यूरोप में धर्म सुधार आंदोलन के कारण

महात्मा ईसा द्वारा संस्थापित ईसाई धर्म के विभाजन की कहानी बहुत पुरानी है। उनकी मृत्यु के तीन-चार सौ वर्षों के बाद ही ईसाई धर्म दो शाखाओं-रोमन कैथोलिक चर्च और ग्रीक ओर्थोडक्स चर्च में विभाजित हो गया था। यूरोप में रूस तथा बाल्कन क्षेत्र के अलावा अन्य सभी राज्यों में रोमन कैथोलिक चर्च का वर्चस्व कायम रहा। उसका यह वर्चस्व सोलहवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों तक बना और जैसा कि बतलाया जा चुका है कि इस युग में पोप तथा धर्माधिकारी लोग अपने विरुद्ध उठने वाली आवाजों को शान्त करने में सफल रहे थे। परन्तु सोलहवीं सदी में जब चर्च की कुछ धार्मिक बातों एवं विचारों के विरुद्ध जबरदस्त विद्रोह उठ खड़ा हुआ तो चर्च उसे न तो दबाने में सफल रहा और न ही विद्रोहियों की माँग पूरी कर पाया। दूसरी तरफ विद्रोहियों (धर्मसुधारकों) ने भी अपने सिद्धन्तों एवं विचारों को छोड़ना उचित नहीं समझा और विरोधस्वरूप रोमन चर्च को छोड़कर अपने निजी चर्च की स्थापना करना उचित समझा। इस प्रकार कैथोलिक चर्च का विभाजन हो गया। 

आन्दोलनकारियों ने कैथोलिक चर्च का प्रोटेस्ट (विरोध) किया था, अतः उनके द्वारा नवस्थापित धर्म ‘प्रोटेस्टैन्ट धर्म’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस आन्दोलन का प्रारम्भिक ध्येय कैथोलिक चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचार और आडम्बरपूर्ण कर्मकाण्डों को दूर करके धर्म में सुधार करना था। परन्तु समय के साथ-साथ इसका प्रारम्भिक ध्येय बदल गया और सुधार के स्थान पर एक नये धर्म की स्थापना हुई और यूरोपीय इतिहास में यह घटना ‘धर्म सुधार आन्दोलन’ के नाम से विख्यात हुई।

1517 ई. से 1648 ई. तक का युग धर्म सम्बन्धी सुधारों का युग था। चर्च और पोप के भ्रष्ट तंत्र के विरूद्ध जो आंदोलन हुआ वह धर्म सुधार आंदोलन था। इस आंदोलन के दो लक्ष्य थे-
  1. ईसाइयों में धार्मिक, नैतिक और आध्यात्मिक जीवन को पुन: उन्नत और श्रेष्ठ करना और 
  2. रोम के पोप और उसके अधीनस्थ अन्य धर्माधिकारियों के धर्म संबंधी अनेक व्यापक अधिकारों को कम करना। 
मध्य युग में पूर्ण यूरोपीय समाज धर्मकेन्द्रित, धर्मप्रेरित और धर्म नियंत्रित था और पोप, धार्मिक जीवन का नियंता ही नहीं था, अपितु राजनीतिक क्षेत्र में भी सर्वोपरि था। धर्म सुधार आंदोलन ऐसे सामाजिक और धार्मिक जीवन के विरूद्ध एक असाधारण प्रक्रिया थी, परंतु राज्य और व्यक्ति के जीवन को इस आंदोलन ने सर्वाधिक प्रभावित किया। इस आंदोलन के दो स्वरूप थे-एक धार्मिक और दूसरा राजनीतिक। 

इस आंदोलन से ईसाइयों में जो धार्मिकता, नैतिकता और आध्यात्मिकता की वृद्धि हुई, उस दृष्टि से यह धर्म सुधार आंदोलन था। इसके अतिरिक्त जब पोप के अनेक अधिकारों के उन्मूलन के विरूद्ध आंदोलन किया गया और इससे राष्ट्रीय राजतंत्र और पोप में जो परस्पर संघर्ष छिड़ा उस दृष्टि से यह राजनीतिक आंदोलन था।

