वित्त प्रशासन : अर्थ प्रकृति एवं कार्यक्षेत्र

‘वित्तीय प्रशासन’ शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया जाता है। इसमें वे सब प्रक्रियाए सम्मिलित वित्त प्रशासन : अर्थ प्रकृति एवं कार्यक्षेत्र की जाती हैं जो कि निम्न कार्यों को सम्पन्न करने में उत्पन्न होती है: “सरकारी धन के संग्रह, बजट-निर्माण, विनियोजन तथा व्यय करने में, आय तथा व्यय, और प्राप्तियों एवं संवितरणों का लेखा-परीक्षण (Audit) करने में परिसम्पत्तियों (Assets) तथा देयताओं (Liabilities) और सरकार के वित्तीय सौदों का हिसाब-किताब रखने में और आमदनियों व खर्चों, प्राप्तियों व संवितरणों तथा निधियों (Funds) व विनियोजनों (Appropriations) की दशा के संबंध में प्रतिवेदन-लेखक (Reporting) में।”

वित्त के बिना सरकार अपने उद्देश्य में पूर्णत: सफल नहीं हो सकती। प्रशासन के लिये वित्त की इतनी अधिक महत्ता होने के कारण वित्त के प्रशासन का अध्ययन भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गया है। जो सरकार वित्तीय प्रशासन की एक सन्तोषजनक व्यवस्था का निर्माण कर लेती है वह अपने कार्यों का प्रबन्ध कुशलता के साथ करने की दिशा में काफी आगे बढ़ जाती है। इस प्रकार “वित्तीय प्रशासन, जोकि एक सी व्यवस्था तथा रीतियों का निर्माण करता है जिनके द्वारा लोक सेवाओं के संचालन के लिये धन प्राप्त किया जाता है, व्यय किया जाता है और उसका लेखा रखा जाता है, आधुनिक सरकार का हृदय माना जाता है।”

वित्तीय प्रशासन एक ऐसी गतिशील प्रक्रिया (Process) है जो कि इन संक्रियाओं (Operations) की एक सतत श्रृंखला का निर्माण करती है -
  1. आय तथा व्यय की आवश्यकताओं के अनुमान लगाना-अर्थात् ‘बजट का बनाना’ (Preparation of the Budget)।
  2. इन अनुदानों के लिए व्यवस्थापिका (Legislature) की अनुमति प्राप्त करना- अर्थात् ‘बजट की विधायी अनुमति’ (Legislative Approval of the Budget)।
  3. आय तथा व्यय की क्रियाओं को कार्यान्वित करना- अथवा ‘बजट को कार्यान्वित करना’ (Execution of the Budget)।
  4. वित्तीय व्यवस्थाओं का राजकोषीय प्रबंन्धन (Treasury Management of the Finance)।
  5. इन संक्रियाओं की विधायी उत्तरदायिता (Legislative Accountability) अर्थात् समुचित रूप से हिसाब-किताब रखना और उस हिसाब-किताब का परीक्षण करना।
वित्तीय प्रशासन के ऊपर बताई गई प्रक्रियायें सम्मिलित हैं। ये वित्तीय क्रियायें इन अभिकरणों (Agencies) द्वारा सम्पन्न की जाती हैं-
  1. व्यवस्थापिका अथवा विधान-मण्डल (The Legislature),
  2. सरकार की कार्यपालिका शाखा (The Executive),
  3. राजकोष अथवा वित्त विभाग (Treasury and Finance Department),
  4. लेखा-परीक्षण विभाग (Audit Department),
वित्तीय प्रशासन का संचालन तथा नियन्त्रण इन्हीं अभिकरणों द्वारा किया जाता है।

वित्तीय प्रशासन की प्रकृति

वित्त प्रशासन की प्रकृति को लेकर दो भिन्न दृष्टिकोण है:
  1. परंपरागत दृष्टिकोण (Traditional View),
  2. आधुनिक दृष्टिकोण (Modern View),

