा बजट के प्रस्तावित व्ययों के अनुमान साथ-साथ प्रदान करता है।’’
  4. डब्ल्यू0पी0 विलोबी के शब्दों में, ‘‘बजट एक साथ एक रिपोर्ट एक अनुमान तथा एक प्रस्ताव है। यह एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा वित्तीय प्रशासन की सभी विधियों को सम्बन्धित किया जाता है। उसकी तुलना की जाती है और उसमें समन्वय स्थापित किया जाता है।’’ डॉल्टन के अनुसार, ‘‘सन्तुलित बजट की सामान्य विचारधारा यह है कि एक समयावधि में आय बढ़ती है या व्यय से कम नहीं रहती है।’’
  5. पी0एल0 बिल्यू के शब्दों में, ‘‘यह एक निश्चित अवधि की अनुमानित आय एवं व्ययों का विवरण है, यह तुलनात्मक तालिका है जिसमें प्रापत होने वाली आय तथा ेिकये जाने वाले व्ययों की राशियों को दिखाया जाता है।’’

प्रस्तावित बजट का स्वरूप

प्रथम भाग

  1. बजट में उन सभी विभागों तथा अभिकरणों के प्रशासन, संचालन तथा परिपालन के लिए किए जाने वाले सभी प्रस्तावित खर्चों का समावेश किया जाना चाहिए जिनके लिए कि व्यवस्थापिका या विधान-मण्डल (Legislature ) द्वारा विनियोजन (Appropriation) किये जाने हों।
  2. पूँजीगत प्रयोजनाओं (Capital Projects) पर किये जाने वाले सभी खर्चों के अनुमान सम्मिलित किए जाने चाहिए।

द्वितीय भाग

आय के स्रोत (Sources of Income) - कराधन (Taxation) उधार (Borrowing); घाटे की वित्त व्यवस्था (Deficit Financing) के द्वारा व कागजी मुद्रा जारी करके।

बजट के आर्थिक तथा सामाजिक परिणाम

आधुनिक बजट राष्ट्र के आर्थिक तथा सामाजिक जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण भाग अदा करता है, प्रारम्भिक काल में, चूंकि बजट सरकार की अनुमानित प्राप्तियों एवं खर्चों का एक विवरण मात्र था, अत: इसके केवल दो उद्देश्य थे- प्रथम सरकार को यह निश्चित करना होता था कि कार्यकुशलता के एक उपयुक्त स्तर पर अपनी आवश्यक क्रियाओं के संचालन करने के लिए जो थोड़े से धन की आवश्यकता है उस धन को वह किस प्रकार कर दाताओं की जेब से निकाले। दूसरे, विधान मण्डल को धन के बारे में स्वीकृति देनी होती थी, अत: सरकार यह जानना चाहती थी कि धन किस प्रकार व्यय किया जाये। इस प्रकार, प्रबंध नीति ;स्ंपेम्र थ्ंपतमद्ध के दिनों में बजट आय-व्यय का केवल एक विवरण मात्र था। आधुनिक राष्ट्र और विशेषकर एक कल्याणकारी राज्य का एक विशिष्ट लक्षण सरकार की क्रियाओं की मात्रा तथा विविधता में वृद्धि होना है। सरकार की क्रियाओं में तेजी से वृद्धि हो रही है और सामाजिक जीवन के लगभग सभी पहलुओं में उनका विस्तार हो रहा है। सरकार अब एक ऐसे अभिकरण के सदृश है जिसका कार्य ठोस एवं निश्चयात्मक क्रियाओं तथा नागरिकों के सामान्य कल्याण में वृद्धि करना है। सरकार द्वारा बजट बनाने का कार्य उन बड़ी प्रक्रियाओं में से एक है जिनके द्वारा सार्वजनिक साधनों के उपयोग की योजना बनार्इ्र जाती है और उनका नियन्त्रण किया जाता है। अत: बजट सरकार की नीति का एक महत्वपूर्ण वक्तव्य तथा सरकार के उन कार्यक्रमों के स्पष्टीकरण का एक प्रमुख अस्त्र बन गया है जोकि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था (National Economy) के सरकारी तथा गैर सरकारी, दोनों ही क्षेत्रों में फैले होते हैं। बजट विकास तथा उत्पादन (Production) को, आय की मात्रा तथा वितरण को, और मानवीय शक्ति एवं सामग्री की उपलब्धता को प्रभवित करता है। कल्याणकारी राज्य (Welfare State) की अर्थव्यवस्था में बजट एक महत्त्वपूर्ण योग देता है। अत: प्रत्येक नागरिक इस बात पर इच्छुक होता है कि वह बजट से सरकार की विभिन्न क्रियाओं एवं कार्यक्रमों की प्रकृति तथा लागत से संबंधित बातें ज्ञात करे। बजट से नागरिक यह जान सकते हैं कि सरकार की अनेक योजनाओं तथा कार्यक्रमों से उन्हें क्या-क्या लाभ प्राप्त होते जा रहे हैं। और उन्हें कितना-कितना कर अदा करना पड़ेगा? बजट के द्वारा नागरिकों की विभिन्न रुचियों (Interests) उद्देश्यों, इच्छाओं तथा आवश्यकताओं का एक कार्यक्रम के रूप में एकत्रीकरण किया जाता है जिससे कि नागरिक सुरक्षा, सुख व सुविधा के साथ अपना जीवन व्यतीत कर सकें। बजट में उल्लिखित सरकार की कराधान नीति (Taxation Policy) के द्वारा, यह हो सकता है कि वर्गीय विभिन्नताओं तथा असमानताओं को कम करने का प्रयत्न किया जाये। बजट में दी हुई सरकार की उत्पादन नीति का उद्देश्य निर्धनता, बेरोजगारी तथा धन के असमान वितरण को दूर करना हो सकता है। इस प्रकार राष्ट्र के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन पर बजट का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।

