अधिकतर समाजों में व्यक्ति एक-दूसरे को विभिन्न वर्गों में वर्गीकृत करते हैं तथा इन वर्गों को उच्च से निम्न तक की विभिन्न श्रेणी में रखते हैं। इस प्रकार के वर्गीकरण की प्रक्रिया को सामाजिक स्तरीकरण कहा जाता हैं।
दूसरे शब्दों में सामाजिक स्तरीकरण समाज को विभिन्न वर्गों में विभाजित करने और उसी के अनुसार सामाजिक संरचना में उनकी स्थिति व भूमिका को निर्धारित की एक सामाजिक व्यवस्था है। अतः सामाजिक स्तरीकरण में उच्चतम से निम्नतम सामाजिक स्थिति वाले समूह के सदस्यों को जितने अधिकार व सुविधाएं प्राप्त होती हैं, उतनी ही सुविधाएं या अधिकार निम्नतम स्थिति वाले समूह के सदस्यों को उपलब्ध नहीं होती है। इस अर्थ में सामाजिक स्तरीकरण अनेक सामाजिक समूहों में न सिर्फ सामाजिक स्थिति या पद को बल्कि सामाजिक अधिकार, शक्ति सत्ता या निर्योग्यताओं को भी बांटने की एक सामाजिक व्यवस्था है।
सामाजिक स्तरीकरण के आधार
सामाजिक स्तरीकरण निम्न प्रमुख आधार है1) जाति - भारतीय समाज में सामाजिक स्तरीकरण का स्थायी स्वरूप प्रमुख रूप से जाति व्यवस्था पर आधारित होता है। भारत में प्राचीनकाल से वर्ण व्यवस्था रही है। हिन्दू धर्म में चार मुख्य वर्ण माने गए हैं - ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और शुद्र। इसमें जन्म पर आधारित सामाजिक विभाजन की नीति को विशेष महत्व दिया जाता है। इस प्रकार जाति की उत्पत्ति को जन्म शब्द से ही मानना उचित जान पड़ता है। जाति व्यवस्था से व्यक्ति को जन्म से ही एक सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है। इसमें आजीवन कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। इसमें जातियों को एक दूसरे से अलग करने के लिए खान-पान, विवाह और धार्मिक रीति-रिवाजों के क्षेत्र में कुछ नियंत्रण होते हैं। इस स्थिति में एक जाति दूसरी जाति से कुछ सामाजिक दूरी बनाये रखती है। कुछ जातियां उच्च होती है और कुछ निम्न। इसलिए यहां एक सामाजिक स्तरीकरण देखने को मिलता है।
2) वर्ग - वर्ग के आधार पर भी सामाजिक स्तरीकरण पाया जाता है। इस व्यवस्था में सभी सामाजिक वर्गों की स्थिति समान नहीं होती। सभी वर्ग कुछ श्रेणियों में विभक्त होते हैं, जिनमें कुछ का स्थान उच्च और कुछ का निम्न होता है। उच्च वर्ग के सदस्यों की संख्या कम होने पर उन्हें अधिक प्रतिष्ठा और अधिकार मिले होते हैं। सामाजिक वर्गों की तुलना पिरामिड से की जा सकती है। वर्ग चार होते हैं। उच्च, उच्च मध्यम, निम्न मध्यम व निम्न वर्ग। इनमें से प्रत्येक वर्ग अन्य और उप-वर्गों में विभक्त हो जाता है व इन वर्गों में सभी व्यक्ति समान आर्थिक स्थिति के नहीं होते। प्रत्येक वर्ग के लोग एक विशेष ढंग से जीवनयापन करते हैं। उदाहरण के लिए धनवान वर्ग अपव्यय, श्रेष्ठता को व उच्च मध्यम वर्ग आडम्बर व प्रदर्षनवाद को विशेष महत्व देता है।
बेबर के अनुसार वर्तमान युग में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति को निर्धारित करने वाला आधार उसकी आर्थिक स्थिति ही है।
3) धर्म - धर्म के आधार पर भी समाज में स्तरीकरण है। भारत में विभिन्न धर्म हैं और हर धर्म की अपनी विशेष संस्कृति है। इनका खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज भी सब एक दूसरे से अलग है। एक धर्म का आवरण जन्म से ही स्थायी माना जाता है। कोई व्यक्ति सरलता से व अपनी सुविधा से धर्म नहीं बदल सकता। अपितु कुछ धर्म अपने धर्म की व्यापकता के लिए धर्म परिवर्तन के लिए कुछ नियमों पर यह सुविधा देते हैं। लेकिन समाज में इसकी स्वीकृति कम ही होती है। बहुसंख्यक व अल्पसंख्यक के आधार पर भी सामाजिक स्तरीकरण का आधार प्रदान करता है।