परपंरागत दृष्टिकोण

इस दृष्टिकोण को मानने वालों का विचार है कि वित्तीय प्रशासन उत्पत्ति, विनियोजन तथा वित्तीय संसाधनों की खोज से सम्पादित क्रियाओं का योग है जो लोक संगठनों को जीवित रखने तथा उनके विकास के लिए आवश्यक होता है। वे इस बात पर बल देते हैं कि किसी भी लोक प्रशासन में एक प्रशासनिक ढांचा होता है, जो धन की आवाजाही को व्यवस्थित करने के साथ-साथ इसे नियंत्रित और व्यवस्थित भी करता है। इस व्यवस्था के कारण इन कोषों का सही और उत्पादक उपयोग हो पाता है। व्यवस्थाओं के परिप्रेक्ष्य में इस दृष्टिकोण पर नजर डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सहभागिता व्यवस्था का ही एक रूप है। लोक वित्तीय संगठनों को कुशल ढंग से चलाने के लिए वित्तीय सहायता देना वित्तीय प्रशासन का उत्तरदायित्व है। इसका कार्य है लोक संगठनों में समस्त वित्तीय क्रियाओं को नियोजित करना, कार्यक्रम बनाना, संगठन एवं निर्देश देना ताकि लोकनीति का उचित अनुपालन हो सके। इस व्यवस्था के भागीदारों को वित्तीय प्रबंधक समझा जाता है तथा वे वित्तीय प्रकृति के प्रबंन्धात्मक कार्यों को सम्पादित करते हैं। यह दृष्टिकोण लोक वित्त के विशेषज्ञ सेलिगमैन के दृष्टिकोण को दर्शाता है। सार्वजनिक वित्त के शुद्ध सिद्धांत की केन्द्रीय धारणा यह है कि सार्वजनिक वित्त को सार्वजनिक आय, सार्वजनिक व्यय एवं सार्वजनिक ऋण की समस्याओं को वस्तुनिष्ठ ढंग से सम्पादित करना एवं सत्तारूढ़ राजनैतिक दलों के दृष्टिकोण के संबंध में बताना चाहिए। वित्तीय प्रशासन के विशेषज्ञ जो इस दृष्टिकोण को मानते हैं वे मूल्य की तटस्थता में विश्वास रखते है। उदाहरण के लिए जेज गैस्टन कहते हैं कि वित्तीय प्रशासन सरकारी संगठनों का वह भाग है जो लोक निधि का संग्रह, सुरक्षा तथा आबंटन को दर्शाता है तो उसके विचार में यही दृष्टिकोण दृष्टिगोचर प्रतीत होता है।

आधुनिक दृष्टिकोण

आधुनिक दृष्टिकोण वित्तीय प्रशासन को सार्वजनिक निधि बढ़ाने तथा व्यय करने के साधन के बजाय लोक संगठनों की सम्पूर्ण प्रबन्धकीय प्रक्रिया का एक आवश्यक अंग मानता है। इसके अन्तर्गत लोक प्रशासन में सम्मिलित समस्त व्यक्तियों की समस्त क्रियाएं आती हैं। इसका कारण है कि लगभग प्रत्येक लोक अधिकारी निर्णय लेता है जिसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिणाम वित्तीय पहलू से भी सम्बद्ध होता है। यह परम्परागत सिद्धांत के मूल्य तटस्थता के दृष्टिकोण को नकारता है। यह इसमें सार्वजनिक वित्त के तीन महत्वपूर्ण सिद्धांतों को शामिल करता है जैसे-सामाजिक आर्थिक सिद्धांत, जिसके अग्रदूत वैगनर, एजर्थ तथा पिगोड हैं। केनेसियन परिप्रेक्ष्य के प्राकार्यात्मक सिद्धांत तथा आधुनिक वित्त विशेषज्ञों के कार्यात्मक दृष्टिकोण। इनके दृष्टिकोण के अनुसार वित्त प्रशासन की भूमिकाएं हैं।
  1. समानता लाने वाली भूमिका - इस भूमिका के अन्तर्गत वित्त प्रशासन धन संबंधी असमानताओं को दूर करने का प्रयास करता है। राजकोषीय नीतियों के द्वारा आय को सम्पन्न से निर्धन को हस्तांतरित करने का प्रयास करता है।
  2. प्रकार्यत्मक भूमिका - सामान्य परिस्थितियों में अर्थव्यवस्था स्वयं कार्य नहीं कर सकती है। इस भूमिका के अन्तर्गत वित्त प्रशासन कराधान सार्वजनिक व्यय तथा सार्वजनिक ऋण के द्वारा अर्थव्यवस्था के उचित कार्यान्वयन का प्रयास करता है।
  3. कार्यात्मक भूमिका- इस भूमिका के अन्तर्गत वित्त प्रशासन उन नीतियों का अध्ययन करता है जो निवेश के तीव्र प्रवाह को आसान तथा तीव्रता से बढ़ने तथा राष्ट्रीय आय के विस्तार को बढ़ाने के लिए सही आबंटन करता है।
  4. स्थायित्व संबंधीं भूमिका - इस भूमिका के अन्तर्गत वित्त प्रशासन का उद्देश्य है राजकोषीय तथा वित्त नितियों द्वारा मूल्य स्तर एवं मुद्रास्फीति की प्रवृत्ति में स्थायित्व को बनाए रखा जाए।
  5. सहभागी भूमिका - इस दृष्टिकोण के अनुसार वित्त प्रशासन समुदाय के सामाजिक कल्याण को बढ़ाने के उद्देश्य से राज्य को लोक तथा निजी उत्पादनकर्त्ता के रूप में लाने के लिए नीतियों का निर्धारण तथा क्रिर्यान्वयन करता है। यह राज्य में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भागीदारी द्वारा आर्थिक विकास को बढ़ाने का प्रयास भी करता है।
इस प्रकार वित्त प्रशासन साध्य तथा साधन के मामले में विकल्प का ढांचा प्रदान करता है जो राज्य की प्रकृति, चरित्र तथा इसके वैचारिक मूल्यों के आधार को दर्शाता है। उदाहरण के लिए समाजवादी देशों में वित्त प्रशासन लोकतांत्रिक देशों से भिन्न होते हैं। इस प्रकार वित्त प्रशासन की आत्मा भिन्न सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में भिन्न होगी क्योंकि यह सामाजिक आर्थिक तथा राजनैतिक शक्तियों के सचालन के विशेष साधनों पर निर्भर करता है।