बजट के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत

बजट की परिभाषा और नागरिकों के सामजिक जीवन में उसके महत्त्व का विवेचन करने के पश्चात् यह आवश्यक है कि बजट के महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों का ज्ञान प्राप्त किया जाये। बजट के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत हैं: -प्रचार, स्पष्टता, व्यापकता, एकता, नियतकालीन, परिशुद्धता और सत्य शीलता।अब हम बजट के इन महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों की क्रमश: विवेचना करते हैं :
  1. प्रचार - सरकार के बजट की अनेक चरणों (Stages) में गुजरना होता है। उदाहरण के लिये, कार्यपालिका द्वारा व्यवस्थापिका के समक्ष बजट की सिफारिश, व्यवस्थापिका उस पर विचार तथा बजट का प्रकाशन व क्रियान्वयन। इन विभिन्न चरणों के द्वारा बजट को सार्वजनिक बना देना चाहिए। बजट पर विचार करने के लिए व्यवस्थापिका (Legislature) के गुप्त अधिवेशन नहीं होने चाहिए। बजट का प्रचार होना अत्यन्त आवश्यक है जिससे कि देश की जनता तथा समाचार पत्र विभिन्न करों तथा व्यय की विभिन्न योजनाओं के संबंध में अपने विचार प्रकट कर सकें।
  2. स्पष्टता - बजट का ढाँचा इस प्रकार तैयार किया जाना चाहिए कि वह सरलता व सुगमता से समझ में आ जाये।
  3. व्यापकता - सरकार के सम्पूर्ण राजकोषीय (Fiscal) कार्यक्रमों का सारांश बजट में आना चाहिए। बजट द्वारा सरकार की आमदनियों एवं खर्चों का पूर्ण चित्र प्रस्तुत किया जाना चाहिए। इसमें यह बात स्पष्ट की जानी चाहियें कि सरकार द्वारा क्या कोई नया ऋण अथवा उधार लिया जाना है। सरकार की प्राप्तियों तथा विनियोजनाओं का ब्यौरे वाले स्पष्टीकरण होना चाहिए। बजट ऐसा होना चाहिए जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति सरकार की संपूर्ण आर्थिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त कर सके।
  4. एकता - सम्पूर्ण खर्चों की वित्तीय व्यवस्था के लिये सरकार को सभी प्राप्तियों को एक सामान्य निधि (Fund) में एकत्रीकरण कर लिया जाना चाहिए।
  5. नियतकालीनता - सरकार को विनियोजन तथा खर्च करने का प्राधिकार एक निश्चित अवधि के लिए ही दिया जाना चाहिए। यदि उस अवधि में धन का उपयोग न किया जाये तो वह प्राधिकार समाप्त हो जाना चाहिये अथवा उसका पुनर्विनियोजन (Re-appropriation) होना चाहिए। सामान्य: बजट अनुमान वार्षिक आधार पर दिये जाते हैं। व्यवस्थापिका को, उस अवधि की सम्पूर्ण आवश्यकताओं को, जिसमें कि व्यय किये जाने हैं, दृष्टिगत रखकर उस अवधि से पूर्व ही बजट पारित करना चाहिए। उदाहरण के लिये, यदि वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल से प्रारम्भ होता है तो सुविधाजनक यह होगा कि व्यवस्थापिका अथवा विधानमण्डल 1 अप्रैल से पूर्व ही खर्चों की अनुमति दे दें।
  6. परिशुद्धता - किसी भी सुदृढ़ वित्तीय व्यवस्था के लिए बजट अनुमानों की परिशुद्धता तथा विश्वसनीयता अत्यन्त आवश्यक है। वे सूचनायें, जिन पर कि बजट अनुमान आधारित हों, यथेष्ट रूप में ठीक, ब्यौरेवार तथा मूल्यांकन करने की दृष्टि से उपर्युक्त होनी चाहिए। जान-बूझकर राजस्व का कम अनुमान लगाने अथवा तथ्यों को छिपाने की बात नहीं होनी चाहिए। भारत में, संसद में तथा संसदीय समितियों में यह आलोचना प्राय: की जाती है कि बजट अनुमानों को तैयार करने में एक प्रवृत्ति यह पाई जाती है कि राजस्व की प्राप्तियों का तो न्यूनांकन (Under- Estimation) किया जाता है और राजस्व-व्यय का अत्यंकन (Over Estimation)। इस बात पर जोर देने की आवश्यकता नहीं है कि आय का कम अंकन करने वाले व्यय का अंधिक अंकन करने की इस प्रवृत्ति से बजट का रूप ही बिगड़ जाता है।
  7. सत्यशीलता - इसका अर्थ है कि राजकोषीय कार्यक्रमों का क्रियान्वयन ठीक उसी प्रकार होना चाहिए जिस प्रकार कि बजट में उसकी व्यवस्था की गई हो। यदि बजट उस प्रकार क्रियान्वित नहीं किया जाता है जिस प्रकार कि उसका विधानीकरण किया गया था, तो फिर बजट बनाने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता।
इस प्रकार स्पष्ट है कि यदि बजट के द्वारा उन उद्देश्यों को प्राप्त करना है जिनके लिये कि उसका निर्माण किया गया था, अर्थात् सत्यनिष्ठ एवं कुशल वित्तीय प्रशासन की स्थापना, तो ऊपर उल्लेख किये गये सिद्धांतों का पालन होना ही चाहिए।

बजट की रचना

बजट रचना के मुख्यत: दो भाग हैं- प्रथम बजट की तैयारी और द्वितीय बजट का अधिनियम जिसमें बजट अनुमानों को व्यवस्थापिका में प्रस्तुत करना, व्यवस्थापिका द्वारा उसे स्वीकृति प्रदान करना, व्यवस्थापन आदि सम्मिलित है।

बजट की तैयारी - भारत में वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल को आरम्भ और 31 मार्च को समाप्त होता है। बजट अनुमान तैयार करने का कार्य आगामी वित्त के आरम्भ होने से 7.8 माह पूर्व प्रारम्भ होता है। बजट की रूपरेखा तैयार करने का सारा उत्तरदायित्व वित्त मंत्रालय का होता है, किन्तु इस कार्य में प्रशासकीय मंत्रालय और उसके अधीनस्थ कार्यालयों में वित्त मंत्रालय को प्रशासकीय आवश्यकताओं की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। योजना आयोग योजनाओं की प्राथमिकता के संबंध में मंत्रणा देता है और नियंत्रक महालेखा परीक्षक प्राक्कथन तैयार करने हेतु लेखा कौशल उपलब्ध कराता है।
बजट अनुमान तैयार करने की शुरूआत वित्त मंत्रालय द्वारा जुलाई अथवा अगस्त माह से ही शुरू कर दी जाती है अब वह विभिन्न प्रशासकीय मंत्रालयों तथा विभागाध्यक्षों को व्ययों के प्राक्कथन तैयार करने के लिए एक प्रपत्र (Form) भेजता है। विभागाध्यक्ष इन छपे हुए निर्धारित प्रपत्रों को स्थानीय कार्यालयों को भेज देता है। प्रपत्र में कुछ खाने होते हैं जिन्हें इस प्रकार दर्शाया जाता है :
  1. विनियोगों के शीर्ष तथा उपशीर्ष,
  2. गत वर्ष की वास्तविक आय तथा व्यय,
  3. वर्तमान वर्ष के स्वीकृत अनुमान,
  4. वर्तमान वर्ष के संशोधित अनुमान,
  5. आगामी वर्ष के बजट प्राक्कलन, तथा
  6. घटा-बढ़ी का विस्तार
स्थानीय कार्यालयों द्वारा ये प्रपत्र तैयार करके प्रशासकीय, मंत्रालयों के संबंधित विभागों को भेज दिये जाते हैं। विभागों के अध्यक्ष अनुमानों का सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं और आवश्यकतानुसार संशोधन करके अपने-अपने विभागों के लिए उन्हें एकीकृत करते हैं। इसके बाद प्रशासकीय मंत्रालय इन प्राक्कलनों को नवम्बर के मध्य में वित्त मंत्रालय को प्रेषित कर देते हैं। प्रत्येक विभाग अपने प्राक्कलनों की एक प्रतिलिपि भारत के ‘महालेखापाल’ के पास पहुँचा देता है। इस कार्यालय में विभिन्न मदों की जांच की जाती है। उसके पश्चात् महालेखापाल अपनी टिप्पणियाँ वित्त मंत्रालय के पास भेज देता है। वित्त मंत्रालय द्वारा बजट अनुमानों का सूक्ष्म परीक्षण किया जाता है। यह परीक्षण मुख्यत: मितव्ययिता से संबंध रखता है, नीति से नहीं। व्ययों संबंधी नीति को देखना तो मुख्य रूप से प्रशासकीय मंत्रालयों का ही काम है। प्रशासकीय मंत्रालयों द्वारा प्रेषित बजट अनुमानों को मोटे रूप से तीन भागों में बांटा जाता है :
  1. स्थायी प्रभार अथवा स्थायी व्यय - इसमें स्थायी संस्थानों (Permanent establishments) के वेतन, भत्ते तथा अन्य व्यय सम्मिलित हैं। इनसे संबंधित अनुमान सूक्ष्म पुनरावलोकन हेतु वित्त मंत्रालय के बजट संभाग (Budget Division) को भेजे जाते हैं।
  2. नयी योजनाओं या कार्यक्रम - वित्त मंत्रालय द्वारा प्राक्कलनों कीे वास्तविक जांच इसी क्षेत्र में की जाती है। नवीन योजनाओं के संबंध में संसाधनों के आधार पर विभिन्न मदों की प्राथमिकता के संबंध में विचार किया जाता है। इस बारे में आयोग तथा वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग (Department of Economic Affairs) से भी सलाह ली जाती है।
  3. प्र्चलित योजनाएं अथवा कार्यक्रम - दूसरे विभाग में वे विषय रहते हैं जो वर्ष प्रतिवर्ष निरन्तर चलते रहते हैं। इन प्रचलित योजनाओं के प्राक्कलनों की जाँच व्यय-विभाग (Department of Expenditure) द्वारा की जाती है। इस सूक्ष्म परीक्षण द्वारा यह देखा जाता है कि जारी योजनाओं में कहाँ तक प्रगति हुई, उनके संबंध में की गयी वचनबद्धताएँ कहाँ तक पूरी की गयी हैं, आदि। यह परीक्षण निरन्तर चलता रहता है।

बजट के गठन के लिए इस्तेमाल की जाने वाली विधियाँ

बजट तैयार करने के लिए पाँच विधियों का इस्तेमाल किया जाता है-
  1. संवितरण अधिकारियों द्वारा प्रारम्भिक अनुमानों की तैयारी करना।
  2. नियंत्रण अधिकारियों द्वारा इन अनुमानों की संवीक्षा और समीक्षा।
  3. महालेखाकार तथा प्रशासनिक विभाग द्वारा संशोधित अनुमानों की संवीक्षा और समीक्षा।
  4. वित्त मंत्रालय द्वारा संशोधित अनुमानों की संवीक्षा और समीक्षा
  5. मंत्रिमंडल द्वारा समेकित अनुमान पर अन्तिम विचार।