यूरोप में धर्म सुधार आंदोलन के कारण

1. धर्म सुधार आंदोलन के राजनीतिक कारण

चर्च और पोप के पास व्यापक राजनीतिक ओर आर्थिक अधिकार और शक्तियाँ थीं। पोप से लेकर गाँव के पादरी तक चर्च के सभी अधिकारी राजा की सत्ता से स्वतंत्र थे। उनके पास विशाल जागीरें थी, वे राज्य के करों से मुक्त थे, पर जनता से विभिन्न प्रकार के कर वसूल करते थे, चर्च के स्वतंत्र न्यायालय भी थे जहाँ वे जनता के मुकदमों को सुनते और निर्णय देते थे। पोप राज्य के आंतरिक और बाहरी मामलों में हस्तक्षेप करता था। वह राजा को ईसाई धर्म से बहिष्कृत करने, राज्य में चर्च के पादरियों और अधिकारियों को नियुक्ति करने का आदेश भी दे सकता था। उदीयमान राष्ट्रीय राजाओं ने चर्च और पोप के इन व्यापक धामिर्क ओर राजनीतिक अधिकारों का घोर विरोध किया क्योंकि ये विस्तृत अधिकार राष्ट्रीय राजतंत्रों के अधिकारों की अभिवृद्धि में बाधक थे। नवीन शासकगण इन अवांछनीय अधिकारों को समाप्त कर अपनी प्रभु-सत्ता और शक्ति को सुदृढ़ करना चाहते थे।

राष्ट्रीय जागृति से राजाओं को जन समर्थन प्राप्त हो गया था। राष्ट्रीय भावना से जन साधारण में यह भावना जागृत हो गयी कि पोप एक विदेशी सत्ता है। अपने देश के प्रति देशभक्त रहकर उसकी उन्नति को महत्वपूर्ण समझना और पोप के प्रभाव व अधिकारों को समाप्त करना प्रत्येक देश अपना कर्तव्य मानने लगा। इसीलिए राजागण अपनी निरंकुश राजसत्ता को अधिकार दृढ़ करने के लिए अपने राज्य में फैली चर्च की अतुल धन सम्पित्त व जागीरों को ही हड़पना चाहते थे। वे गिरजाघरों की अतुल सम्पित्त और आर्थिक स्रोतों पर अधिकार करने के लिए लालायित थे। एसेी दशा में राष्ट्रीय राजाओं ने धर्म सुधार आंदोलन का समर्थन किया।

2. धर्म सुधार आंदोलन के आर्थिक कारण

मध्ययुगीन यूरोप में सामंत वादी व्यवस्था में कृषक दास थे और उद्यागेां में श्रेणी व्यवस्था से श्रमिक और शिल्पी को व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं थी। परंतु सोलहवीं सदी में विभिन्न कारणों से यह सामंतवादी व्यवस्था विघटित हो गयी और व्यापार, वाणिज्य ओर उद्यागेां के विकास होने से कृषक, कारीगर ओर मजदूर विभिन्न उद्योग धंधों एवं कल कारखानों में लग गये। वाणिज्यवाद और पूँजीवाद का उत्कर्ष हुआ। इससे समाज में धन सम्पन्न वणिक वर्ग और उद्योगपतियों का वर्ग बन गया। चर्च इसके ब्याज और मुनाफ़ा अर्जित करने के साधनों को वर्जित करता था। अत: इस नवीन पूँजीवादी वणिक वर्ग ने चर्च का विरोध किया, वे चर्च की अतुल सम्पित्त को भी अपने व्यापार और उद्योगों की वृद्धि के लिए हड़पना चाहते थे, क्योंकि वे चर्च की धन सम्पित्त को अनुत्पादक मानते थे, इसलिए उन्होंने धर्म सुधार आंदोलन को हवा दी।

चर्च की असंख्य भू स्वामित्व जागीरों से, विभिन्न करों, चन्दो एवं अनुदानों से चर्च के पास अतुलनीय धन सम्पित्त संग्रहीत हो गयी थी। इसका उपयोग चर्च के पादरी और अधिकारी सांसारिकता और भोगविलास में करते थे। इससे जनसाधारण में रोश व्याप्त हो गया और उन्होंने राष्ट्रीय हित में इसे हड़पना चाहा। अत: उन्होंने धर्म सुधार आंदोलन को समर्थन और सहयोग दिया।