वित्तीय प्रशासन का कार्यक्षेत्र

वित्त प्रशासन उन क्रियाओं से निर्मित है जिनका उद्देश्य सरकारी गतिविधियों को धन उपलब्ध करना तथा इस धन का वैध तथा कुशल उपयोग सुनिश्चित बनाना है। व्हाइट के अनुसार “राजस्व व्यवस्था में इसके मुख्य उप-खण्डों के रूप में, बजट का बनाना तथा इसके पश्चात् विनियोंग की औपचारिक क्रिया, व्यय का कार्यकारिणी द्वारा पर्यवेक्षण (बजट कार्यान्वयन), लेखा विधि तथा प्रतिवेदन प्रणाली पर नियन्त्रण, कोष की व्यवस्था, राजस्व एकत्रित करना तथा अंकेक्षण सम्मिलित है।” प्रशासन के प्रमुख वित्तीय क्षेत्रों की अभिव्यक्ति निम्न रूपों में की जा सकती है :

बजट बनाना - 

यह वित्त प्रशासन का एक मुख्य यन्त्र है। बजट प्रणाली एक साधन है जिसके माध्यम से वित्त प्रशासन को मोटे तौर पर अभिव्यक्ति प्रदान की जाती है। इसलिए एक अच्छे वित्त प्रशासन की प्रणाली की विशेषताओं के संबंध में जो कुछ कहा गया है वह समूचे रूप से बजट प्रणाली पर भी लागू होता है। वास्तव में किसी देश की अर्थ-व्यवस्था उसकी सरकार की बजटीय क्रियाओं से बहुत अधिक प्रभावित होती है। सरकारी बजट बनाना इन मुख्य प्रक्रियाओं में से एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोक साधनों का नियेजन किया जाता है तथा उन पर नियन्त्रण किया जाता है। यह बजट के माध्यम से ही है कि सरकारी कार्यक्रमों को नागरिकों की सेवाओं में बढ़ते क्रम से प्रस्तुत किया जाता है जिससे उनका भौतिक तथा नैतिक स्तर उच्च होता है। सरकार अपना कार्य बजट की सहायता से तथा बजट द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर रह कर ही करती है। बजट, सरकार के विशेष उपकरणों में शीर्ष स्थान रखता है जोकि राष्ट्र के मामलों के निर्देशन तथा नियन्त्रण के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं।

बजट राजस्व उत्पन्न करने वाली प्रक्रिया तथा वित्तीय एवम् राजस्व पर नियन्त्रण करने की क्रिया की शैली दोनों है। यह देश के वित्त प्रशासन का उत्तरदायित्व है कि बजट का संतुलन इस प्रकार प्रभावपूर्ण ढंग से करे कि आय तथा व्यय दोनों ही समान हों। बजट प्रणाली का वास्तविक महत्त्व इस बात में है कि किसी सरकार के वित्तीय मामलों को सुव्यस्थित विधि से प्रशासित किया जाए। इस प्रकार के मामलों का संचालन अनवरत क्रियाओं की श्रृंखला में आबद्ध है जिसकी अनेक कड़ियाँ हैं। राजस्व तथा व्यय की आवश्यकताओं का अनुमान, राजस्व तथा विनियोग ऐक्ट, लेखा, अंकेक्षण तथा प्रतिवेदन कुछ निश्चित अवधि के लिए, जोकि प्राय: एक वर्ष होती है, सरकार को ठीक प्रकार से चलाने के लिए जो व्यय की आवश्यकता है। पहले उसका अनुमान लगाया जाता है तथा इसके साथ ही इस व्यय को करने के लिए धन प्राप्त करने की व्यवस्था की जाती है।