संवितरण अधिकारियों द्वारा तैयारी -

 बजट तैयार करने का कार्य अगला वित्तीय वर्ष प्रारम्भ होने के 6 से 8 माह पहले से ही शुरू हो जाता है। चूंकि भारतीय वित्तीय वर्ष प्रत्येक वर्ष पहली अप्रैल को शुरू हो जाता है, इसलिए बजट तैयार करने का कार्य अगस्त-सितम्बर के माह से शुरू हो जाता है। महालेखाकार जुलाई या अगस्त के महीने में विभिन्न विभागों के प्रमुखों को पृथक्-पृथक् राजस्व और व्यय के अनुमानों के लिए निर्धारित प्रपत्र भेजता है। विभाग प्रमुख संवितरण अधिकारियों तथा स्थानीय कार्यालयों के प्रमुखों को ये प्रपत्र भेजते हैं जो प्रारम्भिक अनुमान तैयार करते हैं। अनुमान तैयार करने का कार्य अत्याधिक महत्वपूर्ण कार्य है। श्री पी0 के0 बट्टल के शब्दों में, “यह विगत वर्षों के औसत निकालकर उन्हें किसी सुरक्षित आंकड़े में रखने का एक सामान्य गणितीय कार्य नहीं है जोकि बिल्कुल पिछले वर्ष के निष्पादन की पुनरावृत्ति की तरह नहीं दिखाई देगा। इन आंकड़ों के पीछे प्रशासन की वास्तविकताएं छुपी होती हेै। किसी भी एक वर्ष की परिस्थितियाँ पिछले वर्ष की परिस्थितियों के बिल्कुल समान नहीं होती हैं और फिर भी वे नितान्त भिन्न भी नहीं होती हैं। इसलिए असमानताओं और समानताओं का अनुमान लगाने तथा प्रत्येक को उचित महत्व देने में स्व-विवेक का इस्तेमाल करना पड़ता है।” इसलिए अनुमान तैयार करने में सावधानी बरती जानी चाहिए। अनुमान तैयार करते समय स्थानीय अधिकारियों को निर्धारित प्रपत्र के चार स्तंभों को भरना होता है -
  1. पिछले वर्ष के वास्तविक आंकड़े।
  2. चालू वर्ष के स्वीकृत अनुमान।
  3. चालू वर्ष के संशोधन अनुमान, और
  4. अगले वर्ष के बजट का अनुमान।
कभी-कभी बजट अनुमानों तथा खर्च किए गए या खर्च किए जाने वाले वास्तविक धनराशि के बीच काफी अन्तर रह जाता है। यह मुख्य: दो महत्त्वपूर्ण कारकों के कारण होता है। प्रथम, अनुमान लगभग 18 महीने पहले तैयार किए जाते हैं और दूसरे, भारतीय अर्थव्यवस्था मानसून का जुआ है तथा अनुमान मानसून आने से बहुत पहले ही तैयार कर लिए जाते है। इसके अलावा जैसा कि श्री अशोक चन्दा ने कहा है, “बजट में शामिल किए जाते समय नए परियोजनाओं के अनुमानों की तैयारी अधिकांश मामलों में कठिन होती है। इस प्रकार के अनुमान बहुधा केवल प्रत्याशाओं पर न कि ठोस और सकारात्मक पहलुओं पर आधारित होते हैं। फिर भी जब तक कि बजट अनुमानों में शामिल किए जाने हेतु कोई आंकड़ा वित्त मंत्रालय को नहीं भेजा जाता है तब तक इस स्कीम को शुरू नहीं किया जा सकता है।”

नियंत्रण अधिकारियों द्वारा अनुमानों की संवीक्षा और समीक्षा  - 

स्थानीय अधिकारी अपने-अपने नियंत्रण अधिकारियों या विभाग प्रमुखों को संवीक्षा और समीक्षात्मक अनुमान भेजते हैं। संवीक्षा नितान्त प्रशासनिक किस्म की होती है। नियंत्रण अधिकारी को पूर्णरूपेण विभाग के संभावित अनुदान को ध्यान में रखते हुए नए व्यय के लिए अपने विभाग के विभिन्न शाखाओं और अनुभागों के अपेक्षित महत्त्व का औचित्य सिद्ध करना पड़ता है। इसलिए उसे उनमें से कुछ को स्वीकार करना पड़ता है और दूसरों को अस्वीकार करना पड़ता है। फिर वह समूचे विभाग के अनुमानों को समेकित करता है और अक्तूबर के प्रारम्भ तक के प्रपत्र बजट अधिकारियों के हाथों में चले जाते हैं।

महालेखाकार तथा प्रशासनिक विभाग द्वारा संवीक्षा और समीक्षा 

नियंत्रण अधिकारियों के पास से अनुमान प्रपत्र चले जाने के उपरान्त राजस्व तथा स्थायी प्रभारों यथा स्थायी स्थापना, यात्रा भत्ता आदि से संबंधित अनुमानों का भाग। महालेखाकार तथा सामान्य प्रशासन विभाग के पास संवीक्षा तथा समीक्षा के लिए प्रस्तुत किया जाता है। सामान्य प्रशासन विभाग राज्य सरकारों में होते हैं। सामान्य समीक्षा के अतिरिक्त, महा- लेखाकार के कार्यालय को ऋण, जमा तथा प्रेषण शीर्षों के अन्तर्गत अनुमान भी तैयार करने होते है नवम्बर के मध्य तक ये अनुमान वित्त मंत्रालय के बजट विभाग के पास चले जाते है।

वित्त मंत्रालय द्वारा संवीक्षा -

विभिन्न विभागों से इस प्रकार प्राप्त हुए अनुमानों की वित्त मंत्रालय द्वारा संवीक्षा की जाती है तथा संशोधन और विभागों से इस प्रकार प्राप्त हुए अनुमाानों की वित्त मंत्रालय द्वारा संवीक्षा की जाती है तथा संशोधन और पुर्नरीक्षण के उपरान्त उन्हें सरकार के बजट में पूर्णरूपेण समेकित कर लिया जाता है। श्री पी0 के0 वट्टल के शब्दों में, “वित्त विभाग द्वारा की गई संवीक्षा प्रशासनिक विभाग द्वारा की गई संवीक्षा से स्वभावत: भिन्न होती है। प्रशासनिक विभाग व्यय की नीति अथवा उसकी आवश्यकता से संबंधित है और इसीलिए उसका कार्य विभागों न की मांग को उपलब्ध नीधियों के भीतर बनाए रखना है। प्रशासनिक विभागों तथा वित्त विभाग के बीच अनसुलझे मतभेदों को निर्णय के लिए सरकार को प्रस्तुत किया जाता है।” वित्त मंत्रालय द्वारा अनुमानों की संवीक्षा वित्तीय दृष्टिकोण अर्थात् अर्थव्यवस्था एवं निधियों की उपलब्धता के अनुसार की जाती है। फिर वित्त मंत्रालय भारत सरकार के आय और व्यय का अनुमान तैयार करता है। अनुमानित व्यय के आधार पर बजट में नए करों के बारे में प्रस्ताव किए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, बजट दो भागों में विभाजित होता है- आय पक्ष और व्यय पक्ष। इस रूप में समेकित बजट दिसम्बर माह तक तैयार हो जाता है।

मंत्रिमंडल द्वारा अनुमोदन - 

वित्त मंत्री जनवारी में किसी समय बजट अनुमानों की जांच करता है और प्रधानमंत्री के परामर्श से कराधान आदि के बारे में अपनी वित्तीय नीति तैयार करता है। इसके पश्चात् संयुक्त विचार-विमर्श के लिए बजट मंत्रिमंडल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि मंत्रिमंडल की नीति ही सामान्य दिशा निर्धारित करने के लिए उत्तरदायी है। मंत्रिमंडल द्वारा बजट का अनुमोदन कर दिए जाने पर उसे संसद में पेश किए जाने के लिए प्रस्तुत किया जाता है।

