समाज एक उद्देश्यपूर्ण समूह होता है, जो किसी एक क्षेत्र में बनता है, उसके सदस्य एकत्व एवं अपनत्व में बंधे होते हैं। मनुष्य चिन्तनशील प्राणी है। मनुष्य ने अपने लम्बे इतिहास में एक संगठन का निर्माण किया है। वह ज्यों-ज्यों मस्तिष्क जैसी अमूल्य शक्ति का प्रयोग करता गया, उसकी जीवन पद्धति बदलती गयी और जीवन पद्धतियों के बदलने से आवश्यकताओं में परिवर्तन हुआ और इन आवश्यकताओं ने मनुष्य को एक सूत्र में बाँधना प्रारभ्म किया और इस बंधन से संगठन बने और यही संगठन समाज कहलाये और मनुष्य इन्हीं संगठनों का अंग बनता चला गया।
बढ़ती हुई आवश्यकताओं ने मानव को विभिन्न समूहों एवं व्यवसायों को अपनाते हुये विभक्त करते गये और मनुष्य की परस्पर निर्भरता बढ़ी और इसने मजबूत सामाजिक बंधनों को जन्म दिया।
वर्तमान सभ्यता में मानव का समाज के साथ वही घनिष्ठ सम्बंध हो गया है और शरीर में शरीर के किसी अवयव का होता है।
वर्तमान सभ्यता में मानव का समाज के साथ वही घनिष्ठ सम्बंध हो गया है और शरीर में शरीर के किसी अवयव का होता है।
समाज का अर्थ
समाज शब्द संस्कृत के दो शब्दों सम् एवं अज से बना है। सम् का अर्थ है इकट्ठा व एक साथ अज का अर्थ है साथ रहना। इसका अभिप्राय है कि समाज शब्द का अर्थ हुआ एक साथ रहने वाला समूह। बोलचाल की भाषा में या साधारण अर्थ में ‘समाज’ शब्द का प्रयोग व्यक्तियों के समूह के लिए किया जाता है। किसी भी संगठित या असंगठित समूह को समाज कह दिया जाता है, जैसे आर्य समाज, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, हिन्दू समाज, जैन समाज, विद्यार्थी समाज, महिला समाज आदि।
‘समाज’ शब्द का साधारण अर्थ है जिसका प्रयोग विभिन्न लोगों ने अपने-अपने ढंग से किया है। किसी ने इसका प्रयोग व्यक्तियों के समूह के रूप में, किसी ने समिति के रूप में, तो किसी ने संस्था के रूप में किया है। इसी वजह से समाज के अर्थ में निश्चितता का अभाव पाया जाता है।
विभिन्न समाज-वैज्ञानिकों तक ने ‘समाज’ शब्द का अपने-अपने ढंग से अर्थ लगाया है। उदाहरण के रूप में, राजनीतिशास्त्री समाज को व्यक्तियों के समूह के रूप में देखता है। मानवशास्त्री आदिम समुदायों को ही समाज मानता है, जबकि अर्थशास्त्री आर्थिक क्रियाओं को संपन्न करने वाले व्यक्तियों के समूह को समाज कहता है।
समाज की परिभाषा
ग्रीन ने समाज की अवधारणा की जो व्याख्या की है उसके अनुसार समाज एक बहुत बड़ा समूह है जिसका को भी व्यक्ति सदस्य हो सकता है। समाज जनसंख्या, संगठन, समय, स्थान और स्वार्थों से बना होता है।डॉ0 जेम्स- मनुष्य के शान्तिपूर्ण सम्बन्धों की अवस्था का नाम समाज है।
प्रो0 गिडिंग्स- समाज स्वयं एक संघ है, यह एक संगठन है और व्यवहारों का योग है, जिसमें सहयोग देने वाले व्यक्ति एक-दूसरे से सम्बंधित है।
प्रो0 मैकाइवर- समाज का अर्थ मानव द्वारा स्थापित ऐसे सम्बंधों से है, जिन्हें स्थापित करने के लिये उसे विवश होना पड़ता है।
विलियम गर महोदय का कथन है- मानव स्वभाव से ही एक सामाजिक प्राणी है, इसीलिये उसने बहुत वर्णों के अनुभव से यह सीख लिया है कि उसके व्यक्तित्व तथा सामूहिक कार्यों का सम्यक् विकास सामाजिक जीवन द्वारा ही सम्भव है।
रेमण्ट महोदय का कथन है कि- एकांकी जीवन कोरी कल्पना है। शिक्षा और समाज के सम्बंध को समझने के लिये इसके अर्थ को समझना आवश्यक है।