बजट अधिनियम तथा कार्यान्वयन - 

बजट की तैयारी के बाद अर्थात् वार्षिक राजस्व तथा व्यय के विषय में अनुमान लगाने के उपरान्त इसे कानूनी स्वीकृति प्राप्त करनी होती है। सर्वप्रथम बजट कार्याकारिणी द्वारा स्वीकार किया जाता है जो इसे विधानसभा के समक्ष प्रस्तुत करती है ताकि इसे कानूनी दस्तावेज बनाया जा सके। कार्यकारी सरकार का प्रतिनिधित्व करता कोई व्यक्ति प्राय: वित्त मंत्री विधानमण्डल के सम्मुख बजट प्रस्तुत करता है। बजट के तैयार करने तथा इसके प्रस्तुत करने में कार्यकारिणी का केन्द्रीभूत दायित्व विधानमण्डल द्वारा बजट को अधिकृत करने में सुगमता प्रदान करता है तथा इस कार्य के पुनर्वलोकन तथा नीति संबंधी मनन पर ध्यान केन्द्रित करने के योग्य बनाता है। कार्यकारी सरकार द्वारा तैयार एवम् प्रस्तुत किए गए बजट का विधानसभा द्वारा पुनर्निरीक्षण एक मुख्य अवसर प्रदान करता है बल्कि यह एक अति महत्वपूर्ण अवसर होता है जबकि प्रशासनिक कृत्यों की विशेषता तथा गुणवत्ता का परीक्षण किया जा सकता है। इस प्रकार का परीक्षण एक संसदात्मक लोकतन्त्र में निहित होता है तथा प्रत्येक विधानसभा का एक रखवाले का दायित्व होता है।

बजट का कार्यान्वयन कार्यकारी सरकार का दायित्व है तथा इस प्रकार कार्यकारी सरकार में शक्तियों का विभाजन बजट के कार्यान्वयन की कार्य प्रणाली को निर्धारित करता है। बजट का कुशलतापूर्ण कार्यान्वयन इसलिए शक्तिशाली केन्द्रीय निर्देश तथा नियन्त्रण की पूर्ण कल्पना करता है। “यदि ऐसा नहीं किया जाता तो बजट बहुत सीमा तक उपने उद्देश्य की प्राप्ति में असफल होगा जोकि सरकारी वित्त में दोनों छोरों को मिलाने से संतुलन प्राप्त करना है।” बजट के कार्यान्वयन में सम्मिलित पद हैं- (i) निधि को उचित रीति से एकत्रित करना (ii) एकत्रित निधि का उचित रक्षण तथा (iii) निधि का उचित बंटवारा। यह कार्यकारिणी का उत्तरदायित्व है कि वह राजस्व/कर तथा बिना कर आय एकत्रित करने के लिए समुचित तन्त्र तथा कार्य प्रणाली के नियमों का निर्माण करे। संचित किए गए धन की सम्भाल खजानों (राजकोषों) का उत्तरायित्व है। अनेक देशों में एक अथवा दूसरे रूप में राजकोषों का जाल-सा बिछा हुआ है। संघीय, प्रादेशिक अथवा स्थानीय सरकार से संबंधित लेन-देन, धन की प्राप्ति तथा वितरण राजकोषों अथवा उनकी शाखाओं में प्रतिदिन होता रहता है। राजकोषों तथा बैंको के मध्य बड़ी निकटता का समन्वय होता रहता है। कोष के वितरण के लिए प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर अनेक अधिकारियों को प्राधिकार सौंपे जाने चाहिएँ जो राजकोषों से धन निकलवा सकें और जिन्हें निन्दनीय अवहेलना के लिए जब कोई हानि हो जाए तो दोषी ठहराया जा सके। यह राजकोषीय प्रबंध का दायित्व है कि वह इस बात को निश्चित बनाए कि अदायगी अधिकृत व्यक्ति को की जा रही है तथा कोष का पूर्ण लेखा रखे।

कर-प्रशासन - 

एक समय ऐसा था जब कराधान को एक बुराई समझा जाता था, अब यह एक सामाजिक आवश्यकता है। राज्य की प्रकृति तथा गतिविधियों में परिवर्तन के कारण तथा कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के उत्पन्न हो जाने के कारण, लोगों को सेवाएँ उपलब्ध करवाने के लिए उनकी सदा बढ़ रही मांगों की पूर्ति के लिए तथा आधुनिक राष्ट्र राज्य की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कराधान अपरिहार्य हो गया है। तथापि केवल कर लगाना ही यथेष्ट नहीं है, वास्तविक बोझ तो इसके एकत्र करने पर पड़ता है। प्रत्येक समाज में कर चोरी तथा कर न देने की समस्या उत्पन्न हो सकती है। इसके अतिरिक्त अन्य समस्याएँ भी उत्पन्न हो सकती है; जैसा कि कर नियमों में जटिलता; लोगों के सहयोग में कमी; आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याएं, कर अधिकारियों का दृष्टिकोण; कराधान प्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता इत्यादि। इसके लिए प्रशिक्षित, दक्ष तथा ईमानदार पदाधिकारियों के एक विशाल कर प्रशासन तन्त्र की आवश्यकता है। इसके साथ ही बहुत से देशों में परीक्षण अथवा सतर्कता के लिए पृथक् संगठन हैं। कर-प्रशासन उस तन्त्र के एक भाग के रूप में कार्य करता है जोकि राजस्व नीति तथा वार्षिक बजटों के कार्यान्वयन की दिशा में कार्य करता है।