भारतीय बजट, जिसे “वार्षिक वित्तीय विवरण” कहा जाता है, के दो भाग होते हैं -
  1. वित्त मंत्री का बजट भाषण, और
  2. बजट अनुमान।
वित्त मंत्री के भाषण में देश की सामान्य आर्थिक दशाओं की जानकारी, सरकार द्वारा अपनाई जाने वाली वित्तीय नीति, चालू वर्ष के बजट अनुमानों तथा संशोधित अनुमानों के बीच पाए जाने वाले अन्तर का स्पष्टीकरण तथा व्याख्यात्मक ज्ञापन होता है जो चालू वर्ष के मूल अनुमानों में होने वाले उतार-चढ़ाव के कारणों की व्याख्या करता है। मंत्री का बजट भाषण राष्ट्र के वार्षिक क्रियाकलापों में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना हैं केवल व्यावसायिक समुदाय ही नहीं बल्कि समुदाय के प्रत्येक वर्ग द्वारा इसकी बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा की जाती है।

भारत की समेकित निधि पर प्रभारित आय तथा भारत के लोक लेखा पर प्रभारित व्यय के लिए पृथक-पृथक अनुमानों को दर्शाने वाला वार्षिक वित्तीय विवरण संसद में प्रस्तुत किया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 112 के अनुसार निम्नलिखित व्ययों को भारत की समेकित निधि पर प्रभारित माना जाता है -
  1. राष्ट्रपति की परिलब्धियाँ एवं भत्ते तथा उसके कार्यालय से संबंधित अन्य व्यय।
  2. राज्य सभा के अध्यक्ष सभा के और उपाध्यक्ष तथा लोक सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के वेतन और भत्ते।
इस रूप में बजट निर्माण की विधि पूरी होती है।

बजट अधिनियम

प्र्स्तुतीकरण - 

सभी लोकतांत्रिक देशों में कार्यपालिका द्वारा तैयार किए जाने के बाद बजट संसद में विचार एवं स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया जाता है। संसद में बजट प्रस्तुत करने का उत्तरदायित्व कार्यपालिका और मंत्रिमंडल का होता है। भारत में सामान्य बजट वित्त मंत्री द्वारा और रेल बजट रेल मंत्री द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि सामान्य विधेयक (Ordinary Bill) तथा वित्त विधेयक (Money Bill) में आधारभूत अन्तर होता है। आम विधेयक में सरकार के लिए कुछ कार्यक्रम प्रस्तावित होते हैं जबकि वित्त विधेयक में ऐसे कार्यक्रमों को पूरा करने के लिए सरकार को धनराशि खर्च करने का अधिकार दिया जाता है। इस कारण भारतीय संविधान के अनुच्छेद् 112 से 117 तक वित्त विधेयक से संबंधित निम्न प्रावधान किए गए हैं :
  1. बजट अनुमानों से संबंधित हर एक मांग मुख्य कार्यपालिका अध्यक्ष (राष्ट्रपति) की अनुशंसा से ही की जाएं।
  2. कोई भी व्यय प्रस्ताव राष्ट्रपति की सिफारिश के बिना संसद के समक्ष नहीं रखा जा सकता।
  3. विधेयक को किसी कर में कमी करने अथवा समाप्त करने का अधिकार तो है किन्तु वह नया कर लगाने या कर दर में वृद्धि करने का अधिकार नहीं रखती।
  4. भारत की संचित निधि में संबंधित व्यय (Charges) पर संसद में बहस हो सकती है। किन्तु मतदान नहीं किया जा सकता है।
  5. विनियोजन विधेयक (Appropriation Bill) में संसद की ओर से कोई ऐसा संशोधन नहीं किया जा सकता जिसमें किसी अनुदान का उद्देश्य या किसी प्रभारी व्यय राशि में परिवर्तन हो जाये।
  6. वित्त विधेयक के मामले में लोक सभा के अधिकार राज्य सभा की अपेक्षा बहुत अधिक है। अनुदान मांगों के लिए मत देने का अधिकार केवल लोक सभा को ही प्राप्त है। वित्त विधेयक पर लोक सभा की स्वीकृति मिलने के पश्चात् उसे राज्य सभा के पास भेजा जाता है जिसे 14 दिनों के भीतर पास कर अथवा अपनी सिफारिशों के साथ लोक सभा को लौटा देना होता है। लोक सभा यदि उचित समझे तो राज्य सभा के किसी सुझाव पर पुनर्विचार कर सकती है अन्यथा वित्त विधेयक को अपने मूल रूप से पारित कर देती है तथा इसे संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित मान लिया जाएगा। सर्वप्रथम 1977 में जनता शासन के आगमन के समय राज्य सभा में कांग्रेस का बहुमत होने की वजह से राज्य सभा में वित्त विधेयक को अपनी सिफारिशों के साथ निचले सदन के पास भिजवा दिया था। किन्तु लोक सभा की सर्वोपरिता की पुष्टि का यह अब तक का पहला या अन्तिम उदाहरण माना जा सकता है। यदि राज्य सभी 14 दिनों के अन्दर-अन्दर वित्त विधेयक को नहीं लौटाती है तब भी संविधान के अनुच्छेद् 109 के अनुसार उसे दोनों सदनों द्वारा पारित मान लिया जाता है।
यहाँ पर यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि कोई विधेयक वित्त विधेयक है या नहीं, इस बात का निर्णय भारतीय संविधान के अनुच्छेद् 110 के तहत लोक सभा के अध्यक्ष (Speaker) को करने का अधिकार है।

बजट पर सामान्य वाद-विवाद - 

लोक सभा के कार्य संचालन नियम संख्या 207 (1)(2) में बजट प्रस्तुतीकरण के कुछ दिन पश्चात् सामान्य चर्चा का दिशा-निर्देशन करते हुए कहा गया है कि, ‘सदन को इस बात की अनुमति होगी कि वह संपूर्ण बजट अथवा उसमें प्रस्थापित सिद्धांत के किसी प्रश्न के बारे में विचार-विमर्श कर सके, परन्तु इस समय कोर्इ्र प्रस्ताव प्रस्तुत नहीं किया जा सकेगा एवं न ही सदन में बजट का मतदान लिया जा सकेगा।’ इस आम चर्चा के दौरान व्यय के किसी भी मद को परिचर्चा से बाहर नहीं रखा जाता तथा हर एक मुद्दे पर प्रशासनिक नीतियों की संक्षिप्त आलोचना तथा टीका-टिप्पणी की जा सकती है। करीब एकाध सप्ताह के अन्दर बजट पर सामान्य चर्चा समाप्त हो जाती है। तथा अन्तिम दिन वित्त मंत्री एक संक्षिप्त जवाब भी देता है।

अनुदान मांगों पर ब्यौरे-वार चर्चा तथा मतदान - 

बजट के तीसरे चरण में मंत्रालयों के अलग-अलग सभी क्रम-वार अनुमान मांगें एक प्रस्ताव के रूप में लोक सभा के समक्ष प्रस्तुत की जाती है जो कि निम्नवत् होते है - “31 मार्च 199.... को समाप्त होने वाले वर्ष की अवधि में ;गृह मंत्रालय से संबंधितद्ध व्ययों की अदायगी के लिए एक धनराशि, जो कि रुपये से ज्यादा न हो, को राष्ट्रपति को खर्च करने के लिए स्वीकृत की जानी चाहिए।”

इस प्रकार की अनुदान मांगे प्रत्येक मंत्रालय के लिए अलग से प्रस्तावित की जानी चाहिए जब तक यह कठिनाई न हो कि किसी अनुदान राशि को अलग-अलग मंत्रालयों को बांटना असंभव हो। लोक सभा कार्यवाही नियम 131 के तहत प्रत्येक अनुदान मांग को समग्र रूप में तथा उसके अन्तर्गत मद-वार ब्यौरे के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। भारत सरकार का आम बजट 109 अनुदान मांगों में विभाजित रहता है, जिनमें से 103 मांगे लोक व्यय से संबंधित हर मंत्री मांगों को प्रस्तुत करते समय एक संक्षिप्त भाषण भी देता है जो आर्थिक नीतियों का प्रतिबिम्ब होने के बजाय प्राय: राजनीतिक रंग लिए होता है।