समाज की विशेषताएँ
समाजशास्त्रियों ने समाज की परिभाषा क अर्थों में दी है। समाज के साथ जुड़ी हुई कतिपय विशेषताएँ हैं और ये विशेषताएँ ही समाज के अर्थ को स्पष्ट करती है। हाल के समाजशास्त्रियों में जॉनसन ने समाजशास्त्र के लक्षणों को वृहत् अर्थों में रखा है।यहाँ हम समाज की कतिपय
विशेषताओं का उल्लेख करेंगे जिन्हें सामान्यतया सभी समाजशास्त्री स्वीकार करते हैं। ये
विशेषताएँ हैं :
1. एक से अधिक सदस्य
को भी समाज हो, उसके लिये एक से अधिक सदस्यों की आवश्यकता होती है। अकेला व्यक्ति
जीवनयापन नहीं कर सकता है और यदि वह किसी तरह जीवन निर्वाह कर भी ले, तब भी वह
समाज नहीं कहा जा सकता। समाज के लिये यह अनिवार्य है कि उसमें दो या अधिक व्यक्ति
हों। साधु, सन्यासी, योगी आदि जो कन्दराओं और जंगलों में निवास करते हैं, तपस्या या
साधना का जीवन बिताते है, समाज नहीं कहे जा सकते।
2. वृहद संस्कृति
समाज में अगणित समूह होते हैं। इन समूहों को एथनिक समूह कहते हैं इन एथनिक समूहों
की अपनी एक संस्कृति होती है, एक सामान्य भाषा होती है, खान-पान होता है, जीवन पद्धति
होती है, और तिथि त्यौहार होते हैं। इस तरह की बहुत उप-संस्कृतियाँ जब तक देश के क्षेत्र में
मिल जाती है तब वे एक वृहद संस्कृति का निर्माण करती हैं। दूसरें शब्दों में, समाज की
संस्कृति अपने आकार-प्रकार में वृहद होती है जिसमें अगणित उप-संस्कृतियाँ होती है।
उदाहरण
के लिये जब हम भारतीय संस्कृति की चर्चा करते हैं तो इससे हमारा तात्पर्य यह है कि यह
संस्कृति वृहद है जिसमें क संस्कृतियाँ पा जाती है।
हमारे देश में अनेकानेक उप-संस्कृतियां
है। एक ओर इस देश में गुजराती, पंजाबी यानी भांगड़ा और डांडिया संस्कृति है वही बंगला
संस्कृति भी है। उप-संस्कृतियों में विभिन्नता होते हुए भी कुछ ऐसे मूलभूत तत्व है जो इन
संस्कृतियों को जोड़कर भारतीय संस्कृति बनाते हैं। हमारे संविधान ने भी इन उप-संस्कृतियों के
विकास को पूरी स्वतंत्रता दी है। को भी एक संस्कृति दूसरी संस्कृति के क्षेत्र में दखल नहीं
देती।
संविधान जहाँ प्रजातंत्र, समानता, सामाजिक न्याय आदि को राष्ट्रीय मुहावरा बनाकर चलता
है, वहीं वह विभिन्न उप-संस्कृतियों के विकास के भी पूरे अवसर देता है। ये सब तत्व किसी
भी समाज की वृहद संस्कृति को बनाते हैं। जब हम अमरीकी और यूरोपीय समाजों की बात
करते हैं जो इन समाजों में भी क उप-संस्कृतियों से बनी हु वृहद संस्कृति होती है।
अमरीका में क प्रजातियाँ - काकेशियन, मंगोलियन, नीग्रो, इत्यादि। इस समाज में क राष्ट्रों
के लोग निवास करते हैं - एशिया, यूरोप, आस्ट्रेलिया इत्यादि। यूरोपीय समाज की संस्कृति भी
इसी भांति वृहद है।
3. क्षेत्रीयता
जॉनसन का आग्रह है कि किसी भी संस्कृति का को न को उद्गम का क्षेत्र अवश्य होता है।
प्रत्येक देश की अन्तर्राष्ट्रीय सीमाएँ होती है। इसी को देश की क्षेत्रीयता कहते हैं। इस क्षेत्रीयता
की भूमि से ही संस्कृति का जुड़ाव होता है। यदि हम उत्तराखण्ड की संस्कृति की बात करते हैं
तो इसका मतलब हुआ कि इस संस्कृति का जुड़ाव हिमाचल या देव भूमि के साथ है। मराठी
संस्कृति या इस अर्थ में मलयालम संस्कृति भी अपने देश के भू-भाग से जुड़ी होती है।
