श्रम कल्याण के सिद्धांत

कोई भी श्रम कल्याण सम्बन्धी योजना अथवा कार्यक्रम तब तक प्रभावपूर्ण रूप से नही बनाया जा सकता जब तक कि समाज के नीति निर्धारक श्रम कल्याण की आवश्यकता को स्वीकार करते हुये इसके सम्बन्ध में उपयुक्त नीति बनाते हुए अपने इरादे की स्पष्ट घोषणा न करें और इसे कार्यान्वित कराने की दृष्टि से राज्य का समुचित संरक्षण प्रदान करने हेतु उपयुक्त इसे वैधानिक स्वरूप प्रदान न करें।

श्रम कल्याण के सिद्धांत

सिद्धान्त शब्द का प्रयोग यहां पर उन सामान्यीकरण को सम्बोधित करने के लिए किया जा रहा है जो श्रम कल्याण के क्षेत्र से सम्बन्धित व्यक्तियों के अनुभवों पर आधारित है। और श्रम कल्याण नीतियों के निर्धारण, योजनाओं के निर्माण, कार्यक्रमों के आयोजन तथा सेवाओं के प्रावधान को अधिक प्रभावपूर्ण बनाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। ये कुछ सिद्धान्त इस प्रकार है :

1. श्रम कल्याण की आवश्यकता की स्वीकृति - कोई भी श्रम कल्याण सम्बन्धी योजना अथवा कार्यक्रम तब तक प्रभावपूर्ण रूप से नही बनाया जा सकता जब तक कि समाज के नीति निर्धारक श्रम कल्याण की आवश्यकता को स्वीकार करते हुये इसके सम्बन्ध में उपयुक्त नीति बनाते हुए अपने इरादे की स्पष्ट घोषणा न करें और इसे कार्यान्वित कराने की दृष्टि से राज्य का समुचित संरक्षण प्रदान करने हेतु उपयुक्त इसे वैधानिक स्वरूप प्रदान न करें। नीति निर्धारकों द्वारा ‘श्रमेव जयते’ को स्वीकार करते हुये श्रम को व्यक्ति एवं समाज के विकास के लिये आवश्यक मानते हुये श्रम कल्याण को सामाजिक नीति का एक अभिन्न अंग स्वीकार करना चाहिये और श्रमिकों की कल्याण सम्बन्धी योजनाओं एवं कार्यक्रमों को राज्य का संरक्षण प्रदान करने हेतु आवश्यक श्रम सम्बन्धी विधान बनने चाहिये।

2. श्रमिक, उनके विचार, उद्योग तथा समाज की अन्योन्याश्रयिता - श्रम कल्याण के महत्व को सही अर्थ में तभी स्वीकार किया जा सकता है जबकि इस बात पर सहमति व्यक्त की जाय कि श्रमिक, उनसे परिवार, उद्योग तथा समाज एक दूसरे पर निर्भर है। और वे एक दूसरे के पूरक के रूप में कार्य करते है।। जिस प्रकार समाज के विघटित होने का प्रतिकूल प्रभाव उद्योग पर, उद्योग के ठीक से न चलने का प्रतिकूल प्रभाव श्रमिक पर और श्रमिक के विघटित होने का प्रतिकूल प्रभाव परिवार पर पड़ता है उसी प्रकार श्रमिक के व्यक्तित्व सम्बन्धी संगठन के उचित न होने तथा उसके द्वारा अपने दायित्वों का निर्वाह न किये जाने पर उद्योग, उनके परिवार और समाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। धनात्मक रूप में एक सुसंगठित समाज उद्योग को, उद्योग श्रमिकों को तथा श्रमिक परिवार को उपयुक्त रूप से चलाने में सहायक सिद्ध होता है तथा एक अच्छे व्यक्तित्व सम्बन्धी संगठन वाला श्रमिक अपने उद्योग, परिवार तथा समाज को अच्छी प्रकार चलाने में अपना योगदान देता है।

3. अनुभूत आवश्यकताओं का सिद्धान्त - कोई भी श्रम कल्याण कार्यक्रम तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि वह श्रमिकों की उन अनुभूत आवश्यकताओं पर आधारित न हो जिनके लिये वास्तव में वह आयोजित किया जाता है। श्रमिकों की वास्तविक आवश्यकताओं को जानने के लिये उनसे सम्पर्क स्थापित करते हुये, विचार-विमर्ष और पर्यवेक्षण का आश्रय लेते हुये उनकी अनुभूत आवश्यकताओं की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। श्रमिकों की अनुभूत आवश्यकताओं के अन्तर्गत उनके परिवार के सदस्यों, विशेष रूप से आश्रित सदस्यों की अनुभूत आवश्यकतायें भी सम्मिलित हैं।