संसदीय कार्यवाही नियम 132 तथा 133 के तहत लोक सभा का अध्यक्ष सदन के नेता से विचार-विमर्श के पश्चात् एक निश्चित अवधि निर्धारित करता है जिसमें अनुदान मांगों पर विचार-विमर्श पूरा हो जाना चाहिए। भारत में आमतौर पर 26 दिनों की अवधि इस हेतु निर्धारित की गई है। एक-एक करके अनुदान मांगों पर विचार होते समय विपक्षी सदस्यों द्वारा बजट की तीखी आलोचना की जाती है। तथा अनेक प्रकार के कटौती प्रस्ताव सदन के समक्ष प्रस्तुत किए जाते हैं। ये कटौती प्रस्ताव तीन प्रकार के होता हैं:
  1. नीति संबंधीं कटौती प्रस्ताव- किसी अनुदान मांग के पीछे निहित सरकारी नीति को अस्वीकृत करने की सिफारिश के उद्देश्य से सदस्य द्वारा मांग की जाती है कि “मांग की धनराशि घटा कर एक रुपया कर दी जानी चाहिए।” इस प्रस्ताव को लाने वाला सदस्य नीति संबंधी मुख्य मदों की समीक्षात्मक आलोचना करते हुए सदन के विचार-विमर्श की वैकल्पिक नीति की प्रतिस्थापना की ओर अग्रसर करने का प्रयत्न करता है। इस अवधि में प्रशासन की कमियों को उजागर करते हुए सरकार की तीखी आलोचना की जाती है।
  2. मितव्ययिता संबंधीं कटौती प्रस्ताव - सरकारी व्यय में संभावित दुरुपयोग या अपव्यय की ओर सदन का ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से सदन का कोई सदस्य इस प्रस्ताव को पेश करते हुए मांग कर सकता है कि, “अनुदान मांग की राशि में से विशिष्ट धनराशि कम कर दी जानी चाहिए।” ये कटौती प्रस्ताव किसी मांग की किसी विशेष मद में कमी, उसकी पूर्ण समाप्ति अथवा सम्पूर्ण अनुदान में से एक मुश्त धनराशि कम करने के लिए पेश किए जाते हैं। वाद-विवाद के समय सदस्यों को केवल विचारणीय मुद्दे पर ही अपने विचार रखने की अनुमति दी जाती है।
  3. प्रतीकात्मक कटौती प्रस्ताव  - संसदीय नियम 209 के अन्तर्गत कोई भी सदस्य सरकार के किसी विशेष कार्य के बारे में शिकायत करते हुए यह प्रस्ताव ला सकता है कि संबंधित अनुदान “मांग की धनराशि में 10000 रुपये की कटौती की जानी चाहिए।” यह प्रस्ताव प्रतीकात्मक ही होता है ताकि सरकार का ध्यान किसी विशेष समस्या की ओर आकर्षित किया जा सके।
हमारी संसदीय प्रणाली में प्राय: प्रतीक कटौती प्रस्ताव ही लाए जाते हैं तथा अध्यक्ष द्वारा इन पर बहस की अनुमति देने के पश्चात् वाद-विवाद होता है। बहस की समाप्ति पर संबंधित मंत्री सदस्यों की आलोचनाओं का जवाब देता है तथा सदस्यों द्वारा बतलायी शिकायतों को दूर करवाने का आश्वासन भी देता है। तथापि ऐसा कहा जाता है कि भारतीय संसद में बहस का स्तर बहुत अच्छे स्तर का नहीं होता। श्री एस0एल0 शकधर ने लिखा है कि, “बजट संबंधी वाद-विवादों में एक प्रमुख दोष पाया जाता है और वह यह है कि बजट संबंधी बहस केवल सिद्धांतों पर आधारित होता है और अनुमानों के ब्यौरे के संबंध में जरा भी बहस नहीं की जाती। सदन अपने आपको इस विषय में संतुष्ट नहीं करता कि अनुमानों के विस्तृत आंकड़े ठीक प्रकार तैयार किए गए हैं। विभिन्न सेवाओं, पूर्तियों, संस्थानों, प्रयोजनाओं तथा कार्यक्रमों के लिए जो विविध धनराशियाँ दिखाई गयी हैं क्या वे न्यायोचित हैं, क्या अनुमानों में दिए गए व्यय उपलब्धियों से मेल खाते हैं, और क्या सरकारी विभागों द्वारा वास्तव में व्यय की गई धनराशियाँ विनियोजन अधिनियम के अथवा उसमें निहित उद्देश्य के अनुसार थीं अथवा क्या कोई दुर्विनियोजन या अन्य कोई वित्तीय अनियमितता थी।”

मतदान प्रक्रिया - 

भारतीय संसद में कुल 26 दिनों के भीतर ‘अनुदान मांगों को पास करने की परम्परा है। अध्यक्ष द्वारा किसी अनुदान मांग पर बहस के लिए निर्धारित समय के अन्तिम दिन सायं 5 बजे मतदान का कार्य आरम्भ हो जाता है। इस प्रक्रिया से सभी विभागों की अनुदान मांगें गुजरती है। किन्तु पूरी बहस के लिए निर्धारित दिनों के अन्तिम दिन शेष बची सभी मांगों पर भी मतदान हो जाता है चाहे फिर उन पर ब्यौरेवार बहस हुई हो या न हुर्इ्र हो। इस प्रकार अन्तिम दिन करोड़ों रुपयों की अनुदान मांगें बिना बहस के ही पास कर दी जाती हैं। हिल्टन यंग ने इस प्रक्रिया के दोषपूर्ण प्रचलन की ओर संकेत करते हुए कहा था कि, “वर्ष के कुल व्यय के एक तिहाई से आधे भाग पर किसी आलोचना अथवा वाद-विवाद के बिना घंटे भर में मतदान हो जाता है। इससे अधिक असंतोषजनक स्थिति की कल्पना कदाचित ही की जा सकती है। इससे सदन द्वारा व्यय पर नियंत्रण करने संबंधी संपूर्ण श्रम साध्य प्रक्रिया एक ढोंग प्रतीत होती है।”

लेखानुदान - 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद् 116(1) के अन्तर्गत संसद को यह अधिकार प्राप्त है कि बजट प्रक्रिया के पूर्ण होने से पूर्व ही वित्तीय वर्ष के प्रथम दो माह के लिए कार्यपालिका को अग्रिम अनुदान स्वीकृत कर खर्च करने की अनुमति प्रदान करें। संविधान में ऐसा उपलब्धि किया गया है जिसके अन्तर्गत लेखानुदान द्वारा अग्रिम अनुदान देने की शक्ति लोक सभा को दी गई है जिससे सरकार अनुदानों की मांगों पर मतदान होने तथा विनियोग विधेयक और वित्त विधेयक के पारित होने तक अपना कार्य चला सके। सामान्यत: इसकी राशि अनुदानों की विभिन्न मांगों के अधीन समस्त वर्ष के लिए प्राक्कलित व्यय के छठे भाग के बराबर होती है। इस परिपाटी के प्रारम्भ होने के कारण अब अनुदान मांगों पर 1 अप्रैल के पश्चात् भी बहस जारी रखी जाती है। इस प्रकार की पद्धति अपनाए जाने से संसद को बजट संबंधी प्रस्तावों पर अधिक व्यापक बहस करने का अवसर मिलता है। ताकि प्रशासकीय कमियों को उजागर करके कार्यपालिका को अधिक सचेष्ट किया जा सके।

विनियोजन विधेयक

अनुदान मांगों पर संसद में मतदान होने जाने का मतलब यह नहीं तो कि सरकार को सार्वजनिक कोष (Public Fund) से पैसा निकालने का हक प्राप्त हो गया है। संविधान की धारा 110(1)(d) में कहा गया है कि, “भारत की संचित निधि में से कोई भी धनराशि विधि द्वारा विनियोजन के बिना नहीं निकाली जा सकती। “जब सभी अनुदान मांगों पर मतदान हो जाता है तो इनको संचित निधि सहित विनियोजन अधिनियम में एकीकृत कर लिया जाता है और इस प्रकार धन खर्च करने के अधिकार को प्राप्त करने के लिए विनियोजन बिल को पास करवाने कीे क्रिया सम्पादित करनी होती है। इस विधेयक का आशय निधि में से व्यय के विनियोग के लिए सरकार को कानूनी अधिकार देता है। विनियोग विधेयक पर चर्चा उसमें शामिल अनुदानों में निहित लोक महत्व के विषयों पर प्रशासनिक नीति तथा ऐसे मामलों तक, जो अनुदानों की मांगों पर चर्चा करते समय पहले उठाये गए हों, सीमित रहती है। इस पर कोई संशोधन पेश नहीं किए जा सकते। अन्य मामलों में विनियोग विधेयक संबंधी प्रक्रिया वही होती है जो कि अन्य विधेयकों के संबंध में होती है। विधेयक को लोक सभा द्वारा पारित किए जाने के पश्चात् अध्यक्ष उसे ‘धन विधेयक’ होने के रूप में प्रमाणीकृत करता है और उसको राज्यसभा के पास भेज देता है। राज्य सभा को धन विधेयक पर अपनी स्वीकृति देनी ही होती है। तत्पश्चात् विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए उसके समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।