यह संभव है कि किसी निश्चित क्षेत्र में पायी जाने वाली संस्कृति अपने सदस्यों के माध्यम से दूसरे में पहुंच जाए, ऐसी अवस्था में जिस क्षेत्र का उद्गम हुआ है उसी क्षेत्र के नाम से संस्कृति की पहचान होगी। उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड या न्यूयार्क में रहने वाला भारतीय अपने आपको भारतीय संस्कृति या भारतीय समाज का अंग कह सकता है, जबकि तकनीकी दृष्टि से अमेरीका में रहकर वह भारतीय क्षेत्र में नहीं रहता। महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस क्षेत्र में संस्कृति का उद्गम हुआ है, उसी क्षेत्र के समाज के साथ में उसे पहचाना हुआ मानता है।
यह संभव है कि किसी निश्चित क्षेत्र में पायी जाने वाली संस्कृति अपने सदस्यों के माध्यम से दूसरे में पहुंच जाए, ऐसी अवस्था में जिस क्षेत्र का उद्गम हुआ है उसी क्षेत्र के नाम से संस्कृति की पहचान होगी। उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड या न्यूयार्क में रहने वाला भारतीय अपने आपको भारतीय संस्कृति या भारतीय समाज का अंग कह सकता है, जबकि तकनीकी दृष्टि से अमेरीका में रहकर वह भारतीय क्षेत्र में नहीं रहता। महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस क्षेत्र में संस्कृति का उद्गम हुआ है, उसी क्षेत्र के समाज के साथ में उसे पहचाना हुआ मानता है।
उत्तरप्रदेश में रहने वाला एक गुजराती अपने आपको गुजराती संस्कृति के साथ जुड़ा हुआ
मानता है। उसकी भाषा, खान-पान, तिथि, त्यौहार, उत्तरप्रदेश में रहकर भी गुजराती संस्कृति के
होते हैं
4. सामाजिक संबंधों का दायरा
समाज के सदस्यों के सम्बन्ध विभिन्न प्रकार के होते हैं। समाज जितना जटिल होगा, सम्बन्ध
भी उतने ही भिन्न और जटिल होंगे। सम्बन्ध क तरह के होते हैं : पति-पत्नी, मालिक
मजदूर, व्यापारी-उपभोक्ता आदि। इन विभिन्न सम्बन्धों में कुछ सम्बन्ध संघर्षात्मक होते हैं और
कुछ सहयोगात्मक। समाज का चेहरा हमेशा प्रेम, सहयोग और ममता से दैदीप्यमान नहीं होता,
इसके चेहरे पर एक पहलू बदसूरत भी होता है।
समाज में संघर्ष, झगड़े-टंटे, मार-पीट और दंगे
भी होते हैं। जिस भांति समाज का उजला पक्ष समाज का लक्षण है, वैसे ही बदसूरत पक्ष भी
समाज का ही अंग है। अत: समाज जहाँ मतैक्य का प्रतीक है, वही वह संघर्ष का स्वरूप भी
है।
5. श्रम विभाजन
समाज की गतिविधियाँ कभी भी समान नहीं होती। यह इसलिये कि समाज की आवश्यकताएँ
भी विविध होती है। कुछ लोग खेतों में काम करते हैं और बहुत थोड़े लोग उद्योगों में जुटे होते
हैं। सच्चा यह है कि समाज में शक्ति होती है। इस शक्ति का बंटवारा कभी भी समान रूप
से नहीं हो सकता। सभी व्यक्ति तो राष्ट्रपति नहीं बन सकते और सभी व्यक्ति क्रिकेट टीम के
कप्तान नहीं बन सकते। शक्ति प्राय: न्यून मात्रा में होती है और इसके पाने के दावेदार बहुत
अधिक होते हैं। इसी कारण समाज कहीं का भी, उसमें शक्ति बंटवारे की को न को व्यवस्था
अवश्य होती है। शक्ति के बंटवारे का यह सिद्धांत ही समाज में गैर-बराबरी पैदा करता है। यह
अवश्य है कि किसी समाज में गैर-बराबरी थोड़ी होती है और किसी में अधिक।
हमारे देश में
गरीबी का जो स्वरूप है वह यूरोप या अमेरिका की गरीबी की तुलना में बहुत अधिक वीभत्स
है। जब कभी समाज की व्याख्या की जाती है जो इसमें श्रम विभाजन की व्यवस्था एक