4. अनुभूत आवश्यकताओं में प्राथमिकता का सिद्धान्त - श्रमिकों एवं उनके परिवार के सदस्यों की अनुभूत आवश्यकतायें अनेक प्रकार की होती हैं। इनमें से कुछ अल्पकालीन तथा कुछ दीर्घकालीन होती है।, इनमें से कुछ आर्थिक, कुछ मनोवैज्ञानिक, कुछ सामाजिक होती है, इनमें से कुछ स्वयं श्रमिकों के मत में अन्य की तुलना में अधिक अनिवार्य होती है। चूँकि इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति एक साथ सम्भव नहीं है इसलिये इन आवश्यकताओं में प्राथमिकता स्थापित की जानी चाहिये और उन आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रयास पहले किया जाना चाहिये जिन्हें स्वयं श्रमिक तथा उनके परिवार के सदस्य सापेक्षत: अधिक महत्वपूर्ण समझते हैं।

5. श्रमिकों के लचीले प्रकार्यात्मक संगठन के विकास का सिद्धान्त -  जीवन के किसी भी क्षेत्र में आवश्यकताओं को पूर्ति के लिये कोई-न-कोई योजना एवं कार्यक्रम बनाना ही पड़ता है। अनवरन् रूप से योजनाबद्ध ढंग से कार्यक्रम बनाये जाते रहें और उन्हें सुचारू रूप से आयोजित किया जाता रहे इसके लिये यह आवश्यक है कि श्रमिकों के संगठन का निर्माण किया जाय जिसमें विभिन्न प्रकार के श्रमिकों की अभिरूचियों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग रखे जायें। इन प्रतिनिधियों का चयन यथासम्भव मतैक्य के आधार पर किया जाना चाहिए किन्तु जहाँ मतैक्य सम्भव न हो वहाँ चयन बहुसंख्यक मत के आधार पर किया जाना चाहिए। इस संगठन के अन्तर्गत् श्रमिकों, उद्योग से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित सरकारी विभागों तथा लोकोपकारी एवं स्वयंसेवी संगठनों के प्रतिनिधियों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिये।

6. श्रमिकों के सक्रिय सम्मिलन का सिद्धान्त - श्रमिकों के हितों का संरक्षण एवं सम्बर्द्धन करने के लिये आयोजित किये जाने वाले श्रम कल्याण कार्यक्रमों के साथ श्रमिकों में अपनत्व एवं लगाव की भावना तब तक विकसित नहीं की जा सकती जब तक कि उन्हें इन कार्यक्रमों के आयोजनों में सक्रिय रूप से सम्मिलित न किया जाय। ‘श्रमिकों के लिये’ कार्य करने के बजाय ‘श्रमिकों के साथ’ कार्य करना अधिक उपयुक्त है और इसलिये यह आवश्यक है कि श्रम कल्याण के नीति निर्धारण से लेकर कार्यक्रमों के आयोजन और मूल्यांकन तक के प्रत्येक स्तर पर श्रमिकों को निर्णय लेने एवं उनके द्वारा उपयुक्त समझे गये तरीकों का प्रयोग करते हुये कार्य करने के अवसर सुनिश्चित किये जाने चाहिये।

7. प्रभावपूर्ण कार्यक्रम के निर्माण का सिद्धान्त - प्राथमिकता के आधार पर निश्चित की गयी अनुभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आयोजित किये जाने वाले श्रम कल्याण कार्यक्रमों की रूपरेखा इस प्रकार तैयार की जानी चाहिये कि वे सभी प्रकार के श्रमिकों की व्यक्त एवं सन्निहित, अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन अभिरूचियों की सन्तुष्टि में सहायक सिद्ध हो सके। कुछ कार्यक्रम ऐसे होने चाहिये जिनके परिणाम प्रत्यक्ष रूप से इनके आयोजन के साथ ही साथ दिखाई देने लगें तथा कुछ कार्यक्रम ऐसे होने चाहिये जिनके परिणाम दीर्घकालीन योजना का अनुसरण करते हुये सापेक्षत: अधिक लम्बे समय के उपरान्त परिलक्षित हो सकें।