वित्त विधेयक - 

बजट में दो हिस्से होते हैं - व्यय प्रावधान तथा आय प्राप्ति प्रस्ताव विनियोजन विधेयक (Appropriation Act ) पारित हाने के साथ सरकार के राजकोष से धनराशि खर्च करने का अधिकार मिल जाता है। किन्तु इस व्यय की पूर्ति के लिए वित्तीय साधनों की प्राप्ति कर प्रस्तावों द्वारा संभव होती है। इस प्रकार संसद के समक्ष सरकार द्वारा वित्त विधेयक प्रस्तुत किया जाता है जिसमें नये कर या वर्तमान करों की दरों में संशोधन संबंधी प्रस्ताव होते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद् 265 में यह कहा गया है कि, “कानूनी सत्ता के बिना न तो कोई कर लगाया जा सकता है एवं न ही वसूल किया जा सकता है।”

वित्त विधेयक में पूर्व में प्रचलित तथा नये दोनों प्रकार के कर प्रस्तावों को शामिल किया जाता है। आय-कर, उत्पादन शुल्क, निगम कर आदि कुछ स्थायी कर होते हैं, जिनकी प्रचलित दरों में सरकार आवश्यकता अनुसार प्रत्येक वित्तीय वर्ष के लिए परिवर्तन प्रस्तावित करती है। यहाँ यह स्पष्ट होना चाहिए कि भारत की संघीय वित्त व्यवस्था (Federal Financial System) के अन्तर्गत केन्द्र सरकार को जिन करों को लगाने या उनकी दरों में परिवर्तन करने का अधिकार है उन्हीं को वित्त विधेयक में शामिल किया जाता है। कर प्रस्तावों को प्रस्तुत करते समय कार्यपालिका को यह देखना होता है कि अनेक अनुत्पादक करों (Unproductive Taxes) के बजाय कुछ प्रमुख उत्पादक करों (Productive Taxes) को ही वित्त विधेयक में शामिल करें।

विनियोजन विधेयक तथा वित्त विधेयक में कुछ मौलिक अन्तर होता है। विनियोजन विधेयक में प्राय: कोई परिवर्तन नहीं किया जाता जबकि वित्त विधेयक में बहस के दौरान सदस्यों द्वारा करों की दरों में परिवर्तन के लिए संशोधन प्रस्तुत किए जाते हैं ;किन्तु कर, बढ़ाने को नहींद्ध , तथा कभी-कभी सरकार सदन की भावना को ध्यान में रखते हुए कर कटौती प्रस्तावों को स्वीकार भी कर लेती है। सदस्यों की सहमति पर सरकार कई बार आय-कर, पोस्टल टेरिफ या कतिपय उपभोक्ता वस्तुओं पर लगाए गए उत्पादन शुल्क में कमी करने को तैयार हो जाती है। लोकमत के दबाव के कारण रेलवे बजट में भी यात्री भाड़े तथा मालभाड़े की दरों को घटाने संबंधी संशोधन भी सरकार द्वारा स्वीकार किए जाने के अनेक उदाहरणों को भारतीय संसद के इतिहास में देखा जा सकता है।

वित्त विधेयक पर चर्चा करना और उसे पारित करना  - 

सदन में वित्त मंत्री यह प्रस्ताव रखता है कि, वित्त विधेयक को विचारार्थ लिया जाना चाहिए, वित्त मंत्री के इस प्रस्ताव के साथ विचार-विमर्श प्रारम्भ होता है। इसके पश्चात् विधेयक को सदन की प्रवर समिति (Select Committee ) को सौंप दिया जाता है। प्रत्येक पर समीक्षात्मक टिप्पणियां तथा सुझाव देकर समिति उसे वापस लौटा देती है। इसके पश्चात् सदन में धारा-वार बहस होती है और इसी दौरान सदस्यों द्वारा कर कटौती प्रस्ताव भी प्रस्तुत किए जाते हैं। बहस की समाप्ति वित्त मंत्री के उत्तर द्वारा होती है। जिसमें सदन के रुख को ध्यान में रखते हुए यथासंभव कर प्रस्तावों की कटौती की घोषणा भी कर सकता है। इसके पश्चात् वित्त विधेयक को पारित करने के मामले में एक प्रस्ताव सदन में पेश किया जाता है। चूंकि सरकार बहुमत वाले दल की होती है इसलिए वित्त विधेयक को पारित करवाने में सरकार को कोई असुविधा नहीं होती है। लोकसभा में वित्त-विधेयक पास हो जाने पर राज्य सभा के पास भेज दिया जाता है जो 14 दिनों के भीतर उसे लौटाने को बाध्य है। विनियोजन विधेयक की भांति वित्त विधेयक पर भी राज्य सभा की शक्तियाँ सीमित हैं। जब दोनों सदन वित्त विधेयक को पारित कर देते हैं तो उसे राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाने के पश्चात् विधेयक कानून बन जाता है, तथा सरकार को कर राजस्व वसूल करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

राष्ट्रपति का विशेषाधिकार  - 

जब विधेयक राष्ट्रपति के पास जाता है तो राष्ट्रपति उस पर हस्ताक्षर कर बिल को वापिस कर देता है या फिर उसे अपनी सिफारिशों के साथ 5 या 10 दिन के भीतर लोक सभा को लौटाना होता है। यदि सिफारिशों के साथ बिल वापिस होता है तो लोक सभा मूल रूप से ही बिल को पास करके राष्ट्रपति को पुन: हस्ताक्षर के लिए भेज देती है। निर्धारित अवधि में राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर कर दे तो ठीक अन्यथा अवधि की समाप्ति के पश्चात् वित्त बिल स्वत: कानून बन जाता है।

सरकार द्वारा बजट क्रियान्वयन

जब संसद द्वारा केन्द्रीय बजट पारित कर दिया जाता है तब इसे लागू करने की कार्यवाही शुरू की जाती है। इस प्रक्रिया में मुख्यतया दो सिद्धांतों का पालन करना अत्यंत आवश्यक माना जाता है :
  1. बजट पर क्रियान्वयन विनियोजन के अनुरूप होना आवश्यक है।
  2. बजट क्रियान्वयन से संबंधित सरकारी मशीनरी पूर्ण निष्ठा तथा कुशलता से कार्य करने के लिए प्रेरित होनी चाहिए।
इन दो सिद्धांतों की पृष्ठभूमि में बजट पर क्रियान्वयन में पाँच प्रक्रियाएं सम्मिलित की जाती हैं जो है :
  1. वित्तीय स्रोतों का एकत्रीकरण (Collection of Financial Sources)
  2. एकत्रित साधनों का रक्षण (Custody of Collected Resources)
  3. वित्तीय साधनों का वितरण (Disbursement)
  4. सरकारी आय-व्यय का लेखा (Accounting)
  5. अंकेक्षण तथा प्रतिवेदन (Aduit & Reporting)
बजट क्रियान्वयन की इन अवस्थाओं की विस्तृत रूपरेखा के संदर्भ में हमारे प्रशासनिक तंत्र की कुशलता तथा निष्ठा का मूल्यांकन किया जा सकता है। अत: इन्हें ब्यौरे-वार समझाना जरूरी है।

वित्तीय स्रोतों का एकत्रीकरण

वित्त विधयेक में प्रस्तावित कर प्रस्तावों के अन्तर्गत सर्वप्रथम संभावित आय प्राप्ति का अनुमान करना होता है तथा उसके बाद वसूली का कार्य किया जाता है। आय प्राप्ति के अनुमान लगाते समय उच्च स्तर के निर्णय की आवश्यकता होती हैं। जबकि वसुली करने वाले व्यक्तियों से उच्च किस्म की निष्ठा, ईमानदारी तथा सुनिश्चितता की अपेक्षा की जाती है।