अनिवार्य बिन्दु होता है। को भी समाज, जो विकास के किसी भी स्तर पर हो, उसमें श्रम
विभाजन का होना अनिवार्य है।
6. काम प्रजनन
समाज की वृद्धि और विकास के लिये बराबर नये सदस्यों की भर्ती की आवश्यकता रहती है।
ऐसा होना समाज की निरन्तरता के लिये आवश्यक है। यदि समाज की सदस्यता में निरन्तरता
नहीं रहती तो लगता है कि समाज का अस्तित्व खतरे में है। सदस्यों की यह भर्ती क तरीकों
से हो सकती है - सामा्रज्य विस्तार, उपनिवेश और आप्रवासन। पर सामान्यतया समाज की
सदस्यतया की सततता को बनाये रखने का तरीका काम प्रजनन है। इसका मतलब है, समाज
के सदस्यों की सन्तान समाज के भावी उत्तरदायित्व को निभाती है।
मानव एवं समाज के सम्बन्ध के सिद्धांत
1. सामाजिक संविदा का सिद्धांत
यह अत्यन्त पा्र चीन सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त को मानने वाले महाभारत कौटिल्य के अर्थशास्त्र, शुक्रनीतिसार, जैन और बौद्ध साहित्य आदि सभी इस सिद्धान्त का समर्थन करते हैं आधुनिक पाश्चात्य् दार्शनिक में टामस हाब्स, लाक और रूसो इस मत का प्रबल समर्थक है। इस सिद्धान्त के अनुसार समाज नैसर्गिक नहीं बल्कि एक कृत्रिम संस्था है। मनुष्यों ने अपने स्वार्थ के लिये समाज का नियंत्रण स्वीकार किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार एकांकी जीवन के कठिनाइयों एवं दबंगो के दबाव को झेलते हुये व्यक्ति ने स्वयं को संगठित कर लिया और इन संगठनों को समाज की संज्ञा दी गयी।
प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री अरस्तु के कथन को मैकाइवर व पेज ने अपनी रचना सोसाइटी में लिखा कि- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य सुरक्षा आराम, पोषण, शिक्षा, उपकरण, अवसर तथा उन विभिन्न सेवाओं के लिये जिन्हें समाज उपलब्ध कराता है, समाज पर निर्भर है।
2. समाज का अवयवी सिद्धांत
इस सिद्धान्त का अन्तनिर्हित अथर् है समाज एक जीवित शरीर है और मनुष्य उसका अंग है। इस सिद्धान्त के समर्थक मानते हैं कि समाज विभिन्न अंगों में विभाजित है और सभी अंग अपने प्रकार्यों के माध् यम से समाज को जीवन व गति प्रदान करते हैैं। समाज रूपी शरीर में व्यक्ति कोशिका की तरह है, और इसके अन्य अवयव समितियां तथा संस्थायें है। वास्तव में यह सिद्धान्त आज के युग में प्रासांगिक है इसके अनुसार समाज मानव के ऊपर है, यह बात सच है कि मनुष्य समाज का अंग है, और समाज को शरीर मानकर और मनुष्य को कोशिका मानकर मानव अस्तित्व को स्वीकारना ठीक नहीं है।
सत्यकेतु विद्यलंकार ने स्पष्ट किया है कि समाज हमारे स्वभाव में है अत: स्थायित्व उसका स्वभाविक गुण है। शरीर सिद्धान्त के अनुसार समाज में स्वतंत्र रूप से व्यक्तियों की को स्थिति नहीं है, जिसे स्वीकारना भी सम्भव नहीं है।
3. मनुष्य एवं समाज में आश्रिता
व्यक्ति व समाज एक-दूसरे के पूरक है व्यक्ति मिलकर समाज का निर्माण करते हैं और समाज व्यक्ति के अस्तित्व एवं आवश्यकता को पूरा करता है, ये दोनों परस्पर आश्रित हैं। व्यक्तियों के योग से समाज उत्पन्न होता है। हैवी हस्र्ट तथा न्यू गार्टन ने अपनी पुस्तक सोसाइटी एण्ड एजुकेशन में समाजीकरण की व्याख्या करते हुये लिखा है सामाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से बच्चे अपने समाज के स्वीकृत ढंगों को सीखते है, और इन ढंगों को अपने व्यक्तित्व का एक अंग बना देते हैं।