3. धर्म सुधार आंदोलन के धार्मिक कारण

आधुनिक युग के प्रारंभ होने तक चर्च और पोपशाही में अनेक दोष उत्पन्न हो गये थे। चर्च के बहुसंख्यक पादरी ओर धर्माधिकारी अपने धार्मिक कर्तव्यों की अपेक्षा करते थे। वे पोप की भाँति आचरण-भ्रष्टत व अनैतिक थे तथा सांसारिक सुख-सुविधाओं और वैभव विलासिता में मग्न रहते थे। वे राजनीति, प्रदशर्न, शानशौकत और भौतिकवादी प्रवृित्तयों में डूबे हुए थे। चर्च का स्वरूप मुख्यतया व्यावसायिक हो गया था। चर्च के विभिन्न पदों पर नियुक्तियाँ योग्यता के आधार पर नहीं होकर, अनुशसंओ, प्रभावों और धन के प्रलोभन के आधार पर होती थी। पोप गिरजाघरों के विभिन्न पदों को बेचता था। चर्च में एक दोष “प्लुरेलिटिज” प्रथा थी। इनके अंतर्गत एक ही पादरी अनेक गिरजाघरों का अध्यक्ष हो सकता था और अनेक पदों पर कार्य कर सकता था। इससे एक ही व्यक्ति की सत्ता और सम्पन्नता में खूब वृद्धि होती थी।

चर्च में व्याप्त इस अनैतिकता और विलासिता के अतिरिक्त चर्च जनसाधारण का शोषण भी करता था। चर्च द्वारा विभिन्न करो, उपहारों और दानों से धन एकत्र किया जाता था। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आय का दसवाँ भाग अनिवार्य रूप से चर्च को देना पड़ता था। इसके अतिरिक्त भंटे , उपहार और चढ़ावा भी चर्च को देना पड़ता था। पोप भी अन्य प्रकार के कर लगाकर जनता का शोषण करता था। इस आर्थिक शोषण से तो जनसाधारण में आक्रोश था ही, पर करों द्वारा एकत्रित धन देश के बाहर पोप के पास रोम भेजा जाता था। इससे लोग चर्च के विरोधी हो गये। राष्ट्रीय चेतना के कारण नवीन शासक वर्ग चर्च द्वारा इस प्रकार वसूल किये और रोम भेजे गये धन को अपने राज्य की आय की चोरी समझता था। इस धन को शासक लोकहित में और राजतंत्र को दृढ़ करने में हाथियाना चाहते थे। पोपशाही में भी अनेक दोष और दुर्बलताएँ उत्पन्न हो गयी थीं। 

रोम में पोप का दरबार भयंकर व्यभिचार और भ्रष्टाचार का घर बन गया था। पोप और उसके सहयोगी धर्माधिकारी भव्य राजप्रसादों में वैभव और विलासिता से रहते थे। उसका व्यक्तिगत जीवन अनैतिकता और अनाचार से भरापूरा होता था। पोप एलेक्जेडंर शश्ट (1492-1503) तो विलासिता के लिए एक पूरा हरम रखता था तथा व्यभिचार से उत्पन्न अपने अवैध पुत्रों के लिए जागीरें खोज करता था।

पोप अपने आपको ईशवर का प्रतिनिधि मानता था और उसने अधिकतम धन संग्रह करने के लिए “क्षमापत्रों” या “पापमाचे न-पत्रो” को अपने पादरियों द्वारा जनता में बेचना शुरू किया। कोई भी व्यक्ति अपने पापों से मुक्त होने के लिए धन देकर क्षमा पत्र प्राप्त कर सकता था। इस क्षमा पत्र पर कुछ भी नहीं लिखा रहता था। पोप ने यह प्रचार किया था कि जो व्यक्ति मृत्यु के पूर्व पाप-मोचन पत्र खरीद लेगा, वह मृत्यु के बाद स्वर्ग प्राप्त करेगा। इन सबका सामूहिक परिणाम धर्म सुधार आंदोलन था।

4. धर्म सुधार आंदोलन के तात्कालिक कारण

पाप मोचन पत्रों की बिक्री के समय जर्मनी में जो विस्फोट क घटना घटी उससे धर्म सुधार आंदोलन का सूत्रपात हो गया। जब 1817 ई. में पोप का एजेटं टेटजेल जर्मनी में पाप मोचन पत्रों को विटनवर्ग में खुले आम बेच रहा था तब मार्टिन लूथर ने इसका कड़ा विरोध किया और अपने लिखित “95 प्रसंगों” द्वारा पोप को चुनौती दी और इस प्रकार पोप के विरूद्ध खुला विद्रोह कर दिया। 

लूथर का कथन था कि धन देकर मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता, अपितु पापों से मुक्ति पाने के लिए ईशवर पर विशवास रखना और ईशवर की असीम दया प्राप्त तथा अच्छे कर्म करना आवश्यक है। उसने ईशवर के प्रति श्रद्धा और विशवास तथा स्वयं की प्रायश्चित की भावना द्वारा दोष मुक्ति का सिद्धांत प्रतिपादित किया। इसके लिए उसने पाप मोचन पत्र की आवश्यकता निरर्थक बतलायी और इस प्रकार धर्मसुधार आंदोलन का प्रारंभ हो गया।

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