आय स्रोतों के मूल्यांकन तथा वसूली की जिम्मेदारी अलग-अलग व्यक्तियों को सौंपी जाये अथवा किसी एक ही संस्था को यह एक विवाद का विषय माना जाता है। किन्तु आम राय किसी एक एजेन्सी को दोनों कार्य सौंपने के पक्ष में रही है। यद्यपि सुविधा की दृष्टि से इसके उप-विभाग बनाये जा सकते हैं। भारत में यह कार्य राजस्व विभाग को सौंपा जाता है जो सीधे वित्त मंत्रालय के नियंत्रण में होता है। यह विभाग केन्द्रीय राजस्व बोर्ड के नाम से जाना जाता है।

केन्द्रीय राजस्व बोर्ड में सचिव के स्तर का एक अध्यक्ष होता है तथा संयुक्त सचिव स्तर के चार सदस्य होते हैं तथा इनकी सहायता के लिए नीचे के स्तर के लिए कई और अधिकारी होते हैं। बोर्ड में तीन निरीक्षण निर्देशक होते हैं जिसमें दो आय-कर के लिए तथा एक सीमा शुल्क तथा केन्द्रीय उत्पादन शुल्क के लिए होता है। इस बोर्ड से जुड़े अन्य निम्न विभाग हैं :
  1. आय-कर, अतिरिक्त लाभ तथा व्यावसायिक कर,
  2. स्टैम्प्स विभाग,
  3. सीमा शुल्क (भूमि तथा वायु सीमा शुल्क सहित),
  4. केन्द्रीय उत्पाद शुल्क; तथा
  5. अफीम विभाग
वे विभाग केन्द्रीय सचिवालय स्तर पर होते हैं तथा इनकी शाखाएँ विभिन्न राज्यों के जिला स्तरों तक होती हैं। उदाहरणार्थ, जिला स्तर पर आय-कर अधिकारी होता है जो केन्द्र की ओर से आय-कर एकत्रित करने के कर्तव्य का निर्वाह करता है।

राज्यों में राजस्व

भारतीय संविधान में राज्यों के वित्तीय स्रोतों को अलग से परिभाषित किया गया है। राज्यों के वित्तीय स्रोतों में मुख्यतया भू-राजस्व, बिक्री-कर; उत्पाद-शुल्क कृषि कर, मनोरंजन कर तथा जंगलात का नाम लिया जा सकता है। इनकी वसूली के लिए केन्द्रीय ढंग पर ही राज्य स्तर पर राजस्व बोर्ड का गठन किया जाता है। जो राज्य के वित्त मंत्रालय के नियंत्रण में होता है। जिला स्तर पर वित्तीय स्रोतों से वसूली की व्यवस्था होती है। चूकि भू-राजस्व राज्य सरकार की आय का प्रमुख स्रोत होता है, अत: इसके लिए ही राजस्व बोर्ड का गठन किया जाता है तथा इस राजस्व की वूसली में जिला प्रशासन जिसमें कलक्टर, तहसीलदार तथा पटवारी शामिल हैं, की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

(2) एवं (3) एकत्रित कोषों का संरक्षण तथा वितरण

एकत्रित राजस्व की संरक्षण व्यवस्था के संदर्भ में दो बातों को विशेष ध्यान में रखने की आवश्यकता होती है :
  1. वित्तीय साधनों के गबन अथवा दुरुपयोग से सुरक्षा,
  2. वित्तीय लेन-देनों का सुविधाजनक तथा त्वरित संचालन।
धन के संरक्षण तथा संवितरण की व्यवस्थाएं प्रत्येक देश में अपनी ऐतिहासिक परम्पराओं के परिप्रेक्ष्य में विकसित की जाती हैं। इस समय हमारे देश में 300 राजकोष (Treasuries) तथा 1200 उपराजकोष (Sub-Treasuries) कार्य कर रहे हैं। ये राजकोष जिला तथा तहसील स्तर पर सरकार की ओर से भुगतान स्वीकार करते हैं तथा सरकार के नाम पर भुगतान करते हैं। इसके अलावा रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा भारत सरकार तथा सरकारों के कोषों के संरक्षण तथा संवितरण का कार्य किया जाता है। सरकार को यदि कोई भुगतान किया जाना है तो दो प्रतियों में चालान भरकर या तो कोषागार में या केन्द्रीय बैंक की किसी शाखा या स्टेट बैंक ऑफ इंडिया अथवा उसकी सहायक बैंकों को किसी शाखा में पैसा जमा कराना होता है। इसके विपरीत, यदि किसी व्यक्ति अथवा इकाई को धनराशि प्राप्त करनी हो तो उस व्यक्ति के द्वारा सरकारी राजकोष के किसी उपयुक्त अधिकारी के हस्ताक्षरयुक्त चैक अथवा प्राप्ति बिल अधिकृत बैंक की शाखा में प्रस्तुत करना होता है।

इस प्रकार की सम्पूर्ण व्यवस्था वित्त मंत्रालय के दिशा-निर्देशन में चलती है। बजट पास होने के तुरन्त बाद वित्त मंत्रालय विभिन्न मंत्रालयों को स्वीकृति अनुदानों की सूचना दे देता है। विभिन्न मंत्रालय बजट प्रावधानों तथा प्रशासनिक स्वीकृतियों की सूचना विभागाध्यक्षों को भिजवा देते हैं। यह प्रक्रिया जिला स्तर तक चलती है जहां से वितरण अधिकारी सरकारी कोषों के संरक्षण तथा संवितरण का कार्य राजकोष उप- राजकोष तथा अधिकृत बैंक की किसी शिक्षा के माध्यम से नियमानुसार करता रहता है।

राजकोष की भूमिका

राजकोष के द्वारा केन्द्र तथा राज्य सरकार दोनों की ओर से धन की प्राप्ति तथा भुगतान का कार्य प्रतिदिन किया जाता है तथा दोनों लेखे भी अलग-अलग रखे जाते हैं। उप-राजकोषों द्वारा नियमित रूप से अपने लेखे जिला राजकोष के पास भिजवाये जाते हैं, जहां इनका वर्गीकरण तथा सूचीबद्धता की जाती है। इसके पश्चात् उप-राजकोषों से प्राप्त लेखों तथा जिला राजकोषों के लेखों को प्रति 15 दिन के पश्चात राज्यों के महालेखापाल के पास भेजा जाता है। प्रत्येक लेखे के साथ खर्च के प्रमाणक तथा आय प्राप्ति की चालान रसीदें भी भिजवायी जाती है। इस प्रकार राजकोष व्यवस्था भारतीय वित्तीय प्रशासन की एक आधारभूत कड़ी है जो इतने विशाल क्षेत्र में फैले देश के कोने-कोने में केंद्र सरकार की राजस्व प्राप्तियों तथा भुगतानों की समुचित व्यवस्था करती है तथा बजट लेखों के सुव्यवस्थित संचालन को सम्भव बनाती है।

यह उल्लेखनीय है राजकोष द्वारा भुगतान के तकनीकी पहलुओं पर बिल पास करने के पूर्व अथवा चैक का निस्तारण करने के पूर्व पूरी तरह से छानबीन की जाती है तथा सभी औपचारिकताएं पूरी करवायी जाती हैं। संवितरण अधिकारी की जिम्मेदारी इससे भी अधिक रहती है। उसे किसी भी धनराशि के भुगतान के पूर्व यह देखना होता है कि :
  1. क्या यह बजट प्रावधानों के अनुरूप है ?
  2. भुगतान के लेखे की समुचित व्यवस्था है या नहीं ?
  3. क्या प्रशासनिक तथा तकनीकी औपचारिकताएं पूर्ण कर ली गयी हैं ? तथा
  4. क्या भुगतान की मांग उचित है ?
बैंकिग के विस्तार के कारण अब सरकारी कोषों का भण्डारण रिजर्व बैंक, स्टेट बैंक अथवा उसकी शाखाओं में किया जाता है। इसके अलावा राजकोष अथवा उप-राजकोष भी इस दायित्व का निर्वाह करते हैं।
भारत में प्रचलित वित्तीय कोषों के संरक्षण तथा संवितरण की राजकोष व्यवस्था के आलोचकों का कहना है कि इसके कारण भारत के नियंन्त्रक तथा महालेखा (Comptroller & Accountant General) को भारत की संचित निधि से भुगतान किए जाने वाले धनराशि पर प्रभावी नियंत्रण रखने में कठिनाई होती है। इस आलोचना के बावजूद भी यह बात महत्वपूर्ण है कि भारत की कोषागार पद्धति बहुत हद तक सरकारी व्यय को नियमानुसार निर्देशित करने में उपयोगी रही है।