4) लिंग - भारतीय समाज में लिंग भी सामाजिक स्तरीकरण का प्रमुख आधार है। भारतीय समाज पुरूष प्रधान समाज रहा है। अतः पुरुषों का स्थान महिलाओं से ऊपर माना जाता है। महिलाओं की स्थिति सामान्य रूप से पुरूषों से निम्न ही पायी जाती है। महिलाओं पर अधिक नियंत्रण है, सामाजिक नियम-निर्देश महिलाओं के लिए सख्त होते हैं, जिसका महिलाओं को कड़ाई से पालन करना होता है। केवल भारत के पूर्वोत्तर राज्य में मातृसत्तात्मक समाज व्यवस्था है। इसलिए वहां महिलाओं की सामाजिक स्थिति सम्मानीय है। बाकी भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति चिंतनीय है।
सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताएँ
- स्तरीकरण की प्रकृति सामाजिक है।
- स्तरीकरण काफी पुराना है।
- प्रत्येक समाज में स्तरीकरण पाया जाता है।
- स्तरीकरण के विभिन्न स्वरूप आयु, जाति, एवं वर्ग हैं।
- स्तरीकरण से जीवन शैली में भिन्नता आ जाती है।
1. जाति के आधार स्तरीकरण
- जाति व्यवस्था में स्तरीकरण में ब्राह्मण सबसे ऊंचे स्तर पर है, तथा शूद्र सबसे निचले स्तर पर ।
- जाति संरचना में प्रत्येक जाति का संरचना ऊंच नीच के आधार पर बना हुआ है।
- जो व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है। समाज में उसे उसी जाति का संस्तरण प्राप्त होता है।
2. वर्ग के आधार पर स्तरीकरण
- वर्ग के आधार पर स्तरीकरण जन्म पर आधारित न होकर, कार्य, योग्यता एवं कुशलता, शिक्षा आदि पर आधारित है।
- वर्ग के द्वारा सबके लिए खुले हैं।
- व्यक्ति अपने वर्ग को बदल सकता है, तथा प्रयास करने पर सामाजिक स्तरीकरण में ऊंचा स्थान प्राप्त कर सकता है।
1. सार्वभौमिकता-सामाजिक स्तरीकरण किसी न किसी रूप में विश्व के प्रत्येक समाज में
पाया जाता है। वर्गविहीन समाज का दावा करने वाले पूर्व साभ्यवादी देशों में भी यह
पाया जाता है। प्रतिष्ठा, धन, दौलत तथा सत्ता के आधार पर हर समाज में व्यक्तियों
की विभिन्न परिस्थितियाॅ होती हैं, और इन्हीं के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण का
निर्माण होता है।
2. आपसी संबद्धता-इसके तहत समाज के विभिन्न स्थायी समूह व श्रेणियाँ उच्चता एवं
अधीनता के संबंधों द्वारा आपस में जुड़ी रहती हैं। दसू रे शब्दांे में विभिन्न स्तर एक
दूसरे से पृथक न होकर परस्पर संबद्ध होते हैं।
3. समाज का विभिन्न स्तरों में विभाजन-यहाँ पर समाज को विभिन्न स्तरों में
अलग-अलग कर दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर हिन्दू समाज का चार वर्णो
(ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) अथवा अलग-अलग जातियों में विभाजन या पश्चिमी देशों
का पूंजीपति एवं सर्वहारा वर्ग में विभाजन सामाजिक स्तरीकरण के ही उदाहरण हैं।
4. स्थायित्व-इसके अंतर्गत किया गया स्तरीकरण स्थायी होता है। जब तक स्तरीकरण
इकाईयों में स्थिरता न आ जाए, तब तक उसे स्तरीकरण की संज्ञा नही दी जा
सकती।
5. उच्चता एवं निम्नता की भावना-हमेशा समाज उच्च व निम्न सामाजिक इकाईयों में
विभाजित होता है। यह उच्चयता एवं निम्नता कही-कही स्पष्ट एवं कही कही अस्पष्ट
भी हो सकती है। वास्तव में समाज में पाई जाने वाली ऊचं -नीच की व्यवस्था का
दूसरा नाम ही सामाजिक स्तरीकरण है।
6. सामाजिक स्तरीकरण या विषमताः-प्राचीनकाल में काली माक्र्स के अनुसार आज तक
के समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है, हरेक समाज में दो वर्ग हमेशा
से ही रहे हैं। यह वर्तमान सभ्यता की देन नहीं है। प्रत्येक काल में किसी न किसी
रूप में मौजूद रहा है।
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