लोक लेखों का प्रतिपादन -

 वित्तीय प्रशासन का एक महत्वपूर्ण पक्ष सरकारी लेखों को जारी रखना है। विभिन्न प्रकार के संगठन ऐसे हैं जो सरकारी वित्तीय क्रियाओं को जारी रखने में रूचि रखते हैं यानि कि करदाता, विधानसभा तथा निदेशक अधिकारी। करदाता सरकार को उत्तरदायी ठहराने के रुचि रखता हैं। विधानमण्डल की आंशिक रुचि उत्तरदायित्व लागू करने में होती है तथा आंशिक रुचि भविष्य की नीति निर्माण के लिए सूचना एकत्रित करने में होती है। निर्देशक अधिकारी अधीक्षण तथा नियन्त्रण की आवश्यकता से प्रभावित होते है। इन सब तथ्यों को दृष्टि में रखते हुए सरकार को लेखों की तैयार करनी होती है तथा उनका प्रतिपादन करना होता है। सरकारी लेखों के मुख्य प्रकार हैं- नियन्त्रण लेखे (Control Accounts), मर्यादा लेखे (Propriety Accounts), सम्पूरक विस्तृत लेखे (Supplementary Detailed Accounts)। नियन्त्रण लेखे मुख्य रूप से इसलिए रखे जाते हैं कि आन्तरिक प्रशासन को सुविधा रहे। जिस अधिकारी को कर एकत्रित करने, अभिरक्षा तथा वितरण का भार सौंपा गया उसकी ओर से पूर्ण निष्ठा होनी आवश्यक है तथा कर लगाते समय, एकत्र करते समय अथवा कोष को व्यय करते समय सम्पूर्ण नियमों तथा उपबंधों का कठोरता से पालन करना चाहिए। इसके लिए नियन्त्रण लेखों की आवश्यकता है। नियन्त्रण लेखे विधानमण्डल अथवा जनता के लिए लाभदायक नहीं होते जोकि सरकारी लेखा विधि में रुचि लेने वाले पक्ष होते हैं। इस आशय के लिए मर्यादा लेखे (Propriety Accounts) तैयार किए जाते हैं। इस प्रकार के लेखे में केवल जमा लेखा (Credit Account) तथा नामे लेखा (Debit Account) तथा वाउचर (Voucher) का ही प्रतिपादन नहीं होता किन्तु यह दर्शाने के लिए कि जो व्यय किया गया है वह विधानमण्डल की इच्छानुसार हुआ है तथा इससे संबंद्ध अधिकारी का कोई प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष अपना निहित स्वार्थ न था। इसके अतिरिक्त विस्तृत लेखा, सरकार के देयादेय; आय तथा व्यय अनेक दृष्टिकोण के लिहाज से तैयार किया जाना चाहिए। लेखा विधि (Accounting) सरकारी एजेन्सियों की एक रोजमर्रा क्रिया है किन्तु है यह अति महत्त्वपूर्ण है, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र के प्रतिवेदन के अनुसार सरकारी लेखे बजट बनाने तथा अपनाने की प्रक्रिया को सरल बनाने में सहायक होने चाहिए। उन्हें प्रोग्राम के नियोजन, प्रशासन तथा नियन्त्रण के लाभप्रद उपकरण होना चाहिए तथा साथ ही सरकार के आर्थिक कार्यक्रम के निर्माण करने तथा मूल्यांकन करने के लिए आवश्यक सूचना को व्यक्त करना चाहिए।