धन का पुनविनियोजन

विधान मंडलों द्वारा स्वीकृत धनराशियों को संबंधित विभाग द्वारा बजट प्रावधानों के अनुसार प्रत्येक वित्तीय वर्ष की समाप्ति के पूर्व 31 मार्च तक खर्च करना होता है अन्यथा अनुदान की स्वीकृति समाप्त हो जाती है। पर यदि किसी विशिष्ट अनुदान की किसी एक मद में धन बच जाए और यदि दूसरे मद से अधिक खर्च हो जाए तो विभागाध्यक्ष को एक सीमा तक स्वविवेक का उपयोग करते हुए धन का स्थानान्तरण करने का अधिकार होता है। इस प्रकार कुल व्यय-राशि को बिना परिवर्तित किए किसी एक शीर्ष की एक मद अथवा इकाई मे से दूसरी इकाई में धन के हस्ताान्तरण की व्यवस्था को पुनर्विनियोजन क्रिया कहा जाता है।” यह स्पष्ट होना चाहिए कि पुनर्विनियोजन एक अनुदान शीर्ष से दूसरे शीर्ष में नहीं किया जा सकता। यह तो केवल व्यवस्थापिका द्वारा ही किया जा सकता है। इसके अलावा, बजट तथा लेखों की शुद्धता की दृष्टि से भी इस प्रकार पुनर्विनियोजन उचित नहीं माने जाते। तृतीय, व्यवस्थापिका ने किसी अनुदान शीर्ष में कटौती कर दी हो तो पूरा करने के लिए भी पुनविर्नियोजन की वैधानिक अनुमति नहीं होती। चतुर्थ, प्रभारित मदों में यदि कुछ बातें रही हों तो उसे मतदान वाल व्यय मदों में पुनर्विनियोजन नहीं किया जा सकता। अन्त में, राजस्व तथा पँूजीगत व्यय शीर्षों में भी पुनर्विनियोजन करने की कानूनी तौर पर कोई व्यवस्था नहीं है।

इस प्रकार पुनर्विनियोजन का अधिकार विभागाध्यक्षों को बहुत सीमित दायरे में ही अपने स्वविवेक का उपयोग करने की अनुमति देता है तथा 31 मार्च के पश्चात् अनप्रयुक्त राशि में स्वीकृति स्वत: समाप्त हो जाती है।

वित्तीय कोषों का लेखांकन -

बजट क्रियान्वयन में लेखांकन का अत्याधिक महत्त्व है। भारत में लेखांकन को कार्यपालिका से अलग करके उसके लिए लेखा तथा अंकेक्षण विभाग की अलग स्थापना की गयी है। नियंन्त्रक तथा भारत का महालेखा परीक्षक इसका मुखिया होता है महालेखापाल उसे लेखांकन कार्य में सहायता करते हैं। रेलवे को छोड़कर प्रत्येक केन्द्रीय नागरिक विभाग के लिए एक महालेखापाल होता है, तथा प्रत्येक राज्य में भी इनका एक पद होता है लेखांकन के सामान्य नियम भारत के लेखा परीक्षक द्वारा प्रदान किए जाते हैं। इन नियमों के अनुसार लेखाओं की तैयारी चार स्तरों पर सम्पादित होती है :
  1. प्रारम्भिक लेखा इन्द्राज उस कोषागार स्तर पर होती है जहाँ किसी प्रकार का लेन-देन होता है,
  2. व्यय शीर्षों के अनुसार सभी लेन-देनों का ब्यौरे-वार वर्गीकरण करना,
  3. लेखाधिकारियों द्वारा लेखों का मासिक संकलन करना, तथा
  4. भारत के महालेखा परीक्षक द्वारा लेखों का वार्षिक संकलन।
राज्य सरकार के खर्च से जिला स्तर पर कार्यरत कोषागार केन्द्र तथा राज्य दोनों सरकारों के लेखे रखता है। रेलवे, पोस्ट तथा टेलीग्राफ, सार्वजनिक निर्माण विभाग तथा जंगलात से संबंधित भुगतान तो कोषागार द्वारा किए जाते हैं किन्तु इनके लेखे विभागीय अधिकारियों द्वारा रखे जाते हैं। प्रत्येक महीने की 11 तथा 12 तारीख को कोषाधिकारी द्वारा संबंधित अवधि में किए गए भुगतानों की सूचना ;मय बाउचर्सद्ध महालेखाकार को भेजी जाती है।

लेखा परीक्षा -

प्रत्येक माह की पहली तारीख तक गत माह के हिसाब-किताब महालेखाकार कार्यालय में पहुँच जाते हैं जहाँ प्राप्तियाँ तथा खर्चों का लेखा शीर्ष के अनुसार वर्गीकरण होता है। इस प्रकार के वर्गीकरण से पूरे देश भर की लेखा पद्धति में समानता स्थापित करने तथा बजट संबंधी पूर्वानुमान लगाने में काफी सुविधा रहती है। महालेखाकार के कार्यालय स्तर पर भारत सरकार की ओर से निम्न चार शीर्षों में प्रमुखतया लेखा सूचनाएँ संकलित की जाती हैं :
  1. राजस्व खाता
  2. पूँजीगत खाता
  3. ऋण खाता
  4. दूरस्थ प्राप्तियाँ
प्रथम करों तथा अन्य संबंधित मदों से प्राप्त राजस्व तथा उससे जुड़े हुए खर्च के हिसाब को रखा जाता है जबकि पूँजीगत खाते में उधार लिए गए तथा एकत्रित हुए कोषों तथा इनसे संबंधित व्यय के लेखे रखे जाते हैं। तीसरे खाते में ऐसी प्राप्तियों के भुगतानोंं का लेखा-जोखा रखा जाता है जिसके कारण या तो सरकार देनदार बनती है या फिर लेनदार। चौथे लेखे में उन लेखा-देनों का हिसाब रखा जाता है। जो मुख्यतया पोस्टल सेवाओं, सार्वजनिक निर्माण सेवाओं, सुरक्षा सेवाओं तथा जंगलात से संबंधित लेन-देन हों तथा अन्य कोई राशि जो पूर्व किसी लेखे में सम्मिलित न की गयी हो।

महालेखाकर के कार्यालय में छोटे शीर्षों तथा उप-शीर्षों में प्राप्त होने वाले लेखों को बड़े शीर्षों में वर्गीकृत किया जाता है ताकि उन्हें उस रूप में तैयार किया जा सके जिस रूप में व्यवस्थापिका द्वारा बजट अनुदान मांगे पास की गयी थीं।

बड़े शीर्षों में वर्गीकरण के पश्चात् इन लेखों का अंकेक्षण होकर इन्हें अधिकारियों के पास भेजा जाता है, जो प्रत्येक माह इनको संलग्न करके हर अगले माह सरकार के समक्ष प्रस्तुत करते रहते हैं।

भारत में महालेखा परीक्षक द्वारा लेखों का वार्षिक आधार पर संकलन किया जाता है तथा उनके द्वारा वित्तीय लेखे विनियोजन लेखे तथा अपनी अंकेक्षण रिपोर्ट राज्य के राज्यपाल अथवा देश के राष्ट्रपति को प्रस्तुत की जाती है, जो प्रतिवर्ष संसद (या विधानमंडल) के बजट 48 संत्र या तंत्र के समय संसद के समक्ष प्रस्तुत की जाती है।

वित्तीय प्रशासन के क्षेत्र में कार्यपालिका द्वारा बजट का प्रस्तुतीकरण व्यवस्थापिका द्वारा उसे पास करने की प्रक्रिया तथा सरकार आय-व्यय लेखों की सुव्यवस्थित व्यवस्था से जुड़ी क्रियाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। स्वस्थ लोकतंत्रीय व्यवस्था में ये क्रियाएं नागरिक हितों का संवर्द्धन होती है तथा प्रशासकों को इस बात का अहसास कराती रहती है कि लोकसत्ता ही सर्वापरि है एवं उन्हें अपने क्रियाकलापों के लिए लोक प्रतिनिधियों के प्रति जवाब देह होना पड़ता है।

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