8. सामुदायिक संसाधनों के अधिकतम सुदपयोग का सिद्धान्त - श्रम कल्याण कार्यक्रमों के लिये संसाधन आवश्यक होते हैं। सामान्यत: ये संसाधन मालिकों द्वारा प्रदान किये जाते है। क्योंकि यह माना जाता ह ै कि श्रमिक द्वारा किये गये काम से होने वाले लाभों का सबसे बड़ा हिस्सा मालिक ही लेता है। ऐसी उत्पादन की व्यवस्था में जिसमें श्रमिकों की सहभागिता को प्रत्येक स्तर पर सुनिश्चित किये जाने का प्रावधान हो तथा जिसमें उद्योग को होने वाले लाभों में श्रमिकों की उत्पादकता पर आधारित लाभांष प्राप्त करने का कानूनी प्रावधान हो, केवल यह स्वीकार करना कि श्रम कल्याण के लिये अपेक्षित साधन जुटाना मालिकों का दायित्व है, उपयुक्त नहीं प्रतीत होता। श्रमिकों को भी विशेष रूप से अपने संगठनों के माध्यम से श्रम कल्याण कार्यक्रमों के लिये संसाधन जुटाना चाहिये। न केवल इतना बल्कि समाज को भी इस दिशा में आगे आना चाहिये क्योंकि श्रमिकों द्वारा किये गये श्रम से उद्योग के माध्यम से किये गये उत्पादन से समाज प्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित होता है। इसीलिये यह आवश्यक है कि श्रम कल्याण के लिये आवश्यक संसाधन जुटाने का दायित्व मालिक, श्रमिक और समाज तीनों द्वारा संयुक्त रूप से निभाया जाय। समुदाय में अनेक लोकोपकारी व्यक्ति एवं संगठन पाये जाते है। जो इस कार्य में सहायता कर सकते है।। इन व्यक्तियों एवं संगठनों की सहायता लेते हुये समुदाय में उपलब्ध संसाधनों का अधिक से अधिक सदुपयोग किया जाना चाहिये।

9. मार्गदर्शन हेतु समुचित विशेषज्ञ सहायता उपलब्धि का सिद्धान्त - श्रमिकों से इस बात की अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे प्राथमिकता के आधार पर निश्चित की गयी विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित कार्यक्रमों के निर्णय के सभी पहलुओं की जानकारी रखते हों। इसी प्रकार श्रम कल्याण के लिये संगठन में सम्मिलित मालिकों, उद्योग से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित सरकार के विभिन्न विभागों के प्रतिनिधियों तथा लोकोपकारी एवं स्वयंसेवी संगठनों के प्रतिनिधियों से भी इस बात की आशा नहीं की जा सकती कि वे आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये बनाये जाने वाले कार्यक्रमों के सभी पहलुओं के बारे जानकारी रखते हों। चूँकि कुछ विशिष्ट प्रकार के कार्यक्रमों के निर्माण में कुछ ऐसे पहलू होते हैं जिनमें तकनीकी ज्ञान एवं निपुणताओं की आवश्यकता होती है इसलिये समय-समय पर विभिन्न विशेषज्ञों को आमंत्रित करके उनसे आवश्यक परामर्श लेते हुए कार्यक्रमों का निर्माण किया जाना चाहिये, किन्तु कार्यक्रम निर्माण से लेकर इसके कार्यान्वयन तक के प्रत्येक स्तर पर एक प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ता की सेवायें ली जानी चाहिये क्योंकि श्रम कल्याण सम्बन्धी कार्यक्रम मानव संसाधनों के विकास से सम्बन्धित है। तथा इनका आयोजन साहै ार्दपूर्ण तथा अर्थपूर्ण मानवीय सम्बन्धों का आश्रय लेते हुए किया जाता है। सामाजिक कार्यकर्ता की उपस्थिति इस बात को सुनिश्चित करेगी कि कार्यक्रम सोद्देश्यपूर्ण बनेगे तथा इनके कार्यान्वयन के दौरान उत्पन्न होने वाली अन्त:क्रिया को आवश्यक मार्गदर्शन प्राप्त हो सकेगा।

10. सतत् मूल्यांकन एवं संशोधन का सिद्धान्त - श्रम कल्याण कार्यक्रमों का अनवरत् मूल्यांकन होते रहना चाहिये ताकि इनकी प्रगति, इनके कार्यान्वयन के दौरान आने वाली विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों तथा अपेक्षित संशोधनों की जानकारी प्राप्त हो सके और इनके आधार पर श्रम कल्याण से सम्बन्धित प्रत्येक स्तर के सभी पहलुओं में आवश्यक संशोधन किये जा सकें।

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