सामाजिक संस्था का सदस्य होने के कारण व्यक्ति का व्यक्तित्व एवं अस्तित्व दोनो सुरक्षित रहता है, और व्यक्ति का स्व समाज के स्व के अधीन हो जाता है। स्वस्थ समाज वही है, जो लेाकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करता है समाज में स्वतंत्रता व्यक्ति की उन्नति का आधार बनता है। समाज और व्यक्ति के मध्य अक्सर संघर्ण उत्पन्न हो जाता है। उसका कारण व्यक्ति की इच्छायें एवं समाज की उससे अपेक्षाये होती है।
समाज के प्रमुख तत्व
समाज के निर्माण के क तत्व है, इसे जानने के पश्चात ही समाज का अर्थ पूर्णतया स्पष्ट हो जायेगा-- समाज की आत्मा से मनुष्य का अमूर्त सम्बंध है। समाज एक प्रकार से भावना का आधार लेकर बनता है। व्यक्ति समाज के अवयव के रूप में है। व्यक्तियों के बीच की विविधता समाज में समन्वय के रूप में परिलक्षित होती है। कोहरे राबर्टस के अनुसार-’’तनिक सोचने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि समाज के अभाव में व्यक्ति एक खोखली संज्ञा मात्र है। मानव कभी अकेले नहीं रह सकता वह समाज का सदस्य बनकर रह जाता है। मानव का अध्ययन मानव समाज का अध् ययन है, व्यक्ति का विकास समाज में ही सम्भव है।’’ रॉस ने स्पष्ट किया-’’समाज से अलग वैयक्तिकता का को मूल्य नहीं रह जाता है और व्यक्तित्व एक अर्थ ही न संज्ञा मात्र है।’’
- समाज में हम की भावना होती है। इस भावना के अन्तर्गत व्यक्तिगत मैं निहित होता है, और यही सामाजिक बंधन को जन्म देता है। पर समाज के सम्पूर्ण बंधन स्वार्थपूर्ण हेाते हैं।
- समाज में समूह मन व समूह आत्मा होती है।, यह सम्बंध पारस्परिक चेतना से युक्त हेाती है, समूह मन में यह चेतना होती है और उनके यह व्यवहार में प्रकट होती है।
- समाज में अपनी सुरक्षा की भावना पायी जाती है, इसके लिये वह अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये सदैव प्रयत्नशील रहता है, और समाज अपनी निजता को बनाये रखने के लिये नियम कानून रीति रिवाज संस्कृति व सभ्यता को विकसित व निर्मित करता है।
- समाज की आर्थिक स्थिति उसके सदस्यों की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है तो उनसे आर्थिक स्थिति की विविधता पायी जाती है परन्तु इन सबके बाद भी उनमें एक समाज अधिकार भावना पायी जाती है, कि हम समाज के सदस्य है।
- समाज के जीवन एवं संस्कृति सभ्यता के कारण व्यक्तियों के आचार-विचार व्यवहार मान्यताओं में एका पायी जाती है। जिसे हम जीवन का सामान्य तरीका के रूप में देख सकते हैं।
- समाज निश्चित उद्देश्यों को रखकर निर्मित होते है, जिसमें पारस्परिक लाभ, मैत्रीपूर्ण व शान्तिपूर्ण जीवन आदर्शों एवं कार्यों की पूर्ति आदि के रूप में देखे जा सकते है।
- समाज में स्थायित्व की भावना होती है क्येांकि सभी सदस्य क पीढ़ियों से उसी समाज के आजीवन सदस्य रहते हैं, इससे समाज बना रहता है।
- समाज क समूहों के संगठन होते है जिनमें अन्योन्याश्रितता होती है।
Super
ReplyDeleteAmazing and thanks sir
ReplyDeleteNice 👌👌
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ReplyDeleteSo nice
ReplyDeletewah wah kamal krdiya sir
ReplyDeleteThanks sir for this notes
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