गुरु गोविंद सिंह जी का इतिहास

गुरु तेग बहादुर की शहादत के बाद दसवें गुरु के रूप में उनके पुत्र गुरु गोविंद सिंह जी नौ वर्ष की अल्पायु में ही गुरु-गद्दी पर आसीन हो गए । गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म सन् 1666 में हुआ था । उन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक लड़ाइयाँ लड़ीं । वे चारों ओर न्याय की स्थापना करना चाहते थे । पाप और दुष्कर्मों का नाश तथा सत्य की विजय ही उनका लक्ष्य रहा । अत्याचार को वे धरती से जड़ सहित उखाड़ना चाहते थे और भलाई की स्थापना करना चाहते थे । अपने पिता गुरु तेग दु की हत्या से विचलित गुरु गोविंद जी को यह विश्वास हो गया कि जब सभी उपाय नाकाम हो जाएँ तो तलवार उठाना ही होगा । अपने भीतर की विवेक ज्योत को जगाकर कायरता की गंदगी को साफ करना ही होगा । औरंगजेब के शासन-काल में मुगल सत्ता के अंध प्रदर्शन से समस्त भारत की जनता त्रस्त हो उठी थी । अपने संकल्प को व्यावहारिक रूप देने के लिए गुरुजी ने घोषणा की कि उनके जिन शिष्यों के चार पुत्र हों, उनमें से दो पुत्र वे सिख पंथ की सेवा के लिये गुरु जी की सेना में भर्ती करवा दें ।

सन् 1699 ई. में उन्होंने आनंदपुर में अपने सिखों की सभा बुलाई । खालसा पंथ की नींव डाली गई । खालसा शब्द का अर्थ है - पवित्र, शुद्ध । इस पंथ के लिए देश के विभिन्न हिस्सों से और हिंदुओं की अलग अलग जातियों से ‘पंज-पियारे' का चुनाव किया गया था । इनमें थे - दिल्ली का जाट धर्मचंद, द्वारिका का धोबी माहमचंद, जगन्नाथपुरी का कहर महात्तम राय, बीदर का नाई सहर्षचंद और पंजाब का एक खत्री । इन्हें एक ही कटोरे से अमृत चखाकर और सिंह प्रत्यय लगाकर नया नाम दिया गया । उस समय अन्य बीस-पच्चीस हजार शिष्यों ने भी अमृत पान किया, जिससे छोटी और ऊँची जाति का भेद समाप्त हो गया और सभी भ्रातृभाव में बँध गए । गुरु गोविंद सिंह जी ने स्वंय भी अमृत चखा और पाँच ककारों को जीवनपर्यंत निभाने की शपथ ली । वे पाँच ककार हैं - ।

केश - शरीर के किसी भी हिस्से से केश काटना वर्जित था । क्योंकि केश आध्यात्मिकता का प्रतीक है और भगवान की इच्छा के प्रति आत्मसमर्पण की ओर सूचित करता है ।

कंघा - यह स्वच्छता का प्रतीक है । जिस प्रकार कंघा करने से हम टूटे बालों को बाहर ले आते हैं उसी प्रकार हमें अपने मन से बुरे विचारों को कंघा कर बाहर निकाल देना चाहिए ।

कड़ा - जब भी कोई गलत काम करने के लिए अपने हाथ उठाए तो यह चेतावनी देकर उसे रोकने का काम करता है ।

कच्छा - यह उच्च नैतिक चरित्र का प्रतीक है ।

कृपाण - यह असहायों की रक्षा और सच्चाई को बनाए रखने के लिए काम आता है ।

इसके अतिरिक्त सिखों के लिए जो बातें निषेध थीं, वे हैं-' • तम्बाकू, बीड़ी, शराब आदि का सेवन, मुस्लिम रीति से हलाल करके कटे हुए मांस का सेवन और मुस्लिम औरतों के साथ शारीरिक संबंध । इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि मुगलों से युद्ध के दौरान उनकी औरतों के साथ किसी प्रकार का दुर्व्यवहार न किया जाए । इस पंथ की उद्घोषणा थी ‘वाहेगुरु जी दा खालसा ते वाहेगुरु जी दी फतेह' । अर्थात यह खालसा भगवान का है और इस खालसे की प्रत्येक जीत भगवान की जीत है । 

गुरु गोविंद सिंह जी ने सिख धर्म को इसका अंतिम रूप प्रदान किया । उन्होंने गुरु की परम्परा को समाप्त कर दिया तथा धर्मग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहिब' को दसों गुरुओं का प्रतिनिधि मानने की घोषणा की । वे जीवन पर्यंत औरंगजेब से लड़ते रहे । उनके दो `पुत्र लड़ते हु वीरगति को प्राप्त हुए और दो पुत्रों को फाँसी लगा दी गई । गुरु गोविंद सिंह को पंजाब छोड़कर नाँदेड़ जाना पड़ा । नाँदेड़ में डेरा डालने के दौरान उनके ही एक मुसलमान अंगरक्षक ने उनका कत्ल कर दिया ।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने ‘जागो फिर एक बार' कविता में गुरु गोविंद सिंह की वीरता का वर्णन करते हुए लिखा है, “सवा-सवा लाख पर एक को चढाऊँगा, गोविंद सिंह निज नाम जब कहाऊँगा” ।"

ऐसा नहीं है कि गुरु गोविंद द्वारा लाए गए परिवर्तनों से सभी लोग खुश और संतुष्ट थे । कई लोग ऐसे भी थे जो उनसे सहमत नहीं थे और नए धर्म को उन्होंने गंभीरता से नहीं लिया । ऐसे लोग ‘सहजधारी’ सिख कहलाने लगे । परंतु चाहे वे ‘सहजधारी' सिख हों या 'खालसा’ सिख, मूलतः वे हिंदुओं से ही धर्म परिवर्तन करके बने थे । उनके बीच अगर कोई विभाजन रेखा थी तो वह थी - पाँच ककार । 'सिख' शब्द संस्कृत के 'शिष्य' से बना है । सिख अपने दस गुरुओं के शिष्य रहे हैं । गुरु गोविंद सिंह जी के बाद उनके शिष्य बंदा सिंह दु ने मुगलों के खिलाफ सिखों के एक दल का नेतृत्व किया और पंजाब के कुछ हिस्सों को उनके चंगुल से मुक्त करवाया । 1716 ई. में बंदा सिंह मुगलों के हाथों पराजित हुए और उन्हें प्राणदंड दे दिया गया । इसके परिणामस्वरूप सिखों, मुगलों तथा अफगानों के बीच कत्लेआम मच गया । कोई ठोस नेतृत्व न होने के कारण सिख कई मिसलों में बंट गये । आक्रमणकारियों ने न सिर्फ गुरुद्वारों को नुकसान पहुँचाया, बल्कि सैंकड़ों की संख्या में सिखों का भी कत्ल किया । इसका बदला लेने के लिए सिखों ने मस्जिदों में सुअर काटकर फेंका और उनके खजाने को भी लूट लिया । अंततः सिखों की विजय हुई और महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब के शासन की बागडोर संभाली ।

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