मृदा संरक्षण के उपाय क्या है ?

मृदा संरक्षण के उपाय

भूमि की ऊपरी उपजाऊ परत मृदा कहलाती है। यह एक तरह की प्राकृतिक संसाधन है। यह विभिन्न प्रकार के प्राणियों का जीवन आधार है। इसकी रचना का आधार ठोस चट्टानें हैं जिन पर भौतिक तथा रासायनिक क्रियाओं से मृदा का निर्माण होता है। भारत का सतही क्षेत्रफल 329 मिलीयन हेक्टेयर है जिसमें 266 हेक्टेयर भूमि का उत्पादन हेतु उपयोग किया जाता है शेष भूमि या तो बंजर है अथवा उसका उपयोग अन्य कार्यों हेतु किया जाता है। 

इसमें से भी अधिकांश भूमि क्षरण की समस्या से ग्रस्त है। मृदा-क्षरण कई कारणों से होता है जैसे-भूमि का ढाल, वर्षा की तीव्रता, वायु वेग, हिमानी प्रवाह, वनों का उन्मूलन, पशुचारण तथा कृषि में रासायनिक खादों तथा कीटनाशक दवाओं का प्रयोग करने से भूमिरक्षण होता है। इससे मिट्टी की उत्पादन क्षमता घटती जाती है।

मृदा के संरक्षण में वे सब विधियाँ आती हैं जिनके द्वारा मृदा अपरदन रोका जाता है। यदि मृदा बह गई है या उड़ गई है तो उसे पुन: स्थापित करना आसान नहीं है। इसलिये मृदा संरक्षण में सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह है कि मृदा अपने ही स्थान पर सुरक्षित बनी रहे। इसके लिये विभिन्न प्रदेशों में कृषि पद्धतियों में सुधार किये गये हैं। पहाड़ी ढलानों पर समोच्चरेखीय जुताई और सीढ़ीदार खेती की जाती है। 

मृदा संरक्षण की ये बड़ी आसान विधियाँ हैं। वृक्षों की कतार या रक्षक-मेखला बनाकर मरुस्थलीय प्रदेशों में पवन-अपरदन से खेतों की रक्षा की जाती है। हिमालय के ढ़लानों और अपवाह क्षेत्र, झारखण्ड में ऊपरी दामोदर घाटी और दक्षिण में नीलगिरि की पहाड़ियों पर वनरोपण किया गया है। इसके द्वारा धरातलीय जल के तेज बहाव को कम किया गया है जिससे मृदा अपने ही स्थान पर बंधी रहती है। खड्ड अपने विशाल आकार, गहराई और खड़े ढलानों के लिये जाने जाते हैं। 

भारत में पाई जाने वाली मृदा

  1. भारत में पाई जाने वाली छ: मुख्य प्रकार की मृदाएँ है : जलोढ़, काली, लाल, लैटराइट, मरुस्थलीय एवं पर्वतीय। 
  2. मृदा अपरदन को भौतिक एवं सामाजिक कारक निर्धारित करते हैं। भौतिक कारक हैं : वर्षा की अपरदनकारी शक्ति, मृदा की अपनी कटाव क्षमता, आवर्ती बाढ़ों की तीव्रता और ढ़लान की लम्बाई एवं तीव्रता; सामाजिक कारक है : वनों की कटाई, अतिचराई, भूमि उपयोग की प्रकृति और खेती करने की विधियाँ। 
  3. मृदा अपरदन के प्रमुख रूप है : खड्ड, अवनालिकायें, भूस्खलन एवं परत-अपरदन। 
  4. मृदा संरक्षण की विधियाँ हैं : समोच्चरेखीय जुताई और सीढ़ीदार खेती, वृक्षों की कतार या रक्षक-मेखला बनाना, वनरोपण, अतिचराई को रोकना एवं खादों और उर्वरकों का प्रयोग। 

मृदा संरक्षण के उपाय 

मृदा संरक्षण के उपाय, mrida sanrakshan ke upay, मृदा संरक्षण के उपायों का वर्णन, मृदा संरक्षण को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं-
  1. मृदा संरक्षण के लिए आवश्यक है कि कीटनाषक रसायनों तथा रासायनिक खादों का उपयोग कम
  2. से कम किया जाये।
  3. अधिक से अधिक वृक्ष लगाये जायें क्योंकि वृक्ष-मृदा के बहाव को रोकते हैं तथा मिट्टी में पानी रोकने की क्षमता विकसित करते हैं।
  4. पर्वतीय ढलानों पर मिट्टी को बहने से रोकने के लिए कन्टूर पद्धति का उपयोग किया जाये।
  5. फसल चक्रीकरण विधि अपनायी जाये।
  6. वृक्षों की पत्तियों, झाड़ियों तथा घासों की भूमि पर डालना, जिससे वर्षा की बौछार का प्रभाव मिट्टी
  7. में सीधे न हो।
  8. ढलान वाले क्षेत्रों में घासें तथा पेड़ लगाना।
  9. कार्बनिक खादों का अधिक उपयोग किया जाये।
  10. कृशि भूमि को प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों से दूर रखा जाये।
  11. दाल वाली फसलों का उगाना, इससे मृदा की उर्वरता में वृद्धि होती है।
  12. मिश्रित खेती करना, पट्टीदार खेती करना।
  13. मिट्टी में जल की मात्रा को आवश्यकतानुसार बनाये रखना।
  14. खेत के चारों ओर पेड़ लगाना।
  15. रक्षक मेखला- इसके अन्तर्गत खेतों के किनारे पवन दिषा में पंक्तिबद्ध पेड़ लगाये जाते है। इससे
  16. वायु वेग का प्रभाव मिट्टी पर कम होता है।
  17. मृदा को समतल बनाकर पानी के वेग को कम करना।
  18. ढलान के प्रतिकूल जुताई करना।
  19. सम्भावित कटाव वाले क्षेत्र के आस-पास सघन झाड़ियाँ एवं घास की रोपाई करना।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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