अंकेक्षण -

 किसी भी वित्तीय प्रशासन का यह एक अभिन्न अंग है। लोक वित्त के संसदीय नियन्त्रण का यह एक अपरिहार्य भाग है। यह लेखों के स्वतन्त्र परीक्षण से संबंधित है अथवा वित्तीय स्थिति के विवरण की सत्यता तथा किसी संगठन में सम्पूर्ण वित्तीय लेन-देन की जांच से संबंधित है। चाल्र्स वर्थ के अनुसार, “अंकेक्षण का अर्थ वह प्रक्रिया है, जिससे यह जानकारी प्राप्त की जाती है” कि प्रशासन ने धन का उपयोग वैधानिक निर्देशों के अनुसार किया है जिसके द्वारा धन विनियोजित किया गया था।” अंकेक्षण के महत्त्व को निम्नलिखित शब्दों में भी विस्तार से कहा गया है- अंकेक्षण, न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा विधानपलिका के समान लोकतन्त्र का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। इसका मूलभूत प्रयोजन इस बात को सुनिश्चित बनाना है कि सरकारी कोष का व्यय करते समय, प्रत्येक प्रकार की वित्तीय परम्परा का पालन किया गया है कि नियम तथा उपबन्ध, जोकि व्यय से संबंधित है उनका ध्यान रखा गया है, कि व्यय उसी मद पर किया गया है जिसके लिए संसद् ने इसका विनियोजन किया था। अंकेक्षण कार्यकारिणी तथा संसद के मध्य एक महत्पूर्ण कड़ी उपलब्ध करता है तथा उस सीमा तक क्रियाओं की व्याख्या करता है जहां तक कि पूर्वोक्त की इन पर वित्तीय वहन शक्ति होती है।” अंकेक्षण की चार स्थितियाँ है -
  1. विनियोजित अंकेक्षण (Appropriation Audit) - सरकार लेखों से संबंधित यह प्राथमिक तथा परम्परागत अंकेक्षण का कार्य है। इसका उद्देश्य इस बात की जानकारी प्राप्त करना है कि जो धन सरकार द्वारा व्यय किया गया है क्या वह उन्हीं सीमाओं के भीतर किया गया है जो संसद् ने अनुदान तथा विनियोग करते समय निर्धारित की थी।
  2. नियामक अंकेक्षण (Regulatory Audit) - यह इस बात से संबंधित है कि सम्पूर्ण नियमों तथा अधिनियमों का पालन किया गया है अथवा नहीं।
  3. मर्यादा अंकेक्षण (Propriety Audit) - इसे उच्चतर अंकेक्षण भी कहा जाता है। यह हाल ही की उपज है। यह व्यय की औपचारिकता से आगे इसकी “बुद्धिमत्ता” (Wisdom), निष्ठा (Faithfulness) तथा आर्थिकता (Economy)" का ध्यान रखता है जोकि अंकेक्षण के वास्तविक उद्देश्यों से अधिक नहीं तो उसके समकक्ष तो अवश्य है।
  4. कुशल अंकेक्षण (Efficiency Audit) - यह अन्य प्रकार के संवीक्षण से परे अंकेक्षण का विस्तार है जोकि अंकेक्षण में लगी एजेंसी अथवा प्राधिकरण की कुशलता की परीक्षा करता है। इस प्रकार का अंकेक्षण हाल ही की उपज है तथा इसके महत्त्व तथा निहितार्थों पर अभी वाद-विवाद, विश्लेषण तथा इसको परिभाषित किया जा रहा है।
अंकेक्षण भी एक प्रतिदिन की क्रिया हैं; जहाँ तक नियामक तथा मर्यादित अंकेक्षण का संबंध है, यह प्रतिदिन की वित्तीय कार्रवाई तथा लेखों की तैयारी के साथ घटित होता है। इसलिए प्रत्येक राज्य में अंकेक्षण का एक समानान्तर तन्त्र स्थापित किया जाता है। यह केवल स्वतत्र अंकेक्षण की संस्था द्वारा ही संभव बनाया जा सकता है कि लोक व्यय पर संसद् का प्रभावी नियन्त्रण हो सके तथा इस बात को सुनिश्चित बनाया जा सके कि शेष का उचित व्यय किया गया है जिसमें मितव्ययिता तथा कुशलता का उचित ध्यान भी रखा गया है।

उपर्युक्त विचार-विमर्श किए गए वित्तीय प्रशासन के क्षेत्रों के अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण तथा विषय क्षेत्र है संघ- राज्यीय वित्तीय संबंध एक संघ में संघीय सरकार को ऐसे कार्य सौंपे जाते हैं जोकि सम्पूर्ण देश से संबंधित होते हैं। प्राय: समस्त संघो में सुरक्षा, विदेशी मामले, संचार, रेल विभाग आदि केन्द्रीय विषय होते हैं। वे समस्त कार्य, जो राज्य को प्रभावित करते हैं तथा वे कार्य जिनमें बड़े स्तर पर अन्त: राज्यीय समन्वय की आवश्यकता है, वे संघीय सरकार के पास होते हैं। प्रादेशिक अथवा राज्य सरकार को वही मामले सौंपे जाते हैं जोकि स्थानीय अथवा मूलभूत विशेषता के होते है इसके साथ ही संघ सरकार तथा राज्यों मे मध्य साधनों के विभाजन की व्यवस्था भी होनी चाहिए तथापि यह एक सरल कार्य नहीं है। राज्यों के कार्य कम होते हैं तथा कमोवेश स्थानीय प्रकृति के होते हैं किन्तु राज्यों की संघ सरकार पर अधिक से अधिक साधनों के निर्धारण की माग बढ़ती ही रहती है। इस प्रकार किसी देश के वित्तीय प्रशासन में वित्तीय साधनों का विभान तथा केन्द्र एवम् राज्यों में समन्वय एक जटिल क्षेत्र होता है।

वित्तीय प्रशासन के उद्देश्य एवं महत्त्व

वित्तीय प्रशासन की सफलता सरकार की राजस्व नीति को इसकी सही भावना तथा निर्धारित अवधि एवम् साधनो में पूर्ण करने में निहित है। इसे इन सीमाओं के अन्दर रह कर, किसी प्रकार की हानि से बचा कर, दायित्व निश्चित कर लक्ष्यों को प्राप्त करना होता है। वित्तीय प्रशासन के इन कार्यों का विस्तृत वर्णन निम्नानुसार किया जा सकता है -
  1. वित्तीय प्रशासन का प्रथम व मूलभूत कार्य राजस्व नीति को कार्यान्वित करना होता है। अन्य नीतियों की भांति राजस्व नीति का निर्धारण भी राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा किया जाता है किन्तु साथ ही यह कार्यकारिणी का ही दायित्व है कि वह अपनी स्थिति तथा कार्यपालिका की विशिष्टता के कारण नीति निर्धारण में सहायता करे। जहाँ तक कार्यान्वयन का संबंध हैं, यह प्रशासन का मूलभूत कर्तव्य है तथापि कुछ लेखकों के अनुसार, राजस्व नीति का कार्य क्षेत्र वित्तीय प्रशासन के अधिकार क्षेत्र से बाहर है तथा इसमें एक प्रकार के प्रश्न जुड़े है जोकि अर्थशस्त्रियों की वृत्ति से संबंधित हैं।
  2. वित्तीय प्रशासन का एक और आधारभूत कार्य वित्तीय नियंत्रण से संबंधित है। इस मामलें में वित्तीय प्रशासन वित्तीय रखवाले का कार्य निभाता है। यह इस बात को सुनिश्चित बनाता है कि उन वित्तीय साधनों का सही उपयोग हो जो कि समस्त प्रशासनिक अभिकरणों को निर्धारित किए गए हैं।
  3. वित्तीय प्रशासन में जिम्मेदारी को बड़ा महत्त्व प्राप्त है क्योंकि प्रथम तो वह, जिसके पास वित्त का नियन्त्रण होता है, उसी का बोलबाला होता है तथा दूसरे लोकतन्त्र की यह आवश्यकता है कि उसके अफसर न केवल इमानदारी से कार्य करें अपितु ऐसा दिखाई दे कि उन्होंने इमानदारी से अपना दायित्व पूर्ण किया है। प्राचीन भारत के विख्यात राजनेता कौटिल्य का कथन ह, “जैसा कि यदि किसी की जिàा की नोक पर मधु पड़ा हो तो यह असम्भव है कि वह उसका स्वाद न ले वैसे ही सरकारी कर्मचारियों के लिए यह असम्भव है कि जो धन उनके हाथों से होकर जाता है उसका आनन्द वे न भोंगें।” लोकतन्त्र में सब प्रकार के यान्त्रिक तथा मानवीय साधनों का उपयोग करना होता है ताकि इसे अपने कर्मचारियों की इस अतिसंवेदनशीलता से लोक सम्पत्ति (धन) की रक्षा की जा सके। 
  4. वित्तीय जिम्मेवारी न केवल संविधि के तथा अन्य कार्यकारिणी तथा विभागीय नियमों तथा कार्यप्रणाली के अनुरूप होनी चाहिए अपितु अन्य सामान्य “बुद्धिमत्ता, स्वामीभक्ति तथा आर्थिकता” के सिद्धांतों के अनुरूप भी होनी चाहिए। अत: लोक प्रशासन में जिम्मेदारी केवल पारस्परिक उपकरणों जैसे बन्धक (bonding), हिसाब-किताब (Book keeping), लेखा विधि, लेखा विधि (accounting) तथा प्रतिवेदन (reporting) से ही नहीं लाई जा सकती। यह “परिरक्षा तथा प्रबंधनकर्त्ता से आगे जाता है तथा व्यवस्था के सक्रिय नीति निर्धारण गुणों की सहायता प्राप्त करना है।” इसलिए इसकी प्रभाविकता इस बात में नहीं है कि कुछ बाह्य तथा आन्तरिक नियन्त्रणों का विकास किया जाए अपितु एक एकीकृत तन्त्र का आविष्कार किया जाए जोकि सामान्य तन्त्र के सहयोग से कार्य की योजना को इस प्रकार तैयार करे ताकि वित्त का इस प्रकार नियन्त्रण किया जा सके कि निर्धारित समय की सीमा के अन्तर्गत कम धन तथा शक्ति का व्यय किए बिना योजना के लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सके। 
इस प्रकार वित्तीय प्रशासन के मूल में एक सुदृढ़ वित्तीय व्यवस्था कार्यरत होती है। एक कल्याणकारी राज्य में यह केवल एक प्रशासन के नियन्त्रण के उपकरण के रूप में ही कार्य नहीं करता अपितु आर्थिक तथा सामाजिक गतिविधि के सशक्त केन्द्रों को धन के बहाव में नियन्त्रण का कार्य करता है। यह कार्यशील अभिकरणों की गतिविधियों में समन्वय करने तथा लोक गतिविधियों में प्राथमिकताओं के निर्धारण में भी साधन का कार्य करता है। राज्य को संतुलन में रखने के लिए सुगठित वित्तीय प्रणाली की आवश्यकता ही नहीं है अपितु देश के आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिए इसको गति, दिशा तथा ढांचे के निर्धारण की आवश्यकता भी है।

वित्तीय प्रशासन से संबंधित राजस्व व्यवस्था का एक अन्य कार्य भी है जोकि एक सक्रिय प्रक्रिया है जिसमें क्रियाओं की अनवरत किड़ंया जुड़ी हुई हैं जिनको कि इस प्रकार निर्दिष्ट किया जा सकता है।
  1. राजस्व तथा व्यय की आवश्यकताओं के अनुमानों के लिए तकनीकी रूप से कहे जाने वाले बजट की तैयारी’ की आवश्यकता है।
  2. इन अनुमानों के लिए वैधानिक स्वीकृति प्राप्त करना जिन्हें तकनीकी रूप से “बजट का वैधानीकरण” कहा जाता है।
  3. राजस्व तथा ‘व्यय क्रियाओं’ का कार्यान्वयन जिसे ‘बजट का कार्यान्वयन’ कहा जाता है।
  4. इन प्रक्रियाओं की वैधानिक जिम्मेवारी जिसे अंकेक्षण कहा जाता है।
व्हाइट के अनुसार, “राजस्व व्यवस्था में इसके मुख्य उप-खण्डों के रूप में, बजट का बनाना तथा इसके पश्चात् विनियोग की औपचारिक क्रिया, व्यय का कार्यकारिणी द्वारा पर्यवेक्षण (बजट कार्यान्वयन), लेखा विधि तथा प्रतिवेदन प्रणाली पर नियन्त्रण, कोष की व्यवस्था, राजस्व एकत्रित करना तथा अंकेक्षण, सम्मिलित है।”

एक युक्तियुक्त वित्तीय प्रशासन की प्रणाली से तात्पर्य है संस्था की एकता। सरकार की विभिन्न एजेन्सियों में जितनी अधिक एकता होगी, तथा कर्मचारियों के पदसोपान के दायित्व में जितना अधिक केन्द्रीकरण होगा, प्रशासन उतना ही कुशल होगा। इस केन्द्रीकरण का यह अर्थ नहीं है कि सब कुछ शीर्ष के कुछ लोगों द्वारा किया जाता है; विवरण अधीनस्थ अधिकारियों के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए। किन्तु इसका यह अर्थ अवश्य है कि विभिन्न अभिकरणों के कार्यों में समन्वय किया जाए तथा सरकार की किसी भी वित्तीय योजना में इसका सही मूल्यांकन किया जाना चाहिए। संसदात्मक लोकतन्त्र के ढांचे में, वित्तीय प्रशासन की प्रणाली की व्यवस्था तथा क्रियान्वयन इस भांति किया जाए कि विधान सभा की इच्छा की पूर्ति की प्राप्ति की जा सके जैसा कि विनियोग एक्ट तथा वित्तीय एक्ट के माध्यम से उस द्वारा व्यक्त की गई है। कार्यकारी सरकार को उन उद्देश्यों के लिए राजस्व एकत्रित करना चाहिए, धन ऋण रूप में प्राप्त करना चाहिए तथा व्यय करना चाहिए जिन्हें विधान सभा ने विशेष रूप से अभिव्यक्त किया है। कार्यकारी सरकार द्वारा इन वित्तीय कार्यों पर नियन्त्रण करने के लिए विधान सभा इन गतिविधियों का मूल्यांकन एक सांविधिक अंकेक्षण संस्था द्वारा करवाती है जोकि कार्यकारी सरकार के नियन्त्रण में नहीं